पुरातन काल में जब भी कोई युवा गुरुकुल से शिक्षित होकर वापस घर लौटता था तो उससे यह प्रश्न अवश्य पूछा जाता था कि क्या आपने उस तत्व को जान लिया है जो सब प्रकार के जानने, देखने,सुनने, स्पर्श करने, गंध लेने, स्वाद लेने के पीछे निहित होता है? इस तरह के ये संवाद लंबे चलते थे! इन संवादों के माध्यम से ऋषि लोग शिक्षार्थियों को जीवन और जगत् के सत्यों से अवगत करवाते थे!उपनिषद् इस शैली के लिये जगत् प्रसिद्ध हैं! हमारा उद्देश्य यहाँ पर अन्न ग्रहण करने तथा उपवास करने से संबंधित है!आंखें बंद किये व्यक्ति को रुप का,कान बंद किये हुये व्यक्ति को शब्द का, भूखे व्यक्ति को भोजन का का अधिक ख्याल रहता है! जिसके पास जिसका अभाव है, उसे उसी अभाव के महत्व का पता चलता है! जो हमारे पास मौजूद है, हम उसे भूला देते हैं! उसे महत्व नहीं देते हैं! उसकी उपेक्षा कर देते हैं! उपवास किये व्यक्ति को भोजन ही सब कुछ लगने लगता है! ऐसे व्यक्ति के लिये भोजन ही ब्रह्म हो जाता है! हजारों वर्षों पहले तैत्तिरीय उपनिषद् ने महर्षि भृगु और उनके पुत्र वरुण की कथा के माध्यम से इस सत्य को उजागर करते हुये कहा था कि अन्न भी ब्रह्म है, प्राण भी ब्रह्म है, मन भी ब्रह्म है, विज्ञान भी ब्रह्म है तथा आनंद भी ब्रह्म है!इनमें से किसी का भी अपमान न करें! मानव चेतना के ये पांच स्तर हैं, जिन पर वह जीवन को जीता है! ये पांच कोश हैं!अन्नमय,प्राणमय,मनोमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय पांच कोश प्रसिद्ध हैं! ये पांच कोश पंचकोशीय साधना में भी बदल सकते हैं! लेकिन इसके लिये चेतना के हरेक में ब्रह्म के दर्शन करने होंगे! न अन्न की उपेक्षा, न प्राण की उपेक्षा, न मन की उपेक्षा, न चित्त की उपेक्षा तथा न आंनद की उपेक्षा! इन स्तरों पर जीवन की उपेक्षा नहीं अपितु यह साक्षात् करना होगा कि हर स्तर पर सूक्ष्म रूप से ब्रह्म ही वर्तमान है! किसी भी स्तर की उपेक्षा करने से हम वहीं पर उलझकर रह जाते हैं! नवरात्रि का पर्व इन पांचों स्तरों में से हरेक स्तर पर ब्रह्म का साक्षात्कार करने की साधना है! इसके अंतर्गत देहशुद्धि, पप्राणशुद्धि, मनशुद्धि, चित्तशुद्धि करते हुये ब्रह्म साक्षात्कार करना है! यहाँ पर हम नवरात्रि के भौतिक/शारीरिक/आयुर्वेदिक पहलू पर चर्चा करेंगे!
तैत्तिरीय उपनिषद् के भृगु वल्ली के अंतर्गत अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात, प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात, मनो ब्रह्मेति व्यजानात, विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात तथा आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात कहकर अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद की प्रशंसा की गई है! इसके पश्चात् अन्नं न निंदात, तद् व्रतम् आदि कहकर इन सभी के पीछे निहित परमपिता परमात्मा को जानने की सीख दी है!यानि समस्त जगत् में कुछ भी निंदनीय नहीं है! सबके भीतर सूक्ष्म रूप से परमात्मा वर्तमान है! सनातनी को यह रहस्य ज्ञात होना चाहिये!
यदि हमारा शरीर निरोग है तो हम संसार की हरेक भोग्य वस्तु का भोग कर सकते हैं! यदि हमारा शरीर व्याधिग्रस्त है तो संसार का कोई भी भोग हमें अच्छा नहीं लगेगा! इसलिये भोग विलास के लिये शरीर का निरोगी होना बेहद आवश्यक है! एक महत्वपूर्ण तथ्य और भी है! यदि हमारा शरीर व्याधिग्रस्त है तो हम शरीर से चिपके रहेंगे! शरीर से ऊपर उठकर देखना हमारे लिये असंभव हो जायेगा! निरोगी व्यक्ति ही शरीर से ऊपर उठकरचेतना के अन्य तलों का साक्षात्कार करके शांत, सुरक्षित, सहज और सह अस्तित्व को अनुभूत कर सकता है!संसार में तो हालात ऐसे बन गये हैं कि उपवास करने वाले और भोजनभट्ट दोनों ही प्रकार के लोग शरीर पर अटके पडे हैं! और जो जिनका जीवन शरीर तक सीमित है, वो व्यक्ति पशुओं के समान हैं! उनके भीतर प्रेम, करुणा, सौहार्द, सह अस्तित्व की अपेक्षा घृणा, इर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, आपाधापी, हिंसा, शोषण आदि बढते जाते हैं! आज सारा संसार बारुद के ढेर पर खड़ा है! हर तरफ हिंसा, बदले की भावना,स्वार्थ और उन्मुक्त भोग का नंगा नाच चल रहा है! भौतिकवादी लोग इसे बेभय होकर सरेआम कर रहे हैं तो तथाकथित आध्यात्मिक लोग इसे छिपकर कर रहे हैं!इसमें भौतिकवादी लोग अधिक ईमानदार लगते हैं क्योंकि वो कुछ छिपा नहीं रहे हैं!लेकिन आध्यात्मिक लोग बेईमान हैं क्योंकि वो इस प्रकार के अनैतिक कुकर्म छिपकर कर रहे हैं! सरकारी सरंक्षण भी इनको उपलब्ध है! अन्यथा बलात्कार और हत्या के अपराध में आजावन सजा काट रहा कोई बलात्कारी और हत्यारा गुरु हर बार चुनाव के समय कैसे पैरोल पर जेल से बाहर आ जाता है? सनातन धर्म में वर्षभर में चार संधियों में तीन तीन महीने के अंतराल पर चार नवरात्रि पर्व आते हैं! दो नवरात्रि पर्व सभी के लिये होते हैं तो दो गुप्त नवरात्रि पर्व सिर्फ तांत्रिक साधकों के लिये होते हैं! इस समय शारदीय नवरात्रि पर्व चल रहा है!संधिकाल में व्यक्ति की पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है! शरीर में पहले से मौजूद विषों की सफाई का काम इस दौरान होता है!ये विष शरीर में ही नहीं अपितु पूरी प्रकृति में भी प्रबल हो जाते हैं! अतः यह आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति का सहयोग करते हुये हम व्यक्ति भी अपने शरीर का शोधन और साफ सफाई का कार्य करें! इसके लिये सर्वप्रथम तो यह आवश्यक है कि हम भारी, गरिष्ठ, दुपाच्य,तला हुआ, मिर्च मसालेदार,तीखा, मांसाहार आदि का त्याग करके केवल हल्का भोजन फल,सब्जी,नारियल पानी,गर्म जल आदि ही कम से कम ग्रहण करें! यानि इस दौरान उपवास करें! उपवास करने से हमारे शरीर को साफ सफाई करने का सही अवसर मिल जाता है! इस समय नया अन्न ग्रहण न करें क्योंकि यह भी पचने में गरिष्ठ होता है! नौ दिन तक केवल सीधे ही पेड -पौधो से आया हुआ वह भोजन ग्रहण करें, जोकि बिलकुल प्राकृतिक हो! फलाहार या फलों का रस निकाल कर ले सकते हैं! नारियल पानी पी सकते हैं! गर्म पानी अधिक से अधिक पीयें! यह शरीर की सफाई का काम सहज कर देता है! खाली पेट चाय आदि न पीकर गर्म पानी, नारियल पानी और फलों का रस सेवन करें! केवल मौसमी फलों का प्रयोग करें! ये सस्ते और सुपाच्य दोनों ही होते हैं!
हम जितना भी भोजन करते हैं, उसका बहुत कम हिस्सा हमारा शरीर पचाकर प्रयोग कर पाता है! खाया गया अधिकांश भोजन व्यर्थ चला जाता है! लेकिन हम भूख की बजाय आदत के गुलाम होकर भोजन करते हैं! कम से कम खायें तथा भलि तरह से चबा चबाकर ही खायें! इससे भोजन भी कम खाया जायेगा, पेट भी ठीक रहेगा,ऊर्जा भी मिलेगी, देह में विष भी एकत्र नहीं होने से बिमारियाँ भी नहीं आयेंगी! पानी को भी बैठकर शांति से घूंट घूंटकर पीयें!जल्दी का काम शैतानी का है! अपनी देह का सम्मान करें! यह देह हमारी खुद की है! इससे जितना प्रेम करेंगे, यह उतना ही हमारा ख्याल रखेगी! इससे हमारा सांसारिक जीवन सुखमय बनता जायेगा! बस, इसी उद्देश्य को अर्जित करने के लिये नवरात्रि पर्व मनाया जाता है! शारीरिक दृष्टिकोण से यह पूरी तरह से आयुर्वेदिक विज्ञान पर आधारित है!
नवरात्रि पर्व की नौ देवियों के नाम आयुर्वेदिक औषधियों के नाम भी हैं! ये सभी औषधियाँ व्यक्ति को वर्ष भर आरोग्य प्रदान करती हैं!शैलपुत्री यानि हरड! यह शरीर के शोधन में उपयोगी है!यह कई प्रकार की होती है!ब्रह्मचारिणी यानि ब्राह्मी! यह मस्तिष्क और पेशाब के अंगों हेतु लाभकारी है! चंद्रघंटा यानि चमसूर! यह चमड़ी के रोगों के लिये लाभकारी है! कुष्मांडा यानि पेठा! यह पित्त रोगों का शमन करती है! स्कंदमाता यानि अलसी! यह शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढाती है! कात्यायनी यानि मोईया, महुआ का फल! यह वात रोगों में लाभकारी होती है!कालरात्रि यानि नागदौन ! यह पाचन विकारों में बढिया काम करती है! महागौरी यानि तुलसी! तुलसी के औषधिय गुणों से सभी वाकिफ हैं! यह कई प्रकार की होती है! सिद्धिदात्री यानि शतावरी! यह रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढाकर शरीर को पोषण प्रदान करती है! इन सभी औषधियों का आयुर्वेदिक महत्व है!
जो पेड -पौधे,कृत्य, पशु, आचरण मानव जीवन सहित संपूर्ण संसार के लिये हितकारी होते हैं, सनातन धर्म के ऋषियों ने उनको पौराणिक कथाओं के माध्यम से देवी देवताओं का रुप देकर हमारे नित्य प्रति के धार्मिक जीवन से जोड़ दिया है! इसका उद्देश्य यही था कि लोग धार्मिक होने की वजह से इनको अपने आचरण में उतारेंगे! लेकिन आजकल हालात बहुत खराब हो चुके हैं! अति स्वार्थी होने और पाश्चात्य जीवन शैली का अंधानुयायी होने की वजह से नवरात्रि पर्व एक कोरा कर्मकांड या दिखावा या फैशन बनकर रह गया है!पाखंड, ढोंग,व्यापार, दिखावे और इस पर्व के रहस्य को भूल जाने के कारण इस पर्व के माध्यम से होने वाले शारीरिक लाभों से हम सब वंचित ही रहते हैं!पुरोहितों ने तो इन पेड पौधो और औषधियों को दुर्गा देवी के रुपों का आकार देकर इनके नाम पर मंदिरों तक का निर्माण कर रखा है! शैलपुत्री का बारामूला में, ब्रह्मचारिणी का काशी में, कुष्मांडा का कानपुर में, स्कंदमाता का विदिशा आदि में, कात्यायनी का वृंदावन में, कालरात्रि का काशी, नया गाँव में, महागौरी का काशी में तथा सिद्धिदात्री देवी का छिंदवाडा में मंदिर बना हुआ है!
कर्मकांड करने चाहियें, क्योंकि इनके माध्यम से जड चेतन जगत् के लिये उपयोगी हमारी परंपरायें जीवित रहती हैं! लेकिन इनके वास्तविक रहस्यों को समझकर उन्हें अपने आचरण में स्थान देना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है! इस सत्य को सनातनी लोग भूलते जा रहे हैं! धर्माचार्यों का इस संबंध में सबसे अधिक कर्तव्य बनता है कि वो जनता जनार्दन को इसके लिये प्रेरित करें! लेकिन विडम्बना है कि खुद धर्माचार्य ही पाखंड, ढोंग, दिखावे और व्यापार में उलझे हुये हैं!
आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र-136119
बढ़िया जानकारी
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