यदि हम इतिहास, राजनीतिशास्त्र,
दर्शनशास्त्र, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा, खेतीबाड़ी एवं चिकित्साशास्त्र का वह निष्पक्ष
अध्ययन करते हैं जोकि पूर्वाग्रहग्रसित, भेदभावपूर्ण, मतांधतापूर्ण, कपोलकल्पित एवं
मात्र प्रचार की दृष्टि से ही प्रेरित होकर नहीं लिखा गया है तथा न ही साम्यवादी कुटिल
सोच से लदा-भरा है तो हम निःसंकोच कह सकते हैं कि महाभारत युद्ध जो कि आज से लगभग इक्यावन
सदी पूर्व हुआ था- से हुई विनाश लीला के कारण मानवों के बारह समूह इस धरा के सातों
महाद्वीपों में विभिन्न स्थलों पर जाकर बस गए थे । हालांकि उन-उन स्थलों पर मानव का
निवास व विकास इससे पहले भी था तथा भारत से गए आर्य वैदिक लोगों का वहां पर निवास था
परन्तु फिर भी मानवों के समूहों का यह आना-जाना भारत भिन्न देशें की ओर शुरू से ही
लगा रहा है । विभिन्न बदलाव एवं परिस्थितियों से बाध्य होकर या सभ्यता एवं संस्कृति
प्रचारार्थ भारत से आर्य वैदिक हिन्दू ऋषि एवं संन्यासी शुरू से ही अन्य देशें की तरफ
आते-आते रहे हैं । वर्तमान मानवी सृष्टि का सर्वप्रथम जन्म एवं विकास भारतवर्ष में
ही हिमालय पर्वत पर हुआ था। अमरीका (अमर+ईसा), ग्वाटेमाला (गौतमालय), डेनमार्क (धेनुमार्ग),
इंगलिस्तान (उगलि+स्थान), वेटिकन (वाटिका), मक्का-मदीना (मख-मेदिन), अरब (अर्व), अफगानिस्तान
(अपगण-स्थान), मैक्सिको (मय), रोम (राम), इजरायल (ईस+आलय), मंगोलिया (मंगल), मिश्र
(मित्र) जीसस क्राईस्ट (ईससकृष्ण) आदि-आदि सर्वत्र भारतीय आर्यों का एवं इनकी सभ्यता,
संस्कृति, जीवन-मूल्यों एवं भाषा का भी प्रचलन था । देवभाषा संस्कृत से ही ये सारी
भाषाएं निकली हैं । आज भी विश्व की सभी भाषाओं में संस्कृत के हजारों-हजारों शब्दों
को यों का यों स्वीकार किया हुआ हैं । तुर्की भाषा में आज भी पंद्रह हजार शब्द हु-ब-हू
संस्कृत भाषा के प्रयोग किए जा रहें हैं । यही दशा अन्य भाषाओं की भी है । पाश्चात्य
राजनीतिशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र, भाषा, अर्थशास्त्र, युद्धनीति, शिक्षा आदि सभी
के सभी युनानी पद्धति पर चल रहे हैं । यह युनानी पद्धति अन्य कहीं से नहीं जन्मी है
अपितु भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से दण्डित या निष्काषित या अमर्यादित लोगों ने ही
इसको जन्म दिया है - केवल भोगवादी, उपयोगितावादी, भौतिकतावादी, स्थूलतावादी, अहंवादी,
संशयवादी, बाह्यार्थवादी, कामुकतावादी आदि आदि कुछ भी नाम दो इसे । युनान के सोफिस्ट
विचारक भारतीय चार्वाक विचारकों के ही वंशज थे ।
हिष्पोक्रेटस चरक, सुश्रूत व वागभट्ट से ही प्रभावित थे। डैमोक्रिटस भारतीय
बौद्ध सम्प्रदाय से ही प्रभावित थे । पाईथागोरस व जीसस क्राईस्ट वर्षों तक भारतीय शिक्षा-संस्थानों
में शिक्षा प्राप्त करते रहे थे । मूसा एवं जीसस क्राईस्ट की कब्रें भी हैं भारत में
। क्योंकि इन्होंने आधे-अधूरे भारतीय विचारों का प्रचार-प्रसार किया और उनको यह आधा-अधूरा
प्रचार-प्रसार हजम भी नहीं हुआ । इसका परिणाम जीसस क्राईस्ट को सूली पर लटका देना रहा
। युनान यदि वैचारिक, कला एवं राजनीतिक विचारों के रूप में इतना समृद्ध था तो सुकरात
को युनानियों ने जहर देकर मार क्यों डाला ? सुकरात की तो युनान में पूजा होनी चाहिए
थी । वास्तविकता यह है कि मिस्त्र, युनान, रोम, अरबादि देशों हेतु ये विचार अपने स्वयं
के न होकर विदेश यानि भारतीय थे । इन विचारों में केवल भोगवाद, उपयोगितावाद, स्थूलतावाद,
पदार्थवाद, विश्लेषण आदि ही न होकर योग व भोग, उपयोगिता व सेवा, स्थूल व सूक्ष्म, पदार्थ
व चेतना तथा विश्लेषण व संश्लेषण साथ-साथ थे । युनानी तथा उसी से जन्मी पाश्चात्य सभ्यता
व संस्कृति अपने से विरोधी विचारों को न तो तब सहन कर पाई थी तथा न ही अब सहन कर पा
रही है । पाश्चात्य सरकारें, विचारक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक शुरू से ही दूसरे राष्ट्रों,
विचारधाराओं, दार्शनिकों व विज्ञान के मुखर निन्दक, विरोधी एवं दुश्मन रहे हैं । ईसाईयत
व इससे जुड़े राजाओं व धर्मगुरुओं एवं विचारकों का यही घृणित इतिहास रहा है । दूसरों
की श्रेष्ठता, तरक्की, विकास, जीवन-मूल्य, दर्शनशास्त्र एवं जीवन पद्धतियां इन्हें
न तो पहले पसन्द थे तथा न ही आज पसन्द हैं । मोनियर विलियम, विल्सन, विलियम जोन्स,
ग्रिफिथ, ओल्डनवर्ग, मैक्समूलर, राॅथ, कीथ, विलियम हन्टर, लाॅर्ड मैकाले आदि सैंकड़ों
धूत्र्त विचारकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी एवं ईसाई धर्मगुरुओं के सहयोग से भारतीय राजनीति,
शिक्षा, इतिहास, साहित्य, भाषाओं, दर्शनशास्त्र, धर्म, विज्ञान आदि को नष्ट करने, कलंकित
करने तथा विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । येन-केन-प्रकारेण स्वयं को श्रेष्ठ
सिद्ध करना तथा भारतीय को निकृष्ट सिद्ध करना करीब तीन शताब्दियों तक इनका मुख्य व्यवसाय
व विषय रहा था । बाद में यही कुकृत्य साम्यवाद एवं सेक्युलरवाद ने किया जो कि अब भी
चल ही रहा है । कोई विचारक इस पर प्रकाश डाल सकता है कि एकाएक सुकरात-प्लेटो-अरस्तु
की तिकड़ी युनान में कैसे प्रकट हो गई? वह भी तब जब कि युनान के प्रथम दार्शनिक थेलिज
से लेकर पारमेनाईडिज आदि सभी हवाई बातें करने में ही व्यस्त थे । एकदम से ऐसा क्या
हो गया युनान में कि विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक युनान की धरा पर प्रकट हो गए तथा उनके
बाद कुछ साल तक उनका प्रभाव रहा तथा फिर ईसाईयत का प्रभाव बढ़ने से करीब एक हजार साल
तक पश्चिम में केवल कट्टरता, अज्ञानता, अन्धविश्वास, जादू-टोनों, मतांधता, मैं ठीक
बाकी सब गलत आदि एकपक्षीय जीवनशैली का प्रचार-प्रसार रहा । जिसने इन सब का विरोध किया
उसी को मौत के घाट उतार दिया गया । ईसाईयत में दीक्षित राजाओं व धर्मगुरुओं ने यानि
स्पेन, फ्रांस, इग्लैंड, इटली, डेनमार्क आदि देशों ने समस्त धरा पर लगभग 500 वर्ष तक
जो जुल्म, कहर एवं नरसंहार किए- उनकी कोई अन्य मिसाल इस धरा पर नहीं मिलती है । अन्य
देशों को गुलाम बनाकर वहां की सम्पदा को लूटकर अपने स्वयं के देशों का विकास करना तथा
अपने सम्प्रदाय का जोर-जबरदस्ती से प्रचार करना- यह इनका मुख्य उद्देश्य रहा है । प्राकृतिक
संसाधन न होते हुए भी आज युरोप की समृद्धि व भोग-विलास का कारण केवल युरोप-वासियों
की मेहनत ही न होकर अन्य देशों से लूटा गया अथाह धन है । यह लूट बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
को माध्यम बनाकर आज भी चल रही है । सुकरात, प्लेटो व अरस्तू को माध्यम बनाकर ही पाश्चात्य
जगत आज तक बोलता आ रहा है । प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक व वैज्ञानिक व्हाईटहैड के अनुसार
पश्चिम पिछले 2200 वर्ष से प्लेटो की गिरफ्त से न तो छूट पाया है तथा न ही उससे आगे
कुछ तरक्की कर पाया है । इनका सारा विज्ञान, दर्शनशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि विश्लेषणपरक
है । इसीलिए ये आज तक इतने नरसंहार, युद्ध, गृह युद्ध, विस्फोट, आक्रमण, कब्जे मतांतरण,
बलात्कार, अनाचार एवं मर्यादाहीनता कर चुके हैं । विश्व की सर्वोच्च संस्था बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों के माध्यम से ये आज भी उसी सुकरात-प्लेटो-अरस्तूवादी विश्लेषणपरक सोच के
गुलाम होने के कारण तोड़फोड़ व मारामारी में विश्वास करते आए हैं ।
यह सभ्यता,
संस्कृति, जीवन मूल्यों व संस्कारों का ही अन्तर है कि अरस्तु से शिक्षा पाकर सिकन्दर
दुनिया को जीतने चल पड़ता है जब कि चाणक्य से शिक्षा पाकर चन्द्रगुप्त मौर्य अपने राष्ट्र
में तो स्थिरता कायम करता ही है इसके साथ-साथ वृहद् भारत के अन्य राज्यों अफगानिस्तान,
ईरान, इराक, अरब, मिश्र व युनान तक शान्ति एवं सौहार्द की स्थापना करके वापिस अपनी
भूमि पर लौट आता है। पता नहीं लेखक महोदय फिर भी विभिन्न पुस्तकों में यह क्यों व किस
आधार पर कह रहे हैं कि अगर पुर्वी देश ‘राजनीति’ के
लिए पश्चिम के ऋषि हैं तो पश्चिमी देश ‘दर्शन’ के
लिए पूर्व के । पश्चिम की राजनीति में ‘नीति’ कभी रही ही नहीं- शुरू से लेकर
आज तक । अर्थशास्त्र व मैंक्यावैली का अन्तर सदैव से पूर्व व पश्चिम का अन्तर रहा है।
स्वामी दयानन्द व माक्र्स का अन्तर पूर्व व पश्चिम में सदैव से रहा है । अपने विरोधी
विचारों को सुनने का पश्चिम कभी थी अभ्यस्त नहीं रहा है- मूसा, थेलिज, पारमेनाईडिज,
सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ईसामसीह व समकालीन माक्र्स, लेनिन, नीत्शे, दरिदां तक। पश्चिम
कभी किसी ओशो रजनीश जैसे विचारक या दार्शनिक को सहन नहीं कर सकता । बात चाहे मूसा की
हो, सुकरात की हो, ईसामसीह की हो, ब्रूनो की हो या अन्य किसी की-पश्चिम अपनी एकपक्षीय
सोच से कभी बाहर नहीं निकल पाया है । इसके बावजूद भी स्वयं को सुधारने की बजाय पश्चिम
पूर्व के देशों को ही सुधारने की मूढ़ता कर रहा है और हम यह सब स्वीकार भी कर रहे हैं
क्योंकि हमारे चित्तों को सम्मोहित सा कर दिया गया है । थेलिज का जल को मुख्य तत्त्व
मानना भारत के ‘आप’ः की नकल, सोफिस्ट व उनके बाद के
विचारकों द्वारा अकादमियों की स्थापना करना भारतीय आश्रम व गुरुकुलों की नकल, दार्शनिक
राजा की अवधरणा भारतीय राजनीति की नकल, प्लेटो दर्शनशास्त्र का मूल उनका सत् का विचार
भारतीय दर्शनशास्त्र के सत् की नकल, आदर्श राज्य के चार गुण साहस, विवेक, संयम व न्याय
चाणक्य की नकल, संवाद लिखना उपनिषदों की नकल, सामाजिक वर्गीकरण में सात वर्ग मानना
भारतीय वर्ण-व्यवस्था की नकल, पाईथागोरस द्वारा वैदिक गणित की नकल, मूसा व ईसा के बाईबिल
में निहित पर्वत के दस उपदेश (Sermon On the Mount) भारतीय धर्म के दस लक्षणों की नकल, युद्ध-नीति में चाणक्य व बाजीराव की नकल-
इस तरह के सैंकड़ों नहीं अपितु हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं । भारत में सनातन से विज्ञान
एवं अध्यात्म का विकास व प्रचलन रहा है । पिछली कुछ सदियों में षडयन्त्रों के कारण
सच को झूठ एवं झूठ को सच सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है कि विज्ञान पश्चिम
ने दिया तथा अध्यात्म भारत ने । सही बात यह है कि पश्चिम ने विज्ञान नहीं अपितु मात्र
तकनीक का विकास किया है । विज्ञान के सारे ही सिद्धान्त भारतीयों द्वारा अतीत में खोजे
गए थे । हां, यह जरूर है कि भारत में तकनीक का विकास विश्व पर्यावरण को ध्यान में रखते
हुए बहुत सीमित मात्रा में किया । पश्चिम द्वारा दिया गया अन्धाधून्ध तकनीक का विकास,
समस्त संसार हेतु एक अभिशाप बन गया है । तकनीक की सारी खोजें शैतानी लोगों के पास पेटेंट
हैं । इस वसुन्धरा से जुड़े विज्ञान, तकनीक व भोग की जरूरत इस समय सर्वाधिक रूप से महसूस
की जा रही है।
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