Monday, October 14, 2024

नवरात्रि पर्व का आध्यात्मिक महत्व (Spiritual importance of Navratri festival)

विज्ञान जगत् के लोग  प्रकृति के विभिन्न रहस्यों को उजागर करके विभिन्न प्रकार की तकनीक का विकास करके मानव जीवन के भौतिक पक्ष को सुख -सुविधाओं से संपन्न करते हैं! वहीं पर आध्यात्मिक जगत् के लोग विभिन्न कर्मकांडों के माध्यम से जहाँ पर भौतिक जीवन को जीओ और जीने दो के लायक बनाते हैं वहीं पर व्यष्टि और समष्टि ब्रह्माण्ड में व्यापक चेतना पर कार्य करके जड़ -चेतन जगत् को सहज, सरल, सौहार्दपूर्ण, करुणामय बनाकर जहाँ भौतिक जीवन को सुख सुविधापूर्ण बनाते हैं वहीं पर प्राणिक, वैचारिक, भावनात्मक, आत्मिक तलों का साक्षात्कार करते हुये इहलौकिक और पारलौकिक जीवन को समृद्ध बनाने का काम करते हैं!सनातन धर्म में वर्ष भर में ऐसे पर्वों की भरमार है जो हमें प्रकृति, प्रकृति से बने संसार तथा चेतना के मध्य संतुलन साधने की व्यावहारिक प्रायोगिक सीख देते हैं! स्वार्थी पंडितों, पुरोहितों ने इस अखिल ब्रह्मण्डीय व्यवस्था को विकृत कर दिया है, यह एक अलग चिंतनीय विषय है! सनातन धर्मियों द्वारा मनाया जाने वाला नवरात्रि पर्व एक ऐसा ही पर्व है! यह पर्व किसी एक मजहब का न होकर सृष्टि के समस्त प्राणियों के हितार्थ है!प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीने को कौनसे मजहब के लोग मना कर सकते हैं? प्रकृति के संग -संग संतुलन बनाकर जीवन जीते हुये  मानव प्राणी सहित समस्त प्राणियों के जीवन को निरोगता और स्वास्थ्य को प्राप्त होने से किस संप्रदाय के लोगों को आपत्ति हो सकती है? और यदि किसी मजहब को इस पर आपत्ति है तो वह चौरासी लाख योनियों के जीवन को बर्बाद करने का अपराधी है!
मानव प्राणी में मन, बुद्धि, चित्त का विकास सर्वाधिक है! इसका प्रयोग करके मानव प्राणी भौतिक जगत् के साथ आध्यात्मिक जगत् के रहस्यों को उजागर करके इस संसार को खुशहाल, समृद्ध, संतुलित और अनुशासित बना सकते हैं!सनातन धर्म के सभी पर्व इसी भावना से ओतप्रोत हैं!
लेकिन इस संसार की यह विडम्बना रही है कि यहाँ जो भी अच्छा या क्रांतिकारी या सृजनात्मक होता है, उस पर धूर्त व्यापारी अपराधी किस्म के लोग कब्जा कर लेते हैं! विज्ञान की चमत्कारी खोजों पर पिछले 200 वर्षों से स्वार्थी पूंजीपतियों,बहुराष्ट्रीय कंपनियों,उद्योगपतियों का कब्जा रहा है! नया नया उदाहरण योग और आयुर्वेद का हमारे सामने है! शरीर की निरोगता और चेतना के रुपांतरण का इनसे कोई नाता नहीं रह गया है! इसीलिये लोगों के जीवन में  आरोग्यता,धैर्य, शांति, सौहार्द, करुणा का कोई चिन्ह देखने को नहीं मिल रहा है! आज आयुर्वेद और योगाभ्यास करने और करवाने वालों की भीड मौजूद है लेकिन दृष्टिकोण स्वार्थी होने से न तो योगाचार्य साधना से संपन्न हैउ तथा न ही योगाभ्यास करने वालों के व्यवहार में कोई बदलाव देखने को मिलता है!
ऋतु परिवर्तन से केवल ऋतु में ही परिवर्तन नहीं होता है, अपितु इससे मानव सहित संपूर्ण प्राणियों की देह में परिवर्तन होता है! ऋतु में परिवर्तन से मानव शरीर में एकत्र विभिन्न प्रकार के विकार, मल और अशुद्धियों का शोधन होने की गति तीव्र हो जाती है! इसके दृष्टिगत हमें शरीर का सहयोग करना चाहिये! यदि सहयोग करेंगे तो शरीर शोधन का काम भलि तरह से हो पायेगा! यदि सहयोग नहीं किया तो शरीर में मल, विकार एकत्र होकर इसी दौरान मलेरिया, चिकनगुनिया, डेंगू, टाईफाईड, खुजली, एलर्जी,खांसी, जुकाम, नजला, अस्थमा,कब्ज,मंदाग्नि, सिरदर्द, आलस्य आदि बिमारियों का प्रकोप हो जाना स्वाभाविक है
सनातन धर्म के अनुसार जो अंड में है, वह ब्रह्मांड में है!सृष्टि का हरे एक कण समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतिरुप है! एक एक व्यक्ति का शरीर भी पूरे ब्रह्माण्ड का प्रतिरुप है!ब्रह्माण्ड में किसी भी परिवर्तन से एक एक व्यक्ति के शरीर पर प्रभाव पडता है! समस्त ब्रह्माण्ड कणों और तरंगों का एक खेल है! यहाँ सब कुछ परस्पर जुड़ा हुआ है! कोई किसी से अलग नहीं है! यहाँ पर एक घास का तिनका भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना महत्वपूर्ण हिमालय पर्वत है! सनातन धर्म का हरेक कर्मकांड, पर्व, त्यौहार, उत्सव इसी भावना से प्रेरित है! इसे यज्ञ कहा जाता है! इस यज्ञ की महिमा वेद ने अनेक ऋचाओं में बतलाई है! जब किसी व्यक्ति के शरीर में किसी व्याधि या आरोग्यता आती है तो उसकी प्रतिध्वनि समस्त ब्रह्माण्ड तक पहुंचती है! यदि ब्रह्माण्ड में कोई उथल पुथल होती है, तो उससे धरती का हरेक प्राणी प्रभावित होता है! सनातन धर्म का हरेक पर्व व्यक्ति का समस्त ब्रह्माण्ड से सामंजस्य साधने की साधना है! व्यष्टि और समष्टि के मध्य संतुलन साधना ही सनातन धर्म है! इस संतुलन से लौकिक सुखों में वृद्धि तथा पारलौकिक आनंद की अनुभूति होती है! मानव जीवन का यही लक्ष्य है! इस रहस्य को समझना अति आवश्यक है!
लेकिन सनातन धर्मी लोग अपने पर्वों, त्यौहारों, उत्सवों की पीछे निहित कारण -कार्य की वैज्ञानिकता को भूलाकर या तो कोरे कर्मकांड में उलझे हुये हैं या फिर पाश्चात्य उन्मुक्त भोगवादी उपयोगितावाद में डूबे हुये हैं! इसमें सर्वाधिक गलती हमारे धर्माचार्यों, गुरुओं, योगियों, संतों, स्वामियों, संन्यासियों और नेताओं की है! अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिये इन्होंने अपने सनातनी कर्तव्यों को पूरी तरह से भूला दिया है! सनातन धर्म के पर्वों का थोथे कर्मकांड में उलझ जाने तथा पंडित पुरोहितों की आजीविका और नेताओं का वोट बैंक बन जाने के कारण सनातन धर्मी लोग अपने सनातनी जीवन मूल्यों से दूर होकर पाश्चात्य रंग में रंगे जा रहे हैं!
मानव के शरीर की आरोग्यता के लिये आयुर्वेद की दिनचर्या तथा आत्मा के लिये वेद ,उपनिषद् ,योगसूत्र आदि में निहित योगाभ्यास की उपादेयता अति आवश्यक है! व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, वैचारिक, बौद्धिक, भावनात्मक संतुलन साधकर समस्त ब्रह्माण्ड और अस्तित्व से संतुलन साधना सनातन धर्म और संस्कृति का सनातन उपदेश है! इसके लिये यह आवश्यक है कि नवरात्रि पर्व के विविध कर्मकांडों के पीछे निहित आध्यात्मिक रहस्यों को भलि तरह से समझ लिया जाये!
केवल कर्मकांडों को संपन्न करना ही काफी नहीं है! अपितु इन कर्मकांडों और  प्रतीकों के पीछे मौजूद रहस्य को जानकर अपने नित्यप्रति के जीवन में इनको स्थान दिया जाये! अपने चरित्र, आचरण, व्यक्तित्व और दिनचर्या में कर्मकांडों के पीछे निहित शिक्षाओं को उतारना आवश्यक है! केवल कथनी से काम नहीं चलेगा! हमें इनके अनुकूल अपने आचरण को भी ढालना होगा! शरीर तो आत्मा का बाहरी खौल है!आत्मा परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्यासी है! ये विभिन्न कर्मकांड धर्म का बाहरी आवरण मात्र हैं!धर्म की आत्मा तो आचरण है! आचरण में उतारे बिना कोरे कर्मकांड केवल जनमानस के शोषण और पाखंड का कारण बन जाते हैं!
'नवरात्रि पर्व' शारीरिक आरोग्यता और आत्म साक्षात्कार के लिये सुनहरा अवसर है!ऋतु परिवर्तन के समय शरीर के शोधन के लिये सात्विक आहार के साथ उपवास करना अति लाभकारी है! लेकिन असमय ठूंस-ठूंसकर फल,सब्जी,कुट्टू, सिंघाड़े, सामकिया,अलसी के लड्डू,बिस्किट,दूध, खीर, हलुआ, पूरी, मालपुवे आदि  खाते रहना उपवास नहीं होता है!कर्मकांड की आड में आम,जामुन, नीम, पीपल, वट, तुलसी के वृक्षों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिये!कभी कोई पेड नहीं लगाना तथा पेड़ों को काटते रहने से प्राकृतिक संतुलन बिगडता है! कर्मकांड की आड में अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये आम, पीपल आदि पेड़ों को नुकसान पहुंचाना सनातन धर्म की मर्यादा के अनुकूल नहीं है! कर्मकांड भौतिक जीवन को सुंदरता प्रदान करते हैं लेकिन जहाँ पर ये पाखंड और ढोंग का कारण बन जायें तो इनको छोड देना ही ठीक रहता है!
ऋतु परिवर्तन के काल में जहाँ पर शरीर शोधन का का अवसर मिलता है, वहीं पर चेतना में रुपांतरण का भी अभूतपूर्व अवसर होता है!यदि कोई व्यक्ति उत्सुक हो, जिज्ञासु हो, मुमुक्षु हो, तो नवरात्रि पर्व की पावन वेला का लाभ उठाया जा सकता है! 'उपवास' का अर्थ भी यही है अर्थात् उप और वास! यानि स्वयं के समीप वास करना! यानि खुद के समीप होना! स्वयं के समीप होना भी एक साधना है!इसमें आहार और विहार दोनों की शुद्धि और संतुलन आवश्यक हैं!उपवास में हल्के भोजन या बिलकुल निराहार रहने से भोजन के प्रति लालसा बढती है! यदि संकल्प को दृढ रखकर साधना की जाये तो उपवास के काल में अपनी एकाग्रता और सजगता के तीर को बाहर से भीतर की तरफ मोड़ा जा सकता है!लेकिन जिन भी नर और नारियों, विशेषकर युवक और युवतियों द्वारा आज इस नवरात्रि पर्व को उपहास का विषय बना दिया गया है, वह सनातन धर्म के लिये खतरे की घंटी है! इस नवरात्रि पर्व से न तो हमारे सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा हो रही है, न लोगों के शरीरों का शोधन हो रहा है तथा न ही आध्यात्मिक रुप से कोई लाभ हो रहा है! इसके प्रति जागरुकता को फैलाया जाना अति आवश्यक है! इस नवरात्रि पर्व की आड में फैलते हुये उन्मुक्त भोगवाद, पाश्चात्यवाद, उपयोगितावाद, पाखंड, ढोंग आदि पर रोक लगना चाहिये!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरूक्षेत्र -13611

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