बीसवीं एवं इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा एवं विडंबनापूर्ण आश्चर्य यदि किसी घटना को कहना हो तो वह यह है कि भारत सन् 1947 ई॰ में स्वतंत्र हो गया था तथा वह आज एक स्वतंत्र राष्ट्र है । ‘स्वतंत्र’ शब्द इतना कठिन नहीं है कि इसके अर्थ को भलि तरह से न समझा जा सके । स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्र में जीना । लेकिन हमारे यहां अपना तंत्र कहा है? हम जिस तंत्र में जी रहे हैं। क्या वह हमारा अपना है? हमने जिस तंत्र को 26 जनवरी 1950 को स्वीकार किया था तथा जिस तंत्र के तहत अंग्रेजों ने हमें आजादी प्रदान की थी, उस तंत्र में हमारा क्या है? कोई आठवीं पढ़ा छात्र भी यह बता देगा कि उस तंत्र में हमारा कुछ भी नहें है । भारत सरकार अधिनियम 1935 तथा जिस संविधान को हमने 26 जनवरी 1950 ई॰ को भारत में स्वीकार किया है - उन दोनों को पढ़ कर किसी अनपढ़ व्यक्ति को भी सुना दो, तो वह भी यही कहेगा कि ये दोना तो एक ही हैं । इन दोनों में कोई अंतर है ही नहें । भारत सरकार अधिनियम 1935 में जो व्यवस्थाएं की गई हैं वे सारी की सारी भारत को और भी कई शादिया तक गुलाम बनाए रखने के लिए की गईं थी । उसके अंतर्गत सारे कानून ब्रिटेन के शासन को बनाए रखने, मजबूती प्रदान करने एवं पाश्चात्य विचारधारा से प्रेरित हैं। भारतभूमि से जुड़ा हुआ, भारतीय जीवनमूल्यों से प्रेरित एवं निर्देशित, भारतीय जीवनशैली में सुधार हेतु या भारत के कल्याण हेतु उसमें कुछ भी नही है । उन सब कानूनों में भारतीयता है ही नहीं। भारतीय चेतना का स्पंदन उसम कहीं भी नहीं होता है । पूर्ण आजादी की, देश की अस्मिता की, देश की आन-बान-शान की, मातृभाषा की, भारतीय सनातन जीवन- मूल्यों की, भारतीय सनातन संस्कृति की, शिक्षा पद्धति की, औषधिशास्त्र की, चाल-चलन की तथा भारतीय विज्ञान की इन्ह कोई भी चिंता नहीं थी। ये तो येन-केन-प्रकारेण किसी मात्रा में ऐसी आजादी चाहते थे जिसके अंतर्गत इनको मंत्रीपद मिल जाएं। कद्रीय सत्ता बेशक अंग्रेजों के साथ रहे-इन्हें इसमें कोई आपत्ति नही थी। अंग्रेज पहले की तरह इस राष्ट्र को लूटकर इसके धन को ब्रिटेन में ले जाते रहे-इन्हें इसमें कोई आपत्ति नहीं थी
भारत को स्वतंत्र हुआ तब कहा जाता जबकि इसका अपना कोई स्वयं का तंत्र हो । सारे संसार से उधार में लिए तंत्र को यदि हम अपना कह तो यह किसी भी तरह से ठीक नहीं है । जिस तंत्र के अंतर्गत हम आजादी दी गई है, जिस तंत्र के कानून हमारे भारत में पिछले साढ़े छह दशक से लागू हैं तथा जो तंत्र अंग्रेजों ने हमें दिया है वह सारा का सारा उधारा एवं विभिन्न देशों से चुराया गया है । हमारा तंत्र, हमारा संविधान, हमारे कानून आदि सब हमारी भूमि, हमारे राष्ट्र, हमारे जीवन-मूल्यों एवं हमारी सभ्यता-संस्कृति के अनुकूल होने चाहिएं । अमरीका, जर्मनी, रूस, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों के संविधानों से कुछ धाराएं चुराई गई तथा इनको अंग्रेजों द्वारा निर्मित भारत सरकार अधिनियम 1935 से जोड़ दिया गया । हमारे सारे के सारे कानून विदेशी हैं । उन कानूनों को हमारे सिर पर रखकर हम आजादी देने का ढोंग कर दिया गया । अंग्रेजी सभ्यता में पले-बढ़े, शिक्षित-दीक्षित एवं उसी को भारत हेतु कल्याणकारी एवं वरदानस्वरूप मानने वाले दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, मोतीलाल नेहरू, गांधी, नेहरू आदि ने कभी भी भारत की आत्मा को स्पर्श करने का प्रयास किया ही नहीं । लंगोटी लगाने से या अहिंसा, सेवादि की बातें करने से ही कोई व्यक्ति भारतीय नहीं हो जाता । इनमें से किसने भारत की राष्ट्रभाषा, भारत के जीवन- मूल्यों , भारत के दर्शनशास्त्र, भारत के कानून, भारत के औषधशास्त्र, भारत की न्याय-व्यवस्था, भारत के खान-पान, भारत के पहनावे एवं भारत के विज्ञान को बचाने एवं उसे भारत हेतु आवश्यक बताने का प्रयास किया? किसी ने भी नहीं । सब के सब अंग्रेजी पढ़े-लिखे, अंग्रेजी जीवन-शैली को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले, अंग्रेजी जीवन-मूल्यों को भारत हेतु कल्याणकारी मानने वाले, अंग्रेजी भाषा के समर्थक तथा भारत को सांप-सपेरा का देश मानने वाले थे । कहने का तात्पर्य यह है कि ये सारे के सारे लार्ड मैकाले द्वारा निर्देशित थे । यदि भारत को नष्ट करना है तो इसकी संस्कृति के मूल स्तंभा पर कुठाराघात करो - इस सोच के शिकार होकर ये लोग कार्य कर रहे थे । इसी षड्यंत्र का दुष्परिणाम है कि भारत की आजादी के साढे छह दशक बाद भी गुलामी के सभी प्रतीक भारत की राजधानी दिल्ली समेत पूरे राष्ट्र में मौजुद हैं । हम शर्म आती होगी लेकिन उनको नहीं आती है ।
भारत की गुलामी को स्थायित्व एवं दृढ़ता देने के लिए जहां पर गुलामी के सबसे मजबूत प्रतीक अंग्रेजी भाषा को पिछले दशकों से जो महत्त्व व सम्मान दिया जाता रहा है - वह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है । उस रणनीति का एक तार हमारे सत्ता के लोभी पूर्व व वर्तमान के नेताओं से होते हुए लार्ड मैकाले तक जा जुड़ता है, जबकि दूसरा तार एक षड्यंत्र के तहत देश के अधिकांश संसाधनों पर कुछ ही लोगों का कब्जा बनाए रखने से जा जुड़ता है । देश का नागरिक पिसता रहे, मरता रहे या अन्य कोई जुल्म उन पर होता रहे - इन्ह इससे कोई मतलब नहीं है । सर्वसाधनसंपन्न यह राष्ट्र भिखारियों का राष्ट्र, सर्वशक्तिमान यह देश कायर व पलायनवादी, सर्वप्रतिभावान यह देश नकलची एवं तोतारटंत, सर्व तर्कवान यह देश अंधविश्वासी एवं विश्वगुरु यह देश अनपढ़ो का राष्ट्र वैसे ही नहीं बन गया । इस सबके पीछे एक गहरा षड्यंत्र काम कर रहा है । यह षड्यंत्र कई सदी पुराना है । इस षड्यंत्र का हिस्सा मुगल, मंगोल, इस्लामी हमलावर, पुर्तगाली, अंग्रेज एवं उनकी भारतीय संतान हमारे तथाकथित कुछ महान नेता - सभी के सभी हैं । आज भी यह षड्यंत्र चल रहा है । यदि यह षड्यंत्र नहीं चल रहा होता तो कोई थोड़ी सी बुद्धि वाला व्यक्ति बता चलता है कि हमारे पास विश्वभाषा संस्कृत एवं हिंदी होने के बावजूद भी क्या नहीं उन्हें राष्ट्रभाषा का महत्त्व प्रदान किया जा रहा है? क्या भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी का गुलाम बना दिया गया है? क्या नहीं भारतीय विश्वविद्यालयों में विज्ञान, प्रबंधन एवं चिकित्सा-विज्ञान की शिक्षा हिंदी मे या अन्य भारतीय भाषाआ में करवाई जा रही है? क्या नहीं हमारे न्याय के मंदिरों में हम न्याय हमारी मातृभाषा में मिलता है? हमारे बारे में निर्णय होता है लेकिन हम ही नहीं समझ में आता कि क्या बोला जा रहा है । हमारे भाग्य का फैसला होता है और हमें उसे समझ नहीं पाते हैं । हमारे भाग्य का फैसला एक ऐसी विदेशी भाषा में होता है जिसको इस देश के 1% लोग ही मुश्किल से समझ पाते हैं । क्या नहीं हमारे देश के कर्णधार कहलाने वाले नेता देश की राष्ट्रभाषा को महत्त्व दे रहे हैं? क्या हासिल करना चाहते हैं वे इससे? देश के सत्ता-लोलुप नेता वोट तो मांगते हैं राष्ट्र की भाषाओं में लेकिन जब संसद एवं विधान सभाओं में देश की समस्याओं पर बहस होती है तो वह एक विदेशी भाषा अंग्रेजी में होती है । जिन भाषाशास्त्रियों ने हमें 200 वर्ष तक गुलाम बनाए रखा, हमारे राष्ट्र को जमकर लूटा, हमारी सभ्यता व संस्कृति को नष्ट करने हेतु अनेक घृणित कुकृत्य किए - उनकी ही की भाषा हम पर लादे जा रही है । पहले यह कार्य अंग्रेज कर रहे थे लेकिन अब यही कार्य हमारे हिंदुस्तानी भाई कर रहे हैं । धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक जो क्षति इन्हाने इस राष्ट्र की है तथा अब भी बेखौफ होकर कर रहे हैं - इसका जितना विरोध किया जाए, उतना ही कम है । दुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली दूसरी भाषा हिंदी की उपेक्षा कहीं विदेश में हो तो बात समझ में आती है परंतु जब भारतीय ही इसका विनाश करने पर तुले हा तो किसे क्या कहा जाए? इनकी यह सोच व जीवन-शैली देशद्रोह से कम नहीं है ।
हमारे राष्ट्र के सभी नागरिक अपनी राष्ट्रभाषा में शिक्षा ग्रहण करके देश को प्रत्येक क्षेत्र में विकास की ऊंचाइया तक ले जाएं, हम सहजता से व सरलता से किसी भी संकाय की शिक्षा अपनी राष्ट्रभाषा में प्राप्त करके मनचाहे अवसरा का लाभ उठा सकें - यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो । यह सब हो सकता है । परंतु इसके रास्ते में बाधा है तो केवल हमारे नेताओं की गुलामी की मानसिकता तथा साधारण जन गहरी निद्रा में सोए रहना है । नेता यदि प्रयास नहीं कर रहे तो साधारण जनता तो जाग ही सकती है । जागो भारत की जनता - जनार्दन ! राष्ट्रभाषा हिंदी को भारत के प्रत्येक क्षेत्र में लागू करने हेतु साधारण जन के जागने की जरूरत है । हिंदी भाषा में अपना बल तो है ही जिसके बल वह आज तक जनभाषा बनी हुई है । घोर उपेक्षा के बावजूद भी हिंदी अपना विस्तार कर रही है - यह किसी चमत्कार से कम नहीं है । यह चमत्कार सनातन आर्य वैदिक हिंदू संस्कृति के भीतर निहित अद्वैत चेतना का प्रकटीकरण है । जिस भाषा के कनिष्ठ व वरिष्ठ शिक्षक भी उसमें हस्ताक्षर करने से डर व अपने को अपमानित महसूस कर-उनकी मूढ़ता के बारे म क्या कहें? हिंदी के साहित्यकार व प्रोफेसर हिंदी में हस्ताक्षर करने में शर्म महसूस कर तो इसे दोगलेपन एवं लालच की पराकाष्ठा ही कही जाएगी । हमारे भारत में यह हो रहा है। चमत्कार देखिए कि हर तरफ से घोर उपेक्षा के बावजूद भी हिंदी आगे बढ़ रही है । देशवासी यदि थोड़ा भी ध्यान दें तथा अपने नेताओं पर दबाव बनाएं तो वह शुभ दिन दूर नहीं होगा, जिस दिन हमारी न्याय-व्यवस्था, विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, प्रबंधन एवं इंजीनियरिंग की शिक्षा हम अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में पाकर अपने एवं अपने राष्ट्र के जीवन को विकास व समृद्धि की नई ऊंचाईया पर ले जा सकेंगे । कोई महानायक भारत में अवश्य आएगा, जोकि ऊपर से हमारी व्यवस्था को ठीक करके राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्रवादी विचारा को जगाकर राष्ट्र के जीवन में प्राण फूंक देगा । राष्ट्रभाषा हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है । इसके इस भविष्य के रास्ते में जिसने भी बाधाएं खड़ी की, उसका विनाश सुनिश्चित है। समस्त राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य इस समय केवल राष्ट्रभाषा हिंदी ही कर सकती है। एक राष्ट्रभाषा हिंदी को सही मायनों में भारत में लागू करने से भारत की अनेक समस्याएं स्वयंमेव समाप्त हो जाएंगी । पूर्वकाल में यह भूमिका संस्कृत भाषा ने निभाई थी तथा आज यह भूमिका केवल मात्र हिंदी भाषा ही निभा सकती है । हिंदी के शिक्षकों पर भी बहुत बड़ा दायित्व है कि वे कुंभकरणी निद्रा से जाग तथा अन्यों को भी जगाएं ।
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