हरियाणा से केन्द्र में कांग्रेसी सरकार की पूर्व केन्द्रीय मन्त्री कुमारी शैलजा अनुसूचित जाति के कोटे से सांसद बनती आई हैं । चुनाव लड़ने के दौरान क्योंकि वे अनुसूचित जाति की प्रत्याशी हैं तो उनसे उनकी जाति भी पूछी गई होगी तथा प्रवेश फाॅर्म में उन्होंने जाति का नाम भरा भी होगा । लेकिन राजनीति में जाति पूछने या जाति के आधार पर विधायक या सांसद बनने में इन कुमारी जी या अन्य दलित कहे जाने वालों को कोई आपत्ति नहीं है । हां, शैलेजा जी से द्वारकाधीश में पूजारी ने जाति पूछ ली तो इसके नाम पर लोकसभा में बवण्डर खड़ा कर दिया गया । भाजपा के केन्द्रीय मन्त्री गोयल ने माफी मांगकर पीछा छुड़वाया । यह घटना बतला रही है कि भारत का लोकतन्त्र, यहां के राजनेता एवं मीडिया कितने छिछले, सतही एवं फोकरे हैं । सत्य, वास्तविकता या तथ्य से इन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं है । बस विवाद खड़े करके इस भारत राष्ट्र की ऐसी-तैसी करते रहो ।
अभी-अभी हैदराबाद स्थिति ओसमानिया विश्वविद्यालय ने ‘बीफ पार्टी’ के आयोजन की घोषणा की तो किसी अल्पसंख्यक, कांग्रेसी, साम्यवादी का इस पर कोई बयान नहीं आया । लेकिन किसी महासभाई ने मोहम्मद के बारे में कुछ कह दिया तो सड़कें जाम व सारे विपक्षी नेता असहिष्णुता का रोना रोने लगे । यहाँ तक कि उस महासभाई का सिर कलम करने पर 50 लाख के ईनाम देने की घोषणा भी कर दी गई है । यानि मुसलमान व ईसाई आदि हिन्दू धर्म का कितना ही अपमान करते रहें लेकिन कोई नहीं बोलेगा । हां, किसी हिन्दू ने बाईबिल या कुरान के संबंध में कोई टिप्पणी कर दी तो दंगे-फसाद हो जाएंगे तथा उसकी आवाज अमरीका तक जाएगी । दादरी में एक अखलाक की हत्या का जिक्र पूरी दुनिया में तो भला ही - इसके साथ-साथ आई॰ एस॰ आई॰ एस॰ ने भी इसका जिक्र किया है लेकिन कश्मीर में हजारों हिन्दुओं के नरसंहार एवं लाखों के शरणार्थी बनने पर किसी को आह तक नहीं निकलती । यह है हमारे लोकतन्त्र का पिछड़ापन एवं दुरुपयोग तथा अम्बेडकर द्वारा काॅपी पेस्ट किए गए संविधान की व्यवस्था की वास्तविकता । इन घण्टनाओं का निहितार्थ यही है कि हिन्दू सिर्फ पिटता रहे, अपमानित होता रहे लेकिन बोले नहीं । यदि हिन्दू ने कुछ भी बोला तो हमारा पंथ निरपेक्षी ढांचा खतरे में पड़ जाऐगा । ईसाई व मुसलमान राष्ट्रघात भी करें तो कोई बात नहीं ।
मैं श्री विनोद कुमार पाण्डेय की पंक्तियां पढ़ रहा था । भारत का संविधान कितना बड़ा पाखण्ड है यह थोड़ा गहराई से अतीत के सात दशक पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है । लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमने तर्क से काम लेना ही छोड़ दिया है । पिछलग्गू व पाखण्डी हो गए हैं हम । वास्तव मंे आज हमारी जो हालत है इस हेतु सर्वाधिक रूप से हमारा संविधान ही जिम्मेवार है । राजीव भाई दीक्षित ने अपने व्याख्यानों में बतलाया है कि कैसे ‘भारत शासन अधिनियम 1935’ को हुबहू भारत के संविधान के रूप में स्वीकार कर लिया हमारे नेताओं ने । इस संविधान का 80 प्रतिशत हिस्सा वहीं से काॅपी पेस्ट किया गया है । लगभग 35000 कानून अंग्रेजों ने हमारे देश को लूटने हेतु हम पर लाद रखें थे । उन सभी 35000 कानूनों को सन् 1950 ई॰ में लागू किए गए संविधान में शामिल कर रखा है । इसीलिए तो आजादी के बाद भी भारत की लूट जारी है । पहले इंग्लैंड की महारानी, वायसराय व अंग्रेज अधिकारी लूटते थे भारत को - लेकिन आजादी के बाद भारत को लूटने का यह कुकर्म भारतीय नेताओं, अधिकारियों एवं उद्योगपतियों ने शुरू कर दिया । भारत को लूटने का क्रम पहले की तरह आज भी चल रहा है। इस तरह से देखने पर साफ हो जाता है कि भारत स्वतन्त्र नहीं हुआ है।
वास्तव में अम्बेडकर में इतनी योग्यता ही नहीं थी कि वे किसी संविधान का निर्माण कर सकें । कहते हैं इस वर्तमान भारत के संविधान को बनाने में 2 वर्ष, 11 महीने एवं 18 दिन लगे थे । इसका अर्थ यह है कि अम्बेडकर ने ‘भारत शासन अधिनियम 1935’ की काॅपी करने में ही इतने दिन लगा दिए । नकल करने में ही अम्बेडकर ने इतना समय लगा दिया तो प्रतिभा क्या खाक थी उनमें । और इस काॅपी पेस्ट करने या नकल करने में कुल 6396729 रूपये उस समय खर्च हुए थे । उस समय से महंगाई 100 गुना बढ़ चुकी है । इसका अर्थ यह है कि आज के समयानुसार अम्बेडकर ने 639672900 रूपये इस काॅपी पेस्ट करने पर ही उड़ा दिए । शायद दुनिया के इतिहास में किसी पुस्तक के लिखने या किसी देश के संविधान निर्माण करने में इतनी बड़ी धांधली नहीं हुई होगी। इस पर भी हमारे नेता यह कहते नहीं थकते कि यह संविधान हमारी प्रथम धर्मपुस्तक है ।
वकीलों का स्वर्ग है भारतीय संविधान । विश्व में सबसे लचीला एवं सबसे बड़ा कहा जाने वाला भारतीय संविधान वकीलों व नेताओं हेतु लूट का हथियार है । वकील व नेता इसकी मनमानी व्याख्या करके पिछले सात दशक से अपने देशी-विदेशी खजानों को भर रहे हैं । इस देश के हजारों नेताओं व उद्योगपतियों ने भारत की अधिकांश सम्पदा पर कब्जा जमा रखा है । साधारण भारतीय पहले भी दुखी था तथा आज भी दुखी व गरीब है । कोई अपने ऊपर हुए अपराध, अपने हो रहे शोषण या देश की लूट का विरोध करे तो संविधान का सहारा लेकर उनको जेलों में ठूंस दिया जाता है । उन पर ऐसी धाराएं लगाई जाती हैं कि बाकी के लोग कोई भी ऐसा करने से पहले लाख बार सोचेंगे । संविधान की आड़ में देश की लूट का कारोबार हमारे नेता, उद्योगपति, माफिया एवं अधिकारी चला रहे हैं ।
भारतीय संविधान में समानता का अधिकार एक ढोंगमात्र है । अनुच्छेद 15(3) और 15(4) वास्तव में देश में लिंग व जाति के आधार पर भेदभाव करते हैं । अनुच्छेद 15 आज भारत में नेताओं का वोट बटोरने का साधन बन चुका है । दहेज आदि के कानून तथा जाति आधार के कानून एकतरफा बने हुए हैं । संविधान पर विचार करना संविधान का अपमान मानकर भारतीयों को अन्धेरे में रखा जा रहा है । हम सार्थक विरोध भी नहीं कर सकते । कोई भी व्यक्ति हमारी संस्कृति, हमारे धर्म या हमारे सनातन आर्य राष्ट्र का अपमान कर सकता है इसको रोकने हेतु कोई प्रावधान कानून में नहीं है । यदि कुछ है भी तो नेता अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में कुछ भी नहीं बोलते । हां, अंग्रेज-प्रदत शोषण व लूट के हथियार संविधान का कोई अपमान नहीं कर सकता ।
राजनीतिक दलों को लेकर भारतीय संविधान में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है । राजनीतिक दल एक हो, दो हों या अनेक हों तथा इनके क्या-क्या कत्र्तव्य-कर्म हों - यह कहीं भी स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं है। इसका फायदा उठाकर भारत में सैकड़ों राजनीतिक दल खड़े हो गए हैं । राष्ट्रसेवा करने हेतु कोई भी राजनीति में नहीं आता है । राजनीति में या तो गूंडे-बदमाश आ रहे हैं या लूटेरे आ रहे हैं । सब राजनीति मंे आकर अपने स्वयं की सेवा कर रहे हैं, राष्ट्र की नहीं । पिछले सत्तर साल में हमारे ये नेता देश की कितनी सेवा कर चुके हैं, यह सबके सामने है । नेहरू व गाँधी ने इस देश को मूर्ख बनाने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं ।
संविधान में हिन्दी या संस्कृत को मातृभाषा घोषित नहीं किया गया है । कितने ताजूब की बात है कि हमने एक राष्ट्र स्वीकार कर लिया तथा उसका संविधान भी बना दिया लेकिन राष्ट्र की एक कोई भाषा नहीं बना सके । मुझे तो अम्बेडकर की अनेक मूढ़ताओं में यह सर्वप्रमुख मूढ़ता लगती है कि संविधान का पुलिन्दा तैयार करते समय उन्होंने उसी समय उसकी एक निश्चित भाषा हिन्दी या संस्कृत स्वीकार क्यों नहीं की? पहले राष्ट्र की भाषा गुलामी की भाषा अंग्रेजी को स्वीकार करने की कोई भी जरूरत नहीं थी । उस समय अंग्रेजी को लागू किए रखना राष्ट्र की अवधारणा पर एक गहन चोट थी।
सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि जिन्होंने भी यह संविधान हमारे ऊपर लादा है वे कोई हमारे चुने हुए नेता नहीं थे । नेहरू, अम्बेडकर, गान्धी आदि कोई भी नहीं । भारतीय संविधान को लागू करने की प्रक्रिया लोकतान्त्रिक किसी भी पहलू से नहीं कही जा सकती है । राष्ट्र का आपने पक्ष जाना ही नहीं तो फिर इसे भारत का संविधान कैसे कहा जा सकता है? संविधान निर्माण करते समय या उसे लागू करते समय क्या कोई राय सब देशवासियों से ली गई थी? नहीं ली गई किसी से कोई राय । चार-पांच आदमियों ने तानाशाही ढंग से कुछ बातें पूरे भारत हेतु निर्धारित कर लीं तथा फिर उन्हें भारत पर लाद दिया । लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की राय प्रमुख होती है लेकिन हमारे संविधान निर्माण की प्रक्रिया व लागू करने में किसी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया । हमारे नेता अपने स्वार्थवश इस लादे हुए संविधान से आज भी चिपके हुए हैं ।
हमारा संविधान लागू हुआ था 26 जनवरी 1950 ई॰ को लेकिन देश में प्रथम आम चुनाव हुए थे सन् 1952 ई॰ में । चार लोगों ने मिलकर चालीस करोड़ भारतीयों पर यह संविधान थोप दिया । ये चालीस करोड़ लोग आज 125 करोड़ हो चुके हैं । संविधान में किसी बदलाव या किसी नए संविधान निर्माण का सबसे बड़ा विरोध आज जो भी कर रहे हैं वे वास्तव में ही अंग्रेजी सरकार के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं । परिवर्तन प्रकृति का नियम है लेकिन हमारे स्वार्थी एवं लूटेरे नेता इस परिवर्तन की राह में रोड़ा बनकर देशद्रोह का परिचय दे रहे हैं । संविधान का पुलिन्दा लागू हो जाता है 26 जनवरी 1950 ई॰ में लेकिन आम चुनाव होते हैं, सन् 1952 ई॰ में । कितने घृणित ढंग से इस देश को लूटा जा रहा है?
भारत के संविधान में भारत को ‘राज्य’ कहा गया है, न कि राष्ट्र। यानि कि भारत अब भी एक राज्य है इंग्लैण्ड का । भारत अब भी एक राष्ट्र नहीं है । हम आज तक यह काम भी नहीं कर सके हैं कि संवैधानिक ढंग से अपने जमीन के टुकड़े को राष्ट्र के नाम से सम्बोधित कर सकें । यह सब हमारे नेताओं की घटिया सोच का परिचायक है । हमारा राष्ट्र की अपेक्षा ब्रिटेन का एक राज्य अधिक लगता है । कहा तो यह भी जा रहा है कि इंग्लैण्ड की महारानी को भारत में आने हेतु किसी प्रकार के पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती है लेकिन भारत के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को इंग्लैण्ड में प्रवेश करने हेतु पासपोर्ट की जरूरत होती है । इंग्लैण्ड की महारानी राष्ट्रमण्डल देशों की आज भी सर्वेसर्वा मानी जाती है । यह गुलामी क्यों? इसके सम्बन्ध में हमारा संविधान व हमारे सारे नेता चुप हैं । यहां तक कि समकालीन प्रधानमंत्री मोदी जी भी चुप हैं । सत्ता में आते ही राष्ट्रवाद हवा ।
यह भारत की ही संवैधानिक व्यवस्था है कि जिसके अन्तर्गत लोकसभा में विपक्ष के नेता (कांग्रेसी) खड़गे तमिलनाडू में बाढ़ की तबाही पर चर्चा करने से पहले असहिष्णुता पर बकवासबाजी करने की जिद्द करते हैं । क्या होगा ऐसे में इस देश का? जिस देश के नेता इतने स्वार्थी, मूढ़, अवसरवादी एवं वोटबटोरू हैं उस देश की जो हालत हो रही है वह कुछ गलत नहीं है । जैसी व्यवस्था-वैसी हालत । बनाओ मूर्ख इस देश को । और अधिकांश जनता भी इन मूढ़ व अवसरवादी नेताओं के जाल में फंस जाती है । 20-30 प्रतिशत जो भले व संवेदनशील लोग हैं उनका बहुमत न कभी पहले रहा तथा न ही अब है। तो ऐसे में जो हो रहा है - वह शायद ऐसा ही हो सकता है । आमूलचूल बदलाव या क्रान्ति की बातें मोदी जी ने भी खूब की थीं चुनावपूर्व । लेकिन भारत में व्यवस्था परिवर्तन किए वगैर कोई भी नेता या राजनीतिक दल कुछ नहीं कर सकता । जैसा संविधान आपको मिला है उसके अन्तर्गत तो ऐसा ही होगा । संविधान नया बनना चािहए । हमारा संविधान ऐसा हो कि जो हमारी भूमि से जुड़ा हुआ हो - हमारी संस्कृति से जुड़ा हुआ हो - हमारे दर्शनशास्त्र से जुड़ा हुआ हो - हमारी भाषा से जुड़ा हुआ हो - हमारे संस्कारों से प्रेरित हो । कौन करेगा यह कार्य? जनता करेगी यह कार्य? जो 26 जनवरी 1950 ई॰ को संविधान भारत में लागू किया गया था क्या वह सबकी सहमति से बना था? उत्तर हैं नहीं । यदि इसका उत्तर नहीं में ही है तो फिर वही प्रक्रिया क्या दोबारा नहीं दोहराई जा सकती? सर्वसम्मति की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है । भारतीय राजनीतिक दलों में सर्व-सम्मति कभी हो ही नहीं सकती । जबदरदस्ती तो कहीं न कहीं करनी ही पड़ेगी । सर्वसम्मति से कोई व्यवस्था आज तक किसी देश में लागू की ही नहीं गई है । कुछ लोग व्यवस्था का प्रारूप तैयार करते हैं तथा उसको एक प्रक्रिया से गुजारकर राष्ट्र पर लागू कर दिया जाता है । भारतीय संविधान को बदलने पर खूनखराबे की धमकी कांग्रेस के खड़गे जैसे लोग दे रहे हैं। उनके अन्दर अंग्रेजों के भूत-प्रेत बोल रहे हैं । किसी को तो यह कार्य करना ही होगा । प्रसवपीड़ा तो होती ही है । इसे तो भारत को सहन करना ही होगा । जब यह सहन करने की तैयारी हो जाऐगी तथा कोई राष्ट्राध्यक्ष या नेता या दल इस हेतु तैयार हो जाऐगा तो ही भारत का भाग्योदय होना शुरू होगा । अन्यथा भारत को लूटने का पूरा अंग्रेजीराज का तन्त्र 26 जनवरी 1950 ई॰ को भारतीय जनता पर थोपे गए संविधान के रूप में यहां यथावत चलता ही रहेगा । भारत की तरक्की की बात बहुत दूर की बात है । दूसरे देशों द्वारा अधिकृत कालोनियां कभी विकास नहीं कर पाती हैं अपितु वे तो शोषक देश के हाथों का खिलौना बनकर उनके हितों हेतु ही काम करती रहती हैं । भारत की भी कुछ ऐसी ही हालत है । नेहरू, लाल बहादुर, इन्दिरा, नरसिम्हा राव, विश्वनाथ, अटल, मनमोहन या मोदी जी में से कोई भी देश का प्रधानमंत्री बने - कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि संवैधानिक तन्त्र तो अंग्रेजों वाला ही है । व्यवस्था परिवर्तन से ही भारत का भाग्य बदलेगा ।
-आचार्य शीलक राम, 9813013065, 8901013065
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