Wednesday, March 2, 2016

प्रेम दो, मिलती है सूली


कभी-कभी तो ही जाती थी
धूमिल हो गई वह भी आशा।
तुम क्या गी जान चली गई
अब तो केवल बची है निराशा॥
जब से जन्म लिया है प्रिये
बाहरी-भीतरी अभाव को देखा।
तुमने भी अब साथ छोड दिया
दुखी जीवन शायद विधि का लेखा॥
अब मिलेगी-अब मिलेगा
इसी आशा में जीवन गुजरा है।
तुमसे ही बस बची थी आशा
तुम्हारा जाना प्रिये मेरा बुरा है॥
खा-पीकर अब अपनो के संग
भोग-विलास कर मजा लूटते।
मैं अभागा प्रिये भुखा-प्यासा
सपने सहज मेरे सब टूटते॥
सिर पटकूं और बदन खुजलाऊं
उठती रह-रह भावों की झाल।
तुम्हारे विरह से हुआ मैं कंगला
तुम अन्य किसी संग हुई मालामाल॥
क्या जीवन पाया है मैंने
सब साथ छॊड गए एक-एक करके।
जीवित रहते शकुन मिला नहीं
मुझे यहां मिल जाए शायद मर के॥
सांसारिक प्रेम शायद धोखा है
लोगों ने शायद सच ही कहा है।
जिन्हे मिला है, वे क्या जानें
मैं जानू, मैंने खूब सहा है॥
जाओ प्रिये! मजे करो तुम
मेरी आदत है पीडा में रहने की।
जाने के तर्क तुम्हारे सब झूठे हैं
नहीं जरुरत मुझे कुछ भी कहने की॥

-आचार्य शीलक राम

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