नीत्शे के अनुसार हर व्यक्ति का अपना अलग रास्ता होता है । आपका अपना रास्ता है और मेरा अपना, लेकिन अगर आप सही रास्ता खोज रहे हैं या एक मात्र रास्ते की तालाश में हैं तो याद रखें कि ऐसा कोई रास्ता है ही नहीं । यस्तर्केणानुसन्धयते स धर्मो वेद नेतरः। पूरी तरह से सही व गलत के विचार में न पड़े । चलें भी । विचार ही यदि करते रहे तो चलना कैसा? एक बार सोच-विचार कर लिया है ना तो अब चल भी पड़ें । काफी व्यक्ति केवल सोचते-विचारते रहते हैं लेकिन चलना वगैरा करते नहीं है । ऐसे व्यक्ति भी सही-गलत पर वाद-विवाद करके केवल अपना समय खराब करते हैं । हो सकता है कि यह अधिक वाद-विवाद व विचार करना चलने से बचने को बहाना मात्र हो । अधिकांशतः तो ऐसा ही होता है । लोग खूब चर्चाएं करते हैं लेकिन चलने के नाम पर कुछ नहीं करते । सही व गलत का पता तो चलने पर ही मालूम पड़ेगा । नीत्शे की इस बात में दम है । कुछ सदियों से भारत भी इस महामारी से त्रस्ते है ।
जिन चीजों से हमारी मृत्यु नहीं होती है, वे चीजें हमें और मजबूत बनाती है । नीत्शे
का यह बचन आधा-अधूरा है । जीवन ही नहीं अपितु मृत्यु भी हमंे मजबूत बनाती है । यदि हमें अवसरों की पहचान की कला आ जाए तो हर अवसर व वस्तु हमारे काम के हो सकते हैं । लेकिन लगभग हम ऐसे होते नहीं हैं हम जीवन से भी भागते है। तथा मृत्यु से भी भागते हैं । हां हम भागने भर से नहीं भागते । यदि हमारी दृष्टि सही है तो कुछ भी हमें मजबूत करके जाऐगा । हम हर परिस्थिति में और मजबूत होते जाएंगे । जीवन व मृत्यु अलग नहीं हैं । नीत्शे तो मृत्यु व भगवान से डरा हुआ भगौड़ा था उसकी बातों पर ध्यान न दें ।
संसार में कोई तथ्य नहीं होता है । लोग बातों को अपने, अलग नजरिये से देखते हैं और उनका अलग अर्थ निकालते हैं । एक सीमा
तक संसार में नीत्थे का यह कहन कतई सही है। तथ्य होंगे अपनी जगह लेकिन लोग तो अपने दृष्टिकोण से देखते व अर्थ लगाते हैं । वे नहीं सुनते हैं किसी की भी । जितने लोग उतने ही दृष्टिकोण-‘मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना’ । बल्कि
जितने लोग उतने ही अधिक दृष्टिकोण । एक-एक व्यक्ति के भी कई दृष्टिकोण होते हैं ।
जिस व्यक्ति को मालूम हो कि ‘जीना क्यों है,’ उसे यह भी पता होगा कि ‘अच्छा जीवन व्यतीत कैसे करना चाहिए’
। इन दोनों
बातों का मूल में एक ही अर्थ है । ऊपर से ये भिन्न दिखलाई पड़ती होंगी लेकिन भीतर से ये दोनों एक ही हैं । जिनमें जीने की लालसा प्रबल होती है व जीने का रास्ता निकाल ही लेते हैं और जो रास्ता नहीं निकाल पाते वे वास्तव में जीना ही नहीं चाहते। आसपास के लोगों को बरगलाने हेतु वे कुछ भी कह सकते हैं । लेकिन वास्तविकता यही है कि वे जीना ही नहीं चाहते । मृतों की तरह का जीवन बन जाता है उनका । जीने वाले कहां किन्हीं विकट परिस्थितियों से डरते व घबराते हैं? वे तो अपना कोई न कोई जीवन जीने का ढंग तलाश ही लेते हैं ।
कहते हैं कि प्यार में पागलपन छिपा होता है, लेकिन यह हमेशा याद रखें कि हर पागलपन के पीछे भी कोई न कोई कारण जरूर होता है और वह पागलपन
वासना के सिवाय अन्य कुछ नहीं हो सकता । मूल रूप से व्यक्ति नर-नारी से ही बना है । दोनों ने वासना की तो व्यक्ति का जन्म हुआ । वह वासना वह अपने कण-कण में जन्म से ही लेकर आता है । प्यार में पागल हुए व्यक्ति के पागलपन में यही वासना छिपी हुई होती है । यही वासना उसका कारण होती है । हाँ, यह जरूर है कि पश्चिम के विचारक सदा ही गोल-मोल बातें करते हैं । बाद में उसका कुछ भी अर्थ निकाला जा सकता है । प्यार, प्यार के पीछे का पागपन व इस पागलपन का कारण - ये सब बाहरी उथले होते हैं । इनका संबंध देह की चमक-दमक से अधिक तथा चेतना से कम होता है।
प्यार अंधा होता है, इस बारे में सभी जानते हैं । मगर दोस्ती में लोग देखकर भी अपनी आंखें बंद कर लेते हैं । प्यार अंधा तो होता है । अन्यथा जो क्षणभर का सुख है उसके लिए अपने पूरे अस्तित्व को दांव पर कौन लगाता है । अंधा होता है इसीलिए तो यह सारा जंजाल शुरू होता है । जो पहले भी नहीं था - बाद में भी नहीं रहेगा- केवल क्षणभर हेतु जिसका अस्तित्व है उस हेतु इतनी मारामारी व पागलपन-यह प्यार के अंधेपन का प्रतीक है । दोस्तों में एक भरोसा पैदा होता है इसीलिए लोग निश्ंिचत हो जाते हैं । धोखे मिलते हैं, विश्वासघात होते हैं लेकिन फिर भी एक निश्चिंतता की पूंजी को महसूस करने के क्रम में बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं ।
संगीत के बिना, जिंदगी सिर्फ एक गलती की तरह लगती है । लय, ताल, सरलता, सहजता, बहना-कितना सुखकर लगता है यह सब । सर्वतकलीफों को भूल जाते हैं हम । कुछ भी याद नहीं रहता है । संगीत में यही सब होता है । संगीत की स्वर लहरियां अदृश्य लोक की यात्रा करवा देती हैं । एक विचित्र सी मस्ती छा जाती है रोए रोगए पर। रहस्य में डूब जाते हैं हम । जिसका न कोई आदि तथा न कोई अंत ही होता है । कुछ क्षणों के लिए हम आनंद के सागर में डूब जाते हैं । यह समस्त जगत कणों के स्पंदन का ही तो खेल है । संगीत में भी स्वर लहरियों के स्पंदन होते हैं । हम अपने आदिमूल में जाकर महाविश्राम की अनुभूत करते हैं । संगीत का आनंद मदमस्त करता है । संगीत के बिना जीवन सूना-सूना लगता है । सब रसहीन हो जाता है ।
हम जिंदगी को प्यार करते हैं । इसलिए नहीं क्योंकि हमे जीना है। इसलिए क्योंकि हम प्यार करना जानते हैं । गहरे
अर्थ मं तो यह वक्तव्य सही है लेकिन आजकल जो हम देख रहे हैं उसमें तो यह वक्तव्य बेमानी सा लगता है । लोग बस जी रहे हैं घिसट-घिसटकर । प्यार-प्यार कुछ नहीं है - बस पैदा कर दिए गए तथा अब जीना पड़ा रहा है । हम प्यार करना जानते हैं इसलिए जिंदगी से प्यार करते है। - यह वक्तव्य बहुत कम व्यक्तियों पर लागू होता है । अधिकांश व्यक्तियों का जीवन को जीना बस एक विवशताभर है । बाहरी जरूरतें, अभाव, टोटा, दुरावस्था इतना मजबूर कर देते हैं कि प्यार-व्यार सब हवा में तिनके की तरह उड़ जाते हैं । व्यर्थ सा लगता है यह सब । जिंदगी के मायने हमें मालूम ही नहीं हो पाते हैं - हमें इतनी फूर्सत ही कहां रहती हैं । मोटे-मोटे शब्द जीवन नहीं बन पाते हैं ।
अगर उड़ना चाहते हैं तो उसे पहले खड़े होना, चलना, दौड़ना आना चाहिए । क्योंकि कोई भी व्यक्ति सीधा उड़ना नहीं सीख सकता है । हम शुरू
से ही शुरू कर सकते हैं - बीच या अंत से नहीं । लेकिन लोगों को उतावलावन इतना अधिक है कि कहां से यात्रा शुरू करें यह सूझता ही नहीं । अफतरातफरी में कुछ भी कर देते हैं । यात्रा वहीं से शुरू करें जहां हम खड़े हैं । यात्रा बिना तैयारी के शुरू न करें । छोटे-छोटे कृत्य भी तैयारी व संकल्प की मांग करते हैं तो कठिन कामों में तैयारी का महत्त्व सर्वाधिक होता है । यदि उड़ने की तैयारी करनी है तो इससे पहले खड़े होना, चलना, दौड़ना आदि का अभ्यास अवश्य कर लेना चाहिए । तैयार किए बिना यात्रा पर चल पड़ना अनेक बार घातक सिद्ध होता है ।
तलाक इसलिए नहीं होते, क्योंकि पति-पत्नी के बीच प्यार की कमी होती है, लेकिन उनके रिश्ते में दोस्ती की कमी के कारण रिश्ते टूटते हैं। अब देखो!
ऐसे-ऐसे विरोधाभाषी एवं बेतुके वक्तव्य नीत्शे ही दे सकते हैं। प्यार की कभी व दोस्ती की कमी में भेद क्या है? सनसनी उत्पन्न करने हेतु तो यह सब ठीक है लेकिन वास्तव में इसका कोई मूल्य नहीं है । रिश्ते टूटें या तलाक हों - कमी प्यार की या दोस्ती की ही होती है । हां, भारतीय समकालीन संदर्भ में विचार किया जाए तो नीत्शे का यह वक्तव्य बकवास के सिवाय कुछ भी नहीं है । नीत्शे जैसे पागल से यही आशा की जा सकती है। ऐसे-ऐसे पागलपन भरे वक्तव्य दे-देकर पश्चिम ने पूरी धरती को संकट में डाला हुआ है ।
इस धरती पर सबसे कठोर जानवर कोई है तो मनुष्य ही है । पशु
इतना क्रूर शायद नहीं हो पाए जितना कि मनुष्य हो सकता है । पशु सिर्फ अपनी भूख (भोजन व सैक्स) को मिटाने हेतु ही थोड़ी-बहुत क्रूरता कर सकता है लेकिन मनुष्य तो अपने पागलपन को अभिव्यक्त करने हेतु क्रूरता, अपमान, प्रताड़ना एवं हिंसा के सारे रिकार्ड तोड़ देता है । मनुष्य की पशुता जब जागती है तो वह सारी सीमाएं तोड़ देती है । मनुष्य की क्रूरता की किसी से कोई बराबरी नहीं है । सारी बर्बादी विनाश, हिंसा, युद्ध व उपद्रव का कारण मनुष्स के अंदर मौजुद जानवर ही है । पशु इतना पशु नहीं है जितना कि मनुष्य।
नीत्शे मत से जब कोई झूठ बोलता है तो आप इसलिए परेशान नहीं होते कि दूसरे व्यक्ति ने आपसे झूठ कहा, लेकिन आप इसलिए परेशान हो जाते हैं कि आज के बाद आप उस व्यक्ति पर विश्वास नहीं पर पाऐंगे । महर्षि
मनु ने धर्म के दस लक्षण कहे हैं । धर्म से रहित व्यक्ति पशु समान है । व्यक्ति व्यक्ति तभी बनता है कि जब वह विवेक को जागृत करके होश की ओर आगे बढ़े । किसी के प्रति अविश्वास पैदा हो जाना स्वयं की असफलता है । हम हारते हैं । हमने जो सोचा था वह नहीं हुआ । - इससे हमें दुःख होता है । स्वयं के प्रति संदेह पैदा हो जाते हैं । दूसरे व्यक्ति स्वयं पर संदेह का कारण बन जाता है । अपनी ही नजरों में गिर जाना अत्यधिक कष्टकारी होता है ।
आचार्य शीलक राम
असिसटेंट प्रोफेसर
दर्शनशास्त्र-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
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