Saturday, December 9, 2023

सन्तुलित विकास का आदिमूल भारतीय दर्शनशास्त्र (Basic Indian philosophy of balanced development)-Acharya Shilak Ram

     युद्ध, नरसंहार, हिंसा, प्रताड़ना, बदले की भावना, मारामारी, आपाधापी, उच्छृंखलता, आगे ही आगे जाने की अन्धी दौड़, वैभव-विलास, भोग, महामारियों, प्रत्येक स्थान पर राजनीति, अविश्वास, असन्तुष्टि, निराशा, हताशा, कुण्ठा, अहम् तथा दिखावे ने इस संसार व इसके निवासियों को कहां पहुंचा दिया है इसका रोना तो सभी ही रोते हैं । जिसको देखो वही उपदेश देता मिल जायेगा। जिसको देखो वही यह कहता मिल जायेगा कि जमाना बहुत खराब है। जिसको देखो वह यह उपदेश देता मिल जायेगा कि मैं तो ठीक है गलत यदि कोई है तो केवल दूसरे हैं । अपने स्वयं को छोड़कर सभी व्यक्ति अन्यों को दोषी सिद्ध करते मिल जाएंगे । अपने स्वयं को कोई भी दोषी नहीं मानता है । कितनी बड़ी मूढ़ता चल रही है इस संसार में लेकिन इसका बोध गिने-चुने लोगों को ही है । जिनको बोध है उनकी संख्या बहुत कम है । उनकी संख्या भी कम है तथा वे अधिकांशतः निष्क्रिय भी रहते हैं। भारत में तो कुछ सदियों से यह परम्परा सी बन गई है कि अच्छे लोग लगभग चुप ही रहते हैं । उनका एक ही मूलमन्त्र रहता है कि हमें क्या है? हम क्या कर सकते हैं या हमारी सुनता कौन है? जबकि सुनी तो सदैव अच्छों की जाती है। बुरे व्यक्ति बरगला सकते हैं जबकि सुनी जाती है सिर्फ अच्छे व भले व्यक्तियों की । भारत के बिगाड़ का यह प्रधान कारण रहा है कि अच्छे व भले व्यक्ति मौन, धारण करके सिर्फ व सिर्फ तमाशा देखने का कार्य करते हैं। हम दोष देते रहेंगे अन्यों को लेकिन कुकृत्यों को अपनी मौन सहमति देने की अपनी महागलती को न तो मानेंगे तथा न ही उसमें सुधार करेंगे। पिछली तेरह सदी से तो यह सिलसिला चल ही रहा है ।

मूल्यों के सम्बन्ध में यदि हम चर्चा करें तो इनको पूरी उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। जहां पर विज्ञान के विकास व अन्य ढांचागत विकास पर प्रत्येक वर्ष खरबों डालर खर्च किया जाता है वहीं पर मूल्यों की शिक्षा देने पर किसी का कोई ध्यान नहीं है। राजनीतिक मंचों से घोषणाएं तो खूब की जाती हैं परन्तु उनको लागू करने हेतु या उनकी उचित व सुचारू शिक्षा देने हेतु हमारे भारत में तो कुछ भी नहीं किया जा रहा है । 1947 से ही वायदे तो खूब किए गए लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ । होगा भी कैसे क्योंकि सरकारें यहां जिनकी सत्तासीन रही हैं वे मूलतः भारत व भारतीयता के घोर विरोधी रहे हैं उन्हें तो सेक्युलरवाद से ही फुरसत नहीं है। हर तरफ सेक्युलरवाद, दलितवाद, नारीवाद, अल्पसंख्यकवाद आदि हिन्दू विरोध के नाम प्रचलित किए गए हैं ताकि उनके वोट मिलना सुनिश्चित हो सके । कोई इस मूढ़ता का विरोध करे तो उसका मुंह साम्प्रदायिक कहकर बन्द करवा दिया जाता है । इन मूढ़ों को यह समझ में क्यों नहीं आता कि बिना मूल्यों के आचरण में उतारे कोई राजनेता, वैज्ञानिक, चिकित्सक, शिक्षक, सुधारक, व्यापारी व किसान-मजदूर अपने कर्म को ईमानदारी व समर्पण से नहीं कर पाऐगा। ऐसे में ‘मत्स्य-न्याय’ का साम्राज्य सब तरफ फैल जाऐगा। वास्तव में वह ‘मत्स्य न्याय’ चहुंदिशि चल भी रहा है । जीवन मूल्यों से रहित आचरण के कारण हर कोई जैसे-तैसे वैभव-विलास को प्राप्त कर लेना चाहता है। साधन-साध्य का किसी भी कोई ख्याल नहीं है । सफलता मिलनी चाहिए उसको प्राप्त करने के साधन चाहे कितने ही गैर-कानूनी, असभ्य, अनैतिक व अमानवीय हैं । हर तरफ एक कलाकार प्रतियोगिता चल रही है । सनातन आर्य वैदिक हिन्दू संस्कृत ने आचरण, बर्ताव, चरित्रादि को सात्विक व उज्ज्वल बनाने हेतु प्रत्येक क्षेत्र हेतु जीवनमूल्यों की खोज की है । इनके पालन करने से स्वयं के साथ अन्यों का जीवन भी खुशहाल व सम्पन्न होता है तथा राष्ट्र की प्रगति के संग समस्त धरा की प्रगति सुनिश्चित होती है। व्यक्तिगत जीवनमूल्य, पारिवारिक जीवनमूल्य, सामाजिक जीवन मूल्य, आर्थिक जीवनमूल्य, सांस्कृतिक जीवनमूल्य, राजनीतिक जीवनमूल्य, आध्यात्मिक जीवनमूल्य, सार्वभौमिक जीवनमूल्य तथा राष्ट्रीय जीवनमूल्यों की लम्बी सूचि भारतीय मनीषियों ने हमें प्रदान की । जीवन को सर्वाधिक सन्तुलन विकास, समृद्धि, दिशा व गति देने वाले इन सृजनात्मक मूल्यों की उपेक्षा करके हम एकांगी व अधूरी पाश्चात्य मात्र भोग-विलास की जीवनशैली के पीछे मूढ़ों की तरह दौड़ रहे हैं ।

भारतीय संस्कृति के इन आधारभूत कहे जाने वाले मूल्यों का राष्ट्र की प्रगति, विकास व निार्मण में पूर्वकाल में भी रचनात्मक व प्रेरक सहयोग रहा तथा अब भी वह सहयोग व प्रेरणा चल रहे हैं। यदि हमें अपने भारत राष्ट्र की उन्नति (शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, भावनात्मक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक) का और भी अधिक गति एवं दिशा देनी है तो हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में निहित उपर्युक्त मूल्यों का महत्त्वपूर्ण सहयोग हो सकता है। जरूरत है अपने राष्ट्र के प्रत्येक पहलू या क्षेत्र में इन मूल्यों को अपनाने व स्वीकार करने की । व्यक्ति, परिवार, समाज, संगठन, राजनीति, वाणिज्य, प्रबन्धन, विज्ञान, चिकित्सा आदि प्रत्येक क्षेत्र में यदि इन मूल्यों का कड़ाई से पालन किया जाए तो वह दिन दूर नहीं कि हम फिर से अपने भारत की खोई गरिमा को वापिस दिलवाकर इसे दोबारा से विश्वगुरु की पदवी पर आसीन कर सकेंगे। किसी राष्ट्र का निर्माण केवलमात्र भौतिक प्रगति से न होकर भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की प्रगति से सम्भव होता है । भौतिक प्रगति को यदि विज्ञान सम्पन्न करता है तो आध्यात्मिक प्रगति की शुरूआत संसार के सबसे पुरातन विषय दर्शनशास्त्र से ही सम्भव कर सकते हैं । इसी दर्शनशास्त्र की एक शाखा का नाम नीतिशास्त्र है जिसमें मूल्यों का अध्ययन किया जाता है । इस विषय के अध्ययन-अध्यापन को अपने राष्ट्र की शिक्षा-व्यवस्था में उचित स्थान देकर ही हम अपने राष्ट्र को सही समृद्धि व दिशा देने में सफल हो सकते हैं ।

आचार्य शीलक राम

 

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