Saturday, March 19, 2016

चलो ! कुछ तो कहूं


जगत् की लीला जितनी अपरम्पार दिखलाई पड़ती है, यह उससे भी अधिक अपरम्परा है बच्चे, जवान, प्रौढ़ वृद्ध किसी से भी पूछों सब यही कहते मिलेंगे कि हम फलां-फलां से प्रेम करते हैं। यदि उनकी बात मान भी ली जाए तो फिर इस संसार में इतनी कलह, इतनी ईष्र्या, इतना द्वेष, इतनी बदले की भावना, इतनी घृणा, इतनी कामुकता, इतनी लड़ाईयां इतनी विनाश लीला क्यों है? यदि सभी सभी से प्रेम करते होते तो फिर यह विनाशकारी विध्वंश ही विध्वंश कहां से आया? इसका जन्म होता तो है प्रत्येक व्यक्ति के चित्त से ही कारण के बिना कार्य कैसे होगा? प्रत्येक कार्य के पीछे कोई कोई कारण अवश्य निहित है हम अपनी व्याधि को चाहे वह दैहिक हो या मानसिक, जब तक स्वीकार ही नहीं करेंगें तब तक उसकी चिकित्सा कैसे हो पाऐगी व्याधि को स्वीकार करेंगे तो ही चिकित्सा हेतु प्रयास हो सकते हैं कोई व्याधि को ही माने तो फिर चिकित्सा किसकी? प्रेम के सम्बन्ध में लोग टुकबन्दी करते हैं या यह उनकी सहज अभिव्यक्ति है- इस सम्बन्ध में भी बहुत वाद-विवाद है लगता तो ऐसा ही है कि प्रेमादि के सम्बन्ध में कहीं-कहीं अधिकांश बातें बनावटीपन लिए हुए हैं लोगों को प्रेमी, प्रेमिका, लेखक, साहित्यकार, दार्शनिक, योगी, सद्गुरू, नेतादि दिखवाने का पागलपन सवार है एक सनक हर समय उन पर सवार रहती है कि लोग उनके सम्बन्ध में ऐसा सोचें भी मानें भी इससे अहंकार को तृप्ति मिलती है इस अहंकार को मिलना हो मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य सदैव से रहा है मोक्षादि की बात तो बाद की बात है इस अहंकार की जकड़ से छूटना ही प्रेम है इस अहंकार की जकड़ से स्वतन्त्र होना ही मोक्ष है इस दृष्टि से प्रेममय होना मोक्ष की अनुभूति भिन्न-भिन्न बातें नहीं है अपितु एक ही अस्तित्व को दो दृष्टिकोण से अनुभूत करना है यह कवयित्री श्रीमती अरुणा देवी की प्रस्तुत कृतिप्रेम की आहट अस्तित्व के किसी कोने अनुभूत करने अभिव्यक्त किए शब्दों का रहस्यमय संग्रह है व्यक्ति तो अस्तित्व की एक खिड़की है उस खिड़की से अस्तित्व में झांका जा सकता है तथा छः लोग मारी जा सकती है कवि शब्दों का हेरफेर विस्तार कुछ अधिक ही करते हैं कोई कवि कहता है कि चान्दा का मूंह टेढा है, कोई कहता है कि मैं मृत्यु मनाता हूं, कोई कहता है कि ब्रह्म राक्षस है, कोई कहता है कि अन्धेरे कमरे में, कोई कहता है कि तूफानों के बीच, कोई कहता है कि मिट्टी की बारात, कोई कहता है कि प्रेत का बयान, कोई कहता है कि नीन्द के बादल, कोई कहता है कि आज का आईना, कोई कहता है कि धूप के धान, कोई कहता है कि तुम मेरे कौन हो, कोई कहता है कि लोग भूल गए है, कोई कहता है कि जलते हुए बसन्त, कोई कहता है कि से कबूतर, कोई कहता है कि दिल एक नदी बन गया, कोई कहता है कि दर्द जहां नीला है तथा कोई कहता है कि हारे को हरिनाम यदि इन तथा अन्य हजारों कविताओं के उन नामों को जो उनको कवियों ने दिए हैं, को ध्यान से परखा जाए तो एक पागलखाने जैसे मकान में प्रवेश हो जाता है कवि अपनी अभिव्यक्ति को जो तुकबन्दी अधिक है तथा अभिव्यक्ति कम-इतना घूमा-फिराकर नाम क्यों देते है? चमत्कार प्रदर्शन के लिए, ध्यानकर्षण के लिए, अहंकार के पोषण के लिए या अन्य कुछ के लिए जिसका हमें पता ही नहीं है केवल कवि ही इसके बारे में जान सकता है क्योंकि आजादी के एक-दो दशक पूर्व पश्चात् आज तक काव्य के नाम पर इतना कूड़ा-कर्कछ लिख मारा गया है कि जिसका कोई तौल नहीं हो सकता। एक षड्यन्त्र के तहत उन छूट मैयों को भी कवि महाकवि की उपाधियां देकर विभिन्न संस्थाओं के मोटे-मोटे पुरस्कार दे दिए गए जिनको काव्य को समझते है ही नहीं, इसके साथ-साथ भारत भारतीयता के साथ भी उनको कोई जुड़ाव नहीं है सोवियत संघ से आयातित एक निकृष्ट विचारधारा को एक महामारी की तरह हर शैक्षिक संस्था में प्रवेश दे दिया गया उस समय की केन्द्र सरकार के साथ एक स्वार्थी कपटी अनुबन्ध करके पाखण्डी ढोंगी कवियों ने ऐसा साहित्यिक उत्पात मचाया कि स्वयं उत्पात भी शर्मिन्दा हो गया होगा राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक, धार्मिक, जीवनमूल्य, सनातन भारतीय दार्शनिक को अपमानित किया जाता रहा तथा विदेशी साम्यवादी कचरे को काव्य, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, संस्मरण आदि के रूप में परोसा जाता रहा आज भी हम इससे युक्त नहीं हुए हैं साम्यवाद तो मर चुका है तथा उसका दाह-संस्कार भी स्वयं साम्यवादियों ने कर दिया है लेकिन हमारे भारत में कुछ सिरफिरे सनकी उसको पुनर्जीवितकरने की मूढ़ता के शिकार हैं इस सनक, इस पागलपन, इस मूढ़ता, इस नकल, इस पिछलग्गूपन, इस बेहोशी को उतार फैंके तथा उतारें अपने जीवन में सनातन आर्य वैदिक हिन्दूत्व से सराबोर हिन्दुत्व को, राष्ट्रवाद को, जीवनमूल्यों को, नीति को, कानून को, चिकित्सा को, दर्शनशास्त्र को, विज्ञान को, पुरुषार्थ को तथा शिक्षा को
-आचार्य शीलक राम (9813013065, 8901013065)

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