Friday, December 15, 2023

धर्म का ग्यारहवां लक्षण ‘अन्याय का बदला लेना’ है (The eleventh characteristic of religion is 'avenging injustice')-Acharya Shilak Ram

            महर्षि मनु ने धर्म के दस लक्षण बतलाएं हैं । लेकिन यदि महर्षि मनु आज संसार में जन्म धारण कर लें तो भारतीय दर्शन शास्त्र, धर्म, जीवन-मूल्यों, समाज, राजनीति, आर्थिक व अन्य विषमताओं को देखकर तथा भारत के शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा इनका अपमान होते देखकर वे जरूर धर्म के ग्यारहवें लक्षण ‘अन्याय का बदला लेने’ की सीख देते । अपनी मनुस्मृति में वे इसे अवश्य ही स्थान देते । क्या विदेशी तथा क्या स्वदेशी-सब के सब भारत व भारतीयता के पीछे पड़े हैं । ‘धर्म’ को ही ले लीजिए ।
              धर्म धारण करता है, धर्म स्वभाव है, धर्म दान है, धर्म क्षमा है, धर्म सत्य है, धर्म अहिंसा है, धर्म करुणा व प्रेम है-आदि आदि अनेक बातें धर्म के लक्षण बतलाते समय ऋषि, मुनि, संन्यासी एवं दार्शनिकों ने कही हैं । लेकिन यदि केवल इसे ही धर्म की व्याख्या मान लिया जाए तो यह सही नहीं होगा । सनातन आर्य वैदिक हिंदू संस्कृति का यही यदि धर्म का अर्थ स्वीकार कर लिया जाए तो इसके साथ घोर अन्याय तो होगा ही, इसके साथ-साथ इसे इस संस्कृति के प्रति अज्ञानता भी कहा जाएगा । कोई यदि यह कहे कि गांधी ने तो सत्य, अहिंसा, करुणा व सत्याग्रह आदि को ही धर्म कहा है । उन्होंने तो प्रतिशोध या बदला लेने की बात कभी भी नहीं कही । इस पर यह कहा जा सकता है कि गांधी को भारतीय शास्त्रों, यहां तक की संस्कृति एवं जीवन-दर्शन का भी सही ज्ञान ही नहीं था । उनकी शिक्षा-दीक्षा भी पाश्चात्य रंग-ढंग में हुई थी । उन्होंने अहिंसा, सत्य, प्रेम, अनशन, सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह आदि की अवधारणाओं को हिंदू शास्त्रों से ग्रहण न करके विदेशी टालस्टाय, रूसों, थोरो रस्किन, जीसस क्राईस्ट आदि से ग्रहण किया है । और तो और उन्होंने पैगंबर मोहम्मद से भी कई बातें ग्रहण की हैं । उन विद्वानों, उनके देशों तथा उनके संप्रदाय के अनुयायियों ने इस धरती को सर्वाधिक रूप से प्रदुषणयुक्त किया है, सर्वाधिक परमाणु बम व हाईड्रोजन, बम बनाकर रखे हुए हैं, सर्वाधिक रूप से वे इस समय आतंकवादी घटनाओं में संलिप्त हैं तथा सर्वाधिक धर्र्मांतरण उन्होंने ही किए हैं तथा अब भी धर्मांतरण करने में लगे हुए हैं । गांधी की अहिंसा एवं सत्यादि की अवधारणा भारतीय किसी भी रूप में नहीं है । गांधी की अहिंसा व सत्यादि की अवधारणा एकतरफा, एकांगी एवं पाश्चात्य परंपरा की अनुगामी है ।
              यहां पर यदि हम थोड़ा और गहराई से देखें तो हमें मालूम होगा कि गांधी की अहिंसा व सत्यादि की अवधारणा न भारतीय है तथा न ही पाश्चात्य । भारतीय संदर्भ में यदि हम धर्म के लक्षणों पर विचार करें तो अन्याय, दुष्टता एवं अत्याचार का प्रतिशोध लेना भी धर्मानुकूल है । केवल विधायक लक्षणों यथा अहिंसा, सत्य, प्रेम, क्षमादि को ही मानना धर्म नहीं अपितु दुष्टों को दंड देना आततायियों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना तथा हिंसक वृत्ति वालों से प्रतिशोध लेना भी धर्मानुसार है । सनातन आर्य वैदिक हिंदू संस्कृति के अधिकांश अवतारों ने इसी जीवन-शैली को अपनाया है। क्या परशुराम ने इक्कीस बार उस समय उदंड हो चुके क्षत्रियों को मजा नहीं चखाया? क्या मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले श्री रामचंद्र ने आततायी राक्षकों का संहार नहीं किया? क्या श्रीकृष्ण ने महाभारतयुद्ध में हिंसा, छल, कपट एवं प्रतिशोध की मदद लेकर लाखों कौरव सेना के क्षत्रियों को नहीं मरवाया? जब इन अवतारों ने प्रतिशोध लेने या दुष्ट व हिंसक प्रवृत्ति के लोगों को दंड देना अधर्म नहीं माना तो गांधी क्या इनसे भी बड़े हो गए? समस्त आर्य वैदिक सनातन हिंदू संस्कृति में दुष्टों व हिंसा करने वाले को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना अधार्मिक या गलत नहीं माना है । हमारे दो विश्व-प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण एवं महाभारत अहिंसा एवं हिंसा के प्रसंगों से भरे हुए हैं । इसके बावजूद भी गांधी व गांधीवादी केवल एक पक्ष का राग क्यों अलाप रहे हैं? कोई हम पर हिंसा करें, हमें सताए, हमारा शोषण करे तथा हमें मार भी डाले तो हमें सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लेना चाहिए तथा सत्याग्रह, अनशन आदि से ही इन सबका विरोध करना चाहिए - इस मूढ़तापूर्ण, एकांगी एवं राष्ट्रघातक सोच ने भारतवर्ष का इतना नुकसान किया है कि समस्त संसार के गणितज्ञ भी इसका हिसाब लगाने में असमर्थ रहेंगे। इस सोच ने सम्राट अशोक के पश्चात् भारतीयों के मन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था । भारतवर्ष की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर हम पर अधिक विदेशी आक्रमण होने शुरू हो गए थे। बीसवीं सदी के भारत पर इस विचारधारा ने जो घातक नुकसान पहुंचाए हैं उन सबकी जिम्मेवारी गांधी की बनती है ।
          जिन विदेशी विचारकों का गांधी ने अनुकरण किया है उन देशों के शासकों ने तथा सांप्रदायिक संप्रदाय प्रचारकों ने उपदेश तो दिए अहिंसा, प्रेम, सत्य, सेवादि के तथा हकीकत में एशिया, लैटिन अमरीका तथा यूरोप के देशों में करोड़ों निर्दोष लोगों को वे ही मौत के घाट उतारते रहे । उन देशों के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करके अपने स्वयं के देशों को संपन्न करते रहे । क्या गांधी को इतिहास की इतनी भी जानकारी नहीं थी कि वे इन पाश्चात्यों के दोगलेपन को समझ पाते? इस्लाम व ईसाईयत को मानने वाले देशों ने अकारण हत्याएं की, लूटमार की, शोषण किया, बलात्कार किए, मतांतरण किया, नरसंहारों को अंजाम दिया तथा आर्थिक रूप से अनेक देशों की कमर तोड़कर रख दी । परंतु भारतवर्ष में यहां के राजाओं या शासकों ने ऐसा कभी नहीं किया। उन्होंने जब जरूरत हुई तो ही हिंसा, प्रतिशोध व युद्धों का सहारा लिया । प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम तथा अहिंसा का प्रत्युत्तर अहिंसा से लेकिन जब कोई व्यक्ति या राज्य या संप्रदाय प्रेम व अहिंसा की भाषा को समझता ही नहीं तो उनको उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जाना चाहिए । भारत में जब से इस बदला लेने के दर्शनशास्त्र को भूल दिया गया है तभी से भारत की दयनीय एवं उजाड़ स्थिति होती आई है । मुहम्मद बिन कासिम से लेकर मुहम्मद अली जिन्नाह तक का यही इतिहास है । पहले जिसने भी भारत का अहित किया हो लेकिन सन् 1920 के बाद के भारत में जो कबाड़ा भारत का हुआ है उस हेतु गांधी व उनकी विचारधारा ही जिम्मेवार रही है । आजादी के पश्चात् भी वही पुरानी मूढ़ता चल रही है । चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अन्य उग्रवादी संगठनों को प्रत्युत्तर देने में आज भी हमारे नेता समर्थ नहीं है । हमारा विरोधी हिंसा, आतंक, उपद्रव एवं मारकाट करता रहता है लेकिन हम वही पुरानी मूढ़तापूर्ण एवं पलायनवादी-गांधी वादी रट लगाए बैठे हैं कि अहिंसा, बातचीत, वार्तालाप, पंचशील ही सब समस्याओं का समाधान हैं ।
               गांधी व गांधीवादी न तो पूरी तरह पाश्चात्य बन पा रहे हैं तथा न ही भारतीय । टालस्टाय, रूसों, थोरो, रस्किन, जीसस क्राईस्ट तथा पैगंबर मोहम्मद जब स्वयं ही अपने घर में सामान्य जन व शासकों को सत्य, अहिंसा, सेवा व प्रेम की सीख नहीं दे पाए तो उनको अपना आदर्श मानने वाले गाँधी क्या खाक भारत में विधायक कर पाएंगे? भारत की आजादी के दौरान गांधी के अहिंसा, प्रेम, सेवा, सत्याग्रहादि के उपदेश भी होते रहे तथा दस लाख लोगों का कत्ल भी हो गया । किसी गांधीवादी के पास से इसका आज तक उत्तर नहीं आया है कि यह कैसे हो गया । यह सब मूढ़ताएं केवल और केवल तब से शुरू हुई हैं जब से भारतवर्ष ने धर्म की सही अवधारणा को मानना त्याग दिया । धर्म की सही अवधारणा के अंतर्गत प्रेम, सत्य, क्षमा, मैत्री, स्वीकारभाव, करुणा, श्रद्धादि तो आते ही हैं इसके साथ-साथ दुष्टों को दंड देना, आततायियों की गर्दन काट लेना, आतंकवादियों को मौत के घाट उतार देना, उपद्रवियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना तथा अन्याय करने वालों को कठोरता से उनकी औकात बतला देना - ये सब भी धर्म के लक्षणों के अंतर्गत आते हैं । धर्म की सही अवधारणा का ज्ञान परशुराम, श्री रामचंद्र, श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, समर्थ रामदास, विद्यारण्य स्वामी, शिवाजी, स्वामी दयानंद, सावरकर, श्री अरविंद, सुभाषचंद्र व पटेल आदि को था । जब से भारत ने आततायियों से प्रेम व अहिंसा की भाषा में बातें करनी शुरू की हैं तभी से भारत का वैभव नष्ट ही होता आया है । तथाकथित नकली आजादी के बाद यह कार्य कांग्रेस सरकार भलि तरह से करती आ रही है । इसका परिणाम यह है कि दो कौड़ी के आतंकवादी भारत को बर्बाद करने की धमकी देते रहते हैं और भारत की सरकार कायरों की तरह दुबकी रहती है । आजादी के बाद अधिकांश सरकारें कांग्रेस दल की ही रही हैं । सारे संसार में जो अपमान गांधीवादी नीतियों के कारण नेहरू से लेकर मनमोहन तक भारत का होता रहा है उसका अन्यत्र संसार में उदाहरण कहीं भी नहीं मिलेगा । भारत की साख एक कमजोर, दब्बू, डरपोक, पलायनवादी एवं असहाय देश की बन चुकी हैं । भारतीय नेताओं का एक ही रटा-रटाया जवाब होता है कि हम बातचीत कर रहे है, हम शांति चाहते हैं, हम किसी देश की सीमा का उल्लंघन नहीं करेंगे ।
              भारत की तरक्की, भारत का विकास, भारत की समृद्धि, भारत की अस्मिता, भारत की साख व इसके सम्मान को जो कलंक आज तक इसके कायर व दन्बू नेताओं ने लगाया है उसकी धुलाई केवल मात्र धर्म की अवधारणा को सही ढंग से समझने पर ही संभव हो सकती है । आजादी से पूर्व एवं आजादी के पश्चात् जिन नेताओं ने धर्म की अवधारणा को सही तरह से समझकर दुश्मनों को उन्हीं की भाषा में बातें करने का समर्थन किया, उन्हीं को कांग्रेस पार्टी ने कांग्रेस से बाहर फेंक दिया । तिलक, अरविंद, लाजपत राय, पटेल, सुभाष आदि इसके सशक्त उदाहरण हैं । भारत का कल्याण तभी संभव हो सकेगा जब ऐसी पार्टी या ऐसे व्यक्ति के हाथों में भारत की सत्ता आए जो दुश्मनों को सही तरह से जवाब देना जानता हों अब तक तो कई सदियों से भारत ने विदेशी हमलावरों के सामने कायरता से समर्पण ही किया है, दृढ़ता से उनका सामना करके भारत की ईज्जत की रक्षा नहीं की । 1948, 1962, 1965, 1971, तथा कारगिल की लड़ाई में हमने जीतकर भी मुंह की खाई है । अन्याय, अत्याचार, विद्रोह एवं अनावश्यक हिंसा करने वालों हेतु भारतीय सम्राटों ने अतीतकाल में अनेक विश्व-विजय एवं अश्वमेघ यज्ञादि किए हैं। दुष्ट एवं हिंसक शत्रुओं को दंड देकर सारी वसुधा पर सुशासन स्थापित करने का कृत्य भारतीय सम्राट लाखों वर्ष से करते आए हैं। 12-13 सदी से धर्म की उल्टी-पुल्टी एवं अशास्त्रीय व्याख्याएं करके भारत को एक ऐसा राष्ट्र बना दिया गया कि कोई भी विदेशी हमलावर यहां आया और भारत की दौलत लूटकर अपने देश ले गया तथा हमारे शासक व धर्माचार्य अहिंसा, प्रेम व दया की माला का जाप करके भारत को हर प्रकार से बर्बाद करते रहे या करवाते रहे । अद्वैतवाद, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि सिद्धांतों पर शास्त्रार्थ करके ग्रंथों की रचना करने वाले दार्शनिकों व टीकाकारों तथा भक्तिमार्ग का उपदेश देने वाले संतों के चित्त में सारे राष्ट्र पर हो रहे विदेशी आक्रमणों के प्रति शास्त्रार्थ या ग्रंथ निर्माण के विचार क्यों न उठे? विदेशी हमलावरों द्वारा लाखों निर्दोष हिंदुओं के जबरदस्ती वध पर उनका रक्त क्यों नहीं खोल उठा? करोड़ों हिंदुओं के मतांतरण पर उनकी क्रोधाग्नि की ज्वाला क्यों शांत रही? निर्दोष बच्चों के कत्ल ने उनकी छाती को क्यों नहीं फाड़ दिया? असहाय लड़कियों व महिलाओं पर बर्बरता से किए जा रहे अत्याचारों ने उनकी आत्माओं को क्यों नहीं झकझोरा? हाय रे भारत के इन दार्शनिकों व भाष्यकारों की निष्ठुरता तथा स्वदेश-भावना से रिक्त हो चुके उनके हृदयरूपी गड्ढे ! उनके हृदय फट क्यों नहीं गए? भारत बर्बाद होता रहा और इनमें से किसी ने भी इस पर ग्रंथ नहीं लिखें, शास्त्रार्थ नहीं किए तथा न ही जन-साधारण को सचेत करने का प्रयास किया । आचार्य शुक्ल जैसे आलोचक भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहते रहे तथा उनके चित्त में उस समय भारत की बर्बादी का ख्याल भी न आया । संतों के मन में लूटे जा रहे भारत को देखकर भी देश-रक्षा के भाव नहीं जगे- इसको मैं संसार का सबसे घृणित एवं प्रथम आश्चर्य मानने को विवश हो रहा हूं । यदि उनमें थोड़ी भी धर्म की समझ होती हो भारत की इतनी दुर्दशा न होती । काश! कोई तो भारत की पीड़ा को समझ पाता । कड़वी सच्चाई बोलने वाले कबीर यदि देशभक्ति पर भी 100-200 साखियां बना देते तो इतिहास में मोड़ आ सकता था । कोमल हृदय रामानंद व उनके बारह शिष्यों की निष्ठुरता तथा कायरता पर किसे गुस्सा नहीं आएगा? मीराबाई को लक्ष्मीबाई होना चाहिए था तथा गुरु नानक को गुरु गोविंद सिंह । करुणा, भक्ति, समर्पण व श्रद्धा की शिक्षाओं से तो भारत के सारे ग्रंथ भरे पड़े ही थे । उस समय तो जरूरत थी राष्ट्र के पौरूष को जगाने की । उस समय तो जरूरत थी राष्ट्र के क्षत्रियत्व में आग लगाने की ताकि भारत के शत्रु भस्म हो जाते । लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ तथा उन सब महानों एवं आदरणीयों के सम्मुख भारतवर्ष की ईज्जत लूटती रही । इस प्रकार की मूढ़ताओं से शिक्षा लेकर समकालीन युग में हम फिर से भारत की नष्ट कर दी गई अस्मिता को पुनः प्राप्त कर सकें - इसकी महती जरूरत है । ग्लानि को परे फेंककर भारत के विश्वगुरु स्वरूप की प्राप्ति हेतु एक महानायक के आगमन की जरूरत है जो भारतवर्ष को पुनः समृद्धि, सम्मान, तरक्की, प्रतिष्ठा, वैभव तथा सर्वांगीण विकास का पथ प्रशस्त कर सके । भारत का भविष्य उज्ज्वल है । चमकती एक रोशनी राष्ट्र को दिखलाई पड़ रही है जो भारत को भारत शीघ्रता से बनाएगी । जागो भारत की युवा शक्ति! जागो भारत का श्वेत केशधारी वृद्धत्व तथा दीक्षित हों भारत के बालक स्वदेशी, स्वभाषा एवं स्वराज की छुट्टी से । अब हम दूसरों की दया पर नहीं जीएंगे । अब हम धर्म के सही स्वरूप को जानकर ही जीवनयापन करेंगे । अब अनेक परशुराम, अनेक श्रीरामचंद्र, अनेक श्रीकृष्ण, अनेक आचार्य चाणक्य, अनेक चंदगुप्त मौर्य, अनेक विक्रमादित्य, अनेक समुद्रगुप्त, अनेक हर्षवर्धन, अनेक शिवाजी, अनेक राणा प्रताप, अनेक राणा सांगा, अनेक स्वामी दयानंद, अनेक अरविंद, अनेक सावरकर, अनेक पटेल तथा अनेक सुभाष भारत में जन्म लेंगे तथा भारत फिर से अपने पुराने वैभव को एक अन्य ढंग से प्राप्त करेगा। स्वराज, स्वदेशी, स्वभाषा, राष्ट्रवाद तथा सनातन आर्य वैदिक जीवन मूल्यों के उज्ज्वल भविष्य हेतु एक परिवेश बन रहा है । अन्याय को सहन नहीं करना है अपितु उसका पूरे बल से बदला लेना है । आततायी को उसके घर में घूसकर ही मार गिराना है । बदला लेने के दर्शनशास्त्र को अंगीकार करें तथा भारत को भारत बनाएं । सिर झुकाकर नहीं अपितु गर्व से सिर को ऊंचा उठाकर जीवन जीएं । भारतवर्ष को भारतवर्ष तथा विश्वगुरु बनाने हेतु यह अत्यंत जरूरी है । समकालीन व्यवस्था विशेषकर राजनीतिक पर अधिक भरोसा खतरनाक है । इस व्यवस्था के कुछ पोषक तो जेल में जा चुके है। तथा बाकी भी चले जाऐंगे । लेकिन सावधान रहें क्योंकि कुछ को जेल में भेजने वाले हमारे नेता स्वयं के पापों, भ्रष्टाचार एवं राष्ट्र की लूट पर पर्दा न डालने पाएं। विवेक व होश से जीएं । गलत व ठीक की पहचान करें । चुनाव के समय सदाचार, देशभक्ति, नैतिकता, राष्ट्रभाषा एवं किसान-मजदूर के हित का ढिंडोरा पीटने वाले कहीं फिर से भारत की गर्दन पर सवार न हो जाएं । नेताओं की करनी व कथनी में भेद की पहचान करें तथा ‘बदला लेने के दर्शनशास्त्र’ को समझ कर उनकी औकात से उनको अवगत करवा दें । निर्णय के समय का सदुपयोग करें तथा सच्चे अर्थ में धार्मिक बनें । इस धार्मिक बनने में ही स्वदेशी, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रभाषा, जीवनमूल्यों की गहराई, नैतिकता, सदाचार, विकास, समृद्धि, आधुनिक के साथ पुरातन का सामंजस्य एवं भारतीय युवा-शक्ति का स्वयं के विकास के साथ-साथ राष्ट्र के विकास में प्रयोग निहित है । भारत का भविष्य उज्ज्वल है । विश्वगुरु बनने की पवित्र बेला समीप ही है।

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