Friday, April 29, 2016

ईश्वर प्रार्थना

    सृष्टि का इतना विविधतापूर्ण विस्तार क्या प्रयोजनहीन हो सकता है? सृष्टि का इतना विविघतापूर्ण विकास एवं ”ह्रास क्या बिना किसी करने वाले के हो सकता है? सृष्टि में लाखों नियम शाश्वत् से सतत् काम कर रहे हैं - क्या इन नियमों का इस काम करना बिना किसी करने वाले के सम्भव हो सकता है? सृष्टि के अनन्त विस्तार में अनन्त ग्रह-उपगह-तारें-उल्काएं आदि बनते एवं विनष्ट होते रहते हैं - क्या इनका यह बनना व बिगड़ा तथा नियमानुसार कार्यरत रहना बिना किसी संचालक के सम्भव हो सकता है? क्या साधारण मनुष्य-क्या मध्यम मनुष्य तथा क्या प्रतिभासम्पन्न मनुष्य-सभी चेतन-अचेतन रूप से सर्वप्रयासों में हार के बाद एक ऐसी असीम सर्वव्यापक सत्ता के सम्मुख विनीत क्यों हो जाते हैं कि जो केवल वही अब उनका एकमात्र आश्रय बची है? नास्तिक से नास्तिक व्यक्तियों द्वारा मार्गदर्शित एवं संचालित संगठन भी कुछ वर्ष पश्चात् एक असीम सर्वशक्तिमान सहायक सत्ता के रूप में उन्हीं की पूजा-उपासना शुरू क्यों कर देते हैं? बिना संचालक, बिना कत्र्ता, बिना करने वाले या बिना किसी चेतन गति देने वाले के क्या यह सब अपने आप स्वाभाविक रूप से सम्पन्न हो सकता है? एक छोटे से छोटा कण भी स्वयं कुछ नहीं कर सकता है तो अनन्त सृष्टि का अनन्त विस्तार बिना किसी चेतन सत्ता के कैसे सम्भव हो सकता है? यह जड़ सृष्टि बिना किसी चेतन सत्ता के अपने आप कुछ नहीं कर सकती है - यही चेतन सत्ता ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म, पुरुषोत्तम आदि नामों से व्यक्तियों द्वारा सम्बोधित की जाती है । धर्म एवं विज्ञान दोनों ही इस निष्कर्ष पर लाखों बार पहुंचे हैं कि जड़ सृष्टि के पीछे चेतन सत्ता शाश्वत् कार्यरत हैं ।
    ईश्वर की उपासना का कुछ निहितार्थ तभी निकलता है कि जब कोई व्यक्ति ईश्वर को मान्यता देता हो या निष्पक्ष भाव से उसकी खोज करने को उद्यत हो या इस भोगप्रधान भौतिक जीवन से जिसका चित्त भर गया हो । आजकल तो ईश्वर के नाम पर ऐसे-ऐसे व्यक्ति ईश्वर बन बैठे हैं जिनको केवलमात्र भोले-भाले व्यक्तियों की भौतिक जरूरतों या मानसिक परेशानियों से लाभ उठाकर अपने आर्थिक एवं प्रसिद्धि के साम्राज्य को चार चान्द लगाना ही उद्देश्य रह गया है । यह पाखंड या ढोंग भी इसीलिए पनप सकता है क्योंकि लोग वेदों में प्रदर्शित वास्तविक ईश्वर उपासना से दूर होते गए हैं । ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना- यह वैदिक विज्ञान है स्वयं को जानकर ईश्वर साक्षात्कार करते हुए आनन्दानुभूति का । ईश्वरोपासना का एक पूरा विज्ञान भारत में विकसित किया गया था वेदों की शिक्षाओं के आधार पर । इसके आधार पर लाखों पुस्तकों की रचना हुई है जिनमें से अधिकांश मतान्ध ईसाई एवं इस्लामी हमलावरों के हमलों या आगजनी का शिकार होकर विनष्ट हो चुकी हैं । केवलमात्र महर्षि पतंजलिप्रणीत ‘योगसूत्र’ नामक रचना तथा इसके आधार पर लिखी साम्प्रदायिक योग व उपासना की पुस्तकें अब उपलब्ध होती हैं । विडम्बना यह है कि उपासना का केवल निम्न तल ही अधिकांशतः आजकल प्रचलित है, लोग इससे ऊपर उठना ही नहीं चाहते । अधिकांश साम्प्रदायिक धर्मगुरु या योगगुरु भी उपासना के मामले में मार्गदर्शक कम अपितु भटकाने वाले ही अधिक सिद्ध हो रहे हैं । भक्ति के नाम पर उपासना के प्रचलित पाखण्डों ने तथाकथित धर्मगुरुओं को अरबपति-खरबपति बना दिया है लेकिन उपासना के मामले में ये कतई कोरे हैं । स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना - इनका एक पूरा विज्ञान है क्रमशः आगे बढ़ने का - कि जिससे परमात्मा के समीप हमारा आसन लग जाए । हम परमात्मा का साक्षात्कार कर लें । हम उसके समीप हो जाएं । हमारे आचरण में उच्च गुणों का प्रवेश हो जाए । हम होश से जीने लगें । मूर्तिपूजा, गुरुपूजा, तीर्थस्थान, जागरण, सत्संग, चैकी, नामदान या शक्तिपात के कुचक्र में फंसकर ‘अष्टांगयोगयुक्त’ योगसूत्रोक्त साधना ही सत्य उपासना है ।
-आचार्य शीलक राम

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