सनातन आर्य
वैदिक संस्कृति
का यह
उद्घोष है
कि जन्म
से तो
सभी शूद्र
ही होते
हैं - कुछ
पूर्व जन्म
के गहन
साधना किए
योगियों को
छोड़कर ।
जन्म से
तो सभी
अज्ञानी, असंस्कृत
एवं नियमविहीन
ही होते
हैं। लेकिन
यदि इस
संसार में
सह-अस्तित्त्व,
समन्वय, भ्रातृत्वभावना,
मेलजोल मैत्रीभावना
आदि कतई
नष्ट हो
जाएं तो
इस धरा
पर केवलमात्र
पशुओं का
समाज ही
अस्तित्त्व में रहेगा तथा मानस
समाज का
अस्तित्व मिट
ही जाऐगा।
मानव समाज
चलता है
नियमों से,
संस्कारों से, जीयो व जीने
दो से,
स्व के
साथ परहित
की भावना
को सम्मान
देने से
तथा मनुष्य
की सृजनात्मक
शक्तियों का
विकास करने
से ।
मनुष्य समाजों
में यह
कार्य करने
का कार्य
सभी सभ्यता
एवं संस्कृतियों
ने अधिक
या कम
रूप से
अवश्य ही
किया है
। हां,
यह तो
हुआ है
कि पाश्चात्य
देशों में
यह भौतिकता-प्रधान एवं
अधूरा हुआ
है जबकि
आर्य वैदिक
सनातन संस्कृति
के अन्तर्गत
भारत की
धरा पर
यह कार्य
भौतिक के
साथ आध्यात्मिक,
बाहरी के
साथ भीतरी
एवं विचार
के साथ
निर्विचार रूप में बखूबी हुआ
है ।
आर्य वैदिक
संस्कृति ने
मनुष्य के
जीवन को
संस्कारित करने, सुसंस्कृत बनाने, सृजनात्मक
रूप देने
एवं चरित्र
के साथ
होशपूर्ण बनाने
हेतु अनेक
प्रयोगों के
पश्चात् एक
व्यवस्था प्रदान
की है
जिसे ‘संस्कार-व्यवस्था’ कहते
हैं ।
संस्कारों की संख्या अनेक होने
के बावजूद
मुख्यरूप से
सोलह संस्कार
ही मुख्य
संस्कार हैं
- ‘गर्भाधान’
से लेकर
‘दाह संस्कार’
तक। एक
मनुष्य को
वास्तव में
मनुष्य बनाकर
दैवीय गुणों
से सम्पन्न
करते हुए
तथा भौतिक
व आध्यात्मिक
प्रक्रिया से गुजारते हुए आत्मसाक्षात्कार
करवाकर उसके
जन्म व
जीवन को
सार्थक करने
की एक
परिपूर्ण एवं
वैज्ञानिक व्यवस्था है ‘सोलह संस्कारों
की व्यवस्था’
। वास्तव
में ये
इस सुसंगत
एवं वैज्ञानिक
व्यवस्था को
प्रदान एवं
प्रचारित करने
वाले भारतीय
धरा के
ऋषि लोग
विचित्र हिम्मत
के लोग
थे ।
‘जीवन जीने
की कला’
के पारखी
थे ये
ऋषि ।
वैदिक साहित्य
में सोलह
संस्कारों का विवरण उपलब्ध होता
है ।
मानव निर्माण
की इस
प्रयोगशाला के ये सोलह संस्कार
गर्भाधान आदि
जीवन-निर्माण
के लिए
हैं ।
इस हेतु
सोलह संस्कार-व्यवस्था में
दिए गए
नियमों का
पालन अति
आवश्यक है
। कुछ
लोग नियमावली
प्रदान करते
हैं लेकिन
यही नियम
या नियमावली
या संविधान
जब अधिकांश
लोगों के
शोषण व
लूट का
माध्यम बन
जाता है
तो इन
नियमों व
संविधान के
विरुद्ध विद्रोह
हो जाना
जाता है
। विद्रोह
करने वाले
पहले तो
सही ही
होते हैं
लेकिन जब
वे भी
एक नियमावली
को नष्ट
करके अपनी
दूसरी स्वयं
की नियमावली
या संविधान
प्रस्तुत करते
हैं तो
मानव की
मूलप्रवृत्ति के वश होकर वही
नया व
क्रान्तिकारी विचार दोबारा से जनमानस
को लूटने
या उनके
शोषण का
कारण बन
जाता है
। यह
प्रक्रिया सतत् चलती रहती है
। यदि
नियम को
व्यक्तिगत सन्दर्भ में विवेचित करें
तो भी
पहले वाली
प्रक्रिया दोहराई जाती है । व्यक्ति यदि
अपने जीवन
में कुछ
नियमों को
स्वीकार करता
है तो
कुछ दिन
पश्चात् वे
नियम उसकी
आदत का
हिस्सा बन
जाते हैं
। यह
आदत का
हिस्सा बनना
हो सकता
है कि
परिवार या
समाज या
समूह हेतु
लाभकारी हो
लेकिन स्वयं
व्यक्ति हेतु
पहले लाभकारी
लेकिन बाद
में हानिकारक
हो जाता
है। हां,
यदि साथ
में तर्क
या विचार
या चिन्तन
या होश
को भी
जोड़ दिया
जाए तो
ये नियम
आदत नहीं
बनकर व्यक्ति
का तो
चहुँमुखी विकास
करने में
मदद करेंगे
ही - इसके
साथ-साथ
परिवार, समूह,
संगठन या
राष्ट्र की
प्रगति में
भी साधन
ही बनेंगे
। योगसूत्रोक्त
महर्षि पतंजलि
द्वारा दिए
गए पांच
नियम - शौच,
सन्तोष, तप,
स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान आदि
व्यक्तिगत, परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं
सार्वदेशिक उन्नति एवं समृद्धि का
कारण बनते
आए भी
हैं तथा
अब भी
बन सकते
हैं ।
नियम-विहीन
विच्छृंखल जीवन किसी भी प्रकार
का सृजन
करने में
समर्थ नहीं
हो सकता
। हां,
यह विनाश
उपद्रव, अशान्ति
एवं तनाव
का कारण
अवश्य बन
सकता है
। विभिन्न
साम्प्रदायिक, सुधारवादी, राजनैतिक संगठन इसका
सशक्त उदाहरण
हैं ।
जेएनयू जैसे
विश्वविद्यालय केवल नियमविहीनता के कारण
ही राष्ट्रद्रोह
जैसे कुकृत्य
करने का
दुस्साहस कर
रहे हैं
। इसकी
रोकथाम हेतु
यह आवश्यक
है कि
सनातन भारतीय
संस्कार-व्यवस्था
एवं जीवन-निर्माण के
नियमों को
हमारे सब
राष्ट्रवासी अपने जीवन में सत्य
रूप से
स्थान दें
कि जिससे
व्यक्ति, परिवार,
समाज का
निर्माण करके
हम अपने
आर्यावत्र्त को दोबारा से ‘विश्वगुरु’
बना सकें
।
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