Saturday, April 9, 2016

ज्ञान एवं विज्ञान

     ज्ञान एवं विज्ञान शब्दों के सम्बन्ध मे­ बड़ा झमेला है। ज्ञान क्या है एवं विज्ञान क्या है - इस सम्बन्ध मे­ सामान्यजन ही नही अपितु पढ़े-लिखे व्यक्ति भी दिग्भ्रमित हैं। साधारणतः अपनी इन्द्रियों­ से जो जानकारियां हम­ उपलब्ध होती हैं तथा हमारा चित्त उनके सम्बन्ध में अपनी एक निश्चित धारणा बनाता है हम उसी को ‘ज्ञान होना’ या ‘ज्ञान’ कह देते हैं। देखना, स्पर्श करना, सूंघना, चखना या सुनना - इससे हम­ बाहरी जगत् की ज्ञानकारी प्राप्त करते हैं। यह पंच ज्ञानेन्द्रियों­ से प्राप्त जानकारी ही प्रचलित भाषा मे है। वर्तमान में­ जो ज्ञान प्रचलित है वह विज्ञान कहा जाऐगा। वर्तमान का विज्ञान भारतीय दृष्टि से सामान्य ज्ञान ही है अर्थात् वह कांर्य-जगत् का ही वर्णन है। भारतीय दृष्टिकोण से तो विज्ञान कार्य-जगत के मूल पदार्थों का वर्णन है। इसे वर्तमान युग के वैज्ञानिक या तो अनावश्यक समझकर छोड़े हुए हैं या उन तक उनकी अभी तक पहुंच नहीं है। दूसरे शब्दा­ में­ वर्तमान विज्ञान केवलमात्र प्रकृति के अष्टधा स्वरूप के गुण, कर्म और स्वभाव तक ही सीमित है। (गुरुदत्त, विज्ञान और विज्ञान, पृ॰ 15)। सही बात जो है वह यह है कि वास्तव में­ पाश्चात्य जगत् में­ विज्ञान की तरक्की तो बहुत कम हुई है जबकि जो तरक्की चहुंदिशि दिखलाई पड़ रही है वह तकनीक की तरक्की है, न कि विज्ञान की। विज्ञान की मूलभूत खोज­ तो पाश्चात्य जगत् में­ बहुत कम खोजी गई है, विज्ञान में सैद्धान्तिक प्रगति बहुत कम लेकिन इसके प्रयोग में­ काफी काम हुआ है। विज्ञान के प्रयोग की कला ने गजब की उन्नति दिखलाई है। अतीत में भारत मे­ विशुद्ध विज्ञान की सारी खोज­ पहले खोजी जा चुकी है लेकिन उन्हा­ने जानते हुए भी प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखने हेतु विज्ञान की कला का बहुत कम प्रयोग किया। आज का पाश्चात्य विज्ञान पूरी तरह से भोग या शोषण पर निर्भर है अतः प्राकृतिक सन्तुलन की चिन्ता किए बगैर विज्ञान की खोजा­ का कलात्मक उपयोग हद से अधिक किया है। इसका परिणाम हम चारों तरफ हो रहे प्रदुषण, घातक व्याधियों, मानसिक परेशानिया­ एवं प्रकृति के खतरनाक उतार-चढ़ावों­ के रूप में देख रहे हैं। अतीत में विज्ञान का तकनीक के रूप में­ कम प्रयोग भारतीयों­ की सन्तुलित समझ का परिचायक है।
    वैसे भारतीय मनीषियों ने परमात्मा के स्वरूप को जानने हेतु कभी भी विज्ञान को बाधक नहीं माना अपितु उन्हा­ने तो परमात्मा के ज्ञान हेतु ज्ञान, विज्ञान दोनों को साधक ही स्वीकार किया है। यह अवधारणा भारतीय मनीषिया­ के सम्बन्ध में­ पाश्चात्या­ की निर्मित सोच के कतई विपरीत है जो यह दुष्प्रचारित करते रहे हैं कि प्राचीन भारतीय सदैव ही भौतिकवाद के विरोधी रहे हैं। देखिए गीता का एक श्लोक -
ज्ञानं तेऽहं सुविज्ञान मिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातत्यमवशिष्यते।। 7-2
ब्रह्म के समग्र स्वरूप को जानने के लिए ज्ञान-विज्ञान को जानना चाहिए। वह में बताता हूँ। इसे जान लेने के बाद अन्य कुछ जानने को शेष नही रह जाता है।
    ज्ञान सामान्य ज्ञान है जबकि विज्ञान विशेष प्रकार का ज्ञान है। यह सारा चराचर जगत् कहां से पैदा हुआ है - इसके स्वरूप, लक्षण व स्वभाव को जानना विज्ञान है। आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी, मन, अहंकार व बुद्धि - यह अष्टधा प्रकृति ही यह अपरा प्रकृति है। यह अपरा इसलिए है क्या­कि यह दूर न होकर हमारे सामने है। इस अष्टधा अपरा प्रकृति से जो परे है वह है परा। उस परा से जानना ही विज्ञान है। यह कहा जा सकता है कि ‘कार्य जगत्’ ज्ञान है जबकि ‘जगत् कारण’ विज्ञान है। पाश्चात्य जिसे साईंस कहते हैं वह भारतीय अर्य में­ ज्ञान ही है। पश्चिम में­ अरस्तू इसके प्रचारक माने जाते है। यह विशेष से सामान्य की तरफ गतिमान रहता है। यह विश्लेषणप्रधान होता है। पाश्चात्य साईंस हेतु यह एक विडम्बना कही जाऐगी कि यह पिछले 2300 वर्ष से वही का वही खड़ा है। अब लगता है कि इक्के-दुक्कें साईंटिस्ट ‘कार्य जगत्’ के मूल तक जाने से कतराते आए हैं जबकि भारतीय वैज्ञानिको का यह जीवन-मरण का प्रश्न है। यह केवल व केवल भारतीय वैज्ञानिकों का साईंस है कि वे कार्य जगत् व ‘जगत् कारण’ दोना­ में प्रवेश कर पाए हैं। सनातन भारतीय ग्रन्थ भारतीयों­ की खोज एवं साहस का चमत्कारिक उदाहरण हैं। वैदिक भाषा में­ एक शब्द है ‘सांख्य’। इसका अर्थ है ज्ञान। हमारा यह विचारित मत है कि लैटिन भाषा का SCIENTIA । और अंग्रेजी का साईंस शब्द ‘सांख्य’ से ही निकले हैं। (गुरुदत्त, विज्ञान और विज्ञान, पृ॰ 14)। श्रीमद्भगवद्गीता ने कहा है कि पूर्ण कार्य जगत् दस पदार्थों से निर्मित है। प्रकृति के आठ तथा बाकी दो आत्मा व परमात्मा। आत्मा व परमात्मा तो मूल पदार्थ हैं। प्रकृति के आठ रूप मूल प्रकृति का परिणाम है। वास्तव में­ ही भारतीय विज्ञान की पहुंच व इसका विस्तार पाश्चात्य साईंस से अधिक है। स्वामी दयानन्द सारस्वती ने तो ‘ऋग्वेद्’ शब्द का अर्थ ही सब पदार्थों के गुण, कर्म व स्वभाव को जानना माना है। इस वेद में­ परमात्मा से लेकर धरती तक सब पदार्थों के गुण, कर्म व स्वभाव का नाम है तथा इनका ज्ञान अर्जित करने को ऋग्वेद् कहते हैं। अष्टधा प्रकृति के सभी रहस्या को भारतीय पूरी तरह से जानते थे इसम­ कोई सन्देह नही रह जाना चाहिए। यह हिम्मत केवल भारतीयों की ही रही है जो ‘विप्रा ऋतस्य वाहसा’ (ऋग्वेद्, 8.6.2) कह सके­ या ‘यतेमहि स्वराज्ये’ (ऋग्वेद् 5.66.6) का उद्घोष कर सके­। पूर्ण सत्य कथन करने व जीने की हिम्मत केवल भारतीयों­ ने की है। हां, वर्तमान में­ इनकी हालत दयनीय एवं असहाय है - यह हमारे नेताओं की कमी एवं हमारी फूट की वजह से हुआ है। इसकी भरपाई शीघ्र ही हम भारतीय कर पाएंगे - ऐसी आशा है।

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