भारतीय सनातन सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, जीवनमूल्य,
आचरण, इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र, शिक्षाशास्त्र,
धर्मशास्त्र, गतिशास्त्र, विज्ञानशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र को निम्न, हीन सिद्ध
करके इसे उज्जड़, गंवार, गडरियों व सपेरों द्वारा पोषित, अवैज्ञानिक एवं नवीन सिद्ध
करने के कु-प्रयास तभी से चले आ रहे हैं जबसे विदेशी शासन भारत में स्थापित हुआ था।
इस्लामी शासन की स्थापना से पूर्ण यह घटिया कर्म कम ही हुआ था, लेकिन इस्लामी शासन
के भारत में स्थापित होने के पश्चात् पुर्तगाली, डच, डेनिस, अंग्रेज आदि सभी ने भारतीयता
के साथ खुब बलात्कार किया । इस दुष्ट राष्ट्रघाती कुकर्म में पहले तो इक्का-दुकका भारतीय
ही शामिल होते थे लेकिन बाद में कई भारतीय लालच, डर व प्रलोभवनवश इसमें सम्मिलित हुए
तथा आजादी से थोड़े पूर्व से लेकर अब तक अधिकांश नेता, संगठन, राजनीतिक दल एवं इतिहासकार
व विविध विषयों के प्रसिद्ध लेखक इस कुकृत्य में सम्मिलित हो रहे हैं । सर्वाधिक प्राचीन,
वैज्ञानिक एवं अनुभूति-संपन्न भारतीय-दर्शन इससे अछूता कैसे रहता । अनेक विदेशियों
तथा अनेक भारतीयों ने मिलकर भारतीय-दर्शन की खूब छीछालेदर की तथा इसे नवीन व अवैज्ञानिक
सिद्ध करके इसका भरपूर उपहास करवाया है । हमारे आदरणीय महापुरुष इस कु-प्रयास में अग्रणी
रहे हैं । डाॅ॰ एस॰ राधाकृष्णन्, डाॅ॰ एस॰ एन॰ दासगुप्ता, डाॅ॰ हिरियन्ना, डाॅ॰ धीरेन्द्र
मोहन दत्ता, धर्मेन्द्र नाथ आदि अनेक तथाकथित दार्शनिकों ने पाश्चात्य विद्वानों यथा
मैक्समूलर कीथ, ग्रिफिथ, कैगे, ओल्डनबर्ग व श्चेरवात्स्की आदि के साथ मिलकर व उनकी
हां में हां मिलाकर भारतीय-दर्शन का खूब अपमान किया है। होना तो यह चाहिए था कि ये
भारतीय दार्शनिक इन विदेशियों के कुत्सित उद्देश्यों का भांडाफोड़ करके भारतीय-दर्शन
की रक्षा का कार्य करते, लेकिन इन्होंने ऐसा करने का सद्प्रयास किया ही नहीं। भगवान्
बुद्ध द्वारा वैदिक धर्म में आई विकृतियों को दूर करने के संकल्प व प्रयासों को कैसे-कैसे
दार्शनिक संप्रदायों में रूपांतरित कर दिया गया तथा भारतीयों व पाश्चात्यों ने इस पर
कैसे-कैसे विचारों के महल खड़े कर दिए - इस पर इस प्रस्तुत शोध-पत्र में विचार किया
जा रहा है ।
सिद्धार्थ शिक्षित थे, अनपढ़ नहीं - लेकिन फिर भी
भगवान् बुद्ध का जन्म एक राजघराने में हुआ
था, अतः उनके संबंध में यह कहना कि उन्हें उस समय वर्तमान दार्शनिक सिद्धांतों का ज्ञान
नहीं था, बेमानी होगा । अक्सर यह कह दिया जाता है कि उनका वेदों के संबंधों में यह
मानना था कि इनमें यज्ञ के नाम पर हिंसा, शोषण व ऊँच-नीच आदि के विचार विद्यमान हैं
लेकिन उनकी वेदों के संबंध में यह अज्ञानता व अपरिचय की अवधारणा का ही परिचायक है।
वे यदि वैदिक आर्य थे और उच्चशिक्षित थे तो वेदों के संबंध में ऐसी बातें क्यों करेंगे?
वास्तव में सही बात यह है कि वे तर्क-बुद्धिवादी थे तथा उनका जन्म शाक्य क्षत्रियों
के गणराज्य में हुआ था। वे सामान्य शिक्षा, धर्म-शिक्षा, दर्शन-शिक्षा के साथ-साथ क्षत्रियोचित
सामरिक-शिक्षा प्राप्त भी थे । उनके संबंध में नास्तिक, अनात्मवादी व क्षणिकवादी का
ढप्पा लगाकर उन्हें वैदिक आश्रम शिक्षा प्रणाली से शिक्षित न मानकर वैदिक ग्रंथों के
संबंध में उन्हें अनजान घोषित कर देना उनके साथ किसी भी तरह से न्याय नहीं कहा जा सकता
है । उन्होंने उस समय वैदिक कुछ बातों का इसलिए खंडन नहीं किया कि वे वैदिक ग्रंथों
व इसकी शिक्षाओं से अनभिज्ञ थे; अपितु इसलिए किया था कि क्योंकि काफी लोग वैदिक ग्रंथों
में वर्तमान शिक्षाओं का मनमाना अर्थ लगाकर उस समय शोषण, भेदभाव व लूट का पर्याय बन
गए थे । वे नास्तिक नहीं अपितु आस्तिकता के नाम पर ठगी करने वालों के विरोधी थे। बृहस्पति
व चार्वाक तक को हम पूरी तरह नास्तिक नहीं कह सकते । अवैदिक दर्शनों के प्रवत्र्तक
आचार्यों ने भी किसी न किसी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है। चार्वाक-दर्शन
में राजा को ही ईश्वर का रूप मान लिया गया है । जैन-दर्शन में अनेक तीर्थंकरों अथवा
भगवान् ‘अर्हत’ को, बौद्ध दर्शन में वही स्थान भगवान् बुद्ध को प्राप्त हुआ । ईश्वर
एक गूढ़ शक्ति है । उदयनाचार्य के शब्दों में यह स्पष्ट है कि किसी न किसी रूप में
ईश्वर का अस्तित्व सबने स्वीकार किया है।1 भगवान् बुद्ध के नास्तिक कहे जाने वाले विचारों
का प्रचार-प्रसार जानबूझ कर किया था, इसलिए नहीं कि वे वैदिक साहित्य से अनभिज्ञ थे
।
सिद्धार्थ साधना की उसी प्रणाली से गुजरे जिससे वैदिक आर्य गुजरते
थे
भगवान् बुद्ध को अनार्य, अवैदिक, नास्तिक
आदि विशेषणों से विभूषित करने वाले विद्वान या सामान्य जन यह बतलाएं कि उन्होंने गृहस्थ
जीवन का त्याग करके क्यों भिक्षु या संन्यासी जीवन का अंगीकार किया तथा क्यों नहीं
उन्होंने संसार में रहते हुए ही श्चेरवात्स्की व उनके गुरु माक्र्स की तरह सांसारिक
भोग-विलास किया? भिक्षु या संन्यासी बनकर संसार त्याग करना, योग-साधना करना, कठोर तप
करना, संसार को दुःख मानना, निर्वाण के रूप में मोक्ष की कामना करना आदि तो आर्य वैदिक
हिंदू जीवन शैली की अपनी विशेषता है। यदि सिद्धार्थ बुद्ध व उनके चेलों को यही सब करना
था तो विद्वान व इतिहासकार उनको नास्तिक, वेदविरोधी व अनार्य क्यों कहते हैं? जिस जीवनशैली
में सनातन हिंदू आर्य ऋषि लाखों वर्षों से जीते आए हैं उसी को सिद्धार्थ बुद्ध ने जीया,
तो फिर उन्हें सनातन आर्य हिंदू विरोधी ठहराना कहा तक न्याय संगत है? सिद्धार्थ ने
बूढ़े व्यक्ति को देखकर अपने शरीर के प्रति भी बूढ़े होने को एकदम से महसूस कर लिया
। यह वैदिक शिक्षा ही तो है । देखिए ऋग्वेद को - ‘अस्म वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता
मध्यमो अस्त्यश्नः ।’2 अर्थात् इस सुंदर हो जाने वाले दानशील शरीर का भत्र्ता मध्यम
स्थानीय भोगधर्मा है । सिद्धार्थ बुद्ध ने उस योग की साधना की थी, जिसको सनातन से ऋषि
करते आए हैं । विपश्यना की ध्यान-विधि योग के ग्रंथों में भलि प्रकार से वर्णित है
। श्वास को देखने की यह विधि निरोध व प्रबोध दोनों प्रकार की विधियों में महत्त्वपूर्ण
है । आडारकालाम व उद्रकरामपुत्र आदि के गुरुत्व में साधना करने का जिक्र तो बौद्ध सिर्फ
उनके वेद-विरोधी होने के अर्थ में ही करते हैं । गुरु के संग साधना करते-करते एक समय
अंतराकाश में गुरु ही बाधा भी बन जाता है बात सिर्फ इतनी सी थी ।
बुद्ध ने कौन सी साधना की थी बुद्धत्व की अनुभूति हेतु
अब यदि यह सत्य की मान लिया जाए कि सिद्धार्थ
बुद्ध ने आडारकालाम आदि से असंतुष्ट होकर अपना अभिनव मार्ग निर्धारित किया तो विवेचक
व बौद्ध-विद्वान यह बताने का तो कष्ट करें कि उन्हांेने फिर साधना कौन सी की कि उन्हें
निर्वाण की अनुभूति हुई? मुझे तो इसका उत्तर आज तक नहीं मिला है । उत्तर मिला भी है
तो उससे उनके सनातन आर्य वैदिक ऋषियों के ऋणी होने की जानकारी ही मिलती है । हिंदू
सिद्धों व योगियों से साधना करके उन्होंने अपने चित्त का निरोध किया तथा इसी के दौरान
वे उनका साथ छोड़कर दूर भाग गए । यह तो होता ही है । साधना करते-करते निरोध के पश्चात्
प्रबोध तो करना ही पड़ता है। यानि कि विधि को छोड़ना पड़ता है । इसी का कुछ स्वार्थी
लोगों ने इस तरह प्रचार कर दिया कि वे आडार कालाम आदि हिंदू योगियों से असंतुष्ट होकर
उनसे दूर चले गए । वास्तव में सिद्धार्थ बुद्ध वैदिक धर्म में आई कुरीतियों को दूर
करने हेतु ही अवतरित हुए थे । बौद्ध धर्म एक ऐसी नैतिक व्यवस्था थी जो वैदिक धर्म में
उत्पन्न कुरीतियों को दूर करने का प्रयास कर रही थी ।3
‘मार’ व ‘कामदेव’ की कन्याओं का विघ्न पैदा करना सिद्धार्थ के
चित्त की पैदाईश
निर्वाण के पश्चात् अपनी सुधार यात्रा शुरू
करने के दौरान ‘मार’ व ‘कामदेव’ द्वारा उनको तंग करने की कथाएं अन्य कुछ नहीं अपितु
सिद्धार्थ के चित्त में उठ रही वासनाएं ही हैं । कोई कितना ही विवेकी हो, होशपूर्ण
हो या धैर्यवान हो, वासनाएं उठती ही रहती हैं। हां, विवेकी व मुच्र्छित में भेद यह
है कि जहां पर मुच्र्छित उन वासनाओं के वश हो जाता है, वहीं पर विवेकी उनके वश में
नहीं होता । इस तथ्य को बौद्ध स्वीकार करते डरते क्यों है?
सिद्धार्थ बुद्ध का प्रथम उपदेश पाखंडपूर्ण ढंग से ही शुरू हुआ
बुद्ध के प्रथम उपदेश के संबंध में यह प्रचलित
है कि उन्होंने जिस समय प्रथम उपदेश दिया, उस समय उरुवेला नामक उस उपदेश स्थल पर
1000 ब्राह्मण रहते थे । वहां पर सिद्धार्थ ने यह चमत्कार दिखलाया कि उन ब्राह्मणों
के हवन कुंड में काफी प्रयास के बावजूद भी अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो सकी । सिद्धार्थ
ने ऐसा जादू कर दिया कि वे ब्राह्मण अग्निकुंड में अग्नि को जला ही न सके । सिद्धार्थ
का संकेत पाकर तुरंत उस हवनकुंड में अग्नि प्रज्जवलित हो गई तथा वहां पर बाढ़ आ गई
। ब्राह्मण बाढ़ से भी अपनी रक्षा नहीं कर सके लेकिन सिद्धार्थ ने तुरंत हाथ का संकेत
किया तथा वह अग्नि कुंड उस बाढ़ से भी सुरक्षित बच गया । इस चमत्कार से प्रभावित होकर
उन हजार ब्राह्मणों में से कश्यप नाम का एक ब्राह्मण तुरंत सिद्धार्थ का अनुयायी बन
गया ।4 पाखंड, ढोंग, कुरीतियों व बुराईयों का विरोध करने वाले सिद्धार्थ बुद्ध ने अपना
प्रथम उपदेश ही पाखंडपूर्ण ढंग से दिया है, है न सिर पीटने की बात । तर्क बुद्धिवादी
को इस तरह पाखंड करने की क्या जरूरत थी?
तर्कबुद्धि प्रधान सिद्धार्थ बुद्ध ने नारी जाति से भेदभाव किया
जो लोग बौद्ध-मत को तर्कबुद्धि प्रधान मानते
हैं उन्हें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि उन्होंने स्त्री को कोई अधिकार नहीं दिया
था । स्त्री हेतु उन्होंने बच्चे पैदा करना तथा पुरुष की कामवासना की भूख को शांत करना
ही आवश्यक माना था । नारी को निम्न व पुरुष को सर्वोच्च स्थान उन्होंने भी दिया था।
बौद्धों के मत से उनके मूल विचार तो स्त्री विरोधी ही थे । बुद्धत्व को उपलब्ध महापुरुष
की इतनी घटिया, निम्न व भेदभावपूर्ण सोच भी हो सकती है तो फिर सामान्यजन व बुद्ध में
अंतर ही क्या रहा? अपने कुछ अनुयायियों के समझाने के बाद ही सिद्धार्थ बुद्ध ने अनमने
ढंग से स्त्रियों का संघ में प्रवेश स्वीकार तो कर लिया लेकिन (क्षणभंगवादी व अनात्मवादी
सिद्धार्थ बुद्ध ने) भविष्यवाणी भी कर दी कि अब स्त्रियों के संघ में प्रवेश के कारण
उनका यह सुधार का आंदोलन 4-5 शदी तक ही मुश्किल से चल पायेगा और बताते हैं कि हुआ भी
ऐसे ही । उनके देहावसान के कुछ शदियों पश्चात् उनका वह सुधार आंदोलन कतई समाप्त हो
गया । यह उनके मत व संप्रदाय की समाप्ति स्त्रियों के संघ में प्रवेश के कारण हुई या
उनके ही कुछ प्रसिद्ध दार्शनिक अनुयायियों द्वारा उनकी शिक्षाओं का विरोधी, मनमाना
व स्वार्थी अर्थ करने के कारण हुई - यह एक दिलचस्प तथ्य है । दिङ्नाग, धर्मकीर्ति,
स्थिरमति, रत्नकीर्ति, असंग व वसबंधु जैसे उच्चकोटि के दार्शनिक भला अपने गुरु द्वारा
चलाए बौद्ध मत को क्यों नष्ट करेंगे?
ब्राह्मणों के चमत्कारों का विरोध करने वाले सिद्धार्थ बुद्ध
स्वयं इन चमत्कारों की मदद लेते थे
सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में चाहे देशी-विदेशी
विद्वान कितना ही प्रचार करें लेकिन यह एक तथ्य है कि उनके जीवन, आचरण व शैली में भी
वहीं बातें थी जोकि वैदिक आर्य हिंदू योगियों, संतों व गुरुओं के जीवन में मौजूद थीं
। प्रचार का अपना बल होता है- उसके सहारे अच्छे के साथ बहुत कुछ बुरा भी चलता है ।
सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में भी खूब प्रचार किया गया है । मुझे तो यह समझ नहीं आता
कि सिद्धार्थ बुद्ध के किस गुण से प्रभावित होकर भीमराव अंबेडकर बौद्ध-मत में दीक्षित
हो गए तथा श्चेरवात्स्की जैसे माक्र्स के चेले कैसे उनको अत्यधिक पसंद करते हैं? आर्य
वैदिक हिंदू ब्राह्मण यदि पाखंडी व ढोंगी थे तो क्या सिद्धार्थ बुद्ध ने भी पाखंड व
ढोंग से अपने सुधार आंदोलन की शुरूआत नहीं की थी? जो बुराईयां कुरीतियां, पाखंड एवं
ढोंग किसी मत या संप्रदाय में बहुत बाद में प्रवेश करते हैं, वे सिद्धार्थ के जीवन
में धर्मचक्रप्रवर्तन करते ही शुरू हो गए थे।
भिक्षु व गृहस्थ की अवधारणा के संबंध में शीघ्र ही उनका भ्रम
टूट गया
साधारण जन हों या सिद्ध - यहां सभी अनुभव
व विवेक से सीख लेते हैं । कोरा ब्रह्मज्ञान किसी काम का नहीं । सिद्धार्थ बुद्ध भिक्षु
यानि कि संन्यासी बन गए । भिक्षु व संन्यासी में फर्क कुछ भी नहीं है । भिक्षु तो संन्यासियों
का एक वर्ग कहा जा सकता है। भिक्षा से गुजारा करते हैं भिक्षु । यह श्रमण व ब्राह्मण
परंपरा का भेद वैदिक-संस्कृति विरोधियों का दुष्प्रचार है । भिक्षु, संन्यासी व श्रमण
में क्या भेद है? महावीर व सिद्धार्थ बुद्ध को जिन आधारों पर श्रमण कहा जाता है तथा
अन्य वैदिक मतावलंबियों को ब्राह्मण कहा जाता है - वे आधार बचकाने, मूढ़तापूर्ण एवं
पूर्वाग्रहग्रस्त हैं । ऐसे लोग कितने ही बड़े विद्वान कहलाते हों लेकिन वास्तव में
वे विद्वता के समीप भी नहीं हैं । किसी ने कुछ कह दिया व अन्यों ने मान लिया - क्या
विद्वानों का यही लक्षण होता है । कोई बता सकता है कि सिद्धार्थ बुद्ध जो कि शुरू में
भिक्षु जीवन को सर्वोच्च मानते थे, वे शीघ्र ही अपनी इस सोच से दूर हट क्यों गए?
सिद्धार्थ बुद्ध के उपदेश (करूणा, अहिंसा, मैत्री) उनके समय
में ही नहीं कार्य कर सके
होशपूर्ण, मुच्र्छित, सामान्यजन तथा अन्य
प्रकार के व्यक्ति एक ही जगह रहते हैं । सभी इसी जगत् का अंग हैं । सिद्धार्थ बुद्ध
से पूर्व सभी व्यक्ति हिंसक, पाखंडी व मूर्ख नहीं थे तथा सिद्धार्थ बुद्ध के समय में
सभी व्यक्ति बुद्ध, होशपूर्ण, विवेकी, आर्य, संत या योगी नहीं थे । सभी तरह के व्यक्ति
सभी समय में विद्यमान रहते हैं । सिद्धार्थ बुद्ध की यह महायानी कल्पना कि जब तक सारा
संसार निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेगा, तब तक मैं स्वर्ग में नहीं जाऊंगा तथा श्री अरविन्द
की मोक्ष को इस धरा पर उतारने की सोच सही व संभव नहीं है । ऐसा होना संभव नहीं है ।
करूणा की भावदशा का यह सब परिचायक हो सकता है, लेकिन हकीकत में सब को अपना निर्वाण
स्वयं अनुभूत करना होगा । करूणा, अहिंसा, मैत्री, अपनत्व, भाईचारे आदि का परिवेश स्वयं
सिद्धार्थ बुद्ध के समय में भी नहीं था । उनके साथ रहने वालों में भी अनेक अवगुण मौजुद
थे ।
जरा-मरण से भागे, लेकिन उसी ने अंत में आ घेरा
सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में काफी कथाएं
प्रचलित हैं जिनमें उनको भगवान्, ईश्वर, ब्रह्मादि के समान सिद्ध करने का प्रयास उनके
शिष्य शुरू से करते आए हैं । वे संसार को छोड़कर जंगल में चले गए । वृद्ध पुरुष को,
बिमार पुरुष को, किसी की शवयात्रा को तथा संन्यासी को देखकर उनको इस संसार से विरक्ति
हो गई तथा वे ऐसे उपाय की तलाश करने लगे कि जिससे ये सब उनको न आएं । लेकिन निर्वाण
अनुभूति के पश्चात् भी बुद्ध बिमार भी हुए, वृद्ध भी हुए तथा उनका देहावसान भी हुआ
। जिनकी चिकित्सा करने को भागे थे, उन्हीं ने अंत में उनको आ दबोचा ।
वैदिक ऋषियों के प्रति सिद्धार्थ बुद्ध सम्मान की भावना रखते
थे
वैदिक सनातन आर्य हिंदू ऋषियों के प्रति सिद्धार्थ
बुद्ध सम्मान व आदर की भावना रखते थे । बाद के बौद्धों की तरह वे अन्य मत वालों से
मारकाट नहीं करते थे । बाद में तथा आज भी हालत यह है कि बौद्ध होने का अर्थ हिंदू का
विरोधी होना, दलित होना, निम्न वर्ग का होना या भौतिकवादी होना माना जाता है । बुद्ध
तो जागरूक पुरुष को कहते हैं । बुद्ध ध्यानस्थ होता है जबकि बौद्ध एक तरह से बुद्धू
ही सिद्ध हो रहे हैं । बुद्ध वास्तव में वैदिक धर्म का विरोध नहीं कर रहे थे अपितु
वे तो उसमें आई कमियों को दूर कर रहे थे । उनके देहावसान के दो शदी बाद उनके अनुयायियों
ने बुद्ध के सुधार आंदोलन को वैदिक सभ्यता व संस्कृति का विरोधी आंदोलन बना दिया ।
बुद्ध समय-समय पर अपने प्रवचनों में वैदिक ऋषियों को आदर से स्मरण करते थे तथा उनके
वचनों के उद्धरण भी देते थे । ‘आर्य’ बनने की, उनकी सीख क्या वैदिक सीख ‘कृण्वंतो विश्मार्यम्’
की याद नहीं दिलाती है । लेकिन जिन्होंने विरोध करके ही अपने स्वार्थ, अपने अहम् या
अपनी आजीविका की पूर्ति करनी है; वे तो विरोध ही करेंगे । मेल-मिलाप की भाषा वे बोल
ही नहीं सकते, पहचान व प्रसिद्धि के चक्कर में यह सब किया गया ।
मूल बौद्ध सुधार आंदोलन में कत्र्तव्यशास्त्र व मनोविज्ञान की
अवधारणाएं वैदिक
धर्म से ही ली गई हैं
मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा, सत्य अहिंसा,
अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, प्रेम व विश्व-बंधुत्व की नैतिक शिक्षाएं या
कत्र्तव्यशास्त्र तथा मन व चित्त के संबंध में विविध
अवधारणाएं वैदिक संस्कृति से ही ग्रहण की हैं । इसमें कुछ शब्दों
में हेरफेर तो किया है, बाकी तो सारे शब्द पहले वाले ही हैं । जल के लिए पानी शब्द
का प्रयोग करने से इसके स्वाद या इसके गुण-धर्म में कोई अंतर थोड़े ही पड़ जाऐगा ।
बौद्धों का सारा कत्र्तव्यशास्त्र व मनोविज्ञान उपनिषदों, षड्दर्शन, श्रीमद्भगवद्गीता
तथा स्मृति-साहित्य से लिया गया है । योग के यम व नियम, पांच वृत्तियों, पांच क्लेशों,
योग के विघ्नों, धर्म के दस लक्षणों, गुरु द्वारा शिष्य को दी गई आश्रमीय नैतिक व कत्र्तव्यशास्त्र
की सीख, गीता का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, चित्त के मल व विकारों की शुद्धि, चित्त की
वृत्तियों का निरोध व प्रबोध, दीक्षा, शक्तिपात, संन्यासाश्रम की मर्यादाएं व इसके
तप, अविद्या से जीव का बंधनादि-कितने ही ऐसे उपदेश व योग की विधियां हैं जिनको सिद्धार्थ
बुद्ध व उनके अनुयायियों ने सीधे ही वैदिक-
धर्म से ग्रहण कर लिया है ।
बौद्ध सुधार आंदोलन का अधिकांश साहित्य संस्कृत में - लोकभाषा
का ढिंढोरा पीटकर संस्कृत की शरण में आना पड़ा
बुद्ध ने लोकभाषा का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा
तो सभी सुधारक व योगी यहां सदैव से करते आए हैं । स्वामी दयानंद संस्कृत को छोड़कर
हिंदी में बोलने व लिखने लगे थे । कबीर आदि संतों ने भी आंचलिक बोलियों का प्रयोग किया
। महावीर व सिद्धार्थ द्वारा प्राकृत व पाली आदि लोकभाषाओं का प्रयोग कोई आश्चर्य नहीं
होना चाहिए । संत व योगी सदैव संपर्क हेतु उस भाषा का प्रयोग करते हैं जिसको ज्यादातर
लोग समझ सकें । वास्तव में बुद्ध ने संस्कृत भाषा का विरोध न करके पालि आदि भाषाओं
का बहुतायत से प्रयोग किया । वे स्वयं संस्कृत के विद्वान थे । कुछ काल तक स्वार्थवश
तथा संप्रदाय का विस्तार करने हेतु कुछ धूत्र्तों ने उनके संस्कृत ज्ञान को छिपाकर
पालि भाषा में उनके प्रवचनों को प्रसिद्ध कर दिया । जन्म, बुद्धत्व प्राप्ति व महाभिनिष्क्रमण
के दो शदी के पश्चात् ही उनके वचनों के संग्रह तैयार किए जाने शुरू हुए थे । तब तक
तो स्वार्थी व आजीविका तथा सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से अपने नाम को चमकाने के भूखे लोगों
ने उनकी शिक्षाओं या उनके वचनों में काफी मिलावट व उलट फेर कर दिया होगा। दो शदी तक
पालि का ढिंढोरा पीटने के पश्चात् उनके सभी दार्शनिक संस्कृत भाषा में ही लिखने व बोलने
लगे । यानि कि लौट के बुद्धू घर को आए । पालि या प्राकृतादि में ही सही ज्ञान का प्रचार
व ध्यानादि की शिक्षाओं का प्रचार हो सकता है तो फिर कुछ वर्ष पश्चात् ही संस्कृत को
ही क्यों अपना लिया?
बौद्ध सुधार आंदोलन के ‘अव्याकृतानि’ कहे जाने प्रश्नों का सिद्धार्थ
उत्तर दे ही देते - डर भी क्या था?
सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में यह कहा जाता
है कि उन्होंने कुछ प्रश्नों का उत्तर किसी को दिया ही नहीं । ऐसे प्रश्नों को ‘अव्याकृतानि’
कहा जाता है । कोई इनकी संख्या दस कहता है तो कोई चैदह कहता है । इन प्रश्नों का शाब्दिक
उत्तर लोगों में उलझाव व भटकने का कारण बना था, अतः उन्होंने इन प्रश्नों का उत्तर
देना सही नहीं समझा । वे कहते थे कि इन प्रश्नों के शाब्दिक उत्तर भ्रम में डालते हैं
अतः इन्हें साधनाभ्यास द्वारा अनुभूत
करें । शब्द, सिद्धांत या तर्क-वितर्क को इनके संबंध में निर्णायक
नहीं कहा जा सकता है। अतः अनुभव व अनुभूति को ही कसौटी माना गया । लेकिन सिद्धार्थ
बुद्ध द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जाना उल्टा ही सिद्ध हुआ । उपेक्षित इन
प्रश्नों ने बौद्धों से खूब बदला लिया तथा सारे बौद्ध-दार्शनिक आजीवन इन्हीं प्रश्नों
की समीक्षा करने में लगे रहे । इससे अच्छा तो यही होता कि सिद्धार्थ बुद्ध इन प्रश्नों
का उत्तर दे ही देते । वे इन प्रश्नों को ‘अव्याकृत’ घोषित न करते तो शायद बौद्ध इतने
तर्कजाल में न उलझते । सिद्धार्थ बुद्ध ने जो सोचा था, हुआ ठीक इसके विपरीत। विवेकी
पुरुष समझ ही जाते हैं तथा अविवेकी कभी समझते नहीं, अतः जो कहना होता है, उसे कह ही
देना चाहिए । न कहने से- इस न कहने के कारणों पर ही तर्कजाल बनने लगते हैं । बौद्धों
के साथ ऐसा ही हुआ ।
तर्क करने वाला मूढ़ नहीं, अपितु इसी को मंजिल मानने वाला मूढ़
है
तर्क करने वाला मूढ़ नहीं है । तर्क को तो
महर्षि यास्क ने निरूक्त में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । तर्क को मार्गदर्शक
कहा है उन्होंने । तर्क को ऋषि का दर्जा दिया है महर्षि यास्क ने। अपने आप में तर्क
बुरा नहीं है । सुष्टि के प्रारंभ से ही वैदिक ऋषियों ने तर्क, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ
आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है । लेकिन वैदिक ऋषि ‘तर्क’ पर ही रूक नहीं
गए अपितु तर्कातीत व शब्दातीत की अनुभूति करने को भी कहते हैं । तर्क व तर्कातीत दोनों
को महत्त्व दिया है वैदिक संस्कृति ने । सिद्धार्थ बुद्ध ने भी तो तर्क खूब किया था
। तर्क किए बगैर वे लोगों को कुरीतियों से दूर कैसे कर सकते थे । कोई ऋषि एक बात कहता
है तो वह किसी संदर्भ विशेष में कही गई होती है - वह सार्वकालिक सत्य नहीं होती । उसके
मनमाने अर्थ लगाकर बेतुके सिद्धांतों का निर्माण कर दिया जाता है । ऐसा खूब हुआ है
पहले भी । दार्शनिक क्षेत्र में आजकल कुछ असत्य और कुछ अर्धसत्य सत्य के रूप में प्रकट
किए जाते हैं । उन्हीं के आधार पर कल्पनाओं के वाद खड़े किए जाते हैं । ऐसे वाद ही
दर्शन के क्षेत्र में नई क्रांति के स्रष्टा कहे जाते हैं । उनका कोई सिर-पैर है नहीं
लेकिन वे खड़े किए जाते हैं और चातुरी के साथ खड़े किए जाते हैं ।5
तर्कबुद्धि प्रधान कहे जाने वाले सिद्धार्थ बुद्ध के लिए संबोधि
भी ढोंग है
अब यदि सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में यह कहा
जाए कि उन्होंने चमत्कारों, आत्मा व ईश्वरादि अदृश्य सत्ताओं, धर्म व योग के नाम पर
शोषण तथा यज्ञ के नाम पर हो रही हिंसादि का घोर विरोध किया था तो फिर यह समाधि, संबोधि,
ध्यान, परमानंद, परमसुख व निर्वाणादि का प्रलोभन क्यों? यदि उपर्युक्त सबको सिद्धार्थ
बुद्ध के नाम से प्रचारित किया गया है तो फिर ये संबोधि व आंतरिक अनुभूति आदि तो और
भी बड़े ढोंग हैं । भौतिकवादी बनते हो तो पूरी तरह से बनो, आधे-अधूरे क्यों बनते हो?
सिद्धार्थ बुद्ध वैदिक ऋषि थे
सिद्धार्थ बुद्ध के संबंध में सत्य यह है
कि वे एक वैदिक ऋषि थे । वैदिक हिंदू संस्कृति वालों ने उनको अवतार का दर्जा कोई भयभीत
होकर या डरकर नहीं किया अपितु उनकी उपलब्धियों व उनके आचरण, उनकी अनुभूतियों तथा समस्त
धरा पर उनके द्वारा किए गए अद्भुत कार्यों की वजह से दिया था । वे वास्तव में अवतार
थे । जो कार्य उन्होंने किए थे वे कार्य ऋषि लोग सदैव से करते आए हैं । उनके उपदेशों
का मनमाना अर्थ लगाने वाले विद्वान बतलाएं कि सिद्धार्थ बुद्ध के देहावसान के दो-तीन
शदियों पश्चात् तक वे कहां छिपे थे तथा क्या किया था उन्होंने?
बुद्ध ने नया कुछ नहीं दिया, नये का ढिंढोरा उनके सुधार-आंदोलन
को दुकान बनाने वालों ने पीटा
जो कुछ आज सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से प्रचारित
किया जाता है वह सब एक प्रचार है । वैदिक संस्कृति के विरोध को आधार बनाकर अपनी दुकानें
चलाने वालों का इससे धंधा तो खूब चला, परंतु भारत व इससे बाहर के राष्ट्रों को इससे
हानि भी खूब उठानी पड़ी । जैसे सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध एक बौद्ध सिद्धांत
यह है कि जो कुछ भी हमें प्रतीत होता है वह वस्तुतः है नहीं । वह अभावात्मक है और प्रतीत
हो रहा है । जो वस्तु प्रतीत हो रही है वह है ही नहीं - यह सर्वथा गलत है । फिर तो
प्रतीति और अप्रतीति का कोई भी भेद ही नहीं रह जायेगा । इसी प्रकार यदि प्रतीतिवादी
वस्तु भ्रममात्र है तो भ्रम और निभ्र्रम के बीच कोई भेदक भित्ति नहीं बनती । यदि प्रतीति
सत्य असत्य और भ्रम निर्भ्रमता दोनों की ही होती है तो प्रतीतिमात्र भ्रम नहीं हो सकता।
यदि प्रतीतिमात्र भ्रम है तो फिर भ्रम भी भ्रम ही होगा और उस अवस्था में पदार्थ की
वास्तविकता बाधिक नहीं होगी।6
चार आर्यसत्य वैदिक सिद्धांत हैं तथा पहले ही वैदिक ग्रंथों
में वर्णित हैं
चार आर्य-सत्यों के संबंध में यह कहा जाता
है कि ये सिद्धाथ्र बुद्ध की कई खोज थीं । सदियों से यह प्रचार किया गया है । अन्य
सिद्धांतों के संबंध में कहें या नहीं, लेकिन इस चार आर्य-सत्य के सिद्धांत के संबंध
में तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसको तो उन्होंने वैदिक संस्कृति से ठीक उसी
रूप में नकल किया है जैसा कि यह वहां पर योग ग्रन्थों व आयुर्वेद के ग्रंथों में मौजूद
है । सिद्धार्थ बुद्ध से हजारों वर्ष पूर्व ही महर्षि पतंजलि ने अपने ‘योगसूत्र’ तथा
महर्षि चरक व सुश्रूत ने अपनी संहिताओं में इस सिद्धांत का विस्तार से वर्णन दिया है।
इन्हीं महर्षियों का अनुकरण करके सिद्धार्थ बुद्ध ने अपने को ‘महाभिषक्’ कहा है। आयुर्वेद
देह की व्याधियों का नाश करता है जबकि ‘योग-सूत्र’ चित्त के मलों की शुद्धि करता है
। देह व चित्त की शुद्धि करने रूप से चार आर्य सत्य अर्थात् रोग है (दुख है), रोग का
कारण है (दुख का कारण है), रोग की चिकित्सा हो सकती है (दुख का निवारण हो सकता है)
तथा रोग की चिकित्सा (दुख निवारण के उपाय) आदि मोक्ष या कैवल्य तक ले जाने में सक्षम
हैं। इसमें सिद्धार्थ बुद्ध ने कुछ नवीन नहीं कहा है । उनके मूल विचारों को चार आर्य-सत्य
का रूप दिया गया है परंतु इनमें ऐसी कोई नवीनता नहीं दिखाई देती कि जिसका श्रेय बुद्ध
के बुद्धत्व को दिया जाए ।7 महर्षि पतंजलि ने इनका विवरण अपने योगसूत्र में पहले ही
दे दिया है ।8
संसार केवल दुख नहीं, अपितु सुख भी है
बौद्धों ने चार आर्य सत्यों में से केवल एक
यानि प्रथम पर ही जोर दिया है । संसार दुःख है । जन्म भी दुख, सुख भी दुख, व्याधि भी
दुख, मिलना दुख, बिछुड़ना भी दुख है तथा मृत्यु भी दुख - सब दुख ही दुख है । दुख में
संसार ने सात समुद्रों से भी अधिक आंसू बहाए हैं ।9 ऐसे दुखपूर्ण संसार में रहना व्यर्थ
है। इनकी कोई न कोई चिकित्सा तो होनी ही चाहिए । इस सिद्धांत में बौद्धों ने दुख को
ही अत्यधिक महत्त्व दिया है जबकि सुख को छोड़ दिया है । सुख तो आते हैं तथा चले जाते
हैं लेकिन दुख सदैव रहते हैं। यहां पर दुख व सुख को गलत ढंग से परिभाषित किया गया है
। ये दोनों दो न होकर एक ही तो हैं। सुख थोड़े समयोपरांत दुख में बदल जाता है तथा दुख
थोड़े अंतराल के पश्चात् सुख में बदल जाता है । क्षणिकवादी बौद्धों द्वारा दुख को स्थायी
व शाश्वत मानना तथा सुख को क्षणिक मानना क्या अपने क्षणिकवादी सिद्धांत को छोड़ देना
नहीं है? सुख को क्या इसीलिए छोड़ दें कि क्योंकि वह थोड़े समय रहता है । यदि इस सिद्धांत
को जीवन पर लागू करने लगें, तो बहुत सी चीजें छोड़ देनी पड़ेंगी ।
दुख-समुदय के बारह अंग या द्वादशनिदान सिद्धार्थ बुद्ध की कोई
नवीन उद्भावना नहीं है
‘कारणकार्यवाद’ का सिद्धांत कोई ऐसा सिद्धांत
नहीं है कि जो सिद्धार्थ बुद्ध से पहले था ही नहीं । दुख-समुदय के बारह अंग, जिन्हें
‘द्वादशांग’ कहते हैं - कोई पहली बार सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा हमें प्रदान नहीं किए
गए । व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र में क्यों पड़ता है - इसकी विस्तृत विवेचना लाखों वर्षों
से वैदिक संस्कृति में उपलब्ध है । चार आर्य-सत्य के समान ही ‘द्वादशांग’ की अवधारणा
या इसी तरह की कोई अन्य अवधारणा - इनका विवरण वैदिक संस्कृति में उपलब्ध है । इसमें
अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव जाति
व जरा-मरण आते हैं । इस सिद्धांत पर महर्षि गौतम के न्यायसूत्र का प्रभाव है । इस सूत्र
में बतलाया गया है कि दुख होता है जन्म से, जन्म होता है प्रवृत्ति से, प्रवृत्ति होती
है दोष से तथा दोष होता है मिथ्याज्ञान से । इस सूत्र को उल्टे रूप में करो तो मिथ्या
ज्ञान की निवृत्ति से दोष की निवृत्ति, दोष की निवृत्ति से प्रवृत्ति की निवृत्ति आदि
होते हैं । इस संसार को वहां छह अरों वाला माना गया है । चक्र की कल्पना भी न्यायसूत्र
से ही ली गई है । इस ‘द्वादशांग’ के अंतर्गत आने वाले जरा-मरण में सभी दुख नहीं आ सकते,
अतः यह दोषपूर्ण है । इस सिद्धांत में सबका हेतु अविद्या को माना गया है, परंतु अविद्या
का क्या हेतु है, यह बुद्ध ने क्या किसी भी बौद्ध दार्शनिक ने सही ढंग से नहीं बतलाया
है । इसे अनादि कहने से तो काम नहीं चलता है । इस अज्ञान का कोई आधार भी तो होना चाहिए
।
प्रतीत्यसमुत्पाद, अनित्यवाद व क्षणिकवाद के संबंध में बौद्ध
दार्शनिकों की खींचातानी
सिद्धार्थ बुद्ध के सामने समस्या यह थी इच्छाओं
पर कैसे काबू किया जाए । इच्छा स्वाभाविक रूप से व्यक्ति में होती है । उन्होंने इनका
समाधान अपने तीन मौलिक सिद्धांतों में ढूंढा । वे सिद्धांत हैं - अनित्य, दुख व अनात्मा
। अगर कोई व्यक्ति संसारी वस्तुओं के संबंध में इन पर गंभीरता से चिंतन करें तो उसकी
इनसे होने वाले सुख की इच्छा समाप्त हो जाए । बौद्ध-दर्शन के गुरुओं ने इस विचार को
स्वीकार किया है ।10 बाद में खींचातानी करके सौत्रांतिक व योगाचार संप्रदाय वालों ने
क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि बेतुके सिद्धांतों का कल्पनाजाल बुन दिया ।
पंचस्कंध, आत्मा व इनके पार
व्यक्ति पंच-स्कंधों का जोड़ मात्र है । ये
स्कंध भौतिक व मनोवैज्ञानिक स्थितियों का समूह मात्र हैं । ये स्कंध हैं - रूप, वेदना,
संज्ञा, संस्कार व विज्ञान । व्यक्ति इन पांच स्कंधों का मिलन मात्र है। आत्मादि कुछ
नहीं है । आत्मा होती ही नहीं है । इन पंच-स्कंधों को ही अज्ञानवश आत्मा कह दिया जाता
है । लेकिन इस प्रश्न का उत्तर किसी बौद्ध विद्वान के पास नहीं है कि यह प्रतीत किसे
हो या होता है कि ‘मैं’ केवल पंच-स्कंध मात्र हूँ, आत्मा नहीं । इसका ज्ञान किसको होता
है? बिना धूरी के पहिया नहीं घूमता, गाड़ी चलती है तो पथ पर ही चलती है तथा वह स्थिर
रहता है । गाड़ी चलती है तो कोई चलाने वाला भी है एवं प्रकाश है तो दीपक भी है । केवल
एक पक्ष को देखना बुद्धिमानी का कार्य नहीं है । परिधि को मानना लेकिन केंद्र को नकार
देना सही नहीं है। देह है तो देह के पार या पीछे भी कुछ अवश्य है ।
निर्वाण, मोक्ष, ब्रह्म, अपरोक्षानुभूति, नेति-नेति, शून्य,
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध तथा चतुष्कोटिविनिर्मुक्त
निर्वाण, मोक्ष, ब्रह्म, अपरोक्षानुभूति,
नेति-नेति तथा चतुष्को- विनिर्मुक्त आदि शब्द एक ही अद्वैतानुभूति की ओर संकेत कर रहे
हैं। इन सबकी अनुभूति ‘योगश्चित्तिवृत्तिनिरोधः’ से होती है । यह वेद के ऋषियों को
भी हुई थी, राम को भी हुई थी, कृष्ण को भी हुई थी, सिद्धार्थ बुद्ध को भी हुई थी तथा
गौड़पादाचार्य, शंकराचार्य आदि को भी हुई थी । समकालीन युग में स्वामी दयानंद, जे॰
कृष्णमूर्ति व ओशो रजनीश को भी यही अनुभूति हुई है। कोई इस संबंध में मौन रहता है तो
कोई वक्तव्य देकर घोषणा कर देता है । सिद्धार्थ बुद्ध ने इस संबंध में मौन रहना अधिक
उचित समझा था । सिद्धों, योगियों व अवतारों के मौन की मनमानी व्याख्याएं होती रही हैं
। निर्वाण यानि की वासनाओं का बुझ जाना, ब्रह्म यानि कि सतत विस्तार को गतिमान ऊर्जा,
निर्वाण यानि की सुख-दुख से परे की अवस्था रहित अवस्था, पार की अनुभूति, अपरोक्षानुभूति,
यह भी नहीं - यह भी नहीं, तो फिर और क्या, शून्य यानि की वृत्तियों से रहित अवस्था,
चतुष्कोटिविनिर्मुक्त यानि की परम मौन की अनुभूति । यह सब साधना से अनुभूत होता है
। शब्द, तर्क, वाद व खंडन-मंडन का नहीं अपितु ज्ञात से ज्ञाता तथा दृश्य से द्रष्टा
की तरफ यात्रा व मार्ग है यह ।
निर्वाण किसका होता है या मात्र होता है
बौद्ध ग्रंथों में निर्वाण का खूब जिक्र होता
है । यह निर्वाण होता किसको है? यदि निर्वाण है तो किसी को तो होता होगा । दृश्य है
तो द्रष्टा भी होगा, ज्ञात है तो ज्ञाता भी होगा तथा धर्म व गुण हैं तो धर्मी व गुणी
भी होंगे ही । पेड़ हैं तो जमीन भी होगी, भाग्य है तो भोक्ता भी होगा तथा यदि भेाजन
है तो भोजन का खाने वाला भी अवश्य ही होगा । यदि बौद्ध निर्वाण को स्वीकार करते हैं
तो निर्वाण किसी को तो होता ही होगा। यदि सब शून्य है तो शून्य भी शून्य ही होना चाहिए
। बौद्ध चिंतकों की यहां पर गति मूढ़तांपूर्ण व विचित्र सी हो जाती है । तर्कबुद्धि
कहलाने वाले बौद्ध ऐसी बेतुकी बातें करेंगे - यह अद्भूत सी बात है ।
सिद्धार्थ बुद्ध व उनका दर्शन उनकी शिक्षाओं के कारण ही विनाश
को प्राप्त
सिद्धार्थ बुद्ध की शिक्षाओं के संबंध खूब
घालमेल व मनमानी की गई है । उनके देहावसान के तीन या चार शदी बाद कुछ चालाक विचारकों
ने उनके नाम को भुनाने तथा अपने विचारों की दुकानें चलाने हेतु विचारों का एक जाल बुन
दिया । बाद में इसे शृंखला का रूप मिल गया तथा उसके भी बाद में अनेक विचारकों ने उन्हीं
के विचारों को पुष्ठ करने हेतु अनेक तर्क व प्रमाण दिए । अब यदि संसार को क्षणिक, शून्य
आदि कहोगे तो और इन विचारों को सिद्धार्थ बुद्ध की मूल शिक्षाएं प्रचारित करोगे तो
बहुत से लोग यह मानेंगे कि यदि सब कुछ क्षणिक व शून्य है तो किसी को बचाना, किसी की
रक्षा करना आदि व्यर्थ है । बाहरी हमलावर बौद्धों को लूटें या पूरे भारत को- इससे उन्हें
क्या? सब क्षणिक व शून्य है । लूटने वाले व लुटने वाले दोनों ही क्षणिक व शून्य हैं
। कौन किसको लूट सकता है? मजे लेते रहो यहां ऐसी निष्टली, बेहुदी, बेतुकी एवं पलायनवादी
शिक्षाएं जिस समाज को दोगे, वह विनाश को तो प्राप्त होगा ही । जिस कपट, धूर्तता एवं
चालाकी से इन क्षणिकवादी व शून्यवादी शिक्षाओं को लोगों के मन-मस्तिष्क में घुसेड़ा
गया ठीक उसी कपट, धूर्तता व चालाकी से स्वयं बौद्ध-संप्रदाय विनाश को प्राप्त हुआ ।
यहां पर संप्रदाय खड़े करने हों तो किसी भी भले महान पुरुष का सहारा लिया जा सकता है।
नाम उस भले महापुरुष का तथा विचार अपने । दुकान खूब चलती है ।
आर्य अष्टांगिक मार्ग, पतंजलि का योगसूत्र, उपनिषद् के ऋषि तथा
कृष्णमूर्ति व ओशो रजनीश
सिद्धार्थ बुद्ध का अष्टांग मार्ग केवल योगसूत्र
की नकलमात्र है। इससे कोई व्यक्ति नैतिक तो बन सकता है लेकिन परमशांति उसे अनुभूत नहीं
हो सकती, जोकि सिद्धार्थ बुद्ध को हुई थी। यह सिद्धांत कतई सत्य ही है । इन आठ शिक्षाओं
में किसी का जीवन बाहर-भीतर से परिवर्तित हो जाएगा - यह कहना सही नहीं है। यदि इसी
तरह लोगों में सुधार होता तो अब तक तो सारी धरती स्वर्ग बन गई होती । नैतिक नियम समाज
हेतु अति-आवश्यक हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन क्या इसी से निर्वाण, मोक्ष, परमशांति,
विश्वशांति, वसुधैव कुटुबंकम् आदि का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? बाहर भीतर हेतु पूर्ण परिवर्तन
केवल साधना से ही होगा, जोकि स्वयं बुद्ध ने भी की थी । इसी साधना, योग, तप, ध्यानादि
का अभ्यास करके ऋषियों, संतों, सिद्धों, योगियों ने अपने ‘स्व’ को जाना है । आर्य अष्टांगिक
मार्ग अच्छा है, लेकिन अधूरा व एकांगी है क्योंकि इससे वह कमी पूरी नहीं होती, जिस
कमी की पूर्ति सिद्धार्थ बुद्ध ने घर से भागकर व साधना करके पीपल वृक्ष के नीचे अनुभूत
की थी । उपनिषद् के ऋषि, जे॰ कृष्णमूर्ति का ध्यान व जागरण तथा ओशो रजनीश की योग व
ध्यान की विधियां यही तो करती हैं । सिद्धार्थ बुद्ध की स्थूल, नैतिक व सतही बातों
को पकड़कर मनमाने वाद निर्माण कर लेना तथा उनकी मूल शिक्षाओं व योग साधना को विस्मृत
कर देना-न बुद्ध, न बौद्धिक अपितु निराबुद्धूपना है । यह पिछली तीन सहस्राब्दियों से
चल रहा है ।
‘आनापान’ व ‘विपश्यना’ ध्यान तथा ध्यान की आर्य वैदिक सनातन
साधना
सिद्धार्थ बुद्ध की ‘विपश्यना’ नामक ध्यान
विधि में नया क्या है? यह तो पहले से ही योग के ग्रंथों में वर्णित है तथा लाखों योगी
इसका अभ्यास करते आए हैं । सांसारिक कृत्यों से ध्यान हटाकर अपनी आती-जाती श्वास को
महसूस करना ‘विपश्यना’ है ।11 शुरू में इसे करना पड़ता है लेकिन अभ्यास के पश्चात्
यह अपने आप होने लगता है । इसके पश्चात् श्वास ही नहीं अपितु अपने प्रत्येक कार्य,
प्रत्येक गतिविधि, विश्वास, प्रत्येक पूर्वाग्रह के प्रति सजगता रखना । पहले कुछ नैतिक
नियमों (यम) के साथ बाहरी शुद्धि (नियम) हेतु प्रयास किया जाता है, इसके पश्चात् आसन
का अभ्यास करके प्राणायाम किया जाता है । प्राणायाम से ही विपश्यना शुरू हो जाती है
। फिर प्रत्याहार व धारणा व ध्यान किए जाते हैं। प्राणायाम से ध्यान तक विपश्यना का
अभ्यास चलता है । ध्यान की प्रत्येक विधि में यह लाभकारी है । सिद्धार्थ बुद्ध के संप्रदाय
ने इस ‘विपश्यना’ को श्वास या प्राण तक ही सीमित कर दिया जबकि सनातन आर्य वैदिक संस्कृति
में भीतर की प्रत्येक गतिविधि, क्रिया, भावना, संवेगादि का निरीक्षण करते हुए ‘समाधि’
तक चले जाना है। आजकल तो भौतिकवाद, सुखवाद, पदार्थवाद, माक्र्सवाद, सैक्सवाद, मानववाद
का सहारा लेकर कोई भी अपने को बुद्ध का अनुयायी कहने लगता है; साधना, ध्यान, विपश्यना
से इन्हें कोई लेना-देना नहीं है । सिद्धार्थ गौतम जिस विधि से साधना करके ‘बुद्ध’
बन गए थे, उसी विधि से साधना करके उनके चेले बुद्ध क्यों नहीं बनते?
बुद्ध ने अविद्या की उत्पत्ति को नहीं बतलाया
‘द्वादशनिदान’ में बौद्धों ने क्रम से एक
को दूसरे से नष्ट होना माना है । अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान
से नामरूप, नामरूप से षडायतन उससे वेदना, उससे तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उससे भव,
भव से जाति, जाति से दुखादि । अविद्या निरूद्ध होने पर अनुलोम क्रम से संस्कार निरोध
होने से विज्ञान निरूद्ध होता है । सबके मूल में शून्य है इसमें तनिक भी युक्ति नहीं
है । अगर अविद्या अपने आप निष्प्रत्यय ही निरूद्ध होती है, तो यह सत्य होता । किंतु
अविद्या निरोध का भी प्रत्यय (हेतु) आवश्यक है । विद्या ही वह प्रत्यय है । अतः अविद्या
संतान निरूद्ध होने पर विद्यासंतान रहेगा, यही युक्ति युक्त मत है । एक प्रकार के बौद्ध
(शुद्ध संतानवादी) हैं जो भावस्वरूप निर्वाण स्वीकार करते हैं । शून्यवादी का पक्ष
सर्व या अयुक्त है ।12 अविद्या की अपने आप उत्पत्ति व अपने आप नाश कैसे होंगे? इस अविद्या
का समाधान बौद्ध संप्रदाय के पास नहीं है । विद्या को मानने से इसका समाधान हो सकता
है । अविद्या किसको होती है - इसे बौद्ध संप्रदाय मानता ही नहीं। अविद्या मात्र होती
है, यह तो बेतुकी बात है।
सर्वे पदार्थाः क्षणिकाः सत्वात् - यत सत् तत् क्षणिकम्
बौद्ध मत मानता है कि सब क्षणिक है । क्षण-क्षण
सब परिवर्तनशील है । वैसे जो क्षणिक पदार्थ और उसका ज्ञान क्षणिक हो तो ‘प्रत्यभिज्ञा’
अर्थात् मैंने वह बात की थी, ऐसा स्मरण न होना चाहिए । परंतु पूर्व दृष्ट, श्रुत को
स्मरण होता है, इसलिए क्षणिकवाद भी ठीक नहीं ।13 सिद्धार्थ बुद्ध के मूल उपदेशों में
क्षणिकवाद की गंध भी नहीं है । ‘सर्वमनित्यम्’ सब कुछ अनित्य अर्थात् अस्थायी है, परंतु
वाद के अनुयायियों ने इसको क्षणिक में परिवतर्तित कर दिया । अनित्य व क्षणिक का एक
ही अर्थ नहीं होता है । बौद्धों द्वारा वर्णित क्षण तथा योगसूत्र व उसके व्यास-भाष्य
में वर्णित क्षण का अर्थ भिन्न है । बौद्ध सत्य के नाम पर असत्य का प्रचार कर रहे हैं
। इस विडंबना का श्रेय बौद्ध धर्म के पश्चाद्वर्ती विद्वानों का है, जिन्होंने बौद्ध-दर्शन
के वास्तविक रूप के विपरीत दार्शनिक विचारधाराएं जिनका कोई सिर-पैर नहीं है, खड़ी करके
उसे बौद्ध-धर्म व बौद्ध-दर्शन बना दिया । क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद - इसी
प्रकार की वस्तुएं हैं । इनका बौद्ध-धर्म की मूल देश्नाओं से कोई
संबंध नहीं है ।14
बौद्ध-संप्रदाय में कर्म को शिखर समान मान लिया गया - बौद्धों
एवं मीमांसा की तुलना
बौद्धों ने कर्म की शुद्धि पर जोर दिया है
। सही कर्म करो, नीति-अनीति का ख्याल रखो । आचरण व चरित्र की शुद्धि से ही जीवन निर्माण
होगा । इन सब पर जोर सिद्धार्थ बुद्ध ने इसीलिए दिया था कि क्योंकि वैदिक संस्कृति
में काफी विकृतियां आ चुकी थीं । कर्मकांड के नाम पर यज्ञों में हिंसा होने लगी थी
। लोगों का आचरण दुषित हो गया था। करनी व कथनी में भेद था। कर्म की सही व्याख्या करने
के लिए यह उपयुक्त अवसर था। कर्म व कुकर्म में भेद बताया जाना जरूरी था । मीमांसासूत्र
में कर्म की गलत व्याख्या वाममार्ग के प्रभाववश तथा कुछ स्वार्थी पुरोहितों की कुटिलता
के कारण होने लगी थी । कर्म की सही व्याख्या बतलाने हेतु बुद्ध से कई शदी पूर्व महर्षि
वेदव्यास ने गीता में यही प्रयास किया था ।
बौद्धवाद जब भारत का राजकीय धर्म था तब वह
अपने वर्तमान रूप में न होकर हिन्दू-धर्म के ही रूप में था - जिस समय विभिन्न शासकों
ने शुरू-शुरू में बौद्ध-मत को ग्रहण किया तो उसका रूप शून्यवादी, क्षणिकवादी या अनात्मवादी
नहीं था । अपितु सनातन हिन्दू धर्म का था । शासकों को धर्म के वास्तविक स्वरूप से वैसे
कोई विशेष संबंध होता भी नहीं । उन्हें तो सबको खुश रखना होता है । जिन शासकों को बौद्ध
मतानुयायी माना जाता है, उन्होंने हिन्दूू-धर्म का विरोध नहीं किया तथा वे इसकी सभी
शिक्षाओं को मानते थे । क्षणिकवाद, शून्यवाद
व अनात्मवाद से तो सत्ता का संचालन एक क्षण भी नहीं हो सकता । जब सिद्धार्थ बुद्ध की शिक्षाओं के नाम पर मनमाने, एकपक्षीय एवं
पलायनवादी भिक्षु, संघों के अध्यक्ष बनने लगे तथा राजा भी अवसर के प्रतिकूल अहिंसा,
दया प्रेम व करुणा के उपदेश देने लगे तो उसी समय भरत विदेशी हमलावरों से अपनी रक्षा
करने में असमर्थ हो गया । इस भयावह, राष्ट्रघाती एवं बेतुकी जीवन शैली का भारत के जनमानस
हेतु कोई महत्त्व नहीं रह गया । आर्य हिन्दू कहे जाने वाले दार्शनिकों ने ऐसे मुश्किल
व पतनशील समय पर बौद्ध-मत को शास्त्रार्थ में परास्त किया तथा उसे उखाड़ फैंका।
बुद्ध, संघ व धर्म की शरण जाना सनातन वैदिक शिक्षाएं ही
सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा तीन की शरण में जाना
उनके तर्क-बुद्धिवाद के अनुकूल नहीं है। ‘अप्पो दीपो भव’ का उनका उपदेश तो यह कहता
है कि अपनी ही शरण ग्रहण करो और ये तीन की शरण में जाना यानि बुद्ध, संघ व धर्म की
शरण में जाने वाला अन्य की शरण में कैसे जाएगा? यदि उपर्युक्त की शरण में जाना उनकी
शिक्षाओं का मूल है तो फिर उनके तर्क-बुद्धिवाद का क्या होगा? यह उनकी सीख तो भारतीय
भक्ति-योग के समान है तथा आधुनिक माक्र्सवाद व श्रमण कहीं जाने वाली परंपरा से इसका
कोई मेल नहीं है । एक और बात है कि बुद्धि से सिद्ध पथ को ही बौद्ध-मत कहा गया है लेकिन
उनका यह तीन की शरण में जाना तो समर्पण, श्रद्धा
व भक्ति का पथ है । इसे बुद्धि से सिद्ध मत नहीं कह सकते । वैदिक हिन्दू आर्य संस्कृति
का विरोध करके बौद्ध-मत में दीक्षित होने वाले बौद्धों का यानि अंबेडकरवादियों की भी
इससे पोल खुल जाती है । तर्क व बुद्धि के साथ समर्पण, श्रद्धा व भक्ति को क्रमश महत्त्व
देना वैदिक आर्य हिन्दू संस्कृति की अपनी विशिष्टता है ।
बौद्ध, जैन, ईसाईयत (प्राचीन व नवीन) का मूल वैदिक हिन्दू
बौद्ध-मत व जैन-मत कहे जाने वाले सुधार आन्दोलन
थे न कि आर्य हिन्दू सनातन धर्म के विरुद्ध कोई क्रान्ति । श्रमण परंपरा के रूप में
आर्य वैदिक ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध इसे विद्रोह या क्रान्ति कहना अज्ञानता ही कहा
जाएगा । निष्टले पड़े रहने की बजाय कुछ न कुछ करने की सनक सवार तथाकथित विद्वान् ऐसे
मनमाने सिद्धान्तों के जन्मदाता हैं । इनमें भारत व पश्चिम के विद्वान् शामिल हैं ।
बौद्ध व जैन संप्रदाय के विभिन्न सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष के रूप में भारतीय षड्-दर्शन
में पढ़ा जा सकता है । वहीं से इन्होंने प्रेरणा लेकर अपने विभिन्न सिद्धान्तों का
निर्माण किया है। ये सिद्धान्त कम-भ्रमजाल अधिक हैं । नास्तिक या अवैदिक या श्रमण कहे
जाने वाले सारे मतों या सिद्धान्तों के बीज भारतीय षड्-दर्शन में बीज रूप में मिलते
हैं । ईसाईयत की तो सारी शिक्षाएं श्रीमद्भगवद्गीता तथा बौद्धमत से ली गई हैं । उनके
जीसस क्राईस्ट ‘ईसस कृष्ण’ ही है । करुणा, दया, प्रेम, सेवा आदि की सारी नैतिक शिक्षाएं
बाईबल में श्रीमद्भगवद्गीता से ली गई हैं।15 बौद्ध-मत के चार आर्य सत्य, तीन की शरण
में जाना, अष्टांगमार्ग, द्वादशांगनिदान, विपश्यना, त्रिरत्न, ब्रह्मविहार, निर्वाण
आदि वैदिक-दर्शन सूत्र-ग्रन्थों से लिए गए हैं । इसके अतिरिक्त ‘अव्याकृत प्रश्नों’
की अवधारणा भी वैदिक सनातन योगानुभूति का अनुकरण है।
तप व यज्ञ की सिद्धार्थ बुद्ध की व्याख्या वैदिक सिद्धान्तों का स्मरण
आज के सभी बौद्ध मतावलंबी, बौद्ध-दर्शन के
भारतीय व पाश्चात्य समर्थक तथा अनेक बौद्ध-दार्शनिक तप व यज्ञ के संबंध में वैदिक आर्य
संस्कृति के मत का विरोध इस कारण करते है कि तप व यज्ञ एक पाखंड है तथा इससे कुछ भी
प्राप्त होने वाला नहीं है । तप व यज्ञ का नाम लेकर ब्राह्मण आम नागरिकों को शोषण करते
हैं । लेकिन इसमें इन बौद्धों व बौद्ध-समर्थकों की मूढ़ताओं का ही पता चलता है । वैदिक
संस्कृति में आई सामयिक विकृति को उसकी मूल विशेषता मान लेना कहां की बुद्धिमानी है?
तप व यज्ञ की भगवान् बुद्ध द्वारा की गई व्याख्या वैदिक आर्य संस्कृति से कतई भी भिन्न
नहीं है । अर्थ, भाव व उद्देश्य सभी के सभी वहीं तो हैं । कुछ भी तो अलग नहीं है ।
इस संबंध में यह भी दिलचस्प है कि भगवान् बुद्ध ने सिद्धार्थ से ‘बुद्ध’ बनने के लिए
कठोर तपस्या तो की थी, कोई निष्टले बैठे-बैठे तो वे बुद्ध बन नहीं गए । यदि बिना तप
के ही कोई मात्र शब्दों के किले के सहारे बुद्ध बन सकता है - जैसा कि ये बौद्ध-समर्थक
व दार्शनिक मानते हैं, तो बुद्ध के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ? और यदि बुद्ध के साथ ही
नहीं हआ तो अन्यों के साथ कैसे होगा?
वैदिक हिन्दू आर्य धर्म व बौद्ध धर्म में संघर्ष बहुत बाद की
घटना है
भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण (1887 ईसा
पूर्व) के 4 शदी पश्चात् तक भी बौद्ध-मत वैदिक आर्य हिन्दू संस्कृति में आई विकृतियों को दूर करने तक
ही सीमित या तथा यह कोई अलग मत या संप्रदाय नहीं था । मत या संप्रदाय का रूप तो इसे
बहुत बाद में स्वार्थी, अहंकारी तथा मठााधीश बनने के बाद लालची विचारकों ने दिया; जिन्हें
बौद्ध-मत अपने अहम् की पूर्ति का अच्छा साधन लगा । जब तक यह बौद्ध-मत सुधारक के रूप
में रहा, इसको समस्त भारत ने स्वीकार किया, लेकिन ज्यों ही इसने संगठित - मत या संप्रदाय
का रूप धारण किया, भारतीय विचारकों व दार्शनिकों ने इसका कड़ा विरोध किया । एक समय
ऐसा भी आया जब यह बौद्ध-मत पलायन, भय, भगोड़ेपन, कायरता तथा इनके फलस्वरूप विदेशी हमलों
का कारण बना । उद्भट्ट आर्य वैदिक दार्शनिकों ने इस राष्ट्रघाती हो चुके मत को भारत
से उखाड़ फैंकना ही उचित समझा । हिन्दू-बौद्ध शास्त्रार्थ या विवाद को इतिहासकार गलत
ढंग से प्रस्तुत करते हैं ।
बुद्ध ने कभी भी ऐसा नहीं कहा कि हर हालत में सदाचारी रहें
- इनकी शिक्षाओं के गलत अर्थ के कारण ही भारत गुलाम हुआ - वणिकों व भीरूओं का संप्रदाय
बन गया बौद्ध-मत - सिद्धार्थ बुद्ध का यह उपदेश कतई नहीं रहा होगा कि किसी भी स्थिति
में हिंसा न करो या तुम पर जो हमला करे, उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ । यदि उनका
यह उपदेश रहा हो, तो वे किसी भी पहलू से बुद्ध
नहीं कहे जा सकते। विदेशी हमें लूट रहे थे, नरसंहार कर रहे थे, धार्मिक स्थलों को तोड़
रहे थे तथा राष्ट्र की कीमती संपदा को लूटकर अपने देशों को ले जा रहे थे । ऐसे आततायियों
के सामने हाथ जोड़कर खड़े होना या किसी प्रकार की भीख मांगना हद दर्जे की मूढ़ता ही
कही जाएगी। इन्होंने सिद्धार्थ बुद्ध के उपदेशों का गलत अर्थ लगाकर अहिंसा, करुणा व
दयादि को सार्वभौम व सार्वकालिक बना दिया । आततायियों, हमलावरों व लूटेरों ने खूब इस
राष्ट्र की अस्मित को लूटा लेकिन ये अपने करुणा व अहिंसा के उपदेश दोहराते रहे । देश
के पौरूष को पंगू बना दिया इन्होंने । यह देश इतना कायर कभी नहीं रहा कि हमलावरों से
अपनी रक्षा न कर सके । इन भिक्षुओं ने नपुसंक बना दिया था भारत को । किसी भी उपदेश
की अति को सिद्धार्थ स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वे तो मध्यममार्गी के अहिंसादि के
उपदेश को चरम तक न ले जाते । इन बौद्ध-दार्शनिकों को थोड़ी भी चिंता नहीं रही सिद्धार्थ
बुद्ध की।
हीनयान - महायान की गलत व्याख्या - ये विरोधी नहीं अपितु परस्पर
पूरक हैं - हीनयान व महायान की छोटे यान व बड़े यान के रूप में व्याख्या करना गलत है
। हीनयान का यह कहना कि कोई व्यक्ति केवल अपना ही कल्याण कर सकता है, अन्यों का नहीं
- योग की दृष्टि से यह कतई ठीक है । योग के पथ पर कोई साधक केवल अपना ही कल्याण कर
सकता है । योग में सब व्यक्ति अपना-अपना ही कल्याण कर सकते हैं। कोई यदि अन्य का कल्याण कर सकता तो फिर कोई भी किसी को गुलाम भी बना लेगा। आध्यात्मिक क्षेत्र
में गुरु या येागी केवल मदद कर सकता है, लेकिन ‘स्व’ का साक्षात्कार तो खुद की साधना
से ही होगा ।16 इस क्षेत्र में सिफारिस व रिश्वत नहीं चलते हैं । हीनयान ने व पूरी
भारतीय योग परंपरा ने कर्म को, स्वयं के प्रयास को व साधना को महत्त्व दिया है । महायान
संप्रदाय ने इस धारणा को चोंट पहंुचाई तथा दूसरे की कृपा से ध्यान, समाधि या परमांनद
की अनुभूति को प्रचारित किया; जिससे धर्म, अध्यात्म व योग के क्षेत्र में पाखंड को
बढ़ावा मिला । यह शक्तिपात, आशीर्वाद व दीक्षा की घटना साधक की तैयारी के पश्चात् ही
होती है ।
माक्र्स से सिद्धार्थ बुद्ध की तुलना करना हद दर्जे की मूढ़ता
भौतिकवावदियों ने सिद्धार्थ बुद्ध को माक्र्स
के समकक्ष खड़ा करके योग व अध्यात्म को बहुत बड़ी हानि पहुंचाई है । कहाँ जड़वाद तथा
कहां निर्वाण? कहां माक्र्स का धर्म को अफीम कहना तथा सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा धर्म
की शरण में आने का उपदेश देना तथा कहां माक्र्स का भोग-विलास के जीवन का उपदेश देना
तथा कहां सिद्धार्थ बुद्ध द्वारा त्याग, तपस्या व संयम का भिक्षु जीवन जीने का उपदेश?
विचारक भी पागलों सा प्रलाप करने लगते हैं, पता नहीं कहां उनका विवेक खो जाता है?
अंबेडकर ने बौद्ध मत अपनाकर भगोडे़पन का ही परिचय दिया
भारतीय आर्य वैदिक हिन्दू संस्कृति में यदि
विकृति या दोष था तो इसका यह अर्थ तो नहीं कि उसका त्याग करके किसी अन्य मत या संप्रदाय
को स्वीकार कर लिया जाए । उनके इस कृत्य से भारत व दलितों का जो अहित हो रहा है तथा
भविष्य में होगा - उसकी इन दलितों ने कल्पना भी न की होगी । यदि शरीर का कोई अंग बिमार
है तो इसका यह मतलब कहां है कि उस अंग की चिकित्सा न करके पूरे शरीर को ही मौत के घाट
उतार दिया जाए । अंबेडकर ने तो ऐसा ही किया । उन्होंने वैदिक संस्कृति की विकृतियों
को दूर करने की अपेक्षा इसे समाप्त कर देना ही उचित समझा । बिमारी के मूल को नष्ट करने
की बजाय लक्षणों की चिकित्सा मूढ़ता व अपरिपक्वता ही कहे जाऐंगे । ---शेष फिर ।
सन्दर्भ
1. आचार्य उदयवीर शास्त्री,
वीर तरंगिणी, पृ॰ 254-255
2. ऋग्वेद,
1.164.1
3. प्रो॰ के॰ टी॰ एस॰
सराओ, प्राचीन भारतीय बौद्ध-धर्म, पृ॰ 44
4. प्रो॰ हिम्मत सिंह
सिन्हा, भगवान् बुद्ध: जीवन व दर्शन, पृ॰ 14
5. आचार्य वैद्यनाथ
शास्त्री, दर्शन-तत्त्व-विवेक (भाग-2), पृ॰ 16
6. उपरिवत्, पृ॰
16
7. उपरिवत्, पृ॰
106
8. देखिए योगसूत्र,
साधनपाद (सूत्र 16, 17, 25, 26)
9. महर्षि गौतम, न्याससूत्र,
1.1.2
10. आचार्य वैद्यानाथ
शास्त्री, दर्शन-तत्त्व-विवेक, पृ॰ 180
11. विलियम हार्ट, विपस्यना
मेडिटेशन, पृ॰ 6
12. (संपादक) डाॅ॰ रामशंकर
भट्टाचार्य, योगसूत्र व्यास भाष्य, पृ॰ 316
13. स्वामी दयानंद,
सत्यार्थप्रकाश (द्वादश समुल्लास), पृ॰ 28
14. आचार्य वैद्यनाथ
शास्त्री, दर्शन-तत्त्व-विवेक, पृ॰ 116
15. पुरुषोत्तम नागेश
ओक, क्रिश्चियनिटी कृष्ण-नीति है, पृ॰ 20
16. ओशो रजनीश, पथ के
प्रदीप, पृ॰ 70
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