वेदों से लेकर समकालीन दार्शनिक ओशो,कृष्णमूर्ति तक सभी भारतीय दार्शनिकों ने परमात्मा, आत्मा, प्रकृति तथा प्रकृति के विकार प्राण, काल,ध्वनि,महत्,अहंकार, त्रिगुण,मन,पंचज्ञानेंद्रियों, पंचकर्मेंद्रियों, पंचतन्मात्राओं तथा पंचमहाभूतों पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश को स्वीकार किया है!भारतीय सनातन दर्शनशास्त्र में विकासवाद नहीं अपितु सृष्टिवाद को माना और जाना है!इसके अंतर्गत सृष्टि एकरेखीकीय की अपेक्षा वृताकार गतिमान है!भारतीय दर्शनशास्त्र के कुछ विचारों को लेकर युनानी फिलासफी में उनको टुकडों में कहने का आधा अधूरा प्रयास है! भारतीय दर्शनशास्त्र ऐसा जैसेकि समुद्र में गोता मारकर उसकी गहराइयों से रत्नों को खोजकर बाहर लाना! जबकि युनानी फिलासफी ऐसी कि जैसे किसी उथले तालाब के किनारे डरे -डरे हुये बैठकर उसके किनारे के कीचड से ही सीपियों, घोंघों और काई को एकत्र करना!'जल' तत्व को थैलिज ने एकमात्र मूलतत्व माना है! अबोध बालक भी बतला सकते हैं कि अकेले जल तत्व से समस्त सृष्टि के विकास का समाधान कैसे हो सकता है?खुद जल तत्व में भी पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश आदि तत्व भी मौजूद होते हैं! लेकिन थैलिज ने उनके देश में प्रचारार्थ या व्यापारार्थ गये भारतीयों से पंचमहाभूतों के संबंध में सुन लिया होगा! बंदर को हल्दी की गांठ मिल गई और वह पंसारी बनने की सोचने लगा! यही हाल थैलिज और उनके अन्य साथियों का है! जल को वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र आदि में 'आप:' कहा गया है!इसी आप: से अवेस्ता में आपो बना तथा फारसी में आब बना! पंजाब, गुलाब, शराब आदि शब्द इसी से बने हैं!ऋग्वेद में 'आप:' के लिये एक अलग सूक्त 10/9 दिया गया है! इसी तरह से सृष्टि के हरेक तत्व की व्याख्या के लिये सूक्त वेदों में उपलब्ध हैं!वेद की ऋचाओं को साक्षात् करने वाले मंत्रद्रष्टा ऋषि कोई अंधेरे में तीर मारने की अपेक्षा सृष्टि में मौजूद विभिन्न तत्वों से जड चेतन संसार को संतुलित समृद्ध बनाने की प्रार्थना कर रहे हैं! उन्होंने सृष्टि के मूल तत्वों को सूत्ररूप में बतला दिया है! उन्होंने 'ऋत' के माध्यम से अखिल ब्रह्मांड व्यवस्था तथा मानव प्राणी के लिये 'नैतिक' मर्यादाओं का रहस्योद्घाटन कर दिया है!
सुकरात से 200 वर्ष पहले भारत में 1300 से भी अधिक मत प्रचलित थे! शंकराचार्य ने उस समय प्रचलित उन सभी से सौहार्दपूर्ण ढंग से शास्त्रार्थ करके अधिकांश को सनातन धर्म में दीक्षित किया! जो लोग सौहार्दपूर्ण चर्चा से सहमत नहीं होकर राजनीतिक रुप से विदेशी शत्रुओं की मदद से भारत को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें कर रहे थे,उनको समय -समय पर पुष्यमित्र जैसे सम्राटों ने तलवार के बल पर सबक भी सिखाया था!लेकिन सुकरात की तरह निर्ममता से हत्या करके वैचारिक आजादी का भारत में कभी गला नहीं दबाया गया! भारत में तो लोकायत, चार्वाक, प्रबुद्ध कात्यायन, संजय वेलट्टिपुतु, अजित केशकंबल,तंत्र परंपरा आदि को भी फलने फुलने का पूरा अवसर दिया गया था! राजा भोज ने भी उन उच्छृंखल तांत्रिकों को मौत के घाट उतारा था, जो नैतिक मर्यादाओं को तोडकर भारत को खोखला कर रहे थे!
मानव इतिहास में सुकरात निर्दोष होते हुये वैचारिक आजादी का शिकार हुआ पहला व्यक्ति था!असल में सुकरात बेचारा गरीब था! सच बोलने पर उसे मार दिया गया! और किसी ने इस क्रूरता का विरोध नहीं किया! प्लेटो उच्च कुल का था! अतः उसे प्रताड़ित नहीं किया गया!स्वयं उनके अनुसार प्लेटो की फिलासफी वैसे भी संकीर्ण जातिवाद और ऊंच नीच से सनी हुई केवल उच्च वर्ग के लोगों के लिये है!
'धरती हमारी माता है', 'जल ही जीवन है', 'अग्नि प्रज्वलित करके यज्ञ करना', 'वायु की शुद्धि हेतु गुणकारी पेड-पौधों की पूजा करना' तथा 'आकाश को पिता का सम्मान देना' आदि को भारत के गाँव देहात के अनपढ़ व्यक्ति भी भलि भांति जानते पहचानते हैं!थैलिज का जल तत्व-धरती का गोल होना- ग्रहण की भविष्यवाणी, हेराक्लाईट्स का परिवर्तन,एनेक्सीमेंडर का असीमित तत्व,एनैक्सीमेनीज का वायु तत्व,पारमेनाईडिज का स्थायित्व, डेमोक्रिट्स का परमाणु, पाईथोगोरस द्वारा संख्या तत्व को मानना आदि बेबीलोनिया, मिस्र के माध्यम से पाया गया उथली और सतही आधी -अधूरी जानकारियों के आधार पर तैयार की गई फिलासफी है! इसमें किसी भी प्रकार की गहनता,प्रौढता,प्रतिभा और बुद्धिमत्ता नहीं दिखाई दी है!हजारों वर्ष पुरातन भारत के समृद्ध दर्शनशास्त्र को छोडिये, हरियाणा राज्य के अनपढ़ लोककवियों बाजेभगत, लखमीचंद, मांगेराम,धनपत सिंह, खीमा, चतरु आदि की रागनियों में भी युनानी फिलासफर से सैकड़ों गुना समृद्ध दर्शनशास्त्र मिल जायेगा! ब्रह्म,आत्मा, प्रकृति, महत्, अहंकार, मन तथा इनसे भौतिक सृष्टि के निर्माण की जो बारीकियाँ हरियाणा के लोकसाहित्य में मिलती हैं, वो युनानी फिलासफी में नदारद हैं!बंधन,मोक्ष,कर्मफल,चार आश्रम, वर्णव्यवस्था,योग साधना, राजधर्म आदि के जो गूढ विवरण अनपढ़ लोककवियों के सांगों और रागनियों में उपलब्ध हैं, वो युनानी फिलासफी में देखने को नहीं मिलेंगे! वैसे भी पाश्चात्य फिलासफी के बारे में कहा जाता है कि फिलासफी किसी अंधेरे कमरे में अंधे व्यक्ति द्वारा उस काली बिल्ली की तलाश करना है, जो वहाँ पर मौजूद ही नहीं है!
प्रसिद्ध भारतीय दर्शनशास्त्र के विद्वान चंद्रधर शर्मा दबी आवाज में स्वीकार करते हैं कि बीसवीं सदी के कुछ अन्वेषणों से, विशेषत: भूगर्भ की खुदाई में प्राप्त महत्वपूर्ण वस्तुओं से, यह सिद्ध हो गया है कि प्राचीन ग्रीस पर मिस्र और बेबीलोनिया का प्रभाव निस्संदेह पडा है! यह भी बहुत संभव है कि भारतीय विचारधारा भी, ईरान, मिस्र और बेबीलोनिया होती हुई, ग्रीस के उपनिवेशों में और वहां से ग्रीस में पहुंची हो!ग्रीस फिलासफी के सप्तर्षि की कल्पना भारतीय संस्कृति में वर्णित सातवें मन्वन्तर के आदरणीय सप्तर्षि वशिष्ठ,भारद्वाज,कश्यप, अत्रि,जमदग्नि, विश्वामित्र,गौतम आदि की नकल मात्र है!प्रथम युनानी फिलासफर थैलिज, एलेक्जेंडर,एनेक्जीमेनिज आदि की गिनती भी सप्तर्षियों में की जाती है!दावा किया जाता है कि इनमें से एनेक्जीमेनिज की पुस्तक 'आन दी नेचर' के कुछ अंश मिलते हैं!बाकी सबके संबंध में हवा हवाई बातें प्रचलित हैं! इनको फिलासफी की श्रेणी में रखना भी मजाक ही कहा जा सकता है!
एंपीडोक्लीज पर न्याय और वैशेषिक दर्शनशास्त्र का पूरा प्रभाव प्रतीत होता है, जब वो पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु को स्वीकार करते हैं!न्यायसूत्र और वैशेषिकसूत्र दर्शनशास्त्र के भारतीय लेखकों गौतम और कणाद का काल युनानी एंमीडोक्लीज से लगभग 3000 वर्ष पहले का है!लेकिन इसके बावजूद भी ये जडवादी के जडवादी ही बने रहे!सोफिस्ट फिलासफी पर आन्वीक्षिकी के दृष्टिगत चार्वाक और कौटिल्य का प्रभाव दिखाई पडता है!हालांकि चार्वाक और कौटिल्य का समय सोफिस्ट से 1000 वर्ष पहले का है!सुकरात के फक्कड़ जीवन पर भारतीय संन्यासियों का प्रभाव था!कभी कभी सुकरात को अंतरात्मा की आवाज यानि अनाहत नाद भी सुनाई पड़ता था!निरे भौतिकवादी युनानी इन रहस्यवादी बातों को कैसे समझ पाते?सत्य बोलने के फलस्वरूप उनकी हत्या कर दी गई!सुकरात यदि भारत में पैदा होते तो अपनी साधना को पूरा करके ऋषि पदवी को प्राप्त करते!
युनान ने अपने सबसे बडे ज्ञानी, सबसे बडे चरित्रवान तथा सर्वश्रेष्ठ निर्दोष महापुरुष को मौत के मुंह में सुला दिया! सुकरात की हत्या के बाद युनान, रोम आदि देशों में विचारक जरूर पैदा हुये, लेकिन सभी डरे -डरे जीवन यापन करने को विवश रहे! सुकरात, प्लेटो, अरस्तू के पश्चात् 1500 वर्षों तक किसी ने भी स्वतंत्र चिंतन करने की कोशिश नहीं की! युरोप में लगभग तेरहवीं चौदहवीं सदी में फिर से स्वतंत्र चिंतन की सुगबुगाहट हुई! लेकिन 200 वर्षों के दौरान अनेकों विचारकों को ईशनिंदा के दंडस्वरूप जिंदा जला दिया गया,फांसी दे दी गई या अन्य तरीकों से उनकी हत्या कर दी गई!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119
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