इस देश में जो लोग 1947 के पश्चात् से लेकर आज तक सत्ता में रहे हैं, वे अनिश्चय की स्थिति में हैं। उनका अनिश्चय कहीं बाहर से आयातित न होकर उनके भीतर की आत्मग्लानि व हीनता की भावना की उपज है । ये इस तरह की हीनता की ग्रंथि से ग्रसित लोग अपने आपको गजनवी, गौरी, चंगेज, तैमूरलंग, अकबर, शाहजहां, जहांगीर, औरंगजेब, पुर्तगाली, अंग्रेजादि की तानाशाही एवं भारत को अपनी जागीर मानने की मानसिकता से दूर नहीं कर पा रहे तथा न ही भारतवर्ष, इसकी सभ्यता, इसके विकसित दर्शन-शास्त्र तथा इसकी मातृभाषा को महत्त्व दे पा रहे हैं। ऐसे लोग एक ऐसी खतरनाक भंवर में फंसे हैं कि ये अपने आपको किसी भी पाले में सुरक्षित महसूस नहीं कर पाने की महाव्याधि से ग्रसित हो गए हैं । आप आजादी के बाद हर दिन देख नहीं पा रहे हैं क्या कि कैसे ये लोग जो आजादी के शुरू से ही सत्ता में रहे हैं लेकिन फिर भी इनकी आत्मघाती अपनी जमीन से उखड़ी सोच के कारण, विदेशी भाषा के लाद देने के कारण तथा पाश्चात्य उधारी अनैतिक जीवन-शैली के कारण हमारा महान राष्ट्र हर दिन और गरीब, और अधिक असहाय, और अधिक दीन-हीन, और अधिक लापरवाह और अधिक अनैतिक, और अधिक अपनी जमीन से उखड़ा हुआ तथा और अधिक लूट-खसोट वाला बनकर रह गया है । सत्ता पर कब्जा जमाए लोग जिन कृत्यों को (हालांकि ये कुकृत्य ही अधिक हैं) आए दिन कर रहे हैं उन्हीं को जब इस देश का साधारण नागरिक करता है तो उसे जेल की हवा खानी पड़ती है । उसी काम को हमारा नेता करे तो ठीक लेकिन साधारण नागरिक करे तो गलत । हमारे यहां यदि नेता भ्रष्ट, बलात्कारी, देशद्रोही एवं डकैत हो तो वह और भी बड़ा नेता बन जाता है लेकिन यदि साधारण नागरिक किसी के हजार-दो हजार रुपया भी हड़प ले या किसी लड़की को घूर ले या छोटी कोई रिश्वतादि ले ले तो उसे तुरंत जेल में ठूंस दिया जाऐगा। यहां तो ऐसा लगने लगा है कि छोटा अपराध करो तो जेल में सड़ना पड़ेगा लेकिन यदि बड़े-बड़े अपराध करने में सक्षम हो जाओ तो उस व्यक्ति को नेता बनने से कोई नहीं रोक सकता । यह सब धर्म के क्षेत्र में नहीं चलता था लेकिन अब तो धर्मगुरु भी नेता ही बन गए हैं । करौंथा आश्रम जिला-रोहतक (हरियाणा) से निष्कासित तथा धर्म व अध्यात्म का अ, ब, स भी न जानने वाले रामपाल गंभीर आरोप लगने व जेल की हवा खाने से कुछ ही दिन में अखिल भारतीय संत व अरबों रुपये के स्वामी बन गए हैंे । ऐसे पाखंडी लोग धार्मिक न होकर राजनैतिक ही हैं । लोगों के भीतर छिपे भय का शोषण करके ऐसे चालाक व शातिर लोग अरबों रुपये की संपत्ति के स्वामी होकर खूब विलास भोग रहे हैं । सचखंड, सतलोकादि की मीठी गोलियां लोगों में बांटकर खूब भय को अपने व्यापार का माध्यम बनाया जा रहा है । भीतर यानि कि अपने स्वयं के भीतर अपने चित्त को शुद्ध करके कोई जा नहीं रहा है। इन पाखंडी धर्मगुरूओं ने धर्म, अध्यात्म, योग व इसकी ध्यान-विधियों को बहुत बड़ा व्यापार बना दिया है ।
ये धर्मगुरु, पुरोहित व राजनेता एक ही मंडी के आढ़ती हैं । इनके पहनावे, इनकी शैली तथा इनकी भाषा में फर्क हो सकता है परंतु ये सब हैं एक ही लूट की गाड़ी में सवार लुटेरे । साधारण जनता को भिन्न-भिन्न बहानों से लूटे जा रहा है । नेता टैक्स लगाकर और भ्रष्टाचरण करके साधारणजन को लूट रहा है जबकि धर्मगुरु सचखंड, सतलोक, स्वर्गादि का प्रलोभन देकर साधारणजन से उसकी मासिक आमदनी से एक निश्चित प्रतिशत दान के रूप में लेकर उनको लूट रहा है । दोनों के तरीके भिन्न-भिन्न हैं लेकिन लूट दोनों ही रहे हैं । संपत्ति, वैभव-विलास एवं सुख-सुविधाओं के अंबार दोनोंके पास ही प्रचुरता से हैं ।
यहां पर यह विशेष रूप से ध्यान रहे कि साधारणजन से मतलब कोई अनपढ़ अशिक्षित या देहांत में निवास करने वाले से ही न होकर सभी भारतवासियों से है । भीरूता, पाखंड, अज्ञानता गंवारपन या मूढ़ता जहां पर अनपढ़ों के पास है वहां पर उच्चशिक्षितों के पास भी है । ज्ञान का अर्थ जानकारियों से भरा हुआ न होकर सजग, संवेदनशील एवं होशपूर्ण होने से है । ज्ञान-अज्ञानी के संबंध में व्याप्त भ्रम का विच्छेदन भी होना अति आवश्यक है । एक अनपढ़ लेकिन होशपूर्ण ग्रामीण भी ज्ञानी कहा जाऐगा लेकिन एक उच्च शिक्षित परंतु संवेदनहीन एवं मुच्र्छित शहरी व्यक्ति अज्ञानी कहा जाऐगा । इस दृष्टि से अज्ञानी व्यक्तियों का आजकल बड़े-बड़े शिक्षा-संस्थाओं, शोध-प्रयोगशालाओं, विधान-सभाओं व लोक-सभाओं तथा बड़े-बड़े मठों पर कब्जा हो गया है ।
ऐसी विषम परिस्थिति में एक ही औषधि हमारे भारतवर्ष के महारोग की बच जाती है और वह है कि हम अपनी जमीन से फिर से जुड़ जाएं । हम अपनी बहु-आयामी संस्कृति व सभ्यता को फिर से अंगीकार करने लगें, हम अपने समृद्ध व वैज्ञानिक दर्शन-शास्त्र कसे फिर से सम्मान देने लगें, हम अपनी मातृभाषा का प्रयोग जीवन के हरेक क्षेत्र में करने लगें तथा हम अपनी ‘योग-साधना’ नामक विद्या का सहारा फिर से लेने लगें । पता नहीं हमारे नेताओं, हमारे धर्मगुरुओं, हमारे शिक्षकों, हमारे शिक्षा-शास्त्रियों हमारे सुधारकों एवं हमारे लेखकों व वैज्ञानिकों में कब अक्ल जागृत होगी कि वे फिर से अपनी जमीन से जुड़ जाएं, वे अपनी जड़ों को याद करें, वे अपनी मातृभाषा को अपनाएं, वे अपने जीवन-मूल्यों को स्वीकार करें । वह दिन भारतवर्ष के लिए ही नहीं अपितु समस्त धरा के लिए कल्याणकारी होगा। भारतवर्ष जागेगा तो ही समस्त धरा जागेगी । आए दिन होने वाले अनैतिक दुष्कर्म, बलात्कार, डकैतियां, भ्रष्टाचरण, बेहोशी, संवेदनहीनता, संग्रह-वृत्ति, लूटपाट, हिंसा, उपद्रव, तनाव, चिंता, हीनता की ग्रंथि, अहम् को महत्त्व देना आदि अपनी जननी, अपनी जन्मभूमि, अपनी भाषा, अपने दर्शन-शास्त्र, अपने लोकाचार, अपने जीवन-मूल्यों तथा अपनी संस्कृति व सभ्यता से उखड़ने के ही दुष्परिणाम हैं । व्याधियां कितनी ही हों लेकिन कारण उनके मूल में कुछ ही हैं । किसी पौधे को जमीन से उखाड़ दो तथा उसे खाद-पानी-हवा- प्रकाश भी मत दो; ऐसे में वह पौधा मरेगा ही मरेगा । ऐसी ही कुछ स्थिति भारतवर्ष की हो गई है । हमारे नेता, धर्मगुरू, योग- गुरू, लेखक, शोधार्थी, वैज्ञानिक, सुधारक, शिक्षाशास्त्री आदि सभी के सभी लगभग बिगाड़ के रास्ते पर हैं लेकिन वे सब भारतवर्ष, इसकी जनता तथा जनता के वर्तमान व भविष्य को स्वर्णिम एवं समृद्ध बनाने के दावे भी कर रहे हैं । ऐसी विरोधाभासी जीवन-शैली से भारतवर्ष का कल्याण कभी भी नहीं हो सकता । भारतवर्ष का कल्याण भारत वर्ष की भूमि से जुड़ने से ही होगा । विदेशी अनार्य एवं आसुरी जीवन-शैली से हमारा कल्याण संभव कभी भी नहीं है । हठधर्मिता त्यागकर हमें भारतीय बनना चाहिए । विदेशी अनार्य एवं आसुरी जीवन-शैली को अपनाने से भारतीय जीवन-मूल्यों के पालन की आशा युवक व युवतियों से नहीं की जा सकती । जागो भारत, जागो ।
-आचार्य शीलक राम
ये धर्मगुरु, पुरोहित व राजनेता एक ही मंडी के आढ़ती हैं । इनके पहनावे, इनकी शैली तथा इनकी भाषा में फर्क हो सकता है परंतु ये सब हैं एक ही लूट की गाड़ी में सवार लुटेरे । साधारण जनता को भिन्न-भिन्न बहानों से लूटे जा रहा है । नेता टैक्स लगाकर और भ्रष्टाचरण करके साधारणजन को लूट रहा है जबकि धर्मगुरु सचखंड, सतलोक, स्वर्गादि का प्रलोभन देकर साधारणजन से उसकी मासिक आमदनी से एक निश्चित प्रतिशत दान के रूप में लेकर उनको लूट रहा है । दोनों के तरीके भिन्न-भिन्न हैं लेकिन लूट दोनों ही रहे हैं । संपत्ति, वैभव-विलास एवं सुख-सुविधाओं के अंबार दोनोंके पास ही प्रचुरता से हैं ।
यहां पर यह विशेष रूप से ध्यान रहे कि साधारणजन से मतलब कोई अनपढ़ अशिक्षित या देहांत में निवास करने वाले से ही न होकर सभी भारतवासियों से है । भीरूता, पाखंड, अज्ञानता गंवारपन या मूढ़ता जहां पर अनपढ़ों के पास है वहां पर उच्चशिक्षितों के पास भी है । ज्ञान का अर्थ जानकारियों से भरा हुआ न होकर सजग, संवेदनशील एवं होशपूर्ण होने से है । ज्ञान-अज्ञानी के संबंध में व्याप्त भ्रम का विच्छेदन भी होना अति आवश्यक है । एक अनपढ़ लेकिन होशपूर्ण ग्रामीण भी ज्ञानी कहा जाऐगा लेकिन एक उच्च शिक्षित परंतु संवेदनहीन एवं मुच्र्छित शहरी व्यक्ति अज्ञानी कहा जाऐगा । इस दृष्टि से अज्ञानी व्यक्तियों का आजकल बड़े-बड़े शिक्षा-संस्थाओं, शोध-प्रयोगशालाओं, विधान-सभाओं व लोक-सभाओं तथा बड़े-बड़े मठों पर कब्जा हो गया है ।
ऐसी विषम परिस्थिति में एक ही औषधि हमारे भारतवर्ष के महारोग की बच जाती है और वह है कि हम अपनी जमीन से फिर से जुड़ जाएं । हम अपनी बहु-आयामी संस्कृति व सभ्यता को फिर से अंगीकार करने लगें, हम अपने समृद्ध व वैज्ञानिक दर्शन-शास्त्र कसे फिर से सम्मान देने लगें, हम अपनी मातृभाषा का प्रयोग जीवन के हरेक क्षेत्र में करने लगें तथा हम अपनी ‘योग-साधना’ नामक विद्या का सहारा फिर से लेने लगें । पता नहीं हमारे नेताओं, हमारे धर्मगुरुओं, हमारे शिक्षकों, हमारे शिक्षा-शास्त्रियों हमारे सुधारकों एवं हमारे लेखकों व वैज्ञानिकों में कब अक्ल जागृत होगी कि वे फिर से अपनी जमीन से जुड़ जाएं, वे अपनी जड़ों को याद करें, वे अपनी मातृभाषा को अपनाएं, वे अपने जीवन-मूल्यों को स्वीकार करें । वह दिन भारतवर्ष के लिए ही नहीं अपितु समस्त धरा के लिए कल्याणकारी होगा। भारतवर्ष जागेगा तो ही समस्त धरा जागेगी । आए दिन होने वाले अनैतिक दुष्कर्म, बलात्कार, डकैतियां, भ्रष्टाचरण, बेहोशी, संवेदनहीनता, संग्रह-वृत्ति, लूटपाट, हिंसा, उपद्रव, तनाव, चिंता, हीनता की ग्रंथि, अहम् को महत्त्व देना आदि अपनी जननी, अपनी जन्मभूमि, अपनी भाषा, अपने दर्शन-शास्त्र, अपने लोकाचार, अपने जीवन-मूल्यों तथा अपनी संस्कृति व सभ्यता से उखड़ने के ही दुष्परिणाम हैं । व्याधियां कितनी ही हों लेकिन कारण उनके मूल में कुछ ही हैं । किसी पौधे को जमीन से उखाड़ दो तथा उसे खाद-पानी-हवा- प्रकाश भी मत दो; ऐसे में वह पौधा मरेगा ही मरेगा । ऐसी ही कुछ स्थिति भारतवर्ष की हो गई है । हमारे नेता, धर्मगुरू, योग- गुरू, लेखक, शोधार्थी, वैज्ञानिक, सुधारक, शिक्षाशास्त्री आदि सभी के सभी लगभग बिगाड़ के रास्ते पर हैं लेकिन वे सब भारतवर्ष, इसकी जनता तथा जनता के वर्तमान व भविष्य को स्वर्णिम एवं समृद्ध बनाने के दावे भी कर रहे हैं । ऐसी विरोधाभासी जीवन-शैली से भारतवर्ष का कल्याण कभी भी नहीं हो सकता । भारतवर्ष का कल्याण भारत वर्ष की भूमि से जुड़ने से ही होगा । विदेशी अनार्य एवं आसुरी जीवन-शैली से हमारा कल्याण संभव कभी भी नहीं है । हठधर्मिता त्यागकर हमें भारतीय बनना चाहिए । विदेशी अनार्य एवं आसुरी जीवन-शैली को अपनाने से भारतीय जीवन-मूल्यों के पालन की आशा युवक व युवतियों से नहीं की जा सकती । जागो भारत, जागो ।
-आचार्य शीलक राम
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