Sunday, May 8, 2016

नीति-अनीति का प्रश्न

          भारतीय नीति के स्रोतों के विवेचन के संबंध में यह देखा गया है कि भारतीय नीतिशास्त्रियों ने नीति का आधार प्रायः धर्म, विधि तथा सामाजिक प्रथाओं में ढूंढा है और श्रुति, स्मृति और परम्परा को उसका आधार माना है। जिन नैतिक प्रश्नों पर बाहरी प्रमाण मौन हैं, उन्हीं को निर्णीत करने के लिए आत्म तुष्टि अथवा व्यक्तिगत नैतिक विवेक प्रमाण माना गया हैं परन्तु श्रुति, स्मृति और सामाजिक परम्परा का संबंध नीति के बाह्याचरण से है। अतः ज्यों-ज्यों चिन्तन का विकास हुआ, त्यों-त्यों नीति का आधार मनुष्य के आन्तरिक जीवन में ढूंढने का प्रयास किया गया। यह अनुभव किया गया कि सारी क्रियाएं-नैतिक और अनैतिक मानव-चित्त से उद्भूत होती है। अतः कार्याकार्य की नैतिक और अनैतिक का मूल आधार भी वही है। जब तक मनुष्य अपने भौतिक वेगों से अभिभूत अथवा बाहरी प्रमाणों से प्रेरित और आदिष्ट रहता है, तब तक उसके नैतिक दायित्व का प्रश्न नहीं उठता। जब वह अपने कर्म-स्वातन्त्रय का अनुभव करता है, तभी उसके नैतिक दायित्व का उदय होता है।भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने मन को ‘चित्त’ कहा है और इसमें मन, बुद्धि और अहंकार तीनों का समावेश किया है।1 यह सत्व, रज और सम तीन गुणों से प्रभावित होता है और गुण विशेष की प्रधानता के अनुसार इसकी वृत्तियां और भूमियां बदलती रहती हैं। यह तत्वतः अचेतन है, किन्तु इसमंे आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ने से यह चेतन बन जाता है। इन्द्रियों द्वारा विषयों के सम्पर्क में आने से यह उनमें प्रवाहित अथवा प्रवृृत  होने लगता है। जब पुरुष का चैतन्य इसमें प्रतिबिम्बित होता है, तब ऐसा भास होता है कि यही भोक्ता है। वास्तव मंे चित्त दृश्य है और पुरुष द्रष्टा। कारणरूप में चित सर्वव्यापी आकाश के समान होता है परन्तु कार्यरूप में जितने पुरुष हैं उनके अनुसार चित्त का संकोच और प्रसार होता रहता है। योगशास्त्र का यह उद्देश्य है कि कार्यचित्त की वृत्तियों के निरोध द्वारा मूल कारणचित्त की अवस्था में ले जाये।
        चित्त के ऊपर जो छाप पड़ती है, उसके पीछे संस्कार बनते जाते हैं, जिनसे रूचि, इच्छा और स्वार्थ उत्पन्न होते हैं। चित्त के कार्य से भावी कार्य की संभावनाएं और संभावनाओं से पुनः संभावनाएं घटित होती है। इस प्रकार, संसार चक्र निरन्तर चलता रहता है। चित्त के इन संबंधों में आवेग, वासनाएं, और इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। इनसे व्यक्तित्व का उद्भव होता है। सांसारिक जीवन इन्हीं वासनाओं और इच्छाओं का परिणाम है। व्यक्तित्व अथवा अहंकार सांसारिक अनुभव पर अवलम्बित होता है। पांच क्लेशों से आक्रान्त होने के कारण आहंकारिक जीवन क्षुब्ध और अतृप्त रहता है। ये पांच क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश हैं। नित्य में अनित्य, शुचि में अशिचु, प्रिय में अप्रिय और आत्म मंे अनात्म की भ्रांति अविद्या है। आत्मा को अहंकार से अभिन्न समझकर यह कहना कि ‘मैं’ (अहंकार) हूँ, अस्मित है। संसार के प्रिय विषयों में आसक्ति राग और अप्रिय विषयों से घृणा द्वेष है। जीवन के प्रति सहज मोह और मृत्यु का भय अर्थात् देहात्मबुद्धि अभिनिवेश है। इस संसार-चक्र से स्वतन्त्रता तभी मिल सकती है जब आत्मा और कार्यचित्त के संबंध का विच्छेद होता है। जब आत्म चित्त से मुक्त होता है, तब अपने स्वरूप मंे अवस्थित हो जाता है। तब वह द्रष्टा-रूप में चित्त की क्रियाओं को देखने लगता है।
       चित्त की एकाग्रता और निरोध ही कार्याकार्य के चुनाव का आधार है। चित्त की पांच भूमियां होती हैं। रजोगुण के आधिक्य और विषयों के भंवर में पड़कर जो चित्त की अवस्था होती है, उसको ‘क्षिप्त’ कहते हैं। तमोगुण की अधिकता से यह मूढ (मोहित) अवस्था में पड़ जाता है। जन्मजात दोष अथवा आकस्मिक वित्त से चित्त विक्षिप्त हो जाता है। इन तीनों अवस्थाओं में तमोगुण अथवा रजोगुण की प्रधानता के कारण चित्त सुख तथा दुख से आन्दोलित होता रहता है। जब चित्त किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित और ध्यान किसी एक विषय में रत रहता है, तब उसकी एकाग्रावस्था होती है। इसमें सत्वगुण की प्रधानता रहती है। चित्त के उच्चतम संतुलन की यह भूमिका है। जब चित्त का प्रवाह बिल्कुल रुक जाता है, तब वह निरुद्ध कहलाता है। यद्यपि सुषुप्त संस्कार इस भूमिका में भी नष्ट नहीं होते, तथापि चित्तवृत्तियों का प्रवाह निरुद्ध हो जाता है। चित्त की पूर्ण शुद्धि के लिए केवल इसका निरोध पर्याप्त नहीं है। सुषुप्त वासनाओं और संस्कारों का क्षय भी आवश्यक है। यह स्थिति समाधि में उत्पन्न होती हैं समाधि के भी दो स्तर होते हैं - संप्रज्ञात समाधि और असंप्रज्ञाप्त समाधि। संप्रज्ञात समाधि में ये दोनों भी लुप्त हो जाते हैं और पुरुष अपने-आप में समाधिप्रज्ञ होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है। चित्त की एकाग्रता, निरोध और समाधि केवल योग और आध्यात्मिक साधना के लिए आवश्यक नहीं, किन्तु व्यावहारिक आचरण में वांछनीय है।
      इस प्रकार नीति की भूमिका चित्त की भूमिका चित्त की प्रवृत्तियों के विश्लेषण में है। इस विश्लेषण में मनोवैज्ञानिक उद्देश्य-उपयोगिता अथवा सुविधा का विचार-विशेष महत्व का है। ऐच्छिक तथा स्वतः कार्यों मंे भेद भी अपना महत्व रखता है। अनैच्छिक तथा आकस्मिक कार्यों के नैतिक दायित्व का प्रश्न इसी से उत्पन्न होता है। इच्छा में स्वातंत्रय की चेतना अथवा बोध नैतिक दायित्व के विचार में सबसे अधिक महत्व का है। इच्छा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विशेष कर न्याय-वैशेषिक दर्शन में हुआ है। वैशेषिक दर्शन के ऊपर अपने भाष्य में प्रशस्तपाद ने तथा विश्वनाथ और नव्य नैयायिकों ने इस विषय का विस्तृत विवेचन किया है। प्रशस्तपाद ने मुख्यतः ऐच्छिक और स्वतः क्रियाओं के भेद पर ही विचार किया है। नव्य नैयायिकों का विवेचन इससे अधिक व्यापक है। ये केवल ऐच्छिक और स्वतः क्रियाओं के भेद पर ही विचार नहीं करते, किन्तु ऐच्छिक क्रियाओं के उद्देश्य का सूक्ष्म विश्लेषण भी प्रस्तुत करते हैं।
       भारतीय विचारकों ने ऐच्छिक अथवा नैतिक तथा स्वतः अथवा अनैतिक क्रियाओं के भेद को स्पष्ट रूप से समझा था। प्रशस्तपाद ने ‘प्रयत्न’ का वर्गीकरण दो श्रेणियों मंे किया है - 1ण् जीवनपूर्वक और 2ण् इच्छाद्वेषपूर्वक। जीवनपूर्वक वह प्रयत्न है, जिसका कारण अथवा पूर्वरूप पिण्ड के जीवन में निहित रहता है। इच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्न किसी इच्छा अथवा द्वेष से प्रेरित होता है। जीवनपूर्वक प्रयत्न जीव की स्वतः शारीरिक क्रियाओं से संबंध रखते हैं। इच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्न का सम्बन्ध मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाओं से है, जिनको वह जान-बूझकर चुनावपूर्वक करता है। इन दोनों प्रकार की क्रियाओं के परिणाम होते हैं। मनुष्य की स्वतः क्रियाओं से उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इसी प्रकार ऐच्छिक क्रियाओं से हित-प्राप्ति और अहित-परिहार होता है। साथ-ही साथ इससे शरीर का विधारण भी होता है। इस विश्लेषण से एक विशेष बात ध्यान देने की यह है कि शरीर-विधारण के लिए स्वतः क्रियाओं के अतिरिक्त, ऐच्छिक क्रियाएं भी आवश्यक हैं।
       विश्वनाथ की ‘सिद्धान्तमुक्तावली’ के ऊपर महादेव के पुत्र दिनकरभट्ट की ‘दिनकरी टीका’ में भी मनुष्य की ऐच्छिक तथा स्वतः क्रियाओं के भेद का विवेचन किया गया है। इसके अनुसार कृति अथवा प्रयत्न को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है - 1. प्रवृत्ति, निवृत्ति और
2. जीवन-योनि-प्रयत्न। प्रवृत्ति क्रियात्मक इच्छा है, जिसके अनुसार प्रिय अथवा वांछनीय का चुनाव किया जाता है। निवृत्ति निषेधात्मक क्रिया है, जिसके द्वारा अप्रिय अथवा अवांछनीय का परित्याग होता है। जीवन-योनि-प्रयत्न उन क्रियाओं को कहते हैं, जो जीवन-धारण के लिए पिण्ड मंे स्वतः होती रहती हैं। प्रथम दो वर्ग की क्रियाओं में कर्ता की स्वेच्छा काम करती है। तीसरे में कत्र्ता की स्वतंत्र इच्छा स्वेच्छाधीन-मत्कृतिसाध्य) की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रकार दिनकरी के अनुसार ऐच्छिक क्रियाओं से केवल शरीर की स्वतः क्रियाएं नहीं अलग कर दी गई हैं, अपितु वे सम्पूर्ण सचेतन क्रियाएं भी, जिनमें कत्र्ता की स्वतंत्र इच्छा काम नहीं करती। अतः आवेश अथवा आवेग के अभिभूत होने पर जो क्रियाएं की जाती हैं, उनमें मनुष्य का इच्छा-स्वातन्त्र्य नहीं रहता। इसलिए ऐसी क्रियाओं में नैतिक दायित्व भी कम हो जाता है।
    ऐच्छिक और स्वतः क्रियाओं का अन्तर स्पष्ट करने के पश्चात् ऐच्छिक क्रियाओं का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। कार्यता-ज्ञान (इस बात की चेतना कि कुछ करना है) चिकीर्षा (कार्य करने की इच्छा) के साथ सहकारी कारण बनकर मनुष्य मंे प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। प्रवृत्ति से चेष्टा (कार्य के प्रयास) और चेष्टा से क्रिया (वास्तविक कार्य) की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार निम्नांकित क्रम से ऐच्छिक क्रिया की शृंखला चलती है -
    1.    कार्यता-ज्ञान
    2.    चिकीर्षा,
    3.    प्रवृत्ति
    4.    चेष्टा और
    5.    क्रिया।
    जहाँ तक कार्यता-ज्ञान का संबंध है, यह ‘कुछ करना है’ की केवल चेतना नहीं है, किन्तु कार्य के प्रतिसंधान और कत्र्ता के तादात्म्य (स्व-विशेषण) से उत्पन्न चेतना है। केवल चेतना सूचनामात्र है। इससे यह आवश्यक नहीं कि सूचना प्राप्त मनुष्य कार्य में प्रवृत्त ही हो जाये। जब साध्य कार्य के साथ कत्र्ता का तादात्म्य होता है, तब कार्यताज्ञान प्र्रेरक हो जाता है, जिससे इच्छा और चुनाव उत्पन्न होते हैं। इसी को गागाभट्ट  ‘स्वविशेषणवत्ताप्रतिसंधानजन्यकार्यताज्ञान’ कहते हैं। उनके अनुसार कार्यताज्ञान दो प्रकार का होता है। ‘मुझसे यह किया जा सकता है’, का यह रूप ज्ञान है। ‘यह मुझसे अवश्य किया जाना चाहिए’ यह कार्य का दूसरा रूप है। प्रथम ज्ञान ‘पदार्थनिष्ठयोग्यतागम्य’ है,  प्रवृत्ति के लिए कारण नहीं। दूसरा चिकीर्षा के द्वारा प्रवृत्ति का कारण है।
    चिकीर्षा किसी कार्य को सम्पन्न करने की वह इच्छा है, जिसके बारे मंे यह ज्ञान प्राप्त हो चुका है कि वह किया जा सकता है। सिद्धान्तमुक्तावली में इसको ‘कृतिसाध्यप्रकारिका- कृतिसाध्यक्रियाविषयिनीच्छा’ कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि चिकीर्षा वह इच्छा है, जिसका प्रकार (रूप) स्वेच्छा से किया जानेवाला कार्य है।
    न्याय-वैशेषिकों का यह सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक सुखवाद से मिलता-जुलता है, जिसके अनुसार कत्र्तव्य को कत्र्ता के स्वार्थ (इष्ट अथवा प्रिय) से अलग नहीं किया जा सकता। किन्तु यह स्वार्थ मानव-जीवन के स्व (अपने वास्तविक अर्थ = परमार्थ) का समकक्ष हो सकता है, जिसमें छोटे सामयिक स्वार्थ बहुत पीछे छूट जाते हैं और स्वस्थ मनुष्य सहज रूप से बिना किसी फल की आशा से अपने कत्र्तव्य का पालन करता है। भारतीय नैतिक सिद्धान्तों और आचारशास्त्र में अनासक्ति-भाव से बिना किसी फलाशा के कत्र्तव्य पर पर्याप्त बल दिया गया है। सकाम कर्म बन्धन के कारण होते हैं, यह सिद्धान्त सर्वमान्य था। अतः जो बन्धन से मुक्ति चाहते हैं, उनको कर्म से कामना को अलग करना आवश्यक था। इसके कई मार्ग थे। प्रथम तो सांख्य अथवा ज्ञानमार्ग था, जिसके अनुसार पुरुष को कत्र्तृत्व का परित्याग कर कर्म के दायित्व से छुटकारा और फलतः कर्मफल से छुटकारा मिल जाता है। दूसरा मार्ग भक्ति का है, जिसके अनुसार सम्पूर्ण कर्म और उनके फल भगवदर्पित कर दिये जाते हैं। तीसरा मार्ग योग है, जिसके द्वारा जीव और ब्रह्म का ऐक्य हो जाता है और समत्वबुद्धि प्राप्त कर मनुष्य सुख-दुःख, लाभ हानि आदि सभी द्वन्द्वों और वेषम्यों से ऊपर उठ जाता है। चैथा मार्ग लोक-संग्रह अथवा लोक-कल्याण का है। इसके अनुसार मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर समष्टि-दृष्टि से अपने कत्र्तव्यों का पालन करता है।
    भारतीय नीति की एक और विशेषता रह है कि यह कत्र्तव्यों के विधान में व्यक्ति के बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास और उसके सामाजिक पर्यावरण का ध्यान रखती है। इसके अनुसार सभी के लिए एक ही लक्ष्य ओर एक ही मार्ग का अनुसरण वांछनीय नहीं। जो कत्र्तव्य किसी सुसंस्कृत पुरुष के लिए अनुकूल पडे़गा, वह असभ्य और ज्ञान-की व्यवस्था । अन्तिम ध्येय सबका एक ही है। किन्तु आगे-पीछे और जीवन के विविध मार्गों से वहां तक पहुंचना है। जिनकी प्रवृत्ति कर्म की ओर है, वे शुभ कर्म करके उच्च पद-स्वर्ग-प्राप्त करते हैं। यद्यपि स्वर्ग-फल सनातन नहीं है, वे चित्त शुद्धि द्वारा अपने ध्येय की ओर अग्रसर होते रहते हैं। जो भक्ति में अनुरक्त होते हैं, वे अपनी रागात्मक साधना से ब्रह्मसाक्षात्मकार करते हैं। जो शुद्ध और प्रबुद्ध हैं, वे सच्चे ज्ञान द्वारा ब्रह्मोपलब्धि और मोक्ष प्राप्त करते हैं।
    किन्तु मानव-कत्र्तव्यों के अन्तिम लक्ष्य के संबंध में भारत में पर्याप्त और सूक्ष्म विवेचन हुआ है। भारतीय नीतिशास्त्र की दृष्टि से मानव-कत्र्तव्यों के चार लक्ष्य (पुरुषार्थ)  हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारो पुरुषार्थों में धर्म और अर्थ मूलतः लक्ष्य नहीं, साधन हैं, अर्थात् ये अन्य दो पुरुषार्थों काम और मोक्ष के साधन हैं। काम और मोक्ष दूसरे पुरुषार्थों के साधन नहीं, अपितु स्वतः लक्ष्य है। इन दोनों में मोक्ष और उच्चतम और जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। किन्तु यह अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है क्या? वेदान्त-दशर््न के अनुसार यह वह अवस्था हे, जिमें न केवल जीवन के सभी दुःखों और निरानन्दों का अन्त हो जाता है, अपितु सर्वोच्च और शुद्ध आनन्द की प्राप्ति होती है। यह आत्मसाक्षात्कार, आत्मा और ब्रह्म के अभेद का परिणाम है। काम का अर्थ है विषयों के अनुभव से उत्पन्न सुख। जो सुख अथवा आनन्द बाहरी विषयों के सम्पर्क से अथवा बौद्धिक तथा रागात्मक तृप्ति से प्राप्त होता है, वह काम है।1 सौन्दर्य-बोध अथवा कला से उत्पन्न सुख भी काम के ही अन्तर्गत हैं। वास्तव में सुख अैर आनन्द दोनों ही चेतना की वांछनीय स्थिति का निर्देशन करते हैं। परन्तु, कतिपय नीतिशास्त्री सुख और आनन्द में अन्तर मानते हैं। उनके मत में सुख स्थूल-इन्द्रिय कामना का परिणम है, जबकि आनन्द इससे ऊपर की आध्यात्मिक अनुभूति है। इसी प्रकार बहुत से लोग काम को भी स्थूल इन्द्रिय-सुख मानते हैं। सच बात तो यह है कि काम और मोक्ष दोनों ही आनन्द की स्थिति के द्योतक हैं। अन्तर केवल यह है कि काम से उत्पन्न आनन्द सीमित होता है जबकि मोक्ष से प्राप्त आनन्द अनन्त और अपरिमेय होता है। आत्मा का स्वरूप ही सच्चिदानन्द (सत् चित्त् आनन्द) है। आनन्द जीवन की चरम उपलब्धि है। मोक्ष में जीवन की पूर्णता और आत्मसाक्षात्कार दोनों निहित हैं।

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