Saturday, December 9, 2023

पुस्तक समीक्षा (हरियाणवी योगसूत्र)

 

पुस्तक समीक्षा

हरियाणवी  योगसूत्र

पुस्तक - हरियाणवी योगसूत्र

लेखक -आचार्य शीलक राम

विषय -योग साधना

पृष्ठ        -95

मूल्य    -195/-

प्रकाशक -आर॰ के॰ प्रकाशन, दिल्ली

ISBN: 978-81-1942167-2-8

समीक्षक- डॉ. सुरेश कुमार

राजकीय महाविद्यालय सांपला

रोहतक (हरियाणा)

 

योग का अर्थ है जोड़। योग का अर्थ हैं चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण । योग का अर्थ है विचारों पर काबू पाना। योग का अर्थ हैं मन का संयम। योग का अर्थ हैं समाधि। योग का अर्थ हैं सन्तुलन। योग का अर्थ है होश। योग अर्थ है सजगता। योग का अर्थ है जागरूकता। योग का अर्थ है शरीर-प्राण-भावनाओं-विचारों में सन्तुलन साधकर खुद के साथ होना। योग का अर्थ हैं चेतना का निर्विचार होना। योग का अर्थ है चित्तरूपी सरोवर में विचाररूपी लहरों का शांत हो जाना। योग का अर्थ है चित्तरूपी दर्पण पर जमी धूल को साफ कर देना। योग का अर्थ हैं आत्मा का परमात्मा से मिलन। योग का अर्थ है आत्यस्थ होकर परमास्थ होना।

                उपरोक्त को प्राप्त करने के लिए पिछले लाखों वर्षों के दौरान भारतीय योगियों, स्वामियों, संन्यासियों, आचार्यों ने सैंकड़ों प्रकार की योग-विधियों का आविष्कार किया है। पात्रता-अपात्रता तथा योग्यता-अयोग्यता को ध्यान में रखकर विभिन्न मानसिकता के व्यक्तियों के लिए योग की चमत्कारिक विधियों की खोज की है। इन विधियों पर लाखों वर्षों तक प्रयोग करके योगियों ने इन योग की विधियों का प्रचार- प्रसार किया है। योग के क्षेत्र में इन योग की विधियों को अष्टांग योग, क्रियायोग, समाधियोग, हठयोग, प्राणयोग, आत्मसंयम योग, सहजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, बुद्धियोग, समतायोग, ध्यानयोग, तन्त्रयोग, हठयोग, लययोग, मन्त्रयोग, जपयोग, आसनयोग, प्रत्याहार योग, धारणा योग, विपश्यना योग, प्राण-अपान योग, प्रेक्षा योग, झेनयोग, ओंकार योग के नाम से जाना जाता है।

                भारत की विकास की अवधारणा एकतरफा न होकर बहुमुखी है। विकास की इस अवधारणा में बाहरी व भीतरी दोनों प्रकार के विकास की सोच निहित है। दुख, दर्द, पीड़ा, अशान्ति, चिन्ता, तनाव, आत्महत्या, भेदभाव, दमन, मानसिक परेशानी, अपराध, आतंकवाद व युद्धों में फंसे हुए विश्व को इन सबसे छुटकारा दिलवाने का वैश्विक मानवता के कल्याण का कार्य केवलमात्र योग के प्रचार-प्रसार-अभ्यास से किया जा सकता है।

                                पतंजलि नाम के अनेक आचार्य भारत में पिछले 5000 वर्ष के दौरान हुये हैं। योगसूत्रकार पतंजलि उनमें से एक हैं। पाश्चात्य लेखकों ने सनातन भारतीय इतिहास, दर्शनशास्त्र, सभ्यता, संस्कृति के साथ पूर्वाग्रहपूर्ण छेड़छाड़ करके अनेक तरह से घालमेल किये हैं। उन्होंने जानबूझकर योगसूत्रकार पतंजलि को ईसापूर्व दूसरी सदी में उत्पन्न हुये बतलाया है। वास्तव में उनका सही काल आज से 5000 वर्ष पूर्व का है। पतंजलि के योगसूत्र पर अब तक सैंकड़ों टीका, भाष्य, अनुवाद आदि हो चुके हैं। सबसे पुराना भाष्य महर्षि व्यास का है जो महर्षि पतंजलि के समकालीन ही थे।

इसके अतिरिक्त भोजदेव, नागेशभट्ट, रामानन्दयति, सदाशिवेंद्र, वाचस्पति मिश्र, नारायण तीर्थ, विवेकानन्द, हरिहरानंद आरण्य, ओशो आदि हुये हैं। योगसूत्र पर हरियाणवी भाषा में आज तक कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं है। इस कमी की पूर्ति की है आचार्य शीलक राम कृत हरियाणवी योगसूत्ररचना ने। दर्शनशास्त्र-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान आपकी पचासों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनमें सर्वत्र सनातन भारतीय धर्म, संस्कृति व योग की झलक है ।

हरियाणवी भाषा जिसे आज भी गांव-देहात की बोली माना जाता है-इसका इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। यह भाषा मेहनतकश, वीर बहादुर, विद्वानों, ऋषियों, महर्षियों व तपस्वियों से आशीर्वाद प्राप्त लोगों की भाषा रही है। योग-साधना पर लिखी गई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना महर्षि पतंजलि के योगसूत्रपर हरियाणवी भाषा में कोई अनुवाद या व्याख्या आज तक उपलब्ध नहीं है। इसी जरूरत को ध्यान में रखते हुये प्रस्तुत रचना हरियाणवी योगसूत्रको प्रस्तुत किया गया है। योगसूत्रके 195 सूत्रों का हुबहू हरियाणवी में पद्यानुवाद किया गया है। योगसूत्रहर प्रकार से एक अनुशासन है। सांसारिक, व्यक्तिगत, दैहिक, प्राणिक, वैचारिक, मानसिक, भावनात्मक तथा आत्मिक अनुशासन का ऐसा ग्रंथ पिछले 5000 वर्षों के दौरान नहीं लिखा गया है। देखिये -

संसार की बात बहुत हो ली सै

योग की बात इब करूं सूं शुरू ।

मौलिक क्रांति इस्सै तै होगी ।

विद्या मिली या गुरुवां के गुरु ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, समाधि पाठ, 1/1)

योग चित्त की वृत्तियों का नियंत्रण है। योग चित्त की वृत्तियों को काबू में करता है । अग्रलिखित पंक्तियों का अवलोन कीजिये -

चित्त म्हं वृत्तियां कती ना उट्ठैं

होज्या उनका पूरा निरोध ।

याए हो सै परिभाषा योग की

जागरण इस्सै तैं, इस्सै तैं प्रबोध ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, समाधि पाठ, 1/2)

मध्यम कोटि के साधकों के लिये महर्षि पतंजलि ने क्रियायोगका सुझाव दिया है । देखिये -

तप करो अर करो स्वाध्याय

साधक करो तुम ईश्वरप्रणिधान ।

क्रियायोगकहवैं सैं इसनैं सब

चित्तशुद्धि का यो अद्भुत विधान ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, साधन पाठ, 2/1)

निम्न कोटि के साधकों के लिये महर्षि पतंजलि ने अष्टांगयोगका विधान किया है । इसमें चरण-दर-चरण धीरे-धीरे आगे बढ़ना होता है । अवलोकन कीजिये -

यम, नियम, आसन, प्राणायाम

प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ।

आठ अंग ये हो सैं योग के

ना विकार रहवैं, म्यलै योगी उपाधि ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, साधन पाठ, 2/29)

आजकल योगाभ्यास को एक व्यापार और राजनीति का माध्यम बनाकर इसे केवलमात्र आसनतक सीमित कर दिया है। लेकिन आसनकी जो परिभाषा महर्षि पतंजलि ने दी है वह कुछ अन्य रहस्य की तरफ संकेत कर रही है । अग्रलिखित पद्य का अध्ययन कीजिये-

स्थिरता अर सुख तैं बैट्ठया जा जिस म्हं

ब्यना बाधा अर ब्यना अवरोध ।

आसण बोए कह्या जा योग म्हं

धारणा, ध्यान गैल्यां जाग्गै प्रबोध ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, साधक पाठ, 2/4)

इसी तरह से ध्यानपर प्रकाश डालते हुये महर्षि जी कहते हैं-

एक स्थान पै चित्त नै ट्यकावै

उड़ैए राक्खै उसनैं लगातातर ।

ध्यानकहवैं सैं उसनैं योग म्हं

चित्त विकारां का होवै परिष्कार ।। (विभूति पाठ, 3/2)

योगाभ्यास करने से चित्त में मौजूद मल व विकारों की सफाई होने के साथ प्रसुप्त शक्तियों का जागरण भी होता है। इनका विवरण योगसूत्रके तीसरे पाठ में उपलब्ध है । एक झलक द्रष्टव्य है-

मूद्र्धा ज्योति म्हारी खोपड़ी म्हं

घणेए चमत्कारां की या सै जड़ ।

इसपै संयम करैं जै योगी

करै सिद्ध दर्शन छोड़कै अकड़।।

(हरियाणवी योगसूत्र, विभूति पाठ, 3/32)

सनातन धर्म व संस्कृति में परकाया प्रवेश के विवरण भी योग-ग्रंथों में पढ़ने को मिलते हैं । देखिये -

संयम करण तैं बंधन के कारण म्हं

शिथिल होकै वो ढीला पड़ज्या सै ।।

बाहर ल्यकड़कै चित्त आत्मा अनुकूलता तैं

दूसरे शरीर म्हं फेर वो बड़ज्या ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, विभूति पाठ, 3/38)

विभिन्न प्रकार की सिद्धियों को पाने के कई रास्तों का वर्णन महर्षि पतंजलि ने किया है । मुख्यतः पांच साधनों का वर्णन इस तरह से किया है -

सिद्धि मयल्लैं जन्म अर औषधि

मंत्र, तप अर म्यल्लैं समाधि तैं ।

न्यारे-न्यारे हों इनके लक्षण

होज्या छूटकारा आधि-व्याधि तैं ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, कैवल्य पाठ, 4/1)

हरियाणवी योगसूत्रके अन्तिम सूत्र में महर्षि पतंजलि ने कैवल्यानुभूतिके संबध मंें कथन किया है । अवलोकन कीजिये -

कैवल्य सै अवस्था समाधि की

पुरुषार्थशून्य गुण जावैं अपणे कारण ।

कोए बी समस्या फेर रहती कोन्यां

सब प्रश्नों का उड़ै हौज्या निवारण ।।

यथार्थ स्वरूप म्हं डटज्या सै पुरुष

कहवैं सै योगी जिसनैं शुद्ध-चैतन्य ।

कैवल्यकहो या और कुछ उसनैं

साधक सिद्ध होकै होज्या परम धन्य ।।

(हरियाणवी योगसूत्र, कैवल्य पाठ, 4/34)

इस तरह 95 पृष्ठ की यह रचना हरियाणवी लोकसाहित्य की उत्कृष्ट साहित्यिक रचना है । आर॰ के॰ प्रकाशन, दिल्ली को इस उत्कृष्ट कोटि की योग-साधना के ज्ञान से लबालब भरी हुई साहित्यिक रचना के प्रकाशन हेतु भूरिशः धन्यवाद।

 

No comments:

Post a Comment