Wednesday, October 12, 2016

भूख का दर्शनशास्त्र



भूख क्या होती है?
यह कोई चिंतन नहीं है तथा ही यह कोई दर्शनशास्त्र है। यह पेट को लगती है तथा फिर पूरे शरीर पर छा जाती है। इसकी शुरूआत भर पेट से होती है लेकिन वास्तव में यह पूरे शरीर की जरूरत है इस रहस्य को केवल वे ही जान सकते हैं जिन्हें भूख लगती है हमारे शास्त्रों में कहा भी गया है कि भूखा व्यक्ति कोई भी पाप या अनैतिक कार्य कर सकता है जब भूख लगती है तो नीति, धर्म, मूल्य अध्यात्म का सारा चिंतन भूल जाता है व्यक्ति
वास्तव में भूख सबको नहीं लगती
यह तो किसी-किसी को लगती है
किसको?
यह उन्हें लगती है जो दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करते हैं। अधिकांश लोगों को भूख केवल एक आदत होती है। किसी निश्चित समय पर भोजन ग्रहण करने से शरीर मन को एक आदत पड़ जाती है फिर प्रतिदिन उसी समय आदतवश भोजन लेने की इच्छा होने लगती है लेकिन यह भूख नहीं है
भूख तो जब लगती है तो क्या स्वादु तथा क्या अस्वादु? क्या रूचिकर तथा क्या अरूचिकर? रूखा-सुखा सब रूचिकर बन जाता है स्वादु-अस्वादु तथा रूचिकर-अरूचिकर का बहाना तो वे लोग बनाते हैं जिन्हें भूख नहीं लगी होती है भूख अभी नहीं लगी है इसीलिए तो रूचिकर-अरूचिकर या स्वादु-अस्वादु के बहाने बनाए जा रहे हैं जब वास्तव में ही पेट की जठराग्नि जागृत होती है तो पेट को कुछ भी खाने के लिए चाहिए। यदि उस समय पेट को खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाएगा तो जठराग्नि व्यक्ति के मांस को ही खाने लगेगी उसे तो खाने को चाहिए शरीर-निर्माण तो भोजन से ही होता है लोग-विशेषकर तार्किक तरह के व्यक्ति भूख पर तर्क-वितर्क करते हैं जबकि भूखे व्यक्ति भूख को महसूस करते हैं, उसे जीते हैं, उसमें जीते हैं तथा वे वास्तव में ही भोजन करते हैं
भूख के संबंध में दिए गए थोथे वक्तव्यों का कोई महत्त्व नहीं है जब तक कि भूख को जीया जाए जिसे भूख नहीं लगती हो, वह क्या जाने कि भूख क्या होती है देह को जब खूब मेहनत से आई हुई थकान लगती है तो वह बनावटी नहीं होती। इस वास्तविक भूख में शरीर अपनी खोई ऊर्जा की पूर्ति हेतु भोजन की मांग करता है रूखा-सुखा जैसा भी भोजन पेट में डाला, जठराग्नि उसे तुरंत हज्म कर देती है
जब भूख लगती है तो जैसा भी खाया जाएगा, वही स्वादिष्ट लगेगा विविध प्रकार के मसाले डालकर भोजन ग्रहण करना भोजन के वास्तविक स्वाद से वंचित होना ही है भोजन का सही स्वाद भोजन से आता है, कि तीखे मिर्च-मसालों से तीखे मिर्च-मसालों से जीभ में उत्तेजना पैदा करके नकली स्वाद लेना शरीर के पाचन-संस्थान को व्याधिग्रस्त कर देना है आज के विकसित आधुनिक युग के शिक्षित उच्च कहलाने वाले लोगों को वास्तविक भुख लगती ही नहीं है इन उच्च शिक्षित कहलाने वाले लोगों का भोजन का समय भी गलत है, भोजन ग्रहण करने का ढंग भी गलत है, भोजन भी गलत है तथा भूख भी नकली है। अपने स्वयं से दूर भागे हुए लोग नकल या अनुकरण करने के स्थान पर अन्यथा कुछ कर भी क्या सकते हैं? अपनी देह की सार-संभाल, अपनी मानसिकता का ख्याल, अपने विचारों की परवाह, अपने भावों को दिशा तथा ही स्वयं में स्थित होने की कोई जानकारी - यह है आज के व्यक्ति का कुल इतिहास या उसकी जीवन शैली
यदि दिन में उचित मेहनत करके शरीर को थका दिया जाए तो स्वाभाविकरूप से भूख लगेगी ही ऐसे व्यक्ति को भूख की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती शारीरिक मेहनत से शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत पड़ती है जोकि समय पर ग्रहण किए गए भोजन से व्यक्ति को मिल सकती है मन के घोड़े दौड़ाने मात्र से भूख थोड़े ही लगती है भूख हमारी देह को लगती है, मन को नहीं भूख जब मानसिक रूप धारण कर लेती है तो शरीर का कार्य करने का सारा तंत्र विकृत हो जाता है एक धावक को भूख मानसिक होकर शारीरिक ही होती है भूख शरीर को ही लगती है तथा जो भोजन हम ग्रहण करते हैं वह जब शरीर में जाकर पच जाता है तो पोषण देह के साथ-साथ मन को भी मिलता है पहले शरीर है, फिर मन का क्रम आता है। जिस तरह से शरीर भौतिक है उसी तरह से मन भी भौतिक है लेकिन शरीर से तो मन काफी सूक्ष्म है ही जिस भोजन से स्थूल शरीर का पोषण होता उसी की ऊर्जा से मन का भी निर्माण होता है। यह सब होते हुए भी भूखादि लगने का क्रम पहले शरीर का ही रहता है शरीर मन परस्पर जुड़े तो हुए हैं परंतु अनेक कार्य इनके सदैव अलग-अलग ही होते हैं भूख भी इनमें से एक है भूख कोईयादगार यास्मृति की बात नहीं है जोकि मन के पास होते हैं याद या स्मृति के रूप में भूख एक नकल का रूप धारण कर लेती है तथा स्वाभाविकता खो जाती है। कठोर परिश्रम करने वाला व्यक्ति भूख को एक याद या स्मृति के रूप में संजोकर रखता है तथा एक निश्चित समय पर ठूंस-ठूंसकर पेट भर लेता है ऐसा व्यक्ति भूख होते हुए भी एक निश्चित समय भोजन ग्रहण कर लेता है- भूख की स्मृति के कारण कि भोजन का समय हो गया है अतः भूख का कोई निश्चित समय भी नहीं हो सकता है कठोर परिश्रम करने वाले व्यक्ति को जब भी भूख लगे तो उसे भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए तथा वह ऐसा करता भी है भोजन का समय के साथ कोई भी संबंध नहीं है भोजन को समय के साथ जोड़ने वाले व्यक्ति आधुनिक विकसित व्यक्ति हैं भोजन उनके लिए भूख से अधिक एक यादमात्र या स्मृतिमात्र अधिक है समय हो चुका है अतः भोजन कर लो - यह बात ही गड़बड़ है भूख लगी है भोजन कर लो - इस बात में दम है तथा यही एक व्यक्ति के निरोग शरीर स्वस्थ मन का परिचायक है बिना भूख लगे ठूंस-ठूंसकर पेट को भर लेना शरीर मन दोनों हेतु ही अति हानिकारक एवं कष्टदायी सिद्ध होता है आधुनिक व्यक्ति अधिकांशत ऐसा ही कर रहा है ऐसे व्यक्तियों की भूख मानसिक रूप धारण कर चुकी है भूख के क्रम में पहला स्थान भूख लगने का शरीर का होता है, इसके पश्चात् मन की गिनती होती है। जिससे पूरे ही जीवन का पोषण होता है वह स्थूल भोजन होता है तथा यह स्थूल भोजन हमारे स्थूल शरीर का पोषण करता है
जो शारीरिक मेहनत नियमित करते ही नहीं वे क्या जानें कि भूख क्या होती है एक मजदूर, जो लगातार 10-12 घंटे तक कस्सी चलाता है या फसल की कटाई करता है या बोझा ढोने का काम करता है - उससे पूछो कि भूख क्या होती है वह भूख के संबंध में शायद लेखादि लिख सके तथा ही लंबी-चैड़ी बहस कर सके परंतु फिर भी भूख का वास्तविक जानकार वही होता है। वह इसलिए क्योंकि उसे भूख लगती है उसका रोम-रोम भोजन के लिए पुकार लगाता है उसकी जठराग्नि चिल्लाती है कि मुझे भोजन दो, रूखा-सुखा जैसा भी हो इसके विपरीत जो विद्वान्, लेखक, समाचार-पत्र पत्रिकाओं के संपादक या साहित्यकार भूख पर लंबे-चैड़े लेख लिखते हैं या व्याख्यान देते हैं उनके लेख व्याख्या दो कौड़ी के भी नहीं हैं यह इसलिए क्योंकि इन्होंने भूख को महसूस ही नहीं किया इन्हें भूख लगती ही नहीं है दर्शनशास्त्र के नियम तो यही कहते हैं कि जिसके अनुभव में जो नहीं आया हो उसको उसके संबंध में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है कम से कम भारतीय दर्शनशास्त्र का तो यही मानना है पाश्चात्य दर्शनशास्त्र शब्दों की लफ्फाजी से बाहर निकल पाता हो, यह एक अलग बात है एक किसान जो पौष के हड्डिया जमा देने वाले मौसम में रातभर पानी में दौड़-दौड़कर कस्सी से मेहनत करके पसीने में लथपथ रहता है वह भलि तरह जानता है कि भूख क्या होती है जबकि एक नेता जोकि सुविधाओं वैभव से हताश रहकर भी उन्हीं में टक्कर मारता रहता है या आजकल के नकली उच्चकोटि के कहलाने वाले सरकारी पुरस्कारों से पुरस्कृत साहित्यकार भूख के संबंध में व्याख्यान दे सकते है तथा पढ़ लिख सकते हैं लेकिन इन्हें भूख की वास्तविक प्रतीति कभी नहीं हो सकती इन्हें कभी भूख लगी ही नहीं तो फिर ये क्या जानें के भूख क्या होती है भूख कोई विचार या फिलाॅसाफी का विषय नहीं है अपितु यह तो कमरतोड़ मेहनत करके पसीना बहाने वालों को ही नसीब होती है- चाहे कोई मजदूर हो, किसान हो, कोयले की खदानों का मेहनतकश हो या भट्टे पर मिट्टी के साथ मिट्टी ही हो जाने वाला कोई आदमी हो।
संसार की विडंबना देखिए कि जिन्हें भूख वास्तव में लगती है उन्हें वास्तव में समय पर भोजन शायद ही नसीब होता हो तथा जिन्हें भूख नहीं लगती उन्हें पल-प्रतिपल प्रत्येक प्रकार का स्वादू भोजन उपलब्ध रहता है सूखी रोटियों पर प्याज रखकर या सूखी रोटियों पर लाल मिर्च या आलू की चटनी लगाकर उन्हें मोड़कर खा लेना- बिना किसी मर्यादा, नियम या तामझाम के, इन लोगों को स्वर्गिक सुख मिलता है इस सबसे कंकड़-पत्थर काठ को भी हजम कर लेते हैं ये, इनकी पाचन शक्ति इतनी प्रबल होती है। जबकि भूख पर लंबे-चैड़े भाषण झाड़ने वाले तथा समाचार-पत्रों में लेख लिखने वाले एक फूल्का खाते ही गैस, भारीपन, बदहजमी मंदाग्नि के शिकार हो जाते हैं जिन्हें वास्तव में ही भूख लगती है वे बेचारे इस शर्म से अपनी रूखी-सूखी रोटियों को दूसरों से छिपाकर खाते हैं ताकि अन्यों के सामने उनकी इज्जत बनी रहे जबकि जिन्हें भूख नहीं लगती वे भोजन का खूब प्रदर्शन करके उसे खाने का प्रयास करते हैं लेकिन खा नहीं पाते हैं
क्रांति घटती है तब जबकि कोई ऐसा ही भुक्तभोगी व्यक्ति लेखक बन जाता है जिसने भूख, गरीबी, बदहाली, अभाव प्रताड़ना को स्वयं जीया हो वह लेखक तथा उसका लेखन वास्तव में ही वास्तविक, क्रांतिकारी एवं सृजनात्मक होता है ऐसे लेखक के लेखन में उसकी सच्चाई के दर्शन प्रत्येक कदम पर किए जा सकते हैं कोई प्रेमचंद ही ऐसा लेखक हो सकता है, कोई निराला ही ऐसा साहित्यकार हो सकता है, कोई स्वामी दयानंद ही ऐसा दार्शनिक सुधारक हो सकता है तथा कोई सावरकर ही ऐसा क्रांतिवीर हो सकता था ऐसे व्यक्तियों को शीघ्रता से स्वीकृति नहीं मिलती है सुविधाओं पर कुंडली मारकर बैठे सांपों को यह बात हजम नहीं होती है कब सम्मान मिलेगा ऐसों को? कब ये भी सिर उठाकर अपने आपको व्यक्ति कहने का अधिकार प्राप्त करेंगे? इस भूख के दर्शनशास्त्र को भी समझने का प्रयास करें तथा सावधान रहें प्रशांतभूषणों, केजरीवालों, कुमार विश्वासों, मनीष सिसोदियों से, दिग्विजयों से, राज बब्बरों से, शिंदों से तथा राहुलों से जोकि भूखे-नंगों को हसीन सपने दिखलाने का व्यापार कर रहे हैं राजनीति करने का यह ढंग अपने नए-नए रूपों में समयपर उछाल मारता है लेकिन यह ध्यान रहे कि जिस भी राजनेता या राजनीतिक दल के विचारों में राष्ट्र का मौलिक चिंतन होगा, उनका राष्ट्र की भूमि संस्कृति से जुड़ाव होगा, वहां की सभ्यता जीवन-मूल्यों से कोई संबंध होगा राष्ट्रवाद स्वदेशी के विचारों से जो प्रेरणा लेता हो वह कभी भी राष्ट्र का उद्धार नहीं कर सकता ऐसे राजनीतिक दल कभी भी लंबे समय तक लोकप्रिय नहीं हो सकते राष्ट्र में ऐसा कोई राजनीतिक दल या राजनेता अब तक भारत की डोर लंबे समय तक अपने हाथ में नहीं ले पाया है आम आदमी पार्टी तथा इन जैसे अन्य दलों की विचारधारा के मूल में स्वदेशी, राष्ट्रवाद, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के शाश्वत नैतिक जीवन-मूल्यों से जुड़ाव प्रेम नहीं है अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण तथा इन जैसे अन्य लोग राष्ट्रविरोधी बयान देकर तथा राष्ट्र की मूलधारा का अपमान करके प्रसिद्धि बटोरते हैं; भूख की प्रतीति इन्हें कभी नहीं हुई है। ये भूखों की वोट बटोरकर राजनीति जरूर करते हैं परंतु भूखे लोग सदैव भूखे ही बने रहते हैं कुछ महीने में ही इनकी सारी हेकड़ी दूर हो जाएगी तथा पोल खुल जाएगी इस धरा पर चमत्कार कहीं नहीं होते हैं चमत्कार की आशा निठल्ले लोग करते हैं
आचार्य शीलक राम
असिसटेंट प्रोफेसर
दर्शनशास्त्र-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय,
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो॰ 9813013065

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