भारत में नास्तिक या आस्तिक मनीषिया के पास सर्वोच्च प्रमाण वेद ही है - स्वीकारात्मक या नकारात्मक रूप से । चार्वाक जैसे नास्तिक कहे जाने वाले भी या तो वेद के सम्बन्ध में भ्रमित कर दिए गए हैं या वेद विरोध करके अपनी आजीविका चलाना उनकी विवशता रही है । लेकिन इन नास्तिक कहे जाने वालों की सोच के केन्द्र में सदैव से वेद एवं ईश्वर ज्ञान या स्वयं ईश्वर ही रहे हैं । ईश्वर एवं वेद को एक तरफ रखकर घारे चार्वाकीवाद के नास्तिक एवं जैन तथा समकालीन युग के मार्क्स के मूढ़ पिछलग्गू वामपंथी चेले तथा इनसे भी गए-गुजरे विचारहीन कुछ नाममात्र के दलित भाई एवं कांग्रेसी - ये सभी अपनी विचारधारा एवं दुकानों को एक दिन में खड़ी नही रख सकते । वेद एवं ईश्वर सबके केन्द्र में है । इसका अर्थ यह है कि कुछ न कुछ रहस्य तो जरूर है वेद की अपौरूषेयता में । जब सारे वामपंथी मार्क्स को ईश्वर के रूप में तथा ‘दास कैपिटल’ को चरम ज्ञान की पुस्तक के रूप में आदर दे सकते हैं, दलित भाई अम्बेडकर व उनके लेखन के साथ ऐसा ही कर सकते हैं, चार्वाक-जैन-बौद्धादि ऐसा कर सकते हैं, और यहां तक कि सभी मान्यताप्राप्त देशों की सरकार भी बिना किसी संविधान को सर्वोच्च माने गतिमान नहीं रह सकती - तो फिर सृष्टि के आदि में यदि ईश्वर ने सर्व जड़-चेतन के हिताहित हेतु वेदरूपी ज्ञान प्रदान किया है तो फिर इस ईश्वर विधान पर उंगलियां क्या उठाई जाती हैं? ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञानरूप वेद सर्व जड़-चेतन सृष्टि के कल्याण हेतु है । वेद की सनातन शिक्षाएं बाईबिल, कुरान, गुरु ग्रन्थ साहब आदि की तरह एकदेशीय, एकमतीय या साम्प्रदायिक न होकर सर्व संसार के कल्याण हेतु हैं । इसीलिए तो भारत व भारतीयता को नष्ट करने हेतु विलियम हन्टर, मैकाले से लेकर ग्रिफिथ, राॅथ, विल्सन, मैक्समूलर आदि ईसाईयत के मिशनरिया ने वेदों को हर तरह से नष्ट करने का प्रयास किया है । भारत में भी हमारे पौराणिक गोविन्द स्वामी से लेकर रावण, उब्बट, सायणाचार्य आदि तथा श्री राम शर्मा, हरिशंकर जोशी आदि ने भी वेदों के मूल भाव को कलुषित करने में खूब सहयोग किया है । स्वामी दयानन्द के दिशा-निर्देश के बावजूद भी आर्य समाजी आज तक वेदों की एक साथ तीनों प्रकार की व्याख्याएं प्रस्तुत नहीं कर पाए हैं ।
जिसने भी ‘वैदिक युग’ नामक शब्द विश्व को प्रदान किया है उसकी सोच अवश्य ही वेद विरोधी एवं भारत विरोधी रही होगी । क्या मतलब होता है इस शब्द का? क्या पहले वैदिक युग था कभी तथा अब वह नहीं रहा? क्या अर्थ था इस शब्द का जिसने यह शब्द प्रचलित करने का सर्वप्रथम प्रयास किया था? वह व्यक्ति वेद का हितेशी तो नहीं हो सकता - हां, कोई पौराणिक पाखण्डी या ईसाईयत का मिशनरी अवश्य हो सकता है । वैदिक युग यानि जब भी, जहां भी तथा जो भी लोग वेदों की शिक्षाओं पर चल- वही वैदिक युग होना चाहिए । पहले ऐसे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र बहुतायत से थे तो आजकल राष्ट्र, समाज, समूह आदि तो क्या केवल व्यक्ति मिलने ही दुर्लभ हो गए हैं । वेदों व इसकी शिक्षाओं के सम्बन्ध में इतने भय व भ्रम प्रचारित कर दिए गए हैं कि वेदों की शिक्षाओं की सुरक्षा एवं इनका प्रसार-प्रचार ही कठिन कार्य हो गया है । लेकिन वैदिक शिक्षाएं, वेद या इसके जानने वाले समाप्त थोड़े हो गए हैं । जब तक जीवन जी रहे हैं तब तक वैदिक युग जीवित माना जाऐगा । अतः केवल 1960853116 वर्ष पूर्व या इसके बाद के जीवन या पाश्चात्य दुष्ट सेच के इतिहासकारों द्वारा खोजित मिट्टी के बर्तनों, लोहे के औजारों, ताम्बे की वस्तुओं, शीशे के मनकों या अन्य मोहरों आदि के आधार पर निश्चित किए गए बीस हजार या दस हजार या पांच हजार या तीन हजार वर्ष पूर्व के काल को पूर्ववैदिक, वैदिक, औपनिषदिक, महाकाव्यकालीन, दर्शनकालीन या पौराणिक, जागरण व पूनर्जागरण काल आदि के आधार पर वैदिक या अवैदिककाल का निर्धारण करना गलत है । जब तक वेद व वेदों की शिक्षाओं को आचरण मे उतारने वाले व्यक्ति जीवित हैं तब तक वैदिक काल समाप्त नहीं हो जाता है । आज भी आपके सामने ही ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण में सृष्टि के निर्माण व संचालन के नियमों पर काम करने वाले आचार्य अग्निव्रत जैसे लोग भी मौजूद हैं तथा वेदों को ग्रामीणों के बेमतलब के गीत कहने वाले विभिन्न विश्वविद्यालयों के संस्कृत एवं दर्शनशास्त्र-विभागों के शिक्षक भी मौजुद हैं । जागो भारतीयों! जागरण की बेला कभी समाप्त नहीं होती है ।
-आचार्य शीलक राम (9813013065, 8901013065)
जिसने भी ‘वैदिक युग’ नामक शब्द विश्व को प्रदान किया है उसकी सोच अवश्य ही वेद विरोधी एवं भारत विरोधी रही होगी । क्या मतलब होता है इस शब्द का? क्या पहले वैदिक युग था कभी तथा अब वह नहीं रहा? क्या अर्थ था इस शब्द का जिसने यह शब्द प्रचलित करने का सर्वप्रथम प्रयास किया था? वह व्यक्ति वेद का हितेशी तो नहीं हो सकता - हां, कोई पौराणिक पाखण्डी या ईसाईयत का मिशनरी अवश्य हो सकता है । वैदिक युग यानि जब भी, जहां भी तथा जो भी लोग वेदों की शिक्षाओं पर चल- वही वैदिक युग होना चाहिए । पहले ऐसे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र बहुतायत से थे तो आजकल राष्ट्र, समाज, समूह आदि तो क्या केवल व्यक्ति मिलने ही दुर्लभ हो गए हैं । वेदों व इसकी शिक्षाओं के सम्बन्ध में इतने भय व भ्रम प्रचारित कर दिए गए हैं कि वेदों की शिक्षाओं की सुरक्षा एवं इनका प्रसार-प्रचार ही कठिन कार्य हो गया है । लेकिन वैदिक शिक्षाएं, वेद या इसके जानने वाले समाप्त थोड़े हो गए हैं । जब तक जीवन जी रहे हैं तब तक वैदिक युग जीवित माना जाऐगा । अतः केवल 1960853116 वर्ष पूर्व या इसके बाद के जीवन या पाश्चात्य दुष्ट सेच के इतिहासकारों द्वारा खोजित मिट्टी के बर्तनों, लोहे के औजारों, ताम्बे की वस्तुओं, शीशे के मनकों या अन्य मोहरों आदि के आधार पर निश्चित किए गए बीस हजार या दस हजार या पांच हजार या तीन हजार वर्ष पूर्व के काल को पूर्ववैदिक, वैदिक, औपनिषदिक, महाकाव्यकालीन, दर्शनकालीन या पौराणिक, जागरण व पूनर्जागरण काल आदि के आधार पर वैदिक या अवैदिककाल का निर्धारण करना गलत है । जब तक वेद व वेदों की शिक्षाओं को आचरण मे उतारने वाले व्यक्ति जीवित हैं तब तक वैदिक काल समाप्त नहीं हो जाता है । आज भी आपके सामने ही ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण में सृष्टि के निर्माण व संचालन के नियमों पर काम करने वाले आचार्य अग्निव्रत जैसे लोग भी मौजूद हैं तथा वेदों को ग्रामीणों के बेमतलब के गीत कहने वाले विभिन्न विश्वविद्यालयों के संस्कृत एवं दर्शनशास्त्र-विभागों के शिक्षक भी मौजुद हैं । जागो भारतीयों! जागरण की बेला कभी समाप्त नहीं होती है ।
-आचार्य शीलक राम (9813013065, 8901013065)
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