होली आ गई है
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होली भी आ गई है।
मस्ती भी छा गई है।
लेकिन सब व्यर्थ सा
सुख पूरा खा गई है।।
उड रहे रंग गुलाल।
बेढंगी सी हुई चाल।
कोई भूखा सो गया
कुछ उड़ा रहे माल।।
किसी को रात है।
दुखभरी बात है।
रोना आ रहा बस
जीवन हवालात ह
फाग का हुड़दंग है।
अपना नहीं संग है।
दुःख बादल छा गये
बची नहीं उमंग है।।
पकी फसल तैयार है।
रुखा सा व्यवहार है।
कटना ही भाग्य बस
संतुलन तार-तार है।।
बादल भरी रात है।
निराशा बलात है।
शिखर से बोल रहा
प्रतिपल बस मात है।।
झोपड़ी में पडा है।
जीवन से उखडा है।
नीरवता व्याप्त बस
उपवन उजडा। है।।
तड़पाने को होली है।
बदरंग सी रंगोली है।
आजीवन श्रमरत
खाली क्यों झोली है।।
वीणा में नहीं सुर है।
आनंद बहुत दूर है।
जडवत सा परिवेश
हताशा ही प्रचूर है।।
सन्नाटा सा पसरा है।
यह तो कोई दूसरा है।
दरवाजा खटखटाया
यह तो दुख तीसरा है।।
दुख हुआ आने से।
नुकसान शरमाने से।
उसने इच्छा पूरी की
दुख हुआ जाने से।।
फाग नहीं आग है।
स्वच्छ जल झाग है।
अतृप्ति बढा रहा
पीड़ा देता राग है।।
सुन सको सुन लो।
कोई तृप्ति धुन लो।
जीवन व्यर्थ जा रहा
आत्मस्वरुप गुन लो।।
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आचार्य शीलक राम
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