सूफी सन्त मुइनुद्दीन चिश्ती हिन्दी सूफी साहित्य के सर्वोच्च महाकवि कहे जाने वाले मलिक मुहम्मद जायसी के गुरु थे। मलिक मुहम्मद जायसी ने बड़े आदर, सत्कार एवं विनम्रता से अपने गुरु को अपने ग्रंथों में याद किया है । हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा अन्य इतिहासकार क्या इन तथ्य से वाकिफ थे कि इन मलिक मुहम्मद जायसी के गुरु ने किस तरह से हिन्दुओं पर अत्याचार किए थे तथा उन्हें जोर-जबरदस्ती से इस्लाम में दीक्षित किया था? इनके ग्रंथों को पढ़ने से कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि ये इस तथ्य से वाकिफ होंगे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को प्रामाणिक स्वीकार किया जाता है । क्या प्रामाणिकता की यह भी एक कसौटी होती है कि वह अपने क्षेत्र को छोड़कर अन्य किसी क्षेत्र का स्पर्श भी न करे? स्वयं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी ऐसे ही लेखक नहीं थे? उन्होंने भी कवियों का साहित्यिक इतिहास लिखते समय उन-उन कवियों के जीवन के विभिन्न पहलूओं का स्पर्श अवश्य ही किया है । यदि यह सही है तो मलिक मुहम्मद जायसी व उनके गुरु मुइनुद्दीन चिश्ती के जीवन के इस घृणित एवं नरसंहारी पहलू को उन्होंने क्यों वर्णन किये बिना ही छोड़ दिया? इस दृष्टिकोण से उनका यह इतिहास अधूरा, पक्षपातपूर्ण एवं पूर्वाग्रह से ग्रसित है। शायद उनके मन भी यह रहा होगा कि इससे भारत का सामाजिक सौहार्द बिगड़ जायेगा। इस्लाम के समर्थकों ने लाखों लोगों को गाजर-मूली की तरह काट डाला तब यह सामाजिक सौहार्द क्या नहीं बिगड़ा था? अब भी क्या समस्त संसार में आतंकवादी गतिविधियों में इसी संप्रदाय के लोग सम्मिलित नहीं हैं? यहां पर केवल यह कहने भर से काम नहीं चलेगा कि कोई भी संप्रदाय हिंसा की हिमायत नहीं करता है । कुछ संप्रदाय अपने प्रारंभकाल से ही हिंसा, वैमनस्य, द्वेष, भेदभाव, छुआछूत, नरसंहारादि की वकालत करते आए हैं तथा अब भी कर रहे हैं । इस तथ्य से दूर भागना या इसकी उपेक्षा करना घोर अवैज्ञानिकता एवं तर्कविहीनता है। आप समस्त ‘पद्मावत’ को पढ़ डालिए; आपको कहीं भी झलक नहीं मिलेगी कि उस समय सूफी संत या इस्लाम के शासक हिन्दुओं पर, उनके राष्ट्र पर, उनकी संस्कृति व सभ्यता पर, उनके जीवन-मूल्यों पर तथा उनकी अन्य समस्त महत्त्वपूर्ण विधाओं पर क्यों घोर जुल्म कर रहे थे? पूरे पद्मावत में इस संबंध में मलिक मुहम्मद जायसी ने एक पंक्ति भी लिखने की हिम्मत नहीं की । कैसे महाकवि थे ये मलिक मुहम्मद जायसी जो कि हिन्दुओं पर हो रहे जुल्मों पर उनकी आत्मा गीली न हुई तथा न ही उन्होंने इस संबंध में दो पंक्तियां कहने की हिम्मत की? वाह रे महाकवि।
साहित्य के इतिहासकारों को यदि रहने भी दें तो भी अन्य विधाओं के इतिहासकार भी कम अज्ञान में नहीं डूबे हैं । डाॅ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल का ही उदाहरण लें, उन्होंने पद्मावत महाकाव्य के प्राक्कथन में लिखा है कि अवधी भाषा के इस उत्तम काव्य में मानव जीवन के चिंरतन सत्य प्रेमतत्त्व की उत्कृष्ट कल्पना है।1 और भी झूठ देखिए इस ‘पद्मावत’ महाकाव्य के प्राक्कथन लेखक महोदय का । वे कथन करते हैं कि पद्मावत काव्य का अनुशीलन करते हुए जिस बात की गहरी छाप मन पर पड़ती है वह यह है कि इसके कवि ने भारतभूमि के साथ अपने को कितना मिला दिया था । जायसी सच्चे पृथ्वीपुत्र थे । वे भारतीय जनमानस से कितने सन्निकट थे इसकी कल्पना करना कठिन है।2 पृथ्वीपुत्र को क्या इस भारतभूमि की पीड़ा का थोड़ा भी अहसास न हुआ? इस्लामों शासकों के जुल्मों से यह भारतभूमि किस तरह चीख रही थी, इसको इनके कान क्यों नहीं सुन सके? पृथ्वीपुत्र तो संवेदनशील होते हैं, करुणापूर्ण होते हैं, सजग होते हैं परंतु मलिक मुहम्मद जायसी कैसे पृथ्वीपुत्र हैं कि भारतभूमि जलती रही और ये महाशय आराम से अपनी प्रेमकथा
‘पद्मावत’ लिखते रहे? अरे अपनी रचनाओं में ! इस भारतभूमि की एक-दो चीख-पुकार को ही स्थान दे दिया होता या फिर कबीर की तरह पाखंडों का ही खंडन कर दिया होता।
इनके गुरु मुइनुद्दीन की प्रशस्ति में हमारे ‘पद्मावत’ के प्राक्कथन लेखक महोदय लिखते हैं कि जायसी के मन में जो निर्मल भाव थे वे अकस्मात् किसी एक व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न हो गए हों, ऐसी बात नहीं है । वस्तुतः उस प्रकार के मनोभावों की देश में एक पृष्ठभूमि थी जो उनकी गुरु परंपरा पर ध्यान देने से समझी जा सकती है । मुसलमान शासकों ने देश के अनेक भू-भागों पर अधिकार जमाकर राज्य शक्ति को अपने हाथ में कर लिया था । पर उन सत्ताधारियों से कहीं अधिक प्रभावशाली उन धर्मपुरुषों का संगठन था जिन्होंने जनता के भीतर प्रविष्ठ होकर जनता की भाषा में उसी के स्तर पर धर्म का प्रचार किया । इन सूफी संतों का संगठन उत्तर-पश्चिम से बंगाल और गुजरात दक्षिण तक फैला था । इन धर्मगुरुओं की कई गद्दियां थीं और लाखों शिष्य थे । इन्होंने इस्लाम धर्म को विचारों के एक साथ इस्लामी विचारों का उदार समन्वय हो गया ।3 इतिहासकार महोदय ने मुइनुद्दीन चिश्ती की वास्तविकता जाने बगैर, बिना किसी जांच के तथा प्रचार के प्रभाववश इस तरह की बातें कही हैं । कम से कम इतिहास लिखने वाले व्यक्ति में इतनी तो तर्कशक्ति होनी ही चाहिए कि वह जिस तथ्य को प्रकट कर रहा है उसका उसकी समकालीन परिस्थितियों से तालमेल बैठ सके । अरे ! जिस धर्म के लोगों को जबदरस्ती तलवार के बल पर इस्लाम में धर्मांतरित किया जा रहा हो तथा ऐसा न करने पर उन पर अनेक जुल्म किए जाते हों वहां पर इस तरह की प्रेम, सौहार्द, समन्वय व भाईचारे की बातों हेतु कोई स्थान नहीं होता है । पता नहीं फिर भी क्यों इन महोदय ने सूफी गुरुओं की प्रेम परंपरा की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । यह तो साहित्य का कोई ढंग नहीं होता है परंतु भारतीय साहित्य के साथ यह दुराचार तीन सदियों से लगातार चल रहा है । इसकी वजह से आज लेखकों व साहित्यकारों को गलत सही लगता है तथा सही गलत लगता है । यथार्थतः इतिहासवेत्ताओं और अन्वेषणकत्र्ताओं को बुरी तरह झांसा दिया गया है । उनके लिखे सभी इतिहास और ग्रंथ केवल सुनी-सुनाई बातों पर आधारित हैं ।4
हमें जो बतलाया गया हमने उसी को आंखें बन्द करके चरम सत्य मानकर स्वीकार कर लिया । थोड़ी बहुत शंका या संदेह भी हमने नहीं किया। यह तो तब हुआ है जब भारत में तर्क-वितर्क की सनातन परंपरा विद्यमान रही है । हमने अपनी परंपरा को अंधेरे में धकेल दिया तथा प्रचार को सही मान लिया। यह गंभीर भूल राष्ट्र को बहुत महंगी पड़ी है । भारत पर एक हजार से अधिक समय तक विदेशियों का शासन रहने के कारण इन भयंकर भूल-भरी धारणाओं और विदेशी चाटुकार दरबारियों अथवा अपनी यश-गाथाओं का वर्णन करते हुए स्वयं शासकों द्वारा लिखे गए स्मृति-ग्रंथों और तिथिवृत्तों ने शनैः-शनैः समय व्यतीत होने के साथ-साथ अधिकारिकता और शुचिता भी छाप ग्रहण कर ली है । उस घोर असत्यता का भारी बोझ अब इतना अधिक, सघन व गहन हो चुका है कि इस भयंकर भूल को अनुभव करने वाले भी संतुष्टि कर लेते हैं कि अब तो जो पढ़ाया जा रहा है, ठीक ही है, चलते रहने दो । सब्र ही कर लेना चाहिए । वे सोचते हैं कि अब तो इस बात के विरूद्ध शोर शराबे का समय निकल चुका है । इस प्रकार हम एक दुषित चक्र में फंस जाते हैं । हम अपने विद्यार्थियों को झूठा इतिहास पढ़ाते हैं जो इसी प्रकार लिखा गया है और परस्पर विरोधी तथा बेहूदा बातें होते हुए भी इस इतिहास की अवहेलना करने का साहस इतिहास का कोई भी विद्वान् नहीं करता, क्योंकि यही तो वह इतिहास है जो उनको पढ़ाया जाता है ।5
प्रेम का प्रतीक महाकाव्य लिखने वाले महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी को जिन्होंने हिन्दू व इस्लाम के बीच समन्वय करने वाला घोषित किया है उनको यह ध्यान होना चाहिए कि उन्होंने अपने इस महाकाव्य के मंगलाचरण या ‘स्तुति खंड सर्ग’ में केवल मुहम्मद को ही याद किया है, ब्रह्मा-विष्णु-महेष को नहीं । यह कैसी समन्वय-भावना है उनकी? देखिए-
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाउं मुहम्मद मुनिउ करा त्र्6
इसके पश्चात् इन महोदय ने मुइनुद्दीन के गुरु को तथा मुइनुद्दीन के शिष्यों को आदर सहित स्मरण किया है । अवलोकन कीजिए अग्रलिखित पंक्तियों का-
गुन अवगुण विधि पूंछत होइहि लेख अउ जोख ।
ओन्ह बिनउब आगे होइ करब जगत कर मोख त्र्7
चारि जीत वो मुहममद णऊं । चहुंक दुहूं जय निरमर नाउंत्र्8
दीन असीस मुहम्मद करहु जुगहि जुगराज ।
पातालशाह तुम जग के जग तुम्हार मुहताज त्र्9
सब पिरथिमी अलीसइ जोरि जोरि कै हाथ ।
मांग जउं न जौ लहि जल तौं लहि अम्मर माथ त्र्10
सैमद अशरफ मीर पियारा । तिन्ह मोहि पंथ दीन्ह उजियारात्र्11
गुरु मुइनुद्दीन सेवक मैं सेवा । चलै उताइल जिन्ह कर खेवात्र्
अनुआ भयेउ सेख बुरहान। पंथ लाई जिन्ह दिन्ह गियानत्र्
अलहदाद अल तिन्ह कर गुरु । दीन दुनिऊ रोशन रोशन सुरपुरुत्र्
सैयद मुहम्मद के ओइ चेला । सिद्धपुरुष संगम जेहि खेला त्र्
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरति ख्वाज खिजिर तिन्ह पाएत्र्
भए परशन ओहि हजरति ख्वाजे। लइ गेरुए जहं सैयद राजेत्र्
उनसौं मैं पाई जब करनी । उघरी जीभ प्रेम कबि करनीत्र्12
इस संबंध में एक और विचित्र बात यह है कि इन प्रेममार्गी सूफी मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने इस महाकाव्य ‘पद्मावत’ में सारे के सारे पात्र हिन्दू ही ले रखे हैं । क्या मुसलमान होकर हिन्दू पात्रों से परिपूर्ण किसी पुस्तक की रचना कर देना ही समतावादी की पहचान है? क्या इससे ही कोई महाकवि सर्वपंथसमभाव का पोषक हो जाता है? वास्तव में सच्चाई यह है कि मलिक मुहम्मद जायसी में इतनी हिम्मत ही नहीं कि वे मुसलमान पात्रों को लेकर किसी महाकाव्य की रचना कर सकते । हिन्दू पात्रों को लेकर (पद्मावती, गंधर्व सेन, सुआ, रतनसेन, राघवसेन,
देवापाल, नागमती आदि) महाकाव्य की रचना करना उनके लिए सहज था जबकि मुसलमान पात्रों को लेकर इस प्रकार की कथा की रचना करना उनके लिए असंभव था क्योंकि इस्लाम में इस तरह की खुली छूट नारी पात्रों को कतई नहीं है जैसी छूट हिन्दू धर्म में है । यदि वे मुसलमान पात्रों को लेकर इस प्रकार का प्रेम सूफी महाकाव्य लिखते तो उनका चारों तरफ इस्लामी जगत में विरोध होता तथा आज उनका कोई नामलेवा भी न होता । यह सारा का सारा एक षड्यंत्र है जिसे समझने की जरूरत है । जो लोग अपने राष्ट्र को छोड़कर दूसरे राष्ट्रों की तरफ बुरी नीयत से आक्रमणकारी बनकर आए हों उनको सही व प्रेममार्गी कैसे कहा जा सकता है? जब वे अपने देश से चलते हैं तो उनके आदरणीय ये सूफी, पीर, फकीर आदि उनको क्यों नहीं समझाते कि इस तरह किसी देश पर हमला करके निर्दोष व्यक्तियों की हत्याएं करना, लूटपाट करना तथा उनके धर्म स्थानों को तोड़ना किसी भी तरह से ठीक नहीं है? मैंने तो किसी भी सूफी संत, फकीर या पीर का एक भी वचन ऐसा नहीं पढ़ा है जिसमें इनकी तरफ से इस्लामी क्रूर आक्रमणकारियों की भत्र्सना की गई हो । वास्तविकता यह है कि सारे के सारे सूफी फकीर, पीरादि इन हमलावरों के संकेतों पर ही कार्य करते थे । दोनों में परस्पर गहरी सूझबूझ एवं सांठगांठ होती थी । जिसे भी किसी प्राचीन भारतीय मंदिर, सराय, किले, ध्यानशाला को ये विदेशी इस्लामी हमलावर अपने कब्जे में लेते थे तुरन्त ही उमसें तोड़फोड़ करके इस्लमी रूप दे देते थे तथा किसी सूफी कहे जाने वाले फकीर को वहां पर बैठा देते थे । वह तथाकथित सूफी फकीर फिर वहां से धर्म, दर्शन, योग, साधना, प्रेम करुणा व समन्वय के उपदेश झाड़ने लगता था । इन उपदेशों के साथ-साथ उसका हिन्दुओं का इस्लाम में धर्मांतरण का कार्य भी चलता रहता था जो कि उनका मुख्य उद्देश्य होता था तथा जिस हेतु उनकी नियुक्ति बादशाहों द्वारा की जाती थी । जिसे आज फकीर निजामुद्दीन की दरगाह समझा जाता है, यह वास्तव में एक पुराना मंदिर है जो इस्लामी आक्रमणों में क्षतिग्रस्त हो जाने के बाद हजरत निजामुद्दीन की दरगाह बन गया, क्योंकि उस फकीर को उसकी मृत्यु के पश्चात् वहीं दफना दिया गया था- ऐसे तहस-नहस किए गए क्षेत्रों में मुस्लिम फकीर जा बसते थे । बाद में उनको वहीं गाड़ दिया जाता था, जहां वे रहते थे। इस प्रकार मुस्लिम फकीरों को दफनाने के स्थान मूल कब्रिस्तान नहीं है, अपितु वे तो पूर्वकालीन राजपूत भवन हैं जो बाद में मुस्लिमों द्वारा हथिया लिए गए ।13
स्वयं मुइनुद्दीन चिश्ती जो कि मलिक मुहम्मद जायसी का गुरु था, वह भी जबरदस्ती करके हिन्दू मंदिरों में घुसा था तथा अनेक हिन्दुओं की हत्याएं करवाकर वहां पर उसने अधिकार कर लिया था। स्वयं या अपने आश्रित बादशाहों की मदद से हिन्दुओं का नरसंहार करना, उनको इस्लाम में धर्मांतरित करना, उनकी बहू-बेटियों से बलात्कार करना इनके लिए सहज-कर्म थे । मुइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा (आजमेर या अजयमेरु) तारागढ़ की तलहटी में स्थित किलेबन्दी के ध्वंशाशेषों में ही हैण्ण्ण्ण् हजरत मुइनुद्दीन चिश्ती को दफनाने की सूचक त्रिकोण स्थित मुद्राशिके अतिरिक्त सम्पूर्ण समारक ही हिन्दुओं के उस विशल भवन का अंश है जो विजय और परिवर्तन के माध्यम से मुस्लिम अधिकार में आ गया- हजरत मुइनुद्दीन चिश्ती के लिए बनाया हरगिज भी नहीं गया ।14 ये सारे के सारे इस्लामी लगने वाले भवन पूर्व में हिन्दुओं द्वारा निर्मित हैं तथा हिन्दू उन्हें अपने विभिन्न उद्देश्यों हेतु प्रयोग करते थे । हमलावर, अनपढ़, गंवार, उज्जड़ एवं अहंकारी इस्लामी आक्रमणकारी जब भारत में आए तो उन्होंने इन सारे भवनों को या तो नष्ट कर दिया, या उनका रूप बदल दिया या उनमें थोड़ा ऊपरी बदलाव करके उन्हें इस्लामी रूप दे दिया तथा अपने निवास उन्हीं भवनों में बना लिए । उन हमलावरों के पास स्वयं के रहने हेतु यहां कोई भवनादि तथा पूजा करने हेतु पूजा स्थल नहीं थे एवं न ही उन्हें भवन निर्माण की कोई तकनीक ज्ञात थी । अकबर जैसे दयालु कहे जाने वाले बादशाह ने भी हिन्दू मन्दिरों,
किलों, राजप्रासादों, बावडि़यों, सड़कों, मीनारों तथा शिक्षा संस्थानों को इस्लामी रूप देने हेतु कारीगरों की एक पूरी फौज रखी गई थी जो इन पर मनचाही खुदाई करके इन्हें इस्लामी रूप दे देते थे। इनमें अधिकांश कारीगर हिन्दू ही होते थे। विन्सेन्ट स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘अकबर-महान मुगल’ में ठीक ही लिखा है कि अधिग्रहित स्मारकों पर उनकी इच्छानुसार खुदाई करने के लिए अकबर ने अपने पास एक पूरी फौज रखी हुई थी । फतहपुर सीकरी के स्मारकों पर उत्कीर्ण सामग्री इसी प्रकार की खुदाई है । इस प्रकार की निराधार विश्वासांधता ने ही इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि से यह तथ्य ओझल कर दिया कि ग्वालियर स्थित मोहम्मद गौस का तथाकथित मकबरा, फतहपुर सीकरी स्थित सलीम चिश्ती और दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन की दरगाहें जो अत्यन्त परिश्रम से बनाए हुए मन्दिर प्रतीत होते हैं, वास्तव में मन्दिर ही हैं । यह कथन कितना हास्यास्पद है जब हम विचार करें कि मुस्लिम आक्रमणकारी इतने बहुविध निर्माता थे कि उन लोगों ने न केवल घृण्य शासकों के लिए अपितु सफदरजंग जैसे सरदारों एवं भिस्ती, जमादार, कुम्हारों, धायों और हिजड़ों के भी राजप्रासादीय स्तर के भव्य स्मारक बनवाए।15
जब सूफियों में ‘गरीबनवाज’ कहे जाने वाले मुइनुद्दीन का यह चाल व चरित्र है तो बाकी सूफियों के बारे में क्या कहा जाए कि उन्होंने किस तरह से इस्लाम का प्रचार किया तथा किस तरह से हिन्दुओं का इस्लाम में धर्मांतरण किया? इस हेतु उन्होंने कोई भी मर्यादा अपने आड़े नहीं आने दी । मुइनुद्दीन चिश्ती भी अपने करिश्मों, संतपन और सिद्धियों हेतु विख्यात हैं । ये मोहम्मद साहब के वंशज सैय्यद समझे जाते हैं । इन्होंने सूफी मत में दीक्षा उस्मान हरवानी से ली थी, जो सूफियों में एक अत्यन्त महान सूफी माने जाते हैं । ‘सियर-ऊल-अकताब’ नामक पुस्तक के अनुसरा उनके भारत में पर्दापण करने से यहां इस्लाम की स्थापना हुई । उन्होंने अपने तर्क और विद्वता से भारत में पुरातन काल से चले आ रहे कुफ्र और शिर्क (हिन्दू
धर्म) के अन्धेरे को नष्ट कर दिया । इस लिए उनको ‘नबी-अल हिन्द’ (हिन्दुस्तान का पैगम्बर) भी कहा जाता है । सत्तर वर्ष तक वे निरन्तर नमाज पढ़ते रहे । जिस पर भी उनकी दयादृष्टि पड़ी वहीं तुरन्त अल्लाह का सामीप्य पा गया (मुसलमान हो गया) । उनके पास कोई भी पापी (हिन्दू) आता था, वह तुरन्त अपने पापों की क्षमा मांगने लगता था (अर्थात् मुसलमान हो जाता था) ।16 अब इस तरह के विवेचन से यह साफ हो जाता है कि कोई भी हिन्दू इन महोदय की तरफ उनके व्यक्तित्व के तेज के प्रताप की वजह से ख्ंिाचा चला नहीं आता था अपितु जबरदस्ती करके हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित किया जाता था । निष्पक्ष दृष्टि से यदि तथ्यों का अवलोकन किया जाए तो उपरोक्त बातों की सच्चाई का पता सरलता से लग जाता है। लेकिन हमारे भारत में पिछली दो-तीन सदियों से बुद्धिमान व्यक्तियों पर कुछ ऐसा सम्मोहन सा व्याप्त है कि वे हर उस तथ्य या बात का विरोध करते हैं जो भारतभूमि के सम्मान से जुड़ी हों । इसी विरोध में वे अपनी विद्वता व बुद्धिमत्ता मानते हैं। पश्चिम का कोई एैरा-गैरा व्यक्ति यदि पागलपन के दौरे में भी कुछ भी अंट-शंट बक रहा हो तो इनको उसमें कुछ सारतत्त्व दिखलाई पड़ता है परन्तु कोई बुद्धिमान, विद्वान् या योगी हिमालय पर खड़ा होकर पूरे जीवन भी चिल्लाता रहे तो भी इनको यह मूढ़ता का कृत्य लगता है । हीनभावना से ग्रस्त इन लोगों की गहन चिकित्सा की आवश्यकता है ।
मुइनुद्दीन ने हिन्दू गुरूओं व योगियों का सामना करने के लिए अनेक प्रकार के छल, कपट, विश्वासघात एवं षड्यन्त्र किए। जो हिन्दू योगी या रहस्यदर्शी उनका विरोध करते थे उनकी आवाज को दबाने के लिए उन्होंने सम्मोहन या वशीकरण का भी खूब सहारा लिया ताकि यहां का जनमानस उनके चमत्कारों से प्रभावित होकर उनके संप्रदाय को ग्रहण कर ले । इन सूफी महोदय का भारत में आकर स्थायी रूप से बसने का निर्णय भी विडंबनापूर्ण है । अजमेर में हिन्दुओं का धर्मांतरण करने के कुचक्र के फलस्वरूप हिन्दुओं ने उसका विरोध ही नहीं किया अपितु उसे मार भी डाला था । हज करने गए मुइनुद्दीन को यह बात बतलाई गई तो उन्होंने स्वयं हिन्दुस्तान आकर हिन्दुओं के धर्मांतरण का बीड़ा उठाने की कसम खाई। वास्तविकता यही लगती है कि अजमेर में पहले कोई सूफी इस ध्येय से वहां आकर बसे थे कि वहां के हिन्दुओं का धर्मांतरण कर उसे इस्लाम तुल्य प्रदेश बनाएं । स्थानीय हिन्दुओं ने उसे मार डाला । ख्वाजा (मुइनुद्दीन) जब हज करने गए तो वहां उन्हें यह बात बताई गई । उस धर्मांतरण कार्य को पूरा करने के लिए उन्होंने अजमेर आकर बसने का निश्चय किया । उनके यहां आने पर हिन्दुओं द्वारा उनका भी खूब विरोध हुआ । हिन्दुओं के इस विरोध को दबाने के लिए मुइनुद्दीन ने उन पर खूब अत्याचार किए । इस अत्याचार के फलस्वरूप अनेक हिन्दू मौत के घाट उतार दिए गए। अनेक हिन्दू नारियों की ईज्जत लूटी गई तथा अनेक हिन्दुओं का धर्मांतरण करके उनको मुसलमान बना दिया गया । बताया जाता है कि इन्होंने 90 लाख हिन्दुओं को धर्मांतरित करके उन्हें मुसलमान बनाया था । पृथ्वीराज चैहान की पत्नी संयोगिता को इन्हीं तथाकथित सूफी फकीर के आदेश पर सबके सामने नंगा करके उसके साथ सरेआम बलात्कार करने हेतु पब्लिक के मध्य फेंक दिया था । इन्हीं संयोगिता की पुत्रियों ने बड़ी बहादुरी से विधर्मियों का सफाया करते हुए इन सूफी मुईनुद्दीन चिश्ती को मार डाला था । लेकिन इस तरह के तथ्य भारतीय इतिहास से छिपाए जाते रहे हैं ।
आज मुसलमान हिन्दुओं पर इतने अधिक अत्याचार तो नहीं कर सकते जितने उन्होंने एक हजार वर्ष तक किए हैं लेकिन अब दिक्कत यह है कि हमारी सरकारें निकम्मी व सेक्युलर है । इस मूढ़ता की वजह से भारत के हिन्दू फिर से पिसने शुरू हो गए हैं। वोट के चक्कर में अल्संख्यकों (मुसलमा व ईसाई आदि) की अनाप-शनाप, यहां तक कि देश द्रोहपूर्ण मांगों को पूरी कर रहे हैं। हिन्दुओं को बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक बनाकर रख दिया है । हर मौके पर हिन्दुओं को प्रताडि़त व अपमानित किया जाता है । श्री मोदी जी के सत्ता संभालने पर कल्याण व निष्पक्षता की आशा की थी लेकिन वे भी सेक्युलर व गान्धी भक्त सिद्ध होते लग रहे है । पहले मुसलमानी अत्याचार, धर्मांतरण व अनरसंहार तो उसके बाद ईसाईयत का भारत व भारतीयता को भ्रष्ट व बर्बाद करने के षड्यन्त्र तथा अब सेक्युलर कांग्रेस की अंग्रेज भक्ति व श्री मोदी के राष्ट्रवाद के नाम पर हिन्दुओं का पगे-पगे अपमान हिन्दुओं हेतु अच्छे दिन कब आएंगे? इस समय वास्तव में ही हिन्दू दुनिया के सर्वाधिक प्रताडि़त, दुःखी, हीनता की ग्रन्थि से ग्रस्त तथा स्वर्ग की नजरों में गिरे हुए व्यक्ति हैं । हर कोई इनका शोषण करता है तथा अपना काम निकालकर दूर भाग जाता है। जरूरत है सिर्फ जागने की । जागना ही एकमात्र समाधान है । जागने से ही हमारी सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो सकेगा । जागो आर्य हिन्दुओं जागो ।
----------------------------संदर्भ-सूची-------------------------
1. डा॰ वासुदेव शरण अग्रवाल, पद्मावत प्राक्कथन, पृ॰ 5
2. उपरिवत्, पृ॰ 7
3. उपरिवत्, पृ॰ 36-37
4. पुरुषोत्तम नागेश ओक, भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें, पृ॰ 15
5. उपरिवत्, पृ॰ 16-17
6. मलिक मुहम्मद जायसी, पद्मावत (स्तुति खंड)
7. उपरिवत्
8. उपरिवत्
9. उपरिवत्
10. उपरिवत्
11. उपरिवत्
12. उपरिवत्
13. पुरुषोत्तम नागेश ओक, भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें, पृ॰ 35-36
14. उपरिवत्,
पृ॰ 91
15. पुरुषोत्तम नागेश ओक, क्या भारत का इतिहास भारत के शत्रुओं द्वारा लिखा गया है?,
पृ॰ 10
16. पुरुषोत्तम, सूफियों द्वारा भारत का इस्लामीकरण, पृ॰ 11-12
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