सन् 1947 ई॰ से पूर्व 1000 वर्ष तक तो भारत में जो होता आया था वह निकृष्ट, निम्न, नीच, राष्ट्रविरोधी एवं अपमानजनक था ही लेकिन इसके पश्चात् जो पिछले 70 वर्ष से होता चला आ रहा है वह पहले से भी अधिक दयनीय, निम्न, अपमानजनक, निकृष्ट, साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रविरोधी है । एक राष्ट्र की स्वतन्त्रता हेतु केवल यही जरूरी नहीं है कि उसे दूसरे किसी शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा प्रेरित, पोषित, समर्थित एवं संचालित नियमों या संविधान द्वारा आजाद घोषित कर दिया जाए । एक राष्ट्र वास्तव में स्वतन्त्र तभी कहा जाएगा जबकि उसका अपना संविधान हो, अपने नीति-नियम हों, अपनी सोच से चलने को वह स्वतन्त्र हो, अपना विज्ञान हो, अपनी शिक्षा-नीति हो, अपनी खेती-बाड़ी हो, अपनी सीमाएं हों, अपना कानून हो, अपनी भाषा हो, अपनी संस्कृति हो, अपनी सभ्यता हो, अपना धर्म हो, अपना दर्शनशास्त्र हो, अपनी जमीन पर मर-मिटने वाले लोग हों, अपनी सेना होण्ण्ण्ण् आदि आदि । जब इस दृष्टिकोण से ध्यानपूर्वक अवलोकन करते हैं तो हम अपने भारत को स्वतन्त्र राष्ट्र की श्रेणी में रखने में हिचक महसूस करते हैं । हमारे भारत की समृद्ध, प्राचीन व वैज्ञानिक भाषा, संस्कृति, सभ्यता, विचारधारा, कृषि, चिकित्सा, विज्ञान तथा सर्व धर्मों का आदिमूल धर्म, दर्शनशास्त्र व मातृभूमि पर मर-मिटने वाले अनगिनत दिवाने होने के बावजूद हमारे पास हमारा कुछ भी नहीं है । जिस व्यवस्था कार्यप्रणाली व विधान के अन्तर्गत हम हमारी सरकार द्वारा शासित हैं वह पूर्णतः विदेशी है, आयातित है तथा उधार ली गई है । ऐसी हालत में हम अपने भारत राष्ट्र को स्वतन्त्र कैसे कह सकते हैं? इसके बावजूद भी हमारी सरकार हमारा संविधान, हमारे राजनेता, हमारे विचारक व हमारे चिन्तक यदि हमें स्वतन्त्र कहते हैं तो यह एक षड्यन्त्र है । यह षड्यन्त्र इस तरह का है कि जिससे हमें अपने स्वतन्त्र होने का भ्रम बना रहे लेकिन वास्तव में हम स्वतन्त्र न हो सकें । यह षड्यन्त्र अंग्रेज उपनिवेषवादियों, इस्लामी जेहादियों, सेक्यूलर कांग्रेसियों तथा नास्तिक साम्यवादियों ने मिलकर रचा है । अपने इस षड्यन्त्र में ये अब तक तो ये सफल ही रहे हैं । रह-रहकर राष्ट्रवादी शक्तियां यह उद्घोष करती रहती हैं कि हमें सही स्वतन्त्रता अभी प्राप्त करनी है लेकिन फिर भी पलड़ा तो भारी इन्हीं राष्ट्रद्रोही उपनिवेषवादी सोच से ग्रसित भारतीयों का ही जो ‘भारत’ में रहते हुए ‘इंडिया’ का समर्थन व प्रचार-प्रसार करते हैं। लगभग अधिकांश प्रिंट व इलैक्ट्रानिक मिडिया इन्हीं के हाथों में है । ये मरे को जीवित तथा जीवित को मरा घोषित करने में प्रवीण एवं समर्थ हैं । सत्ता इन्हीं के साथियों के हाथों में है । वरना एक भी कारण ऐसा नहीं है कि पिछले सत्तर वर्ष में भी भारत अपनी हीन-भावना, दीनता, बदहाली, गरीबी व अभाव को पूरा न कर पाए।
अन्य विषयों को छोड़कर हम अपने मूल विचारणीय मुद्दे दर्शनशास्त्र पर आ जाते हैं । यूनान, मिश्र, चीन, बेबीलोन, मेसोपोटामिया, मैक्सिकों तथा प्रशान्त, महासागर में दफन हो जाने वाली तथा अन्य सभी सभ्यताओं व संस्कृतियों के दर्शनशास्त्र भारतीय दर्शनशास्त्र से प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं मदद पाकर पल्लवित-पुष्पित हुए हैं । इनमें से किसी भी सभ्यता व संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता व संस्कृति के सहयोग के बगैर असम्भव ही होता। सैंकड़ों वर्ष तक तथा सैंकड़ों सरकार समर्थित विद्वानों के धुंआधार प्रचार के कारण आज हमारे चित्त इतने विकृत व मलिन हो चुके हैं कि हमें अपने बारे में यह भी मालूम नहीं है कि हम कितने पुरातन, कितने वैज्ञानिक, कितने तार्किक, कितने दार्शनिक एवं कितने आदर्श व यथार्थ में समन्वयवादी रहे हैं। जब हमें स्वयं अपना ही मालूम नहीं है तो हम दूसरों को क्या सीख दे पाएंगे? भारतीय दर्शनशास्त्र के आज तक के दार्शनिक व लेखक कहे जाने वाले (पिछले 200 वर्ष के अन्तर्गत) अधिकाश दार्शनिकों, विचारकों, तार्किकों, चिन्तकों व दर्शनशास्त्र के इतिहासकारों ने इस विषय को इतना उपेक्षित, उबाऊ, रसहीन, रूखा, जमीनी सच्चाई से मीलों दूर तथा पाश्चात्य रंग में रंगीन बना दिया है कि साधारण जन के साथ-साथ दर्शनशास्त्र से जुड़े लोगों को भी यह लगने लगा है कि यह विषय भारत के लिए कतई नया व अनजान है । इस विषय को सर्वाधिक व्यर्थ का विषय बना कर छोड़ रखा है हमारे समझदार व्यक्ति कहे जाने वालों ने। यह विषय समय व्यतीत करने हेतु, येन-केन विश्वविद्यालय कैम्पस में मौजुद रहने मात्र का साधन तथा बेरोजगारों की भीड़ बढ़ाने वाला विषय बनकर रह गया है । जिस विषय के कारण भारत कभी विश्वगुरु के पद पर लाखों वर्ष तक विराजमान रहा था आज उसी विषय की इतनी दुर्गति व उपेक्षा? अति गम्भीर व चिन्तनीय बात है यह । विभिन्न विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र-विभाग हमारे भारत में वीरान से नजर आ रहे हैं । इस विषय में प्रवेश लेकर कोई भी खुश नहीं है । जिनका कहीं भी प्रवेश नहीं हो पाता हो, जो योग्य न होने से कैम्पस में मौजुद रहना चाहते हो, जो हुड़दंगबाज हों, जो बदमाशी करने में प्रवीण होंण्ण्ण्ण्ण् इस तरह के छात्र ही अधिकांश में इस विषय का चुनाव करते हैं । जिनको यह विषय पढ़ना चाहिए था यानि कि किसी भी विषय या संकाय को गहनता से समझने वाले छात्र इस विषय को पढ़ ही नहीं रहे हैं? क्योंकि हमारी सरकारों की शिक्षा-नीति ही ऐसी है कि जिससे उनकी प्रश्न उठाने या सन्देह करने की क्षमता नष्ट होती जाए । इस विषय को हर विषय व संकाय के साथ किसी न किसी मात्रा में अवश्य पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा । सोचनीय बात है कि जो छात्र सन्देहशील न होंगे, प्रश्न न उठाते होंगे, समस्या के मूल में जाने का प्रयास न करते होंगे, नैतिक-मूल्यों को न मानते होंगे, तर्कशक्ति से हीन होंगे तथा अपनी जमीन से जुड़े हुए न होंगे- ऐसे छात्र क्या खाक शोध करेंगे । ऐसे छात्र अपने शैक्षिक, शैक्षणिक व सांसारिक जीवन में फिसड्डी सिद्ध होंगे ही ।
हमारे यहां भारत मंे जो जितना बड़ा विश्वविद्यालय होगा, उसके दर्शनशास्त्र-विभाग की उतनी ही बड़ी दुर्गति हो रही होगी । जन-जीवन के साथ इस विषय की कहीं कोई भागीदारी न रहे, इस हेतु भरपूर प्रयास ये विश्वविद्यालय व इनके दर्शनशास्त्र-विभाग निरन्तर करते आ रहे हैं । परिणाम हम सबके सामने है। इस संकीर्ण व मूढ़तापूर्ण सोच के कारण यह विषय बर्बादी के कगार है। यह सब होने के बावजूद भी इस विषय के प्रोफेसर अपने आपको इस पृथ्वी गृह का सर्वाधिक भाग्यशाली व वरदान प्राप्त जीव मानते हैं । अन्य व्यक्ति व अन्य विषयों को ये प्रोफेसर कीड़े-मकौड़े तथा घुड़साल के समान मानते हैं । मोटी-मोटी तनख्वाहें लेकर ये महोदय इस विषय को बदहाली से निकालने तथा इसकी स्थिति को सुधारने हेतु कोई भी प्रयास नहीं कर रहे हैं । पाश्चात्य परिधानों से लिपटे हुए ये महोदय इतना बड़ा समझते हैं अपने आपको कि कुछ भी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक करना इन्हें व्यर्थ की कसरत लगती है । दर्शनशास्त्र विषय बेचारा बेहाल है लेकिन इन्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं है । इनका तो अब शायद एक ही उद्देश्य रह गया है कि हमारी नौकरी पक्की बनी रहे, हमारे सेवानिवृत होते ही यह विषय भाड़ में जाए तथा यह विभाग बेशक बन्द हो जाए। केन्द्र में राष्ट्रवादी सरकार सत्तासीन हुई है- इससे यह आशा बन्धी है कि इस विषय का उद्धार होगा ।
-आचार्य शीलक राम(9813013065, 8901013065)
अन्य विषयों को छोड़कर हम अपने मूल विचारणीय मुद्दे दर्शनशास्त्र पर आ जाते हैं । यूनान, मिश्र, चीन, बेबीलोन, मेसोपोटामिया, मैक्सिकों तथा प्रशान्त, महासागर में दफन हो जाने वाली तथा अन्य सभी सभ्यताओं व संस्कृतियों के दर्शनशास्त्र भारतीय दर्शनशास्त्र से प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं मदद पाकर पल्लवित-पुष्पित हुए हैं । इनमें से किसी भी सभ्यता व संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता व संस्कृति के सहयोग के बगैर असम्भव ही होता। सैंकड़ों वर्ष तक तथा सैंकड़ों सरकार समर्थित विद्वानों के धुंआधार प्रचार के कारण आज हमारे चित्त इतने विकृत व मलिन हो चुके हैं कि हमें अपने बारे में यह भी मालूम नहीं है कि हम कितने पुरातन, कितने वैज्ञानिक, कितने तार्किक, कितने दार्शनिक एवं कितने आदर्श व यथार्थ में समन्वयवादी रहे हैं। जब हमें स्वयं अपना ही मालूम नहीं है तो हम दूसरों को क्या सीख दे पाएंगे? भारतीय दर्शनशास्त्र के आज तक के दार्शनिक व लेखक कहे जाने वाले (पिछले 200 वर्ष के अन्तर्गत) अधिकाश दार्शनिकों, विचारकों, तार्किकों, चिन्तकों व दर्शनशास्त्र के इतिहासकारों ने इस विषय को इतना उपेक्षित, उबाऊ, रसहीन, रूखा, जमीनी सच्चाई से मीलों दूर तथा पाश्चात्य रंग में रंगीन बना दिया है कि साधारण जन के साथ-साथ दर्शनशास्त्र से जुड़े लोगों को भी यह लगने लगा है कि यह विषय भारत के लिए कतई नया व अनजान है । इस विषय को सर्वाधिक व्यर्थ का विषय बना कर छोड़ रखा है हमारे समझदार व्यक्ति कहे जाने वालों ने। यह विषय समय व्यतीत करने हेतु, येन-केन विश्वविद्यालय कैम्पस में मौजुद रहने मात्र का साधन तथा बेरोजगारों की भीड़ बढ़ाने वाला विषय बनकर रह गया है । जिस विषय के कारण भारत कभी विश्वगुरु के पद पर लाखों वर्ष तक विराजमान रहा था आज उसी विषय की इतनी दुर्गति व उपेक्षा? अति गम्भीर व चिन्तनीय बात है यह । विभिन्न विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र-विभाग हमारे भारत में वीरान से नजर आ रहे हैं । इस विषय में प्रवेश लेकर कोई भी खुश नहीं है । जिनका कहीं भी प्रवेश नहीं हो पाता हो, जो योग्य न होने से कैम्पस में मौजुद रहना चाहते हो, जो हुड़दंगबाज हों, जो बदमाशी करने में प्रवीण होंण्ण्ण्ण्ण् इस तरह के छात्र ही अधिकांश में इस विषय का चुनाव करते हैं । जिनको यह विषय पढ़ना चाहिए था यानि कि किसी भी विषय या संकाय को गहनता से समझने वाले छात्र इस विषय को पढ़ ही नहीं रहे हैं? क्योंकि हमारी सरकारों की शिक्षा-नीति ही ऐसी है कि जिससे उनकी प्रश्न उठाने या सन्देह करने की क्षमता नष्ट होती जाए । इस विषय को हर विषय व संकाय के साथ किसी न किसी मात्रा में अवश्य पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा । सोचनीय बात है कि जो छात्र सन्देहशील न होंगे, प्रश्न न उठाते होंगे, समस्या के मूल में जाने का प्रयास न करते होंगे, नैतिक-मूल्यों को न मानते होंगे, तर्कशक्ति से हीन होंगे तथा अपनी जमीन से जुड़े हुए न होंगे- ऐसे छात्र क्या खाक शोध करेंगे । ऐसे छात्र अपने शैक्षिक, शैक्षणिक व सांसारिक जीवन में फिसड्डी सिद्ध होंगे ही ।
हमारे यहां भारत मंे जो जितना बड़ा विश्वविद्यालय होगा, उसके दर्शनशास्त्र-विभाग की उतनी ही बड़ी दुर्गति हो रही होगी । जन-जीवन के साथ इस विषय की कहीं कोई भागीदारी न रहे, इस हेतु भरपूर प्रयास ये विश्वविद्यालय व इनके दर्शनशास्त्र-विभाग निरन्तर करते आ रहे हैं । परिणाम हम सबके सामने है। इस संकीर्ण व मूढ़तापूर्ण सोच के कारण यह विषय बर्बादी के कगार है। यह सब होने के बावजूद भी इस विषय के प्रोफेसर अपने आपको इस पृथ्वी गृह का सर्वाधिक भाग्यशाली व वरदान प्राप्त जीव मानते हैं । अन्य व्यक्ति व अन्य विषयों को ये प्रोफेसर कीड़े-मकौड़े तथा घुड़साल के समान मानते हैं । मोटी-मोटी तनख्वाहें लेकर ये महोदय इस विषय को बदहाली से निकालने तथा इसकी स्थिति को सुधारने हेतु कोई भी प्रयास नहीं कर रहे हैं । पाश्चात्य परिधानों से लिपटे हुए ये महोदय इतना बड़ा समझते हैं अपने आपको कि कुछ भी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक करना इन्हें व्यर्थ की कसरत लगती है । दर्शनशास्त्र विषय बेचारा बेहाल है लेकिन इन्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं है । इनका तो अब शायद एक ही उद्देश्य रह गया है कि हमारी नौकरी पक्की बनी रहे, हमारे सेवानिवृत होते ही यह विषय भाड़ में जाए तथा यह विभाग बेशक बन्द हो जाए। केन्द्र में राष्ट्रवादी सरकार सत्तासीन हुई है- इससे यह आशा बन्धी है कि इस विषय का उद्धार होगा ।
-आचार्य शीलक राम(9813013065, 8901013065)
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