Wednesday, May 18, 2016

गांधी रचित ‘हिंद स्वराज्य’ पुस्तक: विरोधी, कालबाह्य परिस्थितिशून्य, राष्ट्र-विरोधी एवं टोटे का दर्शन

गांधी रचित ‘हिंद स्वराज्य’ पुस्तक: विरोधी, कालबाह्य परिस्थितिशून्य, राष्ट्र-विरोधी एवं टोटे का दर्शन

         1857 ई॰ के पश्चात् के भारत मंे मूढ़ताओं, बेवकूफियों, नादानियों, बचपने एवं विश्वासघात का एक लंबा इतिहास मौजूद है। उच्च कोटि के कहे जाने वाले नेता फिसड्डी व घुग्घू साबित हुए, कुटनीतिज्ञ कहे जाने वाले अतुलनीय महान लोग देश के लिए विनाशकारी सिद्ध हुए, महापुरुष कहे जाने वाले लोग विश्वासघाती व तुष्टीकरण के अवतार कहलाने लगे, नीति व आचरण का झंडा दुनिया में बुलंद करने वाले लोग रावण व कंस से भी बदतर बन गए, देश के कर्णधारों ने दुनिया के मानचित्र पर भारत की जमकर मिट्टीपलीत करवाई, अहिंसा व सत्य के नाम पर लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, राष्ट्रपिता-चाचा-ताऊ कहलाने वालों ने देश को शुरू से अंत तक बेवकूफियों के भंवर में फंसाए रखा, विश्वगुरु व सोने की चिड़िया को अनपढ़ व अपाहित बनाने के अनेक कुचक्र रचने के रिकार्ड कायम किए गए, देश का धन लूटकर विदेशी बैंकों में जमा करवाकर भ्रष्टाचार की सारी सीमांए तोड़ दी गई तथा सौ (100) वर्ष में वे घोटाले व कुकृत्य किए जो 1235 वर्ष की भारत की गुलामी के दौरान विदेशी आक्रांता भी नहीं कर पाए थे । भारतीयता को दुषित, कलंकित एवं विनष्ट करने हेतु इन दुष्टों व भष्मासुरों ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है । इसी क्रम में सन् 1909 ई॰ में लिखी गांधी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ भी उल्लेखनीय है । गांधी को मानने वाले न तो इस पुस्तक व इसकी विचारधारा का विरोध कर रहे हैं, न समर्थन कर रहे हैं तथा न ही दोनों कार्य एक साथ कर रहे हैं लेकिन गांधी के नाम का सहारा लेकर देश को बेवकूफ खूब बनाया जा रहा है । देखिए उन बेवकूफियों के कुछ नमूने जो गांधी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ से उद्धृत किए गए हैं -
1.    ”रेल या अस्पतालों का नारा करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगर ये उनका कुदरती नारा हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा । रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊंची और बिल्कुल शुद्ध संस्कृति की सूचक नहीं है । ज्यादा से ज्यादा इतना कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती ।“ पृ॰ 26 (हिंद स्वराज्य के बारे में)
    गांधी पूरा जीवन रेलों में यात्रा करके अपनी फिसड्डी विचारधारा का प्रचार करते रहे तथा उन्हीं रेलों को पानी पी-पीकर गलियां भी देते रहे । एक महापुरुष कहे जाने वाले व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का विरोधाभास किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं कहा जा सकता । कसूर रेलों का न होकर रेल में यात्रा करने वालों की मानसिकता का है और गांधी भी उनमें से एक है । अरे! तकनीकी साधनों का सदुपयोग करके संतुलित तरक्की से आगे बढ़ते जाओ - यही तो सही विकास का मूल मंत्र है ।
2.    ”अगर मेरे विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है ।“ पृ॰ 29 (प्रस्तावना)
    लेकिन क्या गांधी के शिष्य ऐसा कर रहे है।? वे तो गलत-सही का विचार किए बगैर आंखें व बुद्धि को बंद करके गांधी का समर्थन करने की बातें किया करते हैं, हांलाकि ऐसा वे स्वयं भी नहीं करते हैं । जब गांधी स्वयं यह कह रहे हैं कि गलत सिद्ध होने वाले मेरे विचारों को स्वीकार न करो तो फिर गांधीवादी क्यों देश को गड्ढों में धकेल रहे हैं? उदाहरण के लिए देश की रक्षा, देश की एकता व आतंकवाद पर रोकथाम लगाने में गांधी की खोखली अहिंसा व प्रेम की नीति सफल नहीं हुई तो अब इसे गांधीवाद के अनुसार त्याग क्यों नहीं दिया जाता है । है गांधीवादियों में ऐसी हिम्मत?
3.    ”जिसे आप सही जागृति मानते हैं वह तो बंग-भंग से हुई, जिसके लिए हम लार्ड कर्जन के आभारी हैं ।“ पृ॰ 7
    देश से प्रेम करने वालों से गांधी को इतना द्वेष क्यों है कि वे बंग-भंग की उल्टी व्याख्या करके लार्ड कर्जन की प्रशंसा करने से अपने आपको नहीं रोक पा रहे है?  क्रांतिकारियों ने जो कुर्बानियां दी थी उनका कोई महत्व नहीं है क्या? गर्म दल वालों की हर समय निंदा करना कहां की समझदारी है? भारतवासियों में जागृति पाश्चात्य प्रभाव से स्वीकार करना परले दर्जे की मूर्खता है ।
4.    ”ये जो दो दल हुए हैं वह देश के लिए अच्छी निशानी नहीं है --- ऐसे दल लंबे अरसे तक चलेंगे नहीं ।“ पृ॰ 69
    दो दल होना या अलग-अलग होकर कोई भी आन्दोलन चलाना यदि सही नहीं है तो फिर तानाशाही (एकदलीय) ही सही हो सकती है । एक-दलीय व्यवस्था में उस दल-विशेष की मनमानी ही चलती है। वहां पर स्वतंत्रता को कोई स्थान नहीं होता है । गांधी की मानें तो हिटलर की व्यवस्था ही सही हो सकती है क्योंकि वहां पर एक दल की व्यवस्था ही होती है । लोकतांत्रिक कहा जानेवाला कोई भी व्यक्ति एकदलीय व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकता । मैं ही केवल सही हूँ, बाकी सब गलत हैं- गांधी जी की इस सोच ने भारत को काफी नुकसान किया है ।
5.    ”हम मांगते हैं उतना अंग्रेज हमें दे दें, तो फिर उन्हें निकाल देने की जरूरत आप समझते हैं?--- अगर वे धन बाहर न ले जाएं, नम्र बन जाएं और हमें बड़े ओहदे दें, तो उनके रहने में आपको कुछ हर्ज है?“ पृ॰ 10-11
    किसी न किसी प्रकार से अंग्रेज, अंग्रेजी व अंग्रेजियत का समर्थन करना गांधी की अपनी विशेषता है। अपने दुश्मनों से प्रेम करने की गांधी जी की सोच ने पूरे जीवन में एक भी दुश्मन का दिल परिवर्तित नहीं किया । दुष्ट व्यक्ति केवल दुष्टता की भाषा ही समझते हैं, प्रेम की नहीं । पिछले 65 वर्ष से पाकिस्तान के प्रति गांधीवादी सोच ने पाकिस्तान को कितना बदला है? जो जिस प्रकार से समझता हो उसे उसी प्रकार से समझाने में ही समझदारी है । सब व्यक्तियों से एक ही भाषा में बातें करना मूर्खता व अल्पज्ञता की पहचान है । हम उन व्यक्तियों को अपने देश में रहने की आज्ञा क्यों दे जो 200 वर्ष से इसको लूटते आए हैं? गांधी ने अपने घर में कितने लोगों को पनाह दी हुई थी? या किसी व्यक्ति द्वारा जबरन गांधी के घर पर अधिकार कर लेने पर क्या गांधी का फिर भी यही उत्तर होता?
6.    ”हिंदुस्तान अंग्रेजों ने लिया सो बात नहीं है, बल्कि हमने उन्हें दिया है । हिंदुस्तान में वे अपने बल से नहीं टिके हैं, बल्कि हमनें उन्हें टिका रखा है ।“ पृ॰ 21
    गांधी यह एक-तरफा बात कर रहे हैं । ठीक है कि कुछ हमारे ही भाइयों ने अंग्रेजों का साथ देकर राष्ट्र के साथ गद्दारी की थी लेकिन इसका यह अर्थ निकालना कि हमने ही उनको टिकाकर रखा हुआ है यह पूरी तरह से सही नहीं है । भारत में अंग्रेजों का विरोध भी तो हो रहा था । लेकिन गांधी वहां पर बेवजह अपने भोथरे अस्त्रों अहिंसा, सत्यादि को घुसेड़ देते हैं । और थोड़ी देर के लिए उनकी बात सच भी मान ली जाए तो क्या अब भी उनको यहां टिकाए रखना जरूरी है? कोई हमारा शोषण क्यों करे? कोई हम पर हिंसा क्यों करे? किसी पर हिंसा करना गलत है तो उससे भी अधिक गलत दूसरों की हिंसा को सहन करना है ।
7.    ”हिंदुस्तान को रेलों ने, वकीलों ने और डाॅक्टरों ने कंगाल बना दिया है । यह एक ऐसी हालत है कि अगर हम समय पर नहीं संभलेंगे, तो चारो ओर से घिटकर बर्बाद हो जाएंगे ।“ पृ॰ 27
”मनुष्य रेलगाड़ी का प्रयोग करके भगवान् को भूल गया ।“पृ॰ 31
    क्या जब रेलें नहीं थी तो सभी लोग भगवान् को याद करते थे? रेल से भगवान् को याद करना या उसे भूल जाने का क्या संबंध हे? कौन से शास्त्र में लिखा है यह कि रेल भगवान् को भूला देती हैं? रेलों में पूरे जीवन घूमते रहे तथा उन्हीें की निंदा भी करते रहे - यह है हमारे राष्ट्रपिता की सोच। नास्तिक व्यक्ति रेल की खोज से पूर्व भी खूब थे तथा आस्तिक व्यक्ति आज भी खूब हैं । आज से पांच हजार वर्ष पूर्व चार्वाक भी नास्तिक ही थे। उस समय तो रेलगाड़ियाँ नहीं थीं । गांधीवादी ही जानें कि इस तरह की उथली बातों में कितनी गहराई है ?
8.    ”जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था । तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया । भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होंने पैदा किए।“पृ॰ 29
    यहां पता नहीं गांधी क्यों अंग्रेजों के विरोध में बोलने को विवश हो गए? गांधी, गांधीवादी व उनके सहयोगी तो यही मानते थे कि भारत एक राष्ट्र कभी नहीं था । अंग्रेजों ने ही हमें राष्ट्र होना सिखलाया । हम तो जाहिल व गंवार थे शुरू से ही । वैसे शायद पता तो गांधी को भी या कि दोषी कौन है, आजादी अहिंसा से नहीं मिल सकती तथा अंग्रेज दुष्ट प्रवृत्ति के है लेकिन राजनीतिक कारणों से गांधी ने कभी भी सच्चाई को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखलाई । काश! सत्य के मसीहा कहे जाने वाले सत्य को स्वीकार कर लेते ।
9.    ”गाय की रक्षा करने का यही एक उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय की रक्षा हेतु समझाना चाहिए । अगर वह न माने तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए । यही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं मानता हूँ ।“ पृ॰ 33
    इस्लामी तुष्टीकरण की इससे बड़ी मिशाल और कौन सी हो सकती है - पाठक विचार करें? मुसलमानों को खुश करने के लिए गांधी किसी भी अत्याचार को (हिदुंओं पर करने हेतु तत्पर हो सकते हैं । हिंदुओं के साथ कितना भी घृणित कुकर्म क्यों न हो रहा हो, गांधी कुकर्म करने वाले को अहिंसा व सत्य का एक शब्द भी न बोलेंगे लेकिन मुसलमानों पर यदि अत्याचार न भी हो रहा हो तो भी गांधी हिंदुओं को अहिंसा, भाईचारे व प्रेम का पाठ पढ़ा देंगे। कैसी मानसिकता को लेकर गांधी यह सब करते थे - मनोवैज्ञानिक जानें, योगाचार्य जानें या स्वयं गांधी ही जानें ।
    गांधी को मुसलमानों द्वारा गाय का वध भी स्वीकार्य है लेकिन हिंदुओं द्वारा अपनी रक्षा करना मात्र भी स्वीकार्य नहीं है - यह कैसी नैतिकता व धार्मिकता है गांधी की? गांधी जी धार्मिक कानून इसी को स्वीकार करते हैं । लेकिन विचारणीय यह है कि ऐसे तो किसी देश का शासन चल ही नहीं सकता। किसी भी विचारधारा कोई है तथा किसी की विचारधारा कोई । गोखले कुछ कहेंगे, नौरोजी कुछ कहेंगे, नेहरू कुछ कहेंगे । सुभाष कुछ कहेंगे तथा सावरकर कुछ कहेंगे । लेकिन केवल गांधी की ही क्यों सुनी जाए - सुभाष व सावरकर की क्यों नहीं?
10.    ”अस्पताल पाप की जड़ हैं । उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं, और अनीति को बढ़ाते हैं ।“ पृ॰ 41
इससे अधिक मूढ़तापूर्ण सोच और क्या हो सकती है कि दुनिया से चिकित्सक व चिकित्सालय ही समाप्त हो जाएं । कोई भी समझदार व्यक्ति इस सोच का क्या समर्थन कर सकता हे? लेकिन लोगों की जीवनशैली देखिए कि इतनी अव्यावहारिक सोच के होते हुए भी सामान्य व्यक्ति क्या बड़े-बड़े चिंतक भी गांधी का विरोध नहीं करते हैं । अपनी बाहरी व भीतरी आंखें बंद करके स्वार्थवश व अज्ञानवश-लोग इस तरह मूढ़ दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे । पाप तो जहां अस्पताल नहीं हैं वहां भी होते हैं। इनका अस्पतालों के होने या न होने से कोई संबंध कैसे हो सकता है? व्यक्ति पूरी तरह से प्राकृतिक नहीं हो सकता; थोड़ी-बहुत कृत्रिमता तो जरूरी होती ही है । बिमारियां न हों यह अच्छा है परंतु दुर्घटनाओं में शरीर को चोंट तो लग ही सकती हे, ऐसे अवसर पर अस्पताल न होंगे तो चिकित्सा कैसे हो सकेगी? गांधी का यह अतिवाद खतरनाक व अव्यवहारिक है । क्या गांधीवादी भी कोई इस पर अब चल रहा है? दिन-रात गांधी की रट लगाने वाले अस्पतालों में पड़े रहते है।
11.    ”हमारी अपनी गुलामी मिट जाए तो हिंदुस्तान की गुलामी मिट गई ऐसा मान लेना चाहिए ।- हम अपने ऊपर राज्य करें वही स्वराज्य हैं, और वह स्वराज्य हमारे हथेली में है ।“ पृ॰ 47
राष्ट्र की आजादी हेतु यह गांधी की बहुत बड़ी तथा न पूरी होने वाली शर्त है । यह शर्त पूरी हो नहीं हो सकती तथा देश आजाद नहीं हो सकेगा । सामान्यजन से महान योगी और वह भी एकदम से बनने की असंभव आशा गांधी क्यों लगाए हुए हैं? और फिर क्या गांधी ने स्वयं इस ‘स्वराज्य’ की प्राप्ति कर ली थी? उनके जीवन पर ध्यान देने से ऐसा कोई भी संकेत नहीं मिलता है। गांधी उन कार्यों को करने हेतु उत्तेजित करते हैं जिनसे व्यक्ति का अहम् खूब पोषित होता हो । यदि उनकी ‘स्वराज्य’ की अवधारणा को मान लिया जाए तो फिर गांधी ने देश की आजादी हेतु ‘भारत छोड़ो’ आदि आन्दोलन क्यों चलाए? हरेक व्यक्ति को अपने राज्य की प्राप्ति स्वयं ही करनी है । वास्तव में गांधी के विचार अव्यवहारिक तो थे ही, इसके साथ ही वे अस्थिर एवं पल-पल परिवर्तनशील भी थे । वे कब क्या कह दें- किसी को क्या गांधी को स्वयं पर ही भरोसा नहीं था । इस तरह की विचारधारा के प्राधान्य के कारण हम आज दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट, गरीब व स्वयं के राष्ट्र के साथ घात करने वाले बन गए हैं।
12.    ”खून करके जो लोग राज करेंगे, वे प्रजा को सुखी नहीं बना सकेंगे । धींगरा ने जो खून किया है उससे या जो खून हिंदुस्तान में हुए हैं उनसे देश को फायदा हुआ है, ऐसा अगर कोई मानता है तो यह बड़ी भूल करता है ।“ पृ॰ 51
    यह बात गांधी जी केरल भारतीयों पर लागू करते हैं - ईसाईयों व मुसलमानों पर नहीं । अंग्रेजों व मुसलमान हमलावरों ने भारत में जो रक्तपात किया तथा देश में तबाही मचाई, उसकी मिशाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती । गांधी को भगत सिंह, बिस्मिल, धींगरा व सुभाष द्वारा फैलायी जा रही हिंसा व रक्तपात तो दिखलाए पड़ते हैं लेकिन अंग्रेजों व मुसलमानों द्वारा प्रायोजित आतंक, उपद्रव, रक्तपात, नर-संहार व खून दिखलाए नहीं पड़ते । कैसे महात्मा थे गांधी जी? उनकी अंतरात्मा की आवाज भी अद्भूत थी जो सदैव भारत के विरोधियों के षड्यंत्रों में भी भारत का कल्याण तलाश करने को तत्पर रहती थी । देशद्रोहियों को मारने-काटने में कोई पाप नहीं है । उस समय गर्म दल वालों द्वारा देश की आजादी हेतु जो आन्दोलन चलाए जा रहे थे यदि गांधी उनमें बाधा न डालते तो आज भारत की तस्वीर इतनी भ्रष्ट, कुरूप एवं विश्वासघातपूर्ण न होती । गांधी को आदर्श मानने वाले ही लूट रहे हैं देश को। अधिकांश ऐसे नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं । लेकिन न्याय-व्यवस्था की कमजोरियों का लाभ उठाकर वे पूरे देश का मजाक उड़ा रहे हैं ।
13.    ”आपके लिए अच्छा रास्ता तो यही है कि जब मौका मिले तब आप उस आदमी के भीतर से चोरी का बीज ही निकाल दें ।“ पृ॰56
    मात्र कह देने से तो कुछ हासिल नहीं होता है । क्या गांधी कर पाए इसको? गांधी अपने पूरे जीवन क्या एक भी व्यक्ति के मन से चोरी, जारी, हिंसादि के विचारों को निकाल पाने में सफल हो पाए थे? ऐसा कोई उदाहरण आजादी से पूर्व तथा आजादी के पश्चात् के भारतीय इतिहास में नहीं मिलता । हां, यह प्रमाण जरूर मिलते हैं कि उनके कई उद्योगपति अनुयायियों ने अपनी दौलत को हजारों गुना कर लिया है । यह कृत्य उन्होंने लोगों का खून चूसकर, देश के साथ गद्दारी करके तथा चोरी करके ही किया है । जब गांधी जी ही चोरी के विचार को किसी के मन से नहीं निकाल पाए तो अन्यों व्यक्तियों की क्या ताकत कि वे इस कृत्य में सफल हो पाएं । उपदेश देना एक बात है तथा उन पर चलकर सफलता प्राप्त करना बिल्कुल अन्य बात है । फिर हर बिमारी का एक ही ईलाज नहीं होता है । स्थूल बुद्धि व दुर्बुद्धि व्यक्ति जूत्तों की भाषा समझते हैं, अहिंसा व सत्य की नहीं । गांधी तो पाकिस्तान का मन भी नहीं बदल पाए फिर वे किस तरह से इस प्रकार के दावे कर रहे है।? कुछ भी कहकर उसे अंतरात्मा की आवाज सिद्ध कर देना गांधी की आदत थी ।
14.    ”सत्याग्रह का उदाहरण - दया धर्म का मूल है, पापमूल अभिमान ।“ पृ॰ 59
    ”शरीर बल का प्रयोग करना, गोला-बारुद काम में लाना, हमारे सत्याग्रह कानून के खिलाफ है।“ पृ॰ 63
    ”सत्याग्रह के लिए जो हिम्मत और बहादुरी चाहिए, वह तोप का बल रखने वाले पास हो ही नहीं सकती --- वे (गर्मदल वाले) खुद जब अंग्रेजों को मारकर राज्य करेंगे तब आपसे और हमसे जबरन कानून मनवाना चाहेंगे ।“ पृ॰ 64
    लेकिन यहाँ तुलसी ने यह तो कहीं भी नहीं कहा है कि जब दुष्ट, आततायी व आतंकवादी आप व आपके राष्ट्र को हानि पहुंचाएं तो भी दया को नहीं छोड़ना चाहिए । गांधी बातें तो कर रहे हैं महर्षि पतंजलि रचित ‘योगसूत्र’ की तथा उस प्रकार की साधना से वे कतई शून्य थे। इस विरोधाभास व धालमेल ने सारा गुड़-गोबर कर दिया । विश्वविजेता पहलवान का हाथ यदि किसी सामान्य व्यक्ति से मिलवा दिया जाए तो जो परिणाम निकलेगा, वह सबके सामने है। अहिंसा, सत्य, अचैर्य, अनशन व उपवास की जो दुर्गति भारत में हो चुकी है या हो रही है, उसकी मिशाल विश्व में कहीं भी न मिलेगी। यदि सत्याग्रह व अहिंसा तथा तोप के बल का सही प्रयोग गांधी जी करते तो शायद भारत आज की तरह बदनाम न होता । गर्म दल वालों पर गांधी जी ने जो अंग्रेजों की तरह क्रूर होने का आरोप लगाया है वह नर्म दल वालों के संबंध में सत्य सिद्ध हो रहा है । आजादी के बाद नरम दल वाले ही सत्ता मंे रहे हैं तथा जो लूट-खसोट उन्होंने इस देश में मचाई है वह अतुलनीय है।
15.    ”जहाँ हुक्म मानने वालों ने सत्याग्रह करना सीखा है वहां राजा का तुल्म उसकी तीन गज की तलवार से आगे नहीं जा सकता।“ पृ॰ 65
    गांधी की यह पंक्तियां एक बार नहीं अपितु अनेकों बार गलत सिद्ध हो चुकी हैं । और किसी की बात रहने दो तथा गांधी का ही उदाहरण ले लो । गांधी तो हुक्म मानकर सत्याग्रह करने वालों में थे फिर भी अंग्रेजों व मुसलमानों के जुल्म के अनेक बार वे शिकार हुए । जब गांधी जैसा सत्याग्रही ही सच्चा सात्याग्रही न हो सका तो अन्य सामान्यजन कैसे सत्याग्रही हो पाऐंगे-यह या तो स्वयं गांधी जाने या उनके गुरु टाल्स्टाय आदि जानें । इसी तरह की सोच ने भारत का काफी हिस्सा चीन को दे दिया तथा कश्मीर का काफी हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है । 1948, 1962 व 1971 में भारत गाँधी की सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह व अनशन की नीतियों के दुष्परिणाम बुरी तरह से भुगत चुका है तथा भुगत भी रहा है । काश! भारत में गांधी की यह पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ लिखी ही न जाती ।
16.    ”सत्याग्रही को संतान पैदा करने की इच्छा नहीं होनी चाहिए।“ पृ॰ 67
    यदि यह सत्य है तो आज तक सच्चा सत्याग्रही कोई हुआ ही नहीं है तथा स्वयं गांधी भी सच्चे सत्याग्रही नहीं थे । गांधी की कई संतानें थीं । फिर संतान पैदा करने तथा सत्याग्रही होने या न होने में संबंध हो भी कैसे सकता है । यह कुतर्क तो उस बूढ़ी औरत के कुतर्क की तरह है जो उसके गांव वालों के साथ झगड़ा होने के कारण उस गांव को छोड़कर चली गई थी तथा सूर्योदय होने पर कह रही थी कि अब गांव वाले उनके वहां सूर्योदय न होने से पछता रहे होंगे क्योंकि जिस मुर्गे की बांग से सूर्योदय होता था वह तो वह अपने साथ ले आई है ।
17.    ”गरीबी को अपनाने की भी जरूरत है । पैसे का लोभ और सत्याग्रह का सेवन-पालन कभी नहीं चल सकते ।“ पृ॰ 67
    गांधी के इस गरीबी के सिद्धांत ने भी भारत में बखेड़ा खड़ा किया है । उनके अनुयायियों तथा अन्य भारतीयों ने इस गरीबी के सिद्धांत को जबरदस्ती अपनाने की कोशिश की जिससे कि उन्हें काफी कुछ दमन करना पड़ा । उस दमन का बदला अब गांधीवादी बड़े-बड़े घोटाले करके ले रहे हैं । हर दिन लाखों करोड़ का घेटाला किया जाना साधारण सी बात हो गई है । यहां तक कि उनके नेता 70 लाख के घोटाले को घोटाला नहीं मानते तथा कहते हैं कि यदि 70 करोड़ का गोलमाल होता तो घोटाला कहा जाता । 70 लाख का घोटाला कोई घोटाला नहीं है । ‘मध्यम पथ’ की सीख यदि गांधी जी देते तो बात ही कुछ और होती ।
18.    ”उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि, शुद्ध, शांत व न्यायदर्शी है । उसने सच्ची शिक्षा पाई है जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा हुआ है और इंद्रियां उसके वश में हैं, जिनके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध है ।“ पृ॰ 70
    इस दृष्टिकोण से तो गांधी भी सच्ची शिक्षा नहीं पा सके थे। इस कसौटी पर कोई भी व्यक्ति खरा नहीं उतर सकता, स्वयं गांधी भी नहीं । गांधी इस प्रकार की अतिवादी एवं अव्यवहारिक बातें करके भारत को एक ऐसा ढोंग व पाखंड का रोग दे गए हैं जिसकी चिकित्सा आज भी नहीं हुई है तथा पूरा भारत इसकी गिरफ्त में है। गांधी जीवन के अंतिम वर्षों में भी अपनी इन्द्रियों पर काबू पाने में सफल नहीं हो पाए थे - जीवन के शुरू व मध्य में तो वे सदैव असफल रहे ही थे ।
19.    ”जिस शिक्षा को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया वह हमारा शंृगार बनती है, यह जानने लायक है ।“ पृ॰ 72 हमारी कंाग्रेस का कारोबार भी अंग्रेजी में चलता है । अगर ऐसा लंबे समय तक चला, तो मेरा मानना है कि आने वाली पीढ़ी हमारा तिरस्कार करेगी और उसका शाप हमारी आत्मा को लगेगा ।“ पृ॰73
    यह शाप भारत की आत्मा को लग चुका है । भारत पर अंग्रेजी भाषा पूरी तरह से सवार है। कांग्रेस, जिसको गांधी जीवन भर खुराक-पानी देते रहे थे उसने अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी व्यवहार, अंग्रेजी कानून व अंग्रेजी शिक्षा को भारत पर इस तरह से लाद दिया है कि समस्त भारतीय संस्कृति, इसका दर्शन-शास्त्र, इसके जीवन-मूल्य व भारत राष्ट्र खतरे में पड़ चुका है । गांधी व गांधी की कांग्रेस इस पाप हेतु पूरी तरह से जिम्मेवार है । भारतीय शास्त्रों की मनमानी व्याख्याएं गांधी के सामने भी हो रही थीं, भारत को उस समय भी सपेरों का देश पश्चिमी विद्वान कह रहे थे तथा गांधी के समय भी अधिकांश भारत के कानून भारत को लंबे समय तक गुलाम रखने की मानसिकता के कारण निर्मित किए गए थे । आज स्वयं गांधी की शिक्षाओं के कारण अनेक प्रकार के व्यर्थ के बखेड़े खड़े हो गए हैं - जिनका कोई समाधान निकलता दिखलाई नहीं पड़ रहा है ।
20.    ”सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिंदी तो होनी चाहिए उसे उर्दू या नागरी में लिखने की छूट होनी चाहिए ।“ पृ॰ 74
    होना तो पता नहीं क्या-क्या चाहिए, लेकिन हो तो नहीं रहा है। कह तो सब देते हैं लेकिन करता कोई है ही नहीं । गांधी जी का भारतीय राजनीति पर इतना प्रभाव था कि वे जो चाहे वह करवा सकते थे । गांधी जी यदि सच्चे हृदय एवं पूरे संकल्प से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनवाने का संकल्प करते तो हिंदी अवश्य ही भारत की राष्ट्रभाषा बन जाती । जो व्यक्ति हिंदी की बात भी अंग्रेजी में उठाऐगा वह हिंदी का क्या भला करेगा? किसी भी तरह से अंग्रेज खुश रहें, मुसलमान खुश रहें तथा उनकी अनाप-शनाप मांगें मानी जाती रहें - यही दर्शन-शास्त्र है गांधी का । गांधीवादी आजादी के बाद राष्ट्रभाषा हिंदी के सब से बड़े विरोधी सिद्ध हुए हैं । पूरे भारत का अंग्रेजी करण करने में वे सब प्राणपय से जुटे हुए हैं । अंग्रेजी का भूत सवार हो गया है पूरे भारत पर । हर विभाग में अंग्रेजी भाषा में काम होता है । युवा-वर्ग इस भाषा व इसकी संस्कृति के दुष्प्रभाववश अपनी जमीन से उखड़ता जा रहा है। जीवन-मूल्यों का नाश सा हो चुका है ।
21.    ”यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूं ।“ पृ॰ 76 ”यंत्र का गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जबकि उसके अवगुणों से मैं पूरी किताब लिख सकता हूं ।“ पृ॰ 79
गांधी की यह बहुत बड़ी कमी है । विकासरूपी गाड़ी में बैठकर गांधी सदैव पीछे ही देखते हैं, आगे नहीं। लेकिन गांधी को यह पता नहीं है कि गाड़ी में यात्रा करते समय पीछे सिर्फ धूल ही होती है । विकास करने वाले आगे देखते हैं । पीछे को आधारभूमि बनाकर आगे देखना विकास चाहने वालों का प्रधान गुप्र होता है । बुराई यंत्रों में नहीं है अपितु यंत्रों का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों के चित्त में है । चित्त में रूपांतरण ही प्रमुख है, यंत्र नहीं । यंत्र तो बेचारे निर्जीव हैं, उन्हें पाप व मुण्य से क्या लेना-देना। गांधी को यह तथ्य समझ में क्यों नहीं आ सका? यंत्र का प्रयोग हम संतुलित विकास हेतु भी तो कर सकते हैं । ‘यंत्र-विरोध’ गांधी के दर्शन-शास्त्र का एक और पिछड़ा हुआ पहलू है । गांधी द्वारा कही गई बातों को कोई भी गांधीवादी मान भी नहीं रहा तथा उनका विरोध करने वालों को वे देशद्रोही की संज्ञा देने लगते हैं ।
22.    ”अंग्रेजी राज्य को यहां टिकाए रखने वाले ये धनवान लोग ही हैं । ऐसी स्थिति में ही उनका स्वार्थ सधेगा । अगर वे देश का भला करना चाहते हों तो खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर सकते हैं । वे खुद पुराने, प्रौढ़, पवित्र चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों से बुना हुआ कपड़ा लेकर उन्हें बेच सकते हैं ।“ पृ॰ 77
    गांधी के शिष्य बिड़ला आदि भी इस काम को नहीं कर सके तो अन्य उद्योगपति इसे क्यों करने लगे? गांधी की बातें सच्चे मायनों में ‘यूटोपिया’ है । ये कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं । लोगों के मध्य इनका जिक्र करने या आदर्श के रूप में ये भलि व अच्छी लगती हैं लेकिन जीवन-निर्माण या सृजनात्मकता हेतु इनका कोई भी मूल्य नहीं है । इस तरह की शिक्षाओं के कारण ही हम बाहर से कुछ तथा भीतर से कुछ हो गए हैं । हमारा जीवन पाखंड के सिवाय कुछ भी नहीं रह गया है । आप आबादी को कम नहीं कर रहे हैं तथा चर्खा कातने को देश को विवश करते हैं तो ऐसे में सारा देश चैबीस घंटे चर्खा ही कातता रहे तो भी सारे देशवासियों का तन नहीं ढकेगा । अंग्रेज देश का शोषण करते रहे तथा अब जो सत्ता में हैं वे शोषण कर रहे हैं तथा हम आराम से बैठकर चरखा चलाते रहेंगे । चरखा भी तो यंत्र ही है ।
23.    ”मैं गर्म दल वालों से कहना चाहता हूँ कि ---- स्वराज्य आपकी कोशिशों से मिलने वाला नहीं है । स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए । दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं, बल्कि परराज्य है ।“ पृ॰ 80
    गांधी की ऐसी ही शिक्षाओं ने देश को देर से आजाद होने में पूरी मदद की । यह इस प्रकार की बातें अंग्रेज राज को बचाने हेतु काफी समय तक सहारे का काम करती रही थीं । अरे पहले बाहरी स्वराज्य को तो पा लो, भीतरी स्वराज्य फिर पा लेंगे । इस संबंध में एक और बात है कि गांधी जरूरत व अवसरानुसार शब्दों को तोड़-मरोड़कर कुछ का कुछ अर्थ निकालते रहे । पहले स्वराज्य का अर्थ ‘भीतरी राज्य’ था लेकिन जब गर्म दल की क्रांतिकारी गतिविधियों से देश को आजादी देना अंग्रेजों की विवशता हो गई तो गांधी जी झूठा श्रेय लेने के चक्कर में स्वराज का अर्थ ‘बाहरी सत्ता’ करने लगे । इस अवसरवाद में वे माहिर थे । गांधी ने गर्म दल वालों द्वारा अर्जित किए जाने वाले स्वराज्य को ‘परराज’ तक की संज्ञा दे डाली । शायद अपने हाथ से प्रसिद्धि को खिसकते देखकर उन्होंने यह सब किया होगा। योग, ध्यान, साधना व स्वराज की बातें तभी भलि तरह संभव होती लगती हैं जब हमारा बाहरी जीवन समृद्ध व मजबूत हो । देश हाहाकार कर रहा है, सभ्यता व संस्कृति खतरे में है, अंग्रेजों ने शोषण व अत्याचार की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं और गांधी हैं कि भीतरी ‘स्वराज्य’ की रट लगा रहे हैं।
24.    ”सच्चा स्वतंत्रता सेनानी वह होगा जो अंग्रेजी का उपयोग लाचारी में ही करेगा । अपनी वकालत छोड़ देगा तथा घर पर चर्खा चलाऐगा । डाॅक्टर अपनी डाॅक्टरी छोड़ देगा तथा चरखे से अपना गुजारा करेगा । धनी अपना धन चरखे चलवाने पर खर्च करेगा । जो अंग्रेज का कसूर नहीं निकालेगा तथा यह सोचेगा कि हमारा कसूर दूर होते ही अंग्रेज स्वयं ही इस देश को छोड़े देंगे।“ पृ॰ 85-86
    आततायी को आततायी के रूप में न देखने से भारत ने विनाश की जो लीला सैकड़ों वर्षों से देखी है वह काफी पीड़ादायी है । तथ्य को सही रूप में देखने से हम पलायन क्यों करते हैं? विदेशी हमलावर हमारे देश में आए तथा उस पर अधिकार कर लिया - इसमें हमारी कमी थी परंतु उन विदेशी हमलावरों को बेकसूर बतलाना परले दर्जे की मूढ़ता है । कमी दोनों की ही होती है हमला सहन करने वाले की भी तथा हमलावर की भी । एक अन्य बात यह कि हमारे सुधरते ही हमलावर कैसे सुधरेगा? गांधी ने विस्तार से इस बारे में कुछ नहीं बतलाया है । यह सिद्धांत यदि सत्य होता तो पूरी दुनिया से आतंक व उपद्रव कभी का समाप्त हो जाता । हमलावर, आंतकवादी व दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों से यदि उन्हीं की भाषा में बात नहीं की गई तो उनका उत्साह अत्याचार करने का और भी बढ़ जाएगा । भगवान् बुद्ध से लेकर गांधी तक तथा गांधी से लेकर अब तक इस सोच ने भारत को बर्बाद करके रख दिया है तथा सभी देश व आतंकवादी भारत को मूढ़ताओं, उपद्रव, भ्रष्टाचार व घोटालों का स्वर्ग मानते हैं । यह महारोग पता नहीं कब भारत का पीछे छोड़ेगा? भगवान् बुद्ध, गांधी, टालस्टाय व थोरो आदि कोई भी नीति-शास्त्री रत्तीभर भी कामयाबी हासिल नहीं कर सका है । भारत की आजादी हेतु गांधी ने जो शर्त ‘हिंद स्वराज्य’ पुस्तक में रखी है उससे देश कभी भी आजाद नहीं होता तथा गांधी व उनके चेले स्वयं भी इस आजादी की कसौटी को पूरा नहीं कर पाए थे । वह सुभाष ही थे जिनकी रणनीति ने अंग्रेजी सेना की कमर को तोड़ दिया था तथा इसी वजह से अंग्रेज भारत से भागने को विवश हुए थे । गांधीवादी नीतियों से तो यह देश हजार वर्ष पश्चात् भी आजाद नहीं होता ।
25.    ”यह पुस्तक मैंने 1909 में लिखी थी । 12 वर्ष के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वे वैसे ही आज है“ । पृ॰ 88
    1909 ई॰ में लिखी उनकी यह पुस्तक गर्म दल वालों को नीचा दिखलाने एवं अंग्रेजों की मदद करने हेतु लिखी गई लगती है। इसके 12 वर्ष पश्चात् यानि कि 1922 ई॰ में भी उनके विचार पूर्ववत् ही थे । गलतियों से उन्होंने कुछ भी नहीं सीखा - यह भारत का दुर्भाग्य था । विदेशी विद्वानों की विचारधारा को भारत में लागू करना वैसे भी व्यवहार्य नहीं था लेकिन गांधी प्रयोगवादी थे। उन्होंने अनेक विनाशकारी एवं घातक प्रयोग किए थे और उनका दुष्परिणाम भारत अब भी भुगत रहा है । 12 वर्ष में सब कुछ बदल जाता है लेकिन गांधी की सोच नहीं बदली । ‘हिंद स्वराज्य’ जैसी तिथिबाह्य पुस्तकें केवल मात्र टोटे व दरिद्रता का दर्शन-शास्त्र प्रस्तुत करती हैं ।
26.    ”इस पुस्तक के प्रेरणास्त्रोत हैं विदेशी टालस्टाय(The Kingdom of God is within You, What is Art, The Slavery of our Times)]थोरोs (Life without Principles, On the Duty of Civil Disobdience) रस्किन (Unto This Last, A Joy for Ever) मेजिनि (Duties of Man) प्लतोs (Defence and Death of Socrates) टेलेर (The Falacy of Speed) कारपेन्टेर (Civilization, its Cause and Cure) नौरोजी (Poverty and Un-British Rule in India) रचित पुस्तकें है न कमाल कि नीति-शास्त्र मर्मज्ञ व साक्षात् देवता की इस पुस्तक का प्रेरणास्त्रोत सारे के सारे विद्वान विदेशी हैं । भारत में प्रेरणा प्रदान करने वाली पुस्तकें सैंकड़ों की संख्या में उस समय भी थीं तथा आज भी हैं लेकिन गांधी ने छांटकर उन्हीं पुस्तकों का चुनाव किया जो व्यक्ति को दरिद्र, अभावग्रस्त, गरीब व जंगली बनाने के सिवाय कुछ नहीं देती। या फिर यह भी सही है कि गांधी ने इन पुस्तकों में से उन्हीं बातों का चुनाव किया है जो उनकी संकीर्ण, दरिद्र व पिछड़ी सोच में फिट हो सकती हों । गांधी ने रामायण व गीता से यह सीख नहीं ली कि आततायी को तुरंत दंड देकर नष्ट कर दो अपितु श्रीराम व कृष्ण की करुणा, अहिंसा व सत्यादि की गतों को ही दोहराते रहे तथा इस प्रकार की शिक्षाओं से आजादी से पूर्व अंग्रेजों का व आजादी के पश्चात् उग्रवादियों का जो उत्साहवर्द्धन हुआ है उसका उदाहरण सारे विश्व में मिलना मुश्किल है ।
27.    इस पुस्तक का लेखन लंदन से अफ्रीका लौटते हुए गांधी ने रास्ते में जो संवाद लिखा, वह ‘हिंद स्वराज्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रकाशक-नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद । अनुवादक- अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी (दिसंबर 2006)
    उस समय गांधी के मन-मस्तिष्क में ऐसी-ऐसी योजनाएं ही तैयार होती रहती थीं कि वे कैसे अपनी बातों को सच व अन्यों की बातों को झूठ सिद्ध कर सकें । गांधी में थोड़े भी विवेक-बुद्धि होते तो वे हाथ धोकर गर्म दल वालों के पीछे न पड़ते, समय-समय पर मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों पर बवाल न मचाते तथा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों पर मौन न साध लेते। तुष्टीकरण की महाव्याधि आज की नहीं है अपितु यह तो गांधी के समय पर ही जन्म ले चुकी थी । हिंदू निरही है, अत्याचार सहने के लिए है, उसे अत्याचार चुपचाप सहन कर लेना चाहिए तथा मुसलमान किसी भी प्रकार का अत्याचार करने को स्वतंत्र है । हिंदू मक्खी भी मारे तो पाप है लेकिन मुसलमान नर-संहार भी करे तो भी वह सही है । गांधी मुस्लिम अत्याचारों पर सदैव मौन साधे रहे तथा हिंदुओं को ही सत्य, अहिंसा, करुणा आदि के उपदेश देते रहे। देश का दुर्भाग्य था कि इस देश को कोई सही नेता व मार्गदर्शक लंबे समय तक नहीं मिला और यदि कोई मिला भी तो उसे षड्यंत्रों में उलझाकर या गद्दारी करके मौत के मुंह में पहुंचा दिया गया । भगत सिंह, बिस्मिल, अशफाकुल्ला, चंद्रशेखर, सुभाषचंद्र आदि तथा और भी अनेकों राष्ट्रवादियों एवं सच्चे देशभक्तों को षड्यंत्र के तहत ही मौत के घाट उतार दिया गया था। अब तो सत्य को सत्य कहना भी गुनाह समझा जाता है परंतु एक समय ऐसा भी अवश्य आऐगा कि हम सत्य बोलने को आजाद होंगे । एक समय ऐसा जरूर आऐगा कि जब हमें यह पूरी तरह से मालूम हो जाऐगा कि ‘हिंद स्वराज’ जैसी पुस्तकें केवल विरोधाभासी व कालबाह्य ही नहीं हैं अपितु ये दरिद्रता, टोटे, अभाव व गरीबी की सोच को भी आगे बढ़ाने में मदद करती हैं । ऐसी पुस्तकों पर या तो प्रतिबंध लगना चाहिए या इन्हें पढ़ने की आज्ञा उन्हीं पाठकों को होनी चाहिए जिनकी बुद्धि-लब्धि उच्चकोटि की हो । ऐसी पुस्तकें व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को पंगू बनाती है । अकर्मण्यता की सीख देती हैं ऐसी पुस्तकें। कहां अनेक कुर्बानियां देने के बाद भी राष्ट्रों की आजादी स्थायी नहीं बन जाती हैं और यहां भारत में ‘हिंद स्वराज्य’ जैसी पुस्तकों से रामराज्य लाने की कोशिशें की जाती रही हैं । इस पुस्तक के नाम में ‘हिंद’ शब्द भी शायद गांधी ने गलती से ही डाल दिया है । गांधी को तो यहां पर ‘मुस्लिम स्वराज्य’ शब्द डालना चाहिए था । मुस्लिम तुष्टीकरण की सारी सीमाएं लांघ जाने वाला व्यक्ति ‘हिंद स्वराज्य’ की बात कर ही कैसे सकता है? स्वामी दयानंद द्वारा वर्तमान युग में सर्वप्रथम उद्घोषित ‘स्वदेशी’ व ‘स्वभाषा’ की स्थापना कब हो सकेगी ?

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