Saturday, December 16, 2023

(गीता जयंती के उपलक्ष्य में) निष्काम -कर्म कैसे करें? (On the occasion of Geeta Jayanti) How to perform selfless actions?)

          ज्ञात इतिहास में ज्ञान का आजकल जितना  विस्तार शायद ही कभी रहा होगा! इतनी पुस्तकें, इतने पुस्तकालय, इतने संग्रहालय, इतने आर्काइव, इतना सोशल मीडिया, इतना प्रिंट मीडिया, इतने मुख्य धारा के हजारों टीवी चैनल्स, इतने वृहद् स्तर पर विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा संस्थान दुनिया में शायद ही कभी ज्ञान लेने व देने का तंत्र मौजूद रहा होगा! लेकिन इसके साथ -साथ यह भी सच्चाई है कि दुनिया में ज्ञान को आचरण में उतारने की उपेक्षा भी आजकल जितनी कभी नहीं रही होगी! बच्चों से लेकर बूढों तक, अज्ञानी से लेकर संत महात्माओं तक, छात्र से लेकर शिक्षकों तक, शोधार्थियों से लेकर प्रोफेसरों तक, कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं तक सभी के सभी बिना सोचे -विचारे धडा़धड़ ज्ञान को एक दूसरे को पेल रहे हैं! ज्ञान को आचरण में उतारने के लिये कोई तैयार नहीं है! सभी यह सोचते हैं कि ज्ञान को आचरण में उतारने की जरूरत मुझे नहीं अपितु दूसरों को है! मैं तो जन्मजात ज्ञानी हूँ, ध्यानी हूँ, एक अच्छा नागरिक हूँ, बुद्धिजीवी हूँ, संवेदनशील हूँ तथा प्रेमपूर्ण हूँ! इस संसार को नर्क मैंने नहीं अपितु दूसरों ने बनाया हुआ है! काश! दूसरे सुधर जाते तो यह धरती स्वर्ग बन जाती है!
         हरेक व्यक्ति स्वयं को महाज्ञानी तथा अन्यों को महामूर्ख मानकर जीवन जी रहा है! एकतरफा भौतिकवादी जीवन-शैली की प्रधानता व व्यवस्था ने संसार को इतना अहंकारी, उच्छृंखल भोगवादी तथा स्वार्थी बना दिया है! जीवन मूल्यों को कोई भी अपने आचरण में उतारने के लिये तैयार नहीं है! और तैयार हो भी क्यों, क्योंकि इस तरह की शिक्षा हमारे शिक्षा संस्थानों, हमारे सत्संग घरों, हमारे राजनीतिक दलों,हमारे व्यापारिक घरानों व पारिवारिक माहौल में उपलब्ध ही नहीं है!एकतरफा पाश्चात्य उच्छृंखल भोगवादी उपयोगितावादी शिक्षा ने निष्कामता व निस्वार्थता को पूरी तरह से सब कुछ बर्बाद कर डाला है!
         धर्माचार्य, गुरु, संत, स्वामी, संन्यासी, महंत, मौलवी, पादरी, भिक्षु, सुधारक, नेता  व खुद माता पिता भी कहते कुछ हैं लेकिन करते उसका विपरीत हैं! शायद सबने यह स्वीकार कर लिया है कि सेवा, सत्कार, करुणा, प्रेम, सत्य,निष्कामता व निस्वार्थता आदि जीवन मूल्य सिर्फ मंचों से कहने के लिये होते हैं! इन पर चलने की या इन्हें आचरण में उतारने की जरूरत नहीं है! 'दुनिया ठगिये  मक्कर से, रोटी खाईये घी शक्कर से'- शायद यही सबका जीवन दर्शनशास्त्र व लाईफ फिलासफी बन चुकी है! और शायद इसीलिये दुनिया की अधिकांश सुख सुविधा की उपभोग सामग्री, धन दौलत व वैभव विकास की सुविधाएं गिने चुने लोगों के पास एकत्र हो गई हैं! धरती की अधिकांश मेहनतकश परिश्रमी गरीब जनता बदहाली का जीवन जीने को मजबूर है! आधुनिक वैज्ञानिक युग के लोकतंत्र की यही सच्चाई है!लोकतंत्र भयतंत्र बन गया है! जनमानस की समस्याओं का हल नहीं कर पाने वाले राजनीतिक धुरंधरों ने हमारे लोकतंत्र को लट्ठतंत्र में बदल दिया है! आप भूखों मरिये, प्यासे रहिये,बेरोजगारी में तिल- तिलकर तडपिये, अनपढ़ रहिये लेकिन वादाखिलाफी करने वाले कर्णधारों व नैतिक अनैतिक के प्रवचन देने वाले ठेकेदारों पर प्रश्न मत करिये! आप बस अपनी सारी कामनाओं का त्याग करके पूरे निष्काम- भाव से दिन -रात कठोर परिश्रम करते रहिये!जनमानस मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहकर भी निष्काम बना रहे और जिनके हाथों में धनबल, सत्ताबल,लट्ठबल है वो कामनाएं कर- करके राष्ट्र की अधिकांश दौलत पर सांप की तरह कुंडली मारकर बैठे रहें! महर्षि वेदव्यास ने तो श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से कुछ भी नहीं कहलवाया है! ये निष्कामता, निस्वार्थतता, कामनारहितता आदि के उपदेश क्या केवल गरीबों के लिये ही हैं? अमीर घरानों, कोरपोरेट घरानों, औद्योगिक घरानों,नेताओं, धर्माचार्यों, उच्च अधिकारियों,विधायकों, सांसदों, न्यायविदों आदि के लिये क्या ये उपदेश किसी काम के नहीं हैं?
           निष्काम -कर्म करने से मोक्ष  मिलेगा लेकिन सकाम- कर्म करने से सांसारिक सुख सुविधाएं मिलेंगी! तो ऐसे में कौनसा कर्म करना चाहिये? क्या मोक्ष केवल गरीबों को ही चाहिये?अमीरों को क्या मोक्ष की जरूरत नहीं है?भूखे ,प्यासे ,बेरोजगार, अशिक्षित, बिमार नागरिकों को  सर्वप्रथम मोक्ष नहीं अपितु अनाज, पानी, रोजगार, शिक्षा, आवास, चिकित्सा आदि की जरूरत है! माननीय धर्माचार्यों का काम केवल केवल गरीब नागरिकों को ही उपदेश देने का नहीं है अपितु उन्हें उन धन्नासेठों,धनकुबेरों, सत्ताधीशों,अरबपतियों को भी निष्काम-कर्म का उपदेश देना चाहिये; जिन्होंने राष्ट्र की अधिकांश धन दौलत को एकत्र किया हुआ है! पिछले सात दशक के दौरान भी यदि ऐसा किया गया होता तो शायद भारत इतनी असमानता, बदहाली, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी आदि समस्याएं नहीं होतीं! लेकिन जिनको भ्रष्टाचरण करना है वो हमारे श्रीमद्भगवद्गीता जैसे कालजयी ग्रंथों को भी अपनी कामनाओं, वासनाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम बनाने से पीछे नहीं रहते हैं!
          क्या ऐसा तो नहीं है कि श्रीमद्भगवद्गीता के निष्काम-कर्म के उपदेश का हमारे धर्मगुरु,गीताचार्य,व्याख्याकार, भाष्यकार, टीकाकार व कथाकार अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये मनघडंत मनमाना अर्थ कर रहे हों?गीता का प्रचार करने, गीता का उपदेश करने, गीता की व्याख्या करने, गीता का सत्संग करने आदि में भी कोई न कोई कामना अवश्य होती है! यदि यही सच है तो फिर दूसरों को निष्काम-कर्म का उपदेश क्यों? और यदि यह झूठ है तो गीता पर व्याख्यान, सत्संग, गोष्ठी, प्रवचन, कथा आदि करने वाले लोग बिना किसी पारिश्रमिक,चढावे, चंदे, महंगी यात्राओं, भव्य पंडालों,विदेशी गाडियों व सात सितारा महलों की सुविधाओं के बिना गीता पर प्रवचन, कथा, सत्संग, भजन, भक्ति, शिविर,व्याख्यान आदि करके दिखलाएं! दूसरों को गीता का निष्काम-कर्म का उपदेश देने से पहले स्वयं उस उपदेश को अपने आचरण में उतारकर दिखलाओ!
         जब तक कोई उपदेश आचरण में नहीं उतरे तब तक उसकी कोई सार्थकता व उपयोगिता नहीं है!और उपदेश को आचरण में उतारने का काम सर्वप्रथम हमारे इन तथाकथित बडों को करना चाहिये! केवल तभी तो छोटे कहे जाने वाले आम बहुसंख्यक नागरिक उन पर चलने का पुरुषार्थ करेंगे! बड़े धनी-मानी लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति करके सांसारिक मजे लेते रहें और बहुसंख्यक गरीब जनता जनार्दन निष्काम-कर्म करके अपनी फजीहत करवाती रहे! यह तो कोई समझदारी वाली सीख नहीं हुई! श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रंथ सबके लिये होते हैं, केवल गरीब के लिये नहीं!
          कोई भी सांसारिक व्यक्ति बिना कामना के कोई भी कर्म नहीं कर सकता है!संसार में रहते हुये साधु, महात्मा, स्वामी, संन्यासी, मुनि, योगी, मौलवी, पादरी, भिक्षु आदि की भी कोई न कोई कामना होती ही है! बिना कामना की प्रेरणा के कोई व्यक्ति कर्म करने के लिये प्रेरित हो ही नहीं सकता है! बिना कामना के कोई व्यक्ति कर्म की शुरुआत ही नहीं कर सकता है! जब कामना ही नहीं है तो कर्म भी क्यों किया जाये? संसार में रहते हुये अधिकांश कर्म कामना से प्रेरित होकर ही किये जाते हैं! वह कामना तामसिक, राजसिक, सात्विक आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है! भगवान् श्रीकृष्ण ने केवल इतना कहा है कि हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है,फल मिलने पर नहीं! और यदि यह सही है तो अधिकांश ध्यान, ऊर्जा व होश कर्म करने पर ही व्यय किया जाये;फलप्राप्ति की चिंता पर नहीं! फल की कामना करो लेकिन केवल फल की कामना से ही काम नहीं बनेगा! फल की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ तो करना ही पडेगा!
        कामना तो करो लेकिन कामना से ही मत चिपके रहो! कामना से गहरा राग रखना, कामना से ही चिपके रहना तथा कामना से आसक्ति रखना आदि कर्म को भलि तरह से नहीं करने देंगे! कर्म करना वर्तमान में है, जबकि फल भविष्य में मिलना है! भविष्य में मनचाहा फल मिले या नहीं भी मिले या मिले ही नहीं ! तो ऐसी स्थिति में फल के बारे अधिक सोचने की अपेक्षा कर्म करने पर अधिक ध्यान, ऊर्जा व होश करना चाहिये!इससे मनचाहा फल मिलने से अहंकार में बढोत्तरी नहीं होगी तथा नहीं मिलने पर हताशा हावी नहीं होगी!
          गीता के उपदेश को तोडमरोडकर समझने व प्रचारित करने की बजाय उसे सही तरह से समझकर प्रचारित करने की आवश्यकता है! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में एकत्र हुये पांडवों व कौरवों के साथ- साथ स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण,अर्जुन,महर्षि वेदव्यास, विदुर आदि सभी की कोई न कोई कामना अवश्य थी! सभी को युद्ध में विजय चाहिये थे, पराजय नहीं! जब वो सब ही कामना से रहित नहीं थे तो आज 5160 वर्ष के बाद के लोग कामनरहित कर्म क्यों करें?यहाँ पर यह ध्यान रहे कि  अपनी बात गलत सिद्ध होते देखकर हरेक प्रसंग में अध्यात्म व योग की बातों को डालकर जमीनी समस्याओं से पलायन करने का प्रयास नहीं करें! एक बार गीता के मूल श्लोक का अवलोकन भी कर लेना चाहिये! गीता के इस श्लोक 2/47 में कहा गया है कि हे अर्जुन तेरा कर्म करने पर अधिकार है, फल प्राप्त करने पर नहीं! इसलिये तू कर्मफल के प्रति आसक्ति मत कर तथा कर्म करने से भागना भी नहीं! यहाँ पर निष्कामता से अधिक कर्मफल के प्रति आसक्ति, राग या जुडाव नहीं रखने के प्रति है! इस श्लोक को आधार बनाकर स्वार्थी लोग शोषण, लूटपाट, भ्रष्टाचार, भेदभाव, आलसीपन व पलायनवाद को बढ़ावा देते आ रहे हैं तथा गरीबों,शोषितों, वंचितों, बेरोजगारों की जमीनी मूलभूत समस्याओं से ध्यान भटकाकर भारत राष्ट्र के चहुंमुखी विकास को बाधित करने का राष्ट्रविरोधी कार्य भी किया जा रहा है!

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आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119
मोबाइल- 8222913065

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