Wednesday, December 27, 2023

भारतीय स्वधर्म एवं जीवन-दर्शन (Indian self-religion and philosophy of life)- Acharya Shilak Ram

   भारत को भारत के रूप में जानना आज की सर्वाधिक बड़ी जरूरत है । इसी में निहित है सनातन भारतीय जीवन-दर्शन, धर्म, अध्यात्म, योग, योग-साधना, विज्ञान, चिकित्सा, खेती, शिक्षा एवं अन्यान्य का वर्तमान व भविष्य । भारत को पश्चिमी, मध्य एशिया या ग्रीक दृष्टिकोण से देखना पूर्ण को अंश के माध्यम से देखना होगा । भारत को इनके माध्यम से देखना विकारों के माध्यम से स्वच्छता को देखना होगा । भारत की इनके माध्यम से पहचान निश्चित करना अपूर्ण से पूर्ण की पहचान करना होगा । भारत को इनके माध्यम से जानना व समझना निरी मूर्खता एवं मूढ़ता का कुकृत्य है । लेकिन विडंबना यह है कि यह कुकृत्य पिछले 250 वर्षों से चल रहा है । अंग्रेजों को भारत को इस तरह से देखना या मुसलमानों का भारत को इससे जानना उनकी मजबूरी या उनका स्वार्थ या उनकी हीन भावना रही होगी परंतु हम भारतीय अपने भारत को इस विकृत ढंग से जानें यह हमारे लिए किसी भी तरह से शोभनीय नहीं है । 1947 ई॰ में मिली आंशिक आजादी से यह संभावना जगी थी कि शायद अब तो भारत को भारतीय ढंग से जानने व समझने के प्रयास होंगे ही लेकिन हुआ इसका कतई विपरीत । मुसलमान व अंग्रेज जो भेदभावपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त एवं विकृत व्यवस्था भारत में छोड़कर गए थे उसी का हम भारतीयों ने मुसलमानों व अंग्रेजों से भी अधिक सनकीपन व हीन भावना से ग्रस्त होकर अनुकरण करना शुरू कर दिया । आजादी देने व लेने की वेला के समय शायद गांधी जी ठीक ही कहीं एकांत में अपने द्वारा किए गए संघर्ष, संघर्ष के तरीकों, आजादी के रूप, साधन, सत्ता के हस्तांतरित होने के पश्चात् की भयावह स्थिति आदि पर विचार करने हेतु बैठे हुए थे । शायद उनको पश्चाताप के सिवाय कोई रास्ता बचा नहीं था । यदि ऐसा नहीं है तो क्यों गांधी जी 30-35 वर्ष तक अंग्रेजों से जिस आजादी हेतु संघर्षरत थे उसी के मिलते ही दिल्ली से कहीं दूर जाकर एकांत में बैठ गए तथा किसी भी सत्ता हस्तांतरण के समारोह में भाग नहीं लिया? जो गांधी सदैव प्रत्येक आंदोलन के अगुवा व कत्र्ता-धत्र्ता बने रहते थे वे क्यों आजादी के समय किसी द्वारा स्मरण नहीं किए गए? इस प्रश्न पर अधिकांशतः कांग्रेसी व अन्य दल मौन धारण किए रहते हैं। नेहरू व पटेल ने गांधी की मौजुदगी के बगैर कैसे सत्ता को अपने हाथों में धारण कर लिया? ऐसा तो नहीं है कि एक साजिश के तहत गांधी को सत्ता से दूर रहने को विवश कर दिया गया हो । एक मौके को हमने फिर से गंवा दिया तथा हम फिर से उसी गर्त में जा गिरे जिसमें 1947 ई॰ से पूर्व गिरे हुए थे । इतिहास में अनेक संदर्भ ऐसे मिल जाएंगे जिनमें एक साजिश के तहत सत्य पर पर्दा डालकर रखा गया था । भारत में भी ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं जिनकी वास्तविकता कुछ है लेकिन हम उनको जानते किसी अन्य रूप में ही हैं । निहित स्वार्थी तत्त्वों ने अनेक घटनाओं व तथ्यों को (दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक व शैक्षिक) अब तक छुपाए रखा है । इनसे जब-जब पर्दा उठाने का प्रयास किया जाता है ये निहित स्वार्थी तत्त्व हो-हटला करने लगते हैं ।
    भारत का स्वधर्म क्या है, भारत का दर्शनशास्त्र क्या है, भारत के नैतिक मूल्य कौन से हैं, भारत की समृद्ध राजनीतिक प्रणाली क्या है, भारत का संतुलित विज्ञान क्या है, भारत की समृद्ध वैज्ञानिक शिक्षा-प्रणाली क्या है, भारत की चिकित्सा के वैज्ञानिक सूत्र कौन से हैं, भारत का वसुधैव कुटुंबकम क्या है, भारत की बहुआयामी संस्कृति को कैसे अंधेरे में ढकेलने का कार्य किया जा रहा है, भारत के संस्कारों को कैसे जड़बुद्धि व रूढ़िवादी सिद्ध करने का षड्यंत्र चल रहा है, भारत को कैसे इंडिया बनाने की सबको जल्दी है, भारत की न्याय-व्यवस्था को कैसे अंग्रेजी सोच को गिरवी रख दिया गया है, भारतीयों के आचरण में कैसे विदेशी अवैज्ञानिक विचार घर बना रहे हैं- आदि-आदि सभी प्रश्नों पर विचार करके उनको भारतीयों के जीवन में गहरे से उतारने की जरूरत है ताकि वे जान व समझ सकें कि हमारा कल्याण अपने स्वयं से ही होगा, न कि इग्लैंड, अमरीका, रूस या जापान से । ऐसे ही विदेशी सोच के गुलाम कुछ भारतीयों के षड्यंत्र स्वरूप गांधी को राष्ट्र की आजादी के वक्त ही दूध में मक्खी समझकर दूर फेंक दिया गया था । राष्ट्र अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो चुका था । इसी को इन निहित स्वार्थी तत्त्वों ने अपने लिए उचित अवसर समझा और राष्ट्र को एक अन्य गुलामी में धकेल दिया । भाषा, जीवनशैली, आचरण, न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था, आर्थिक प्रणाली, राजनीतिक सोच, संविधान निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में हमें गुलाम बनाकर रखा गया है अब तक । खिलजी, अकबर, गजनवी, औरंगजेब, शाहजहां, चंगेज, नादिर, कार्नवालिस, मैकाले, मांउटबैटन आदि अब भी हमारे शरीर व मनों में घुसकर अट्ठास कर रहे हैं तथा भारत, भारती व भारतीयता का मजाक उड़ा रहे हैं । किस प्रकार की स्वाधीनता हमें मिली है? होंगे कुछ लोग स्वाधीन लेकिन भारत तो अब भी गुलाम है। पूरे भारत में सार्वजनिक स्थलों पर लाखों की संख्या में लगी हुई गांधी की मूर्तियां हम भारतीयों से यही प्रश्न पूछ रही हैं लेकिन हममें से कोई उनकी आवाज को सुनता ही नहीं है । सुनो सावरकर को, सुनो सुभाष को, सुनो अरविंद को, सुनो चंद्रशेखर आजाद को, सुनो गांधी को । इन सब में से यदि किसी को इनकी आवाज सुनने को मिल जाए तो गांधी जी की आवाज सर्वाधिक मर्मांतक मिलेगी क्योंकि गांधी जी ने जिन सपनों को बुना था उनके समीप वालों ने ही उनको धोखे से दूर फेंक दिया । आज जो लोग गांधी को अपना पूजनीय व आदर्श मानते हैं वे ऐसा मानकर शायद अपने पापों का प्रायश्चित ही कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने वास्तव में गांधी की एक न सुनी तथा उनके सारे आदर्शों को कुड़े की टोकरी में फेंककर राहत की सांस ली । भारतीय जनमानस से जो जुड़ाव गांधी जी का था वह उनके बाद किसी भी नेता का नहीं रहा । धोखे दिए हैं सबने इस राष्ट्र को। गांधी जी ने करीब 30-35 वर्ष तक एकछत्र राज्य किया भारतीयों की सोच पर, उनकी जीवन-शैली पर तथा उनके आचरण पर। यह सब भारत की सनातन से चली आ रही परंपरा ही थी । गांधी जी ने भी इसे ही पहचाना था । वे कहते भी थे कि जब मैं भारत लौटा तो मैंने उन्हीं भावों और विचारो को अभिव्यक्ति दी जो कि भारतीय अपने मन में स्वयं पहले से जानते थे और अनुभव करते थे। निश्चित ही गंाधी जी के नेतृत्व में भारत जो कुछ कर पाया और प्राप्त कर सका, उसके मूल में गांधी जी की भारतीय समाज से यह सहज एकात्मता ही नहीं थी, उनकी संगठन क्षमता तथा आध्यात्मिक व बौद्धिक सामथ्र्य भी इस सफलता व उपलब्धि का आधार रही है।
    हमने पिछली कई सदियों से अपनी प्रतिभा को पहचानने से इन्कार कर दिया है । हमारे ठेठ गांवों के निवासियों की प्रतिभा भी इंग्लैंड, अमरीका, जापान, इटली या जर्मनी के लोगों से उन्नीस नहीं अपितु इक्कीस ही ठहरती है । लेकिन हमारी स्वयं के लोगों की प्रतिभा की उपेक्षा करे पश्चिम के पिछलग्गूपन की प्रवृत्ति के कारण हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं । स्वावलंबी बनने की बजाय हम परावलंबी बनते जा रहे हैं । बिना किसी पूंजी व अन्य बाहरी सहयोग के खेतीबाड़ी करके हमारे किसानों ने देश के गोदामों को पाटकर रख दिया है । यह उनकी मेहनत, प्रतिभा व आपत्तियों का सामना करने की संकल्पशक्ति के कारण ही संभव हो सका है । हम कोरी स्लेट नहीं हैं कि जिस पर सब कुछ नया ही लिखा जाना है अपितु हम एक समृद्ध व अनुभवी राष्ट्र हैं जिसके पास अपना एक समृद्ध, विकसित, वैज्ञानिक एवं जमीन से जुड़ा हुआ तंत्र है । हमारे अतीत के बारे में एक मोटी धारणा बनी हुई है कि हमारे ग्रामीण कोई हजार या उससे ऊपर सालों से बेहद गरीबी में जी रहे हैं । उनके शासकों और उनके सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों के द्वारा उनका भयानक शोषण हुआ है और उन्हें अत्यंत पीड़ाजनक स्थितियों में रखा जाता रहा है । इन परिस्थितियों ने उन्हें कुंठित रखा है । वे या तो दिग्भ्रमित रहते हैं या अंधविश्वासों व पूर्वाग्रहों के शिकार । इन मान्यताओं के आधार पर हमने यह नतीजा निकाल लिया कि हमें यानि कि नए भारत के निर्माताओं को कोरी स्लेट पर अपनी इबारत लिखनी है और इसीलिए उन पर जैसा चाहे वैसा विचार और व्यवस्था की छाप लगा सकते हैं। हमने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि इन लोगों की अपनी कोई स्मृति है, अपने विचार हैं, प्राथमिकताएं हैं, अभिरूचियां हैं । जब ऐसा सोचा भी गया तो उसे महत्त्वहीन मानकर दरकिनार कर दिया गया।
    हमें अपने अतीत से तोड़ दिया गया है। हम सब महत्त्वपूर्ण आधुनिक काल को मानने लगे हैं । हमारे चित्तों को एक षड्यंत्र के तहत इतना प्रदुषित कर दिया गया है कि हम अपने घर को ही गालियां देने लगे तथा कुत्सित विदेशी हमें स्वर्णिम लगने लगा है। हम पश्चिमी देशों या अरब देशो की तरह क्रूर, हमलावर व आततायी न होकर सहिष्णु, नरम एवं करूणावान हैं । हम अभाव में किसी अन्य पर हमला करके उसके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते; जिस तरह से पिछले 1300 वर्ष से इस्लामी, अफगानी व अंग्रेज हमलावर भारत के साथ करते रहे हैं । आज भी प्रतिदिन होने वाली आतंकवाद की घटनाएं इसी की ओर संकेत करती हैं। अपने स्वयं को बदलने के बजाय दूसरों को ही बंदूक के आतंक के जरिए बदलने का आतंकी कुकर्म दो विशेष संप्रदायों के लोग कर रहे हैं । हम भूखे-प्यासे होकर भी किसी को कुछ नहीं कहते हैं तो शायद इसको हमारी कमजोरी, काहिलपना या कायरपना मान लिया जाता है या मान लिया गया है । दुर्घटना तो तब घटित हुई जब इसे ही भारत का मूल दर्शन मान लिया गया । किसी भी हालत में किसी पर हिंसा न करो, इस उपदेश को भारत का राष्ट्रीय उपदेश मानकर हमने अपने राष्ट्र को सर्वाधिक बड़े संकट में डाल लिया है । पता नहीं गांधी जी ने इसे ही क्यों सर्वोच्च एवं अखंड उपदेश क्यों मान लिया? इस उपदेश ने हमारा सत्यानाश करके रख दिया है । गांधी जी की इस अंध-धारणा ने हमें कहीं का भी नहीं छोड़ा है और इसे ही हमारी सरकारों ने आजादी से लेकर अब तक भारत की सर्वोच्च नीति घोषित करके भारत का वह नुकसान किया है जिसकी भरपाई हम शायद कभी भी नहीं कर पाएंगे । छोटे-छोटे देश व आतंकी संगठन हमारी अस्मिता पर हमला करके हमें अपमानित कर रहे हैं लेकिन हम हैं कि पंचशील, गांधीवाद व इस तरह की अन्य बेवकूफियों में उलझकर अपने राष्ट्र को बर्बाद कर रहे हैं । हम अन्य देशों पर हमला न करें लेकिन अपनी सुरक्षा भी न करें यह कहंा की समझदारी हैं? हमारा स्वधर्म यह कहता है कि हम इसके लिए कुछ भी करें लेकिन इसकी रक्षा अवश्य करें । अपने ‘स्वधर्म’ हेतु भगवान् श्रीकृष्ण ने तो मरने तक की सीख दी है-
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह ।
    भारत को जानने का प्रयास पिछले छह दशक से उन स्त्रोतों से किया जाता रहा है जो सतही, भेदभावपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त, तथ्यों से परे एकांगी एवं किसी दूसरे राष्ट्र पर येन केन प्रकारेण शासन करते रहने की कुदृष्टि से ग्रस्त हैं । भारत को जानने के इस्लामी व अंग्रेजी स्त्रोत पूरी तरह से इसी कोटि में आते है तो इन्हें सही कैसे कहा जा सकता है? अब तक हमारा इतिहास ज्यादातर दरबारी इतिवृत्तों और ताम्र अभिलेखों, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांतों आदि पर आधारित रहा है। इस इतिहास लेखन की दिशा और स्वरूप तथ्यों पर कम विचारात्मक आग्रहों पर ज्यादा रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी की यूरोप की इतिहास दृष्टि के अनुसार समाज के विकास में सामंतवाद एक सीढ़ी के तौर पर जरूर होना चाहिए, इसलिए यह मान लिया गया कि भारत में भी एक दौर जरूर होगा.... एक डच यात्री ने जहांगीर के शासनकाल में पाया कि भारतीय भोजन उसकी रूचियां व हाजमें के अनुकूल नहीं बैठ रहा तो मान लिया गया कि भारतीय भोजन खराब और तकलीफदेह था और आम लोग भयानक हालत में रह रहे थे । इस यात्री की शिकायत दरअसल यह थी कि भारत में गाय के मांस पर पाबंदी लगी हुई थी। सतरहवीं शताब्दी का एक यूरोपीय लेखक कहता है कि उस समय दिल्ली पेरिस जितनी बड़ी दिखती थी और पेरिस में उन दिनों पांच लाख रहते थे तो मान लिया गया कि दिल्ली में भी उतने ही लोग रहते होंगे ।  इस तरह की भातरीय इतिहास के साथ अनदेखी जान बूझकर की गई है ताकि इसके निवासियों में स्वयं के राष्ट्र व स्वयं के धर्म के प्रति हीनता की भावना तथा इस्लाम व ईसाईयत के प्रति झुकाव को बढ़ावा दिया जा सके ।
    भारत राष्ट्र को समस्त धरा पर यह गौरव प्राप्त है कि इसने सदैव सब विचारों, मतों, संप्रदायों एवं जीवन पद्धतियों को फलने-फूलने का मौका दिया है । इस्लाम, ईसाईयत, यहुदी व पारसी संप्रदायों को मानने वाले देश आधुनिक काल में दूसरे मतों व संप्रदायों को फलने-फूलने का मौका नहीं देते हैं । सऊदी अरब व वेटिकन सिटी में कोई अन्य संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति रह भी नहीं सकता । अपनी मान्यताओं का पालन करते हुए, विचारों की अभिव्यक्ति की बात तो बहुत दूर की बात है । भारत में हरिद्वार, बनारस, उज्जैन, पुस्कर, कुरुक्षेत्र, तिरूपति आदि धार्मिक स्थलों पर अन्य विचारधाराओं को मानने वाले लोग रहते ही नहीं है अपितु इस राष्ट्र के साथ इसके धर्म के साथ विश्वासघात भी करते हैं । इस तथ्य पर पता नहीं क्यों हमारे सेक्यूलरवादी, कांग्रेसी व आधुनिकता के पैरोकार कहे जाने वाले विद्वानों की बोलती बंद हो जाती है? यदि हम इस्लाम का जिक्र करें तो भारत को इससे कभी आपत्ति नहीं रही है । आपित्त रही है तो हमें इस्लामवाद से रही है । इस्लामवाद अन्य किसी मजहब, मत, संप्रदाय, विचारधारा व पूजा-पद्धति को अपने साथ-साथ फलने-फूलने का मौका नहीं देता । कुछ हिंदू भी इस इस्लामवाद के कुचक्र में स्वार्थवश फंसे हुए हैं । प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल ने इस्लामवाद की पांच विशेषताएं गिनवाई हैं  ।
(क)    इस्लाम के प्रवेश से पूर्व भारतीय समाज एक घोर अंधकार में डूबा हुआ था ।
(ख)    इस्लाम ने ही सर्वप्रथम भारत को सम्यक् सदाचार, एकमात्र मानवीय संस्कृति तथा एकमात्र प्रगतिशील समाज व्यवस्था को प्रदान किया ।
(ग)    एशिया व अफ्रीका को इस्लामवाद ने सभ्य बना दिया है जबकि भारत में यह कार्य अंग्रेजों की वजह से अधूरा रह गया है ।
(घ)    पाकिस्तान तो बन गया है परंतु संपूर्ण भारत पर विजय करनी अभी बाकी है ।
(ङ)    इस्लाम को यह अधिकार है कि वह जरूरत पड़ने पर शक्ति का प्रयोग करके भारत को दारूल इस्लाम में बदल डाले ।
    भारत का स्वधर्म एवं स्व-दर्शनशास्त्र ऐसी मूढ़ताओं को कभी भी आश्रय नहीं देता है चाहे इस्लामवादी, अंग्रेज, मैकालेवादी तथा कांग्रेसी कितना ही जोर लगा लें । भारत का स्वधर्म हिंसक नहीं है लेकिन आततायी को दंडित करने से वह हिंदू को रोकता भी नहीं है । बर्बरता, आतंक, उपद्रव, हिंसा, आक्रमण आदि का सनातन भारतीय संस्कृति समर्थन नहीं करती लेकिन कोई हमें अकारण परेशान करे तो यह हमें उसे दंड देने को उपदेश भी देती है। ये बर्बरता व आतंक आदि मूलतः भारतीय हैं ही नहीं । ये सब इस्लामवाद व अंग्रेजियत की देन हैं । 1480 के आसपास इग्लैंड के हेनरी सप्तम ने जान के वाट और उसके बेटे को शाही झंडे के नीचे किसी भी किले, शहर या द्वीप या मुख्य भूमि जहां भी संभव है पर कब्जा करने और राज्य करने के अधिकार दिए थे । एक ही शर्त थी कि यहां से होने वाली आमदनी का पांचवां हिस्सा वे राजा के खजाने में जमा कर देंगे ।  अंग्रेज दूसरे देशों के प्रति तो अत्याचारी थे ही स्वयं अपने देश के लोगों के प्रति भी वे जघन्य व्यवहार करते थे । भारत में अंग्रेजों ने जो किया, वह इंग्लैंड ने 11वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका में दोहराया गया । ब्रिटिश सत्ता के उत्तराधिकारी अमरीकीयों ने 18वीं व 19वीं शताब्दी में अपने तेजी से फैलते साम्राज्य में भी यही किया । भारत में फिर उनके द्वारा किया जाने वाला विनाश, दमन और उनकी पैदा की गई अव्यवस्था इन इलाकों के मुकाबले हल्की लगती है ।  अंग्रेजों ने अपनी स्वयं की प्रजा तथा भारतीय प्रजा के साथ जघन्य, अमानुषिक तथा अवर्णनीय अत्याचार किए थे । इनका वर्णन करने से आजकल के कांग्रेसी बचते हैं तथा जो ऐसा करते हैं उनको ये अलगाववादी, हिटलरवादी या सांप्रदायिक की उपाधियां देने से नहीं चूकते । तथ्यों को ठीक उसी रूप में स्वीकार करना जैसा कि वे हैं, इनको कभी नहीं सुहाता । भारतीयों द्वारा की गई विजय यात्राओं, विश्वविजयों, अश्वमेघ यज्ञों या राजसुययज्ञों को इस संदर्भ में ठीक तरह से प्रस्तुत किया जाना जरूरी है । भारत की हिंसा किसी पर जुल्म करना नहीं अपितु आततायी को उसके द्वारा किए गए जुल्म की सजा देना है । अंतर को समझने का प्रयास करें । शायद गांधीवाद ने हमें इतना खोखला कर दिया है कि हम इसे समझना ही नहीं चाहते ।
सन् 1000 ई॰ के पश्चात् लगातार हो रहे विदेशी हमलों, तोड़फोड़, विनाशलीला एवं मारकाट के बाद भी भारत में सन् 1800 ई॰ तक अपनी अनेक प्राचीन व्यवस्थाएं किसी न किी रूप में चलती रही थीं हालांकि गजनवी, गौरी, चंगेज, नादिर, बाबर, बख्तियार, अकबर, शाहजहां व औरंगजेब ने इन्हें नष्ट करने का खूब प्रयास किया था । विज्ञान, ज्ञान, अध्यात्म, योग, साधना, चिकित्सा, खेतीबाड़ी, भवन निर्माण, सड़क निर्माण, उपवन निर्माण, किले निर्माण, सैन्य व्यूह रचना, खगोल विज्ञान, समुद्र विज्ञान, ज्योतिष व विश्वविद्यालयीन शिक्षा व्यवस्था के पुरातन से चले आ रहे अनेक प्रयोग, शोध व प्रयास इस दौरान चलते रहे थे । यह जरूर हुआ कि सरकारी लूट के कारण व उस समय के हमलावरों व शासक राजाओं की मूढ़ता व अज्ञानता के कारण सरकारी मदद बंद हो गई। यह सब कार्य भारत राष्ट्र के लोग अपने स्तर पर ही कर रहे थे । निष्पक्ष अध्ययन करने से इसके अनेक सबूत हमें मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए हिमालय से लेकर तमिलनाडू तक तीर्थयात्रियों के ठहरने व विश्राम करने की एक सामान व्यवस्था ‘क्षत्रम्’ के नारा की जाती थी । सन् 1820 ई॰ में भी बंबई प्रेसीडेंसी में प्रत्येक गांव में एक स्कूल होता था । बड़े गांवों में तो एक से अधिक स्कूल भी थे । अंग्रेजी आधिपत्य में आने से पूर्व पंजाब के भी प्रत्येक गांव में स्कूल होता था । मद्रास प्रेसीडेंसी के प्रत्येक गांव में स्कूल की व्यवस्था थी । उस समय यूरोप में दी जा रही धर्मांधता की शिक्षा की व्यवस्था भारत में कहीं भी नहीं थी । स्वयं अंग्रेज अधिकारी ऐसा कहते हैं । तमिल भाषी क्षेत्रों में ब्राह्मण छात्रों का प्रतिशत 13 प्रतिशत जबकि शूद्र छात्रों का प्रतिशत 76.19 प्रतिशत था। मालाबार में ब्राह्मण छात्रों की संख्या 20 प्रतिशत जबकि शूद्र छात्रों की संख्या 54 प्रतिशत थी । कन्नड़ भाषी क्षेत्रों में ब्राह्मण छात्रों की संख्या 33 प्रतिशत तथा शूद्रों की संख्या 63 प्रतिशत थी। ऐसी ही स्थिति बाकी भारत में भी थी । यह शिक्षा की व्यवस्था नव-प्रबुद्ध वर्ग, साम्यवादी, नेहरुवादी एवं पाश्चात्य विद्वानों की भारत के संबंध में बनाई गई धारणा से कतई विपरीत है ।  ब्राह्मणों का शिक्षा पर एकाधिकार की सब मिथ्या धारणाएं इससे अपने आप ध्वस्त हो जाती हैं । समूचे भारत में शिक्षा की एक ही व्यवस्था थी। अंग्रेजों ने भारत में आकर शिक्षा की व्यवस्था को सुधारा नहीं अपितु यहां सनातन से चली आ रही शिक्षा-व्यवस्था को मिटाकर अपने स्वय की मनमानी व्यवस्था थोप दी । इसी का परिणाम है कि आज 2014 में भी भारत पूरी तरह साक्षर नहीं है । विज्ञान व प्रौद्योगिकी तथा चिकित्सा की भी भारत में सदैव से समुचित व्यवस्था रही है । भारत की गुलामी के संबंध में यह बिल्कुल मिथ्या धारणा है कि भारत उन्नत विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा तथा सैन्य विज्ञान की कमी की वजह से बाहर से आए आक्रमणकारियों से हारा तथा अंग्रेज आदि इसमें सदैव विजयी रहे । यह धारणा कतई मिथ्या है । अंग्रेज उन्नत प्रौद्योगिकी से विजयी नहीं रहे अपितु वे विजयी रहे विश्वासघात, छल कपट, अत्याचार, उत्पीड़न, नियमविहीनता, दोगलेपन तथा अनीति के बल पर। भारत का विज्ञान, यहां की खेतीबाड़ी, खेती की उपज, चिकित्सा पद्धति, राजनीति, ग्राम व्यवस्था, शिक्षा की व्यवस्था आदि सब मुसलमान शासकों की अज्ञानता व हठधर्मिता की वजह से काफी कुछ बर्बाद हो चुके थे लेकिन वे पूरी तरह नष्ठ नहीं हुए थे । उनमें इतनी शक्ति अभी बची थी कि वे अंग्रेजों के लिए ईष्र्या का बने और वे ईष्र्या का कारण बने भी । अंग्रेजों ने पहला कार्य यहां विकास का नहीं किया अभी यहां हजारों वर्ष से मौजुद शिक्षा व्यवस्था, प्रौद्योगिकी, नैतिक जीवनमूल्यों, खेतीबाड़ी की तकनीक, भवन निर्माण शिल्प, उद्यान निर्माण शिल्प, कपड़ा निर्माण शिल्प, जहाजरानी, चिकित्सा विज्ञान व खान-पान को बर्बाद करने को वरीयता दी । आधिपत्य जमाने तथा भारतीयों को स्वयं की नजरों में गिराने हेतु यह आवश्यक था । उस समय लोहे को इस्पात में ढालने हेतु ब्रिटेन के लोगों को जहां 20 दिन लगते थे वहीं पर भारतीय उसी कार्य को मात्र ढाई घंटे में कर लेते थे । 18वीं शदी में भारत में बढिया बर्फ बनाने की तकनीक मौजूद थी। सन् के पौधें से कागज का निर्माण यहां पर किया जाता था । खेती और सिंचाई, फसल चक्र, खाद प्रयोग, बुवाई की विधि तथा अन्य उन्नत कृषि भारत में 18वीं शदी में मौजुद थी । उस समय भारत में प्रत्येक कृषि कार्य अति निपुणता, परिष्कृत बोध, कुशल प्रबंध तथा सक्षम भंडारण से संपन्न किया जाता था । अकाल, सुकाल, वर्षागम, शरदागम आदि काल ज्ञान, ऋतु ज्ञान, वायु प्रवाह का ज्ञान, फलों व अनाजों की विविध किस्मों, उनके गुण-प्रभावों का ज्ञान, बीजों की पहचान, पशुओं की नसल व क्षमता की पहचान, पशु-पालन एवं पशु आहार का ज्ञान आदि सब भारत में 18वीं शदी में उन्नत कोटि के थे । सिंचाई के अत्यन्त समुन्नत तरीके थे जिससे कि भूमिगत जल तथा वर्षा जल का सर्वोतम सदुपयोग हो । जल के सदुपयोग की राजस्थान जैसे मरूस्थलीय क्षेत्र में उच्चकोटि की तकनीक विद्यमान थी । मद्रास व मैसूर में उस समय एक लाख छोटे-बड़े सिंचाई के तालाब मौजूद थे। 1850 ई॰ तक अंग्रेजों द्वारा उन सबको नष्ट कर दिया गया । 18वीं शदी में इंग्लैंड में उस समय कृषि उपज भारत से 1/3 ही थी। भारत में खेतीबाड़ी लोग स्वयं ही करते थे जबकि इंग्लैंड में यह कार्य दासों से लिया जाता था । भारत में उस समय कपड़ा उद्योग विकसित अवस्था में था । संसार के हर हिस्से में भारत का कपड़ा जाता था । अंग्रेजों ने अपने लाभ हेतु इस उद्योग को भी बर्बाद कर दिया । इस बर्बादी से भारतीय बेरोजगार होने लगे । चरक व सुश्रूत की पद्धति पर भारत में 1720 ई॰ से पहले ही चेचक का टीका लगाने की विधि मौजूद थी । शल्य चिकित्सा 18वीं शदी में भी इतनी बची हुई थी कि वह इंग्लैंड से कई गुना उन्नत थी । 1802 ई॰ में अंग्रेजों ने भारतीय तरीके से चेचक का टीका लगाना बंद कर दिया । इससे भयंकर महामारी फैली । खुद की टीका लगाने की उन्नत तकनीक अंग्रेजों के पास मौजुद नहीं थी तथा भारतीय पद्धति की उन्होंने उपेक्षा की । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत उन्नीसवीं व बीसवीं शदी में चेचक ने महामारी का रूप धारण कर लिया । एडिनबर्ग के गणित विभागाध्यक्ष प्रो॰ जान प्लेफेयर ने विस्तृत अध्ययन के बाद स्वीकार किया कि भारत में 3012 वर्ष ईसा पूर्व भी भारतीयों का गणित व ज्योतिष का ज्ञान उच्च कोटि का एवं सही ठहरता है । यह विवरण उन्होंने ईष्र्या पूर्ण से दिया है । बनारस में बनी मान मंदिर वैद्यशाला गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत तथा इंटिग्रल केलक्रूलस के गणितीय सिद्धांतों के ज्ञाने के बिना इतना सटीक बन ही नहीं सकता । यह भी इन महोदय ने अनमने ढंग से स्वीकार किया है। अतः उस समय के ब्रिटेन ने भारत से बहुत कुछ सीखा था ।  इसलिए यह कहना ठीक ही है कि ब्रिटिश जीत का कारण उनकी प्रौद्योगिक श्रेष्ठता नहीं अपितु उनका राक्षसी व्यवहार, विश्वासघात की नीति, छल-कपटाचरण तथा मर्यादाविहीनता थे । किसी भी मर्यादा, सदाचरण या नैतिकता को ब्रिटिश लोग नहीं मानते थे ।
    धन बटोरना ही इनका मुख्य ध्येय था । धोखाधड़ी, लूट, नरसंहार, फूट, विश्वासघात आदि से कमाए धन में से अधिकांश को अपनी जेब में डालकर ब्रिटेन ले जाना तथा वहां वैभव-विलास का जीना जीना ही अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य हुआ करता था । हां, अपने देश इंग्लैंड की सत्तासीन शक्ति को ये अंग्रेज अधिक धोखा नहीं देते थे । मैकाले व विलियम जोंस जैसे लोग भी भारत में लूट का खेल खेलने ही आए थे। विदेशी लूट ही उस समय के ब्रिटिशवासियों द्वारा ब्रिटेन की महती सेवा मानी जाती थी । 1750 ई॰ से 1830 ई॰ तक ब्रिटेन की यह लूट भारत में चलती रही थी। आश्चर्यजनक सत्य देखिए कि ब्रिटेन का भारत के प्रति यह व्यवहार कोई नया नहीं था अपितु यह तो पाश्चात्य सभ्यता तथा उसके मूल ग्रीक सभ्यता का मूलमंत्र था। उनकी शुरू से ही यह जीवनशैली रही है । वहां पर यह सब करने का एक वैचारिक सशक्त धरातल मौजुद था जिसे जाॅन लाॅक, एडम स्मिथ जैसे विचारकों ने अपने लेखन द्वारा मजबूती प्रदान की । भारतीय दर्शनशास्त्र में जब हम जाॅन लाॅक, बर्कले, ह्यूम, देकार्ते, स्पिनोजा, लाईबनित्स, कांट, रूसो आदि के संबंध में अध्ययन करते हैं तो उनके जीवन के इन महत्त्वपूर्ण पहलुओं की उपेक्षा कर दी जाती है तथा भारतीय दार्शनिकों (उन्हीं के समकालीन) के व्यक्तिगत जीवन पर खूब कीचड़ उछाला जाता है । भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन यह तो कतई नहीं है । भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन तो यह है कि जो जैसा है उसको उसी रूप में जाना जाय । तथ्यों को छिपाना या तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन की मान्यता नहीं है । यह पूर्वाग्रहपूर्ण, भेदभावपूर्ण एवं अनैतिक सोच पश्चिमी सभ्यता व उसकी मूल ग्रीक सभ्यता की संपति रही है । लेकिन हम भारतीय भ्रमित हो गए तथा लगे अपनी सभ्यता व संस्कृति की अंट-शंट व्याख्या करने । ऐसा लगता है कि भारतीय इतिहासकारों और बौद्धिकों ने अपने पश्चिमी स्वामियों से जो धारणाएं बिना गवेषणा के अंगीकार कर ली हैं उनमें से एक यह है कि भारत में स्थिति वही थी जो 18वीं शदी ई॰ के पश्चिमी यूरोप में थी ।  अठारहवीं शदी में मजदूरों को जो वेतन मिलता था उन्नीसवीं शदी में वह वेतन 1/3 ही रह गया था जो कि कई गुना बढ़ जाना चाहिए था । साधारण लोगों की आमदनी घटाई जाती रही, उनके शिल्प-कौशल, अधिकारों एवं आत्मगौरव को नष्ट किया गया, उन्हें लूटा-पीटा गया, मारा गया, निचोड़ा गया और चूसा गया तथा अपमान व अत्याचार से जर्जर किया गया । अंग्रेजों ने ही भारत में बंधुआ मजदूरी की शुरूआत की थी ।  भारत में 150 से 200 वर्ष के अंतराल में 10 करोड़ लोग अकाल मृत्यु के मुंह में चले गए । इससे कई गुना पशु मौत का शिकार हो गए । पशुओं की अनेक प्रजातियां नष्ट कर दी गई । पाश्चात्य पौधों को भारत में जबरदस्ती उगाने से पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ । वनों की कटाई अंधाधूंध तरह से की गई । कई खरपतवार भारत में ऐसे पैदा हो गए जिनका अब कोई ईलाज नहीं है । इसके साथ-साथ भारतीय पुरातन साहित्य की मनमानी व्याख्या करके उसे निकृष्ट व हीन सिद्ध करने हेतु ब्रिटिश सरकार ने सैंकड़ों विचारकों को नियुक्त किया । इस मूढ़ता का शिकार हमारे भारतीय विचारक बंधू तथा राजनेता अधिकांश रूप से हुए हैं । आज भी यह मूढ़ता धड़ल्ले से चल रही है। भारतीयता की सही तस्वीर दिखलाने वालों को आज सांप्रदायिक की गाली देकर उनका मुंह बंद करवाने का प्रयास किया जाता है। यह है तस्वीर हमारी दुर्गति की जिसका हम खामियाजा भुगत रहे हैं। हमारे अधिकांश विचारक, शिक्षक, धर्मगुरु एवं राजनेता इसके प्रति अचेत हैं । ऐसे में हमें करना क्या चाहिए जिससे कि हम अपने स्वधर्म व जीवन-दर्शन को जान सकें तथा उसके अनुसार जीवन जीकर भारत को भारत बना सकें?
    हमें पराजय-बोध से निकलना होगा । हमें गुलाम मानसिकता से छुटकारा पाना होगा । हमें हीनता की ग्रंथि से निकलना होगा । हमें पाश्चात्य निकृष्ट व पूर्वाग्रहपूर्ण सोच से अपने आपको शुद्ध करना होगा। ये सब वे महामारियां हैं जो भारत के पढ़े-लिखे कहे जाने वाले अधिकांश व्यक्तियों को लगी हुई हैं । उनको हर भारतीय वस्तु तुच्छ लगती है । यदि किसी भारतीय विचार, वस्तु या मान्यता का ये सम्मान करते भी हैं तो केवल तभी जब उसको पश्चिम के लोग मान्यता दे देते हैं । हमारे स्वधर्म व जीवन-दर्शन हेतु इनकी यह सोच बर्बादी का कारण बनी हुई है । भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, जीवन-दर्शन व आचरण के संबंध में पाश्चात्य विचारकों तथा वहां के राजनेताओं एवं उनके अंध पिछलग्गू भारतीय विचारकों व राजनेताओं की सोच विकृत व पूर्वाग्रहग्रस्त है । किसी भी सभ्यता के विनाश के लिए इतिहास का विकृतिकरण सदैव अनिवार्य हो जाता है । इतिहास का ऐसा विवरण दिया जाता है जिसमें पीड़ितों को पीड़ाकारक शैतान और आतताईयों और विनाशकों को वीर पुरुष बना दिया जाता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के पचास वर्षों में देश के इतिहास व संस्कृति पर आधारित राष्ट्रीय संस्थाओं के निर्माण में हमारे नेतागण पूर्णतः विफल वा असफल रहे हैं । इसके स्थान पर वे अपने पूववर्ती औपनिवेशिक शासकों से विचारों तथा निर्माण के रूप का आयात कर रहे हैं । एक देश जो अपने मध्य से नेता निर्माण नहीं कर सकता, वह स्वतंत्र होने का अधिकारी नहीं है ।  इतना बड़ा राष्ट्र विदेशी सोच, विचारधाना, शासनपद्धति, आर्थिक व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार से नहीं चल सकता । कोई यदि यह कहे कि पिछले साढ़े छह दशक से चलता तो आ रहा है तो वे गलतफहमी का शिकार हैं । भारत में ब्रिटिश पद्धति ही कार्य कर रही है तथा भारत को पूर्णतः आजाद कहना बेमानी ही होगा। जैसे अंग्रेज इस राष्ट्र को लूट रहे थे वैसे ही कुछ भारतीय भारत को लूटकर उस धन को विदेशों में जमा करवा रहे हैं ।
    यह अब अति आवश्यक है कि हम अपने आपको पराजय के बोध से दूर करें । पराजय के बार-बार स्मरण से मन की हीनता बढ़ती है और बुद्धि तथा चित्त सही नहीं रहते । इस हीनता के प्रभाव से भरपूर पराजय का स्मरण करते रहने के कारण ही विगत डेढ़ दो सौ वर्षों में हममें इतनी अधिक स्मृतिभ्रंशता आ गई है कि विदेशियों द्वारा हमारे बारे में जो अवधारणाएं और गाथा गढी गई, उन्हें ही हमने अपना ऐतिहासिक यथार्थ मान लिया । हार के बाद हमारे नव-प्रबुद्ध वर्ग को अपने समाज के परंपरागत जीवन में सभी प्रकार की कमियां ही कमियां दीखने लगीं । स्मृतिभ्रंशता का यह दारूण रूप है ।  भारतीय इतिहास को विकृत व दुषित करने का जो षड्यंत्र पहले इस्लामी शासकों व अंग्रेज विचारकों ने किया था उसी घृणित कार्य को आजादी के बाद साम्यवादियों व कांग्रसे पार्टी ने संपन्न किया । राष्ट्र भावना के प्रत्येक प्रसंग को भारतीय इतिहास से हटा दिया गया । ऐसी स्थिति पैदा कर दी इन्होंने कि हिंदू समाज को अन्यों की सभी मांगें मानना पड़ेंगी लेकिन हिंदू अपनी कोई मांग नहीं उठा सका ।  एकेश्वरवादी-पंथों यहुदी, पारसी, ईसाई, मुसलमान व साम्यवादी को आखिर में तानाशाह व एकाधिरवादी बन ही जाना पड़ता है । दूसरों के शोषण, उनकी लूट व उनको छोटा सिद्ध करने पर ही उनकी सफलता निर्भर होती है । स्वतंत्र चिंतन को इन एकाधिकारवादी पंथों में कोई स्थान नहीं होता है । मैं ही सही हूं बाकी सब गलत हैं- यह सोच होती है इनकी । भारत की यह सोच कभी नहीं रही । भारत ने सदैव तर्क, गवेषणा, आलोचना, समीक्षा, वाद-विवाद, खंडन-मंडन व अभिनव का स्वागत किया है । यहां कोई था और कैसी भी हठ धर्मिता नहीं है ।  यह भारत व भारतीय की मूल पहचान है । इस पर गर्व करें । निकाले अपने आपको हीनता की ग्रंथि के दलदल से ।
    भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन को समझने व भारतीयों के आचरण में उसको उतारने हेतु यह भी जरूरी है कि हममें कौन सी कमी रही जिसकी वजह से हमारी यह दुर्गति हुई? हम विश्वविजेता थे तथा विश्वगुरु थे लेकिन फिर भी बारह शदी तक हम गुलाम क्यों रहे? ऐसा लगता है कि हमारे राजनीति तंत्र के शीर्ष स्थानीय लोगों का अपने व्यापक समाज से कुछ कटाव-विलगाव सात-आठ सौ या और अधिक वर्षों पहले आरंभ हो गया । सैन्य आक्रमण की स्थिति में, प्रतीकार का सीधा भार जिस सेना पर आ पड़ता है उस सैन्य शक्ति के बारे में शायद भारतीय समाज एक विशेष काल खंड में पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाया । इसका भी प्रमुख कारण यही दिखता है कि विश्व में ऐसे समूहों, समाजों और संस्थाओं तथा आदर्शों के उदय और विस्तार के बारे में भारतीय मनीषा बहुत कुछ अनजान रही, जो दूसरे मनुष्यों और समाजों का विध्वंश या कि पूर्णत अधीन बनाकर उनका अपने अनुरूप रूपांतरण करना अपना परम पुरुषार्थ या परम कत्र्तव्य मानते हैं तथा इसी में जीवन का वैभव देखते हैं ।  हम सनातन भारतीय प्रतीकार या प्रतिशोध के दर्शनशास्त्र को भूल गए तथा भगवान् बुद्ध के व जैन महावीर के उपदेशों की हमने गलत व्याख्या कर डाली । सर्वप्रथम यह कार्य सम्राट अशोक के प्रयास से शुरू हुआ । विदेशी आते रहे तथा हमें रौंदते रहे लेकिन हम हैं कि सर्वसमावेशी अपने आचरण के कारण उन सबको अपने में खपाने के ही संघर्ष में लगे रहे । इस खपाने के चक्र में हमारे अपने अनेक जीवनमूल्य नष्ट होते रहे - इसका हमने ख्याल नहीं किया । सबमें एक ही परमात्मा का अंश है । अंतः हम अपने दुश्मनों को भी क्षमा करते रहे जो कि सनातन भारतीय जीवनमूलयों के कतई विपरीत है । श्रीराम ने रावण को कब क्षमा किया था तथा श्रीकृष्ण ने कौरवों को कब क्षमा का दान दिया था? यह भूला देना हमारी महामूर्खता थी । भूमि भी हमारी, दुश्मन लड़े भी उसी पर तथा हमारे सिर पर अपने ही सिद्धांतों व आदर्शों को समझने की भूल- इसी कारण हम गुलाम होते गए तथा भूलते गए अपने स्वधर्म को व जीवन-दर्शन को । यह विनाशकारी सर्वसमावेशी सोच आज हमारी राष्ट्रीय पहचान बनी हुई है । हम क्यों अपने दुश्मन को अपने में खपाकर उसकी जीवनशैली को स्वीकार करें तथा अपनी का त्याग कर दें? अपनी इसी भूल की वजह से ही तो साभ्यवादियों को हमारे बारे में यह कहने का मौका मिला गया कि हम एक संस्कृति व एक राष्ट्र हैं ही नहीं अपितु हम तो अनेक संस्कृतियों व राज्यों का घालमेल मात्र हैं । त्याग करें इस मूढता का तथा सजग हों अपनी सनातन भारतीय संस्कृति, सभ्यता व जीवनमूल्यों के प्रति । बाहरी आक्रमणकारियों (पारसी, इस्लामी, ईसाई, साम्यवादी) की मानसिकता, उनकी सोच, उनके लक्ष्य तथा उनके साधनों को भलि तरह से समझना अति आवश्यक है । 12-13 शदी तक हम इसे समझने में विफल रहे लेकिन अब तो समझ जाएं । जिसे हमने अपना स्वयं माना है वह हमारा होना नहीं है, वह हम पर थोप दिया गया है । आज के सत्तासीन दल भी इसी को अपनी वास्तविकता मान रहे हैं- इन्हें समझाने व इनकी अक्ल को ठिकाने लगाने की आज बहुत बड़ी जरूरत है । यदि स्थायी आक्रमणभाव से संपन्न शत्रु लंबे समय तक देश में टिका-जमा रहे और युद्धरत रहे तथा अधिकांश भारतीय समाज को विनष्ट करने और अवशिष्ट समाज को अपने अनुरूप रूपांतरित करने की दीर्घकालीन कूटनीति पर चल रहा हो, तो ऐसे आक्रमणकारियों का सामना करने की क्या क्या नीतियां, उपाय और व्यवस्थाएं हो सकती हैं इस पर शायद भारतीय मनीषा ने अभी तक पर्याप्त विमर्श नहीं किया है । संभवतः इसी कारण हम देखते हैं कि चाहे विजयनगर राज्य हो, या मराठा राज्य या राजस्थान के राज्य, किसी ने भी इस्लाम के अनुयायियों के आक्रमण के निहितार्थों पर विस्तार और गहराई से समीक्षा की हो, विश्लेषण किया हो, उसके संदर्भ में दीर्घकालीन नीति निश्चित की हो, ऐसा नहीं लगता। इसी प्रकार पुर्तगाली, डच, फ्रैंच, अंग्रेजों के आने पर और भारतभूमि पर स्वयं को स्थापित करने पर इसके निहितार्थों का विचार भारतीय हिंदू या मुस्लिम राज्यों ने किया हो, ऐसा नहीं दिखता ।
    अपने राष्ट्र में अपने विरोधियों को मात देने हेतु अनेक प्रकार के ढंग होते हैं । विरोधी पक्ष की बुराईयों के बारे में बतलाकर, उनकी नीतियों की कमियों को बतलाकर, उनकी नीतियों की कमियों को बतलाकर, उनकी चारित्रिक कमियों को उजागर करके, उनकी प्रशासनिक अयोग्यताओं को बतलाकर या उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में असमर्थताओं का भांडाफोड़ करके उनको मात दी जा सकती है या फिर उन्हें लड़ाई में हराकर उन्हें मात दी जा सकती है लेकिन हमारे देश में पता नहीं किस अभागे क्षण में किसके चित्त में यह बात उठी कि देश में अपने शत्रुओं को विदेशियों से मदद लेकर हराया जा सकता है? वह क्षण हमारे भारत पर पिछली 13 शदियों से भारी पड़ा हुआ है । हमने इसके कारण इतना विनाश सहा है जितना सारे संसार ने मिलकर भी नहीं सहा होगा। बाहरी मदद चाहे पृथ्वीराज चैहान ने ली हो, जहांगीर ने ली हो, मराठों ने ली हो, विजयनगर राज्य ने ली हो- इन सबने बाहरी आक्रमणकारियों से मदद तो ली परंतु उसकी मनःस्थिति को नहीं समझा। हमने बाहरी आक्रमणकारी से मदद तो ले ली लेकिन उसकी मनःस्थिति न समझने के कारण उसके जाल में हम फंसते गए । स्वार्थ, पूर्वाग्रह, ईष्र्या, द्वेष, हीनता, बदले की भावना, लूट आदि से ग्रसित विदेशी सहायक रूपी हमलावरों ने हमें लूटकर खूब अपने खजाने भरे । उन्होंने हमारी सभ्यता, संस्कृति, दर्शन, जीवनमूल्यों, चिकित्सा, शिक्षा, विज्ञान आदि को नष्ट करके, उसकी मूढ़तापूर्ण व्याख्याएं करके तथा जबरदस्ती से धर्मांतरण करवाकर भारतवर्ष को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । बाहरी मदद लेते समय उसकी मनःस्थिति को समझना जरूरी था ताकि बाद में वहीं हमें धोखा न दे दे । लेकिन हम ऐसा करने में विफल रहे । पर-धर्म का सही-सही ज्ञान नहीं था, उसके रूपों और अभिव्यक्तियों की पर्याप्त जानकारी नहीं थी । आगे कभी फिर वैसी ही नई चुनौतियां आ जाएं और नए आक्रमण होते रहें, तो क्या करना है, इसकी कोई राष्ट्रीय नीति तैयार कभी नहीं हुई । उसका प्रयास भी हुआ नहीं दिखता। ऐसा न होने के कारण हमारे अभिजनों और राज्यकत्र्ताओं का विदेशी आक्रामकों से रिश्ता प्रगाढ़ होता गया । समय≤ पर के उस पर-निर्भर ही रहने लगे और इस प्रक्रिया में अपने स्वयं के समाज के प्रति उनका आत्मभाव समाप्त होता गया, पर-भाव आता गया । इस स्थिति की ओर शायद सचेत रूप से कभी ध्यान ही नहीं जा पाया । ऐसी स्थिति में अंग्रेज भारतीय समाज को विशेषतः उत्तर भारत में पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने में सफल हो गए ।  यह सब कोई विदेशियों के विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सैन्य संचालन, कृषि या शिक्षा में भारतीयों से बेहतर होने के कारण नहीं अपितु हमारे अंदर एक विशेष तरह की उस सोच की कमी के कारण हुआ जिससे हम उन विदेशियों की कपटचाल को समझने में असमर्थ रहे । हम समय पर कोई राष्ट्रीय हित का निर्णय लेने में लगभग विफल रहे तथा विदेशी हमारी इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाते रहे । यहां तक कि गांधी जी भी विदेशियों की सोच को समझने में विफल रहे । उन्होंने भी अली भाईयों से मिलकर गुप्तरूप से अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर हमला करने हेतु प्रेरित किया तथा उसे प्रत्येक प्रकार की मदद देने का आश्वासन दिया था ।
    भारत का स्वधर्म व जीवन-दर्शन इस योग्यता के बिना कतई अधूरा है कि भारत के शासक अपनी जनता-जनार्दन से संपर्क स्थापित करते हैं या नही करते हैं । भारत में सदैव से राजा का सीधा संपर्क जनता से रहता आया है । यह संपर्क जब नहीं रहा या ढीला पड़ा तभी उस राजा को उसके पद से पदच्यूत कर दिया गया । जब ऐसा नहीं हुआ तभी भारत की बहुत हानि हुई । यह राजा का प्रजा से सीधा संबंध टूटने का क्रम आज से लगभग 13 शदी पूर्व शुरू हुआ था जिसके नुकसान का भुगतान हम अब तक कर रहे हैं । आजादी से पूर्व गांधी जी तक भी विदेशी यानि अंग्रेज जाति की मनःस्थिति को समझने में बिल्कुल असमर्थ रहे तथा वे निरंतर उनके साम्राज्य हेतु शुभकामना करते रहे थे । जनता से संपर्क साधने में गांधी जी को सफलता मिली लेकिन वह जनता से उनका सीधे संवाद किसी काम नहीं आया क्योंकि उन्होंने सत्ता को हाथ नहीं लगाया तथा उसे उन्हें सौंप दिया जिनका जनता से सीधा संवाद कभी रहा ही नहीं था । स्थिति फिर पहले वाली ही हो गई। गांधी ने एक स्वर्णिम अवसर को गंवा दिया । यदि वे सत्ता की बागडोर स्वयं संभाल लेते तो शायद परिणाम कुछ दूसरे ही होते।  लेकिन ऐसा होने के पश्चात् भी उनकी विदेशियों (इस्लाम, अंग्रेज आदि) को न समझ पाने की वजह से शायद इस्लाम, ईसाईयत व अन्य संप्रदायों की मूल देशना को नहीं समझा और यदि समझा भी तो उस पर वे चलने की हिम्मत नहीं दिखा सके । वे सदैव हिंदुओं को कोसते रहे तथा मुसलमान व ईसाईयों को उनकी घातक गलतियों के बावजूद भी माफ करते रहे । अंग्रेज जाति ने भारत को हर तरफ से नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । अंग्रेजों को सामाजिक विध्वंश, जबरदस्ती से सामाजिक रूपांतरण का, आमजन को दास बनाकर रखने का अनुभव था । उन्होंने भारतीय विद्या, विज्ञान, संस्कृति, धर्म, शिल्प, कला, साहित्य, कृषि समेत समस्त साधनों एवं जैव द्रव्यों तथा बौद्धिक आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को अपने नियंत्रण में लेकर उन्हें अपने अनुरूप ढाला । जितना विध्वंश और जैसा रूपांतरण आवश्यक समझा किया ।  यह साधारणजन से सीधा संपर्क व संवाद, सन् 1947 ई॰ क पश्चात् भी कायम नहीं हो पाया है । इसी वजह से भारत के संस्थान पर विदेशी सोच साम्यवादी, इस्लामी, ईसाईयत व कांग्रेस हावी है । भारत का सत्यनाश अब भी पूर्ववत् चल ही रहा है। विदेशी सोच में रंगे भारतीय राज्यकत्र्ता भारत को इस्लाम, अंग्रेज, डच, डेनिस, पुर्तगालियों की तरह अपनी लूट की मंडी मानते है । खरबों डालर का भ्रष्टाचार करके कालाधन विदेशी बैंकों में जमा हो रहा है । भारत की अस्मिता को लूटकर अब भी ये विदेशी सोच के भारतीय भारत को बर्बाद कर रहे है । कोई आवाज उठाए तो तुरंत ये उसे सांप्रदायिक, देशद्रोही व अन्य गालियों से उसका मुंह बंद कर देते हैं । जनता का बहुमत अब भी इन विदेशी सोच के शासकों की कैद का गुलाम है । यह गुलामी टूटकर जब तक हमारे शासकों का सीधा संपर्क हमारी भारतीय जनता से नहीं हो जाता तब तक भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन इसी तरह घायल होता रहेगा । मूच्र्छा से जागने पर ही यह संभव हो सकेगा । विदेशियों या विदेशी सोच के भारतीय शासकों ने हमारे बारे में जो कुछ कहा है वह कतई सत्य नहीं है - इसे हमें जानना है । इसकी हमें पहचान करनी है । इसे हमें हमारे राष्ट्र के हरेक नागरिक तक प्रेषित करना है ।
    भारतीयों के पास इस समय जिस चीज की सर्वाधिक कर्म है वह है संकल्प, इच्छा शक्ति, आत्मबल एवं कार्य को क्रियारूप में परिवर्तित करने की धुन । अपने ‘स्व’ को पहचानने व उसके अनुसार चलने का हममें साहस रह नहीं गया है । इस हेतु जिस संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति व आत्मबल की जरूरत है वह हमारे भीतर सुप्तावस्था में पड़ा है । विदेशी सोच की अफीम ने उसे हमारे अंतःकरणों में दबाकर रखा हुआ है । एक समय जापान विदेशियों के प्रत्येक प्रकार के आक्रमण से ग्रस्त था लेकिन अपने ‘स्व’ की पहचान करके उन्होंने आज अपनी तरक्की के झंडे गाड रखे हैं । चीन का भी यही हाल है । स्वयं इंग्लैंड भी शताब्दियों तक विदेशियों की मार को सहता आया था लेकिन अपनी शक्ति को पहचानकर उन्होंने समस्त धरा पर राज्य स्थापित करने में सफलता अर्जित की । जब यूरोपीय समाजों ने फैलना शुरू किया तो उनके पास साधन विशेष नहीं थे । न शिक्षा, न विज्ञान, न प्रौद्योगिकी, न कृषि, न शिल्प, दूसरों की तुलना में उनके पास ये कोई विशेष नहीं थे । उत्पादन और पूंजी भी अन्य समाजों से अधिक नहीं थी किंतु उन्होंने संकल्प बल और इच्छाशक्ति के साथ संगठित ढंग से फैलना शुरू किया । वैसी व्यवस्थाएं बनाते गए तथा फिर साधन भी जुटते गए। विश्व के सभी समाजों तथा व्यक्तियों के लिए ये नियम सामान्य हैं ।
थोड़ा पीछे चलकर यदि भारतीय इतिहास का अवलोकन करें तो एक आश्चर्यजनक तथ्य संतों के जीवन में छिपा हुआ है । रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत की स्थापना अपने किसी विशेष उद्देश्य की सिद्धि हेतु की होगी लेकिन उसके आधार पर आगे चलकर जो संतों के एक लंबी परंपरा भारत में शुरू हुई उनमें से लगभग सभी राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रवाद, स्वदेशी भावना, राष्ट्र सुरक्षा जैसे मुद्दों से कोसों दूर रहे तथा लगभग सभी ही विधर्मियों को अपने में पचाने के कर्म में रत रहे । भक्त, भगवान व गुरू तथा साधना इनको इन्होंने अपना विषय मान लिया लेकिन जिस भारतवर्ष की सनातन परंपरा ने इनको यह सब प्रदान किया था इसके प्रति ये कतई बेसुध हो गए । भारत लुटता-पिटता रहा और ये संत, भक्त, भगवान्, साधनामार्ग के सूत्र लोगों को समझाते रहे। राष्ट्र को बचाने हेतु किसी रामानंद, कबीर, रैदास, दादू, मीराबाई, सहजोबाई, पलटू आदि ने एक शब्द भी न कहा । उन्होंने यह सब तो किया ही इसके साथ-साथ इन्होंने निम्न वर्ग को राष्ट्रीय चेतना से कतई सूना भी कर दिया । तुलसीदास की प्रसिद्ध पंक्ति ‘कोऊ नृप हमें का हानि’ संतों की इसी घातक सोच की परिचायक है । इन संतों ने अपने उपदेश अधिकांशतः निम्न वर्ग को दिए जबकि राज्यकत्र्ता वर्ग इनके संपर्क से दूर रहे । निम्न-वर्ग को इन्होंने राष्ट्रीय चेतना से दूर कर दिया तथा उच्च वर्ग से इनका संपर्क ही नहीं था - इसका परिणाम हुआ भारत की अधिक-अधिक गुलामी, विदेशियों से लड़ने की शक्ति का हृास तथा राष्ट्रवाद की भावनाओं का लुप्त होना । एक क्रांति हो सकती थी भारत में 13वीं 14वीं शदी में यदि उस समय के संत राज्यकत्र्ता वर्ग को अपने प्रभाव में लेकर उन्हें राष्ट्रवाद व देशभक्ति का पाठ पढ़ा देते । संतों की इस विफलता के कारण ही राज्यकत्र्ता वर्ग साधारणजन से दूर होता गया तथा वह विदेशी सोच का गुलाम बनता गया । उसे विदेशी सोच में सब कुछ नजर आने लगा तथा भारतीयता में हीनता प्रतीत होने लगी । अधिकांश राज्य संभालने वाले दासता की भावना से जकड़ दिए गए। यह दासता की भावना 1947 ई॰ के पश्चात् भी जारी रही क्योंकि स्वयं नेहरू व पटेल आदि भी उसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे । राष्ट्रवादी भावनाओं से ओतप्रोत गर्म दल के नेताओं को धीरे-धीरे ठिकाने लगा दिया गया । सही मायनों में भारत को तभी स्वतंत्र कहा जाएगा जब हमारी सोच भी स्वतंत्र होगी, विदेशियों की दास नहीं । इस समय तो कला, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, दर्शनशास्त्र, जीवन-मूल्य, सदाचार, राजनीति व विज्ञान आदि सब कहीं दासता का ही बोलबाला है । भारतीय शासक 1947 ई॰ के पश्चात् भारत की सत्ता उसी तरह से तथा उसी मानसिकता से चला रहे हैं जिस सोच व मानसिकता से अंग्रेज चलाते थे । यही है हमारी सभी समस्याओं की जड़ । आधुनिक राज्यतंत्र के दो-ढाई लाख व्यक्ति पश्चिमीकृत वर्ग की प्रशासनिक शाखा हैं, जिन्हें यूरोप की भाषा में भारत का ‘आॅफिसर क्लास’ कहा जा सकता है।  इस समय देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां, यहां की विविध संस्थाएं, शैक्षिक अकादमियां, परिषदें, संगठन आदि सभी विदेशी सोच से आक्रांत हैं। हमारे समकालीन अधिकांश दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री, अर्थशास्त्री, नीतिशास्त्री, वैज्ञानिक, कृषिशास्त्री, राजनेता व सुधारक पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे हैं तथा भारतीयता से रहित हैं । जमीन से उनका कोई जुड़ाव नहीं है । इस समय भारत में 20 करोड़ परिवार मौजुद हैं लेकिन इनमें से मात्र 2 लाख परिवार ही 1947 से लेकर आज तक भारत की छाती पर सवार रहे हैं । इन परिवारों का भारतीय जनमानस से कोई सीधा संपर्क नहीं है । ये 2 लाख परिवार अपना जुड़ाव भारत से न रखकर इंग्लैंड, अमरीका व आस्टेªलिया से अधिक रखते हैं । यह ‘आॅफिसर क्लास’ की अवधारणा मूलतः यूनानी व इसके बाद यूरोपीय है । ‘दार्शनिक राजा’ की अवधारणा जो प्लेटो ने प्रदान की थी उसके भारत में मानने वाले 2 लाख परिवार हैं लेकिन जितना समर्पण व राष्ट्रभक्ति पाश्चात्यों का अपने राष्ट्र व अपनी संस्कृति के प्रति है उतना इन भारतीय ‘आॅफिसर क्लास’ या ‘फिलाॅसफर क्लास’ का नहीं है । इनका तो अपने राष्ट्र से, अपनी भूमि से, अपनी संस्कृति व सभ्यता से अपने दर्शनशास्त्र से, अपने जीवनमूल्यों से, अपने खानपान से, अपनी शिक्षा से, अपनी चिकित्सा से व अपने विज्ञान से स्त्रीभर भी जुड़ाव नहीं है । ये तो अपने सभी भारतीय कहे जाने विषयों का घोर विरोध व अपमान करते हैं । ये तो भारत, भारतीय व भारतीयता के प्रति हीनता की ग्रंथि से इतने ग्रसित हैं कि किसी पतंजलि, कपिल या बुद्ध जैसे योगी को या फ्रायड जैसे मनसशास्त्री को काफी माथापच्ची करनी पड़ेगी । विदेशीपन को स्वीकार करके हमने भारत का कबाड़ा बना दिया है और इसे हम भारत की सनातन तस्वीर कहकर प्रस्तुत करते हैं । यह सफेद झूठ है । यह भारत की सनातन तस्वीर न होकर विदेशी सोच के भारतीयों द्वारा तथा उनके गुरू विदेशियों की कुव्यवस्था का दुष्परिणाम है । 13 शदी की बर्बादी के बाद बचे हुए को सनातन भारतीय कहना इसके साथ घोर अन्याय है । सभी भारतीय ‘आॅफिसर क्लास’ इस तथ्य को भलि तरह से समझ लें । विदेशी मूर्ख की साक्षी भी हमारे यहां प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत की जाती रही है तथा प्रतिभावान भारतीयों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है- यह कौन सी बुद्धिमानी की बात है? यह गुलामी, यह जड़ता, यह मूच्र्छा, यह मूर्खता, यह मूढ़ता तथा यह दासताभाव छोड़ें । इससे मुक्त होकर भारतीय राष्ट्र से जुड़ें । जुड़े क्या, जिस जुड़ाव को हमने भुला दिया है पिछली 13 शदी से, उसे स्मरण करें । इससे पूरे राष्ट्र का भला होगा । अपना भला तो होगा ही, इसके साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र का हित होगा तथा साथ में तृप्ति की जो अनुभूति होगी, वह अलग । भारतीय स्वधर्म व जीवन-दर्शन की यह महती सेवा होगी।
संदर्भ
धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 7
 .    धर्मपाल, अंग्रेजों से पहले का भारत, पृ॰ 9
 .    श्रीमद्भगवद्गीता
 .    धर्मपाल, अंग्रेजों से पहले का भारत, पृ॰ 15-17
 .    सीताराम गोयल, हिन्दू समाज: संकटों के घेरे में, पृ॰ 15
 .    धर्मपाल, अंग्रेजों से पहले का भारत, पृ॰ 19-20
 .    उपरिवत्, पृ॰ 20
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 34-35
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 46-55
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 62
 .    उपरिवत्, पृ॰ 64
 .    डाॅ॰ एस॰ एन॰ राजाराम, राष्ट्रवाद व भारतीय इतिहास का विकृतिकरण, पृ॰ 4, 9
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 67
 .    सीताराम गोयल, हिंदू समाज संकटों के घेरे में, पृ॰ 63-64
 .    वामदेव शास्त्री, एन॰ एस॰ राजाराम, हिंदू और राष्ट्रोत्थान, पृ॰ 15
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 68
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 68-69
 .    धर्मपाल, भारत को स्वधर्म, पृ॰ 69
 .    जगदीश वल्लभ गोस्वामी, गोडसे की आवाज सुनो, पृ॰ 36
 .    ओशो रजनीश की विचारधारा को समर्पित पत्रिका ‘यैश ओशो’ से साभार
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 71
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 72
 .    धर्मपाल, भारत का स्वधर्म, पृ॰ 81

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