आजादी के पश्चात् हमारे धर्माचार्यों को भी धर्म की अपेक्षा राजनीति में रस
अधिक लग रहा है! इसीलिये तो धर्माचार्य धर्म और अध्यात्म को छोडकर राजनीति
में आ रहे हैं! धर्म, अध्यात्म और योग बेडा बेड़ा गर्क करके अब ये राजनीति
का बेड़ा गर्क करने में लगे हैं! इससे यह भी सिद्ध होता है कि धर्म और
अध्यात्म से अधिक फायदा अब राजनीति में है! परमात्मा, आत्मा, मोक्ष आदि में
क्या रखा है? राजनीति में पद, प्रतिष्ठा, पैसा आदि भरपूर मौजूद हैं! जिसको
देखो वही राजनीति में भाग्य आजमा रहा है! धर्माचार्यों का राजनीति में
धडल्ले से आने का सिलसिला सनातन धर्म में सर्वाधिक है! ईसायत और इस्लाम में
यह कम देखने को मिल रहा है! सनातन के तो अधिकांश धर्माचार्य या तो विधायक,
सांसद, मंत्री आदि बने बैठे हैं या फिर धूर्त नेताओं के लिये वोट मांगकर
राजनीति के माध्यम से अपना लूटपाट और धोखाधड़ी का जुगाड़ करने में मेहनत कर
रहे हैं! सही बात तो यह है कि इन्होंने राजनीति और धर्म दोनों को विषाक्त
करके भ्रष्टाचार का अड्डा बनाने में मदद ही की है! भारतीय जनमानस की बिजली,
पानी, सिंचाई, आवास, सडक, चिकित्सा, बेरोजगारी, शिक्षा आदि की समस्याओं के
समाधान में हमारे धर्माचार्यों की कोई रुचि नहीं है! जनमानस की खून पसीने
की गाढ़ी कमाई पर पलने वाले धर्मगुरुओं को जनमानस की जमीनी समस्याओं से कोई
सरोकार नहीं रह गया है! सनातन धर्म और संस्कृति में संन्यासी, स्वामी,
ऋषि, मुनि, योगी, शंकराचार्य, सिद्ध, नाथ आदि की जो भूमिका और मर्यादा
निर्धारित की गई है,उससे इनका कोई लेना देना नहीं है! बस, सभी जनमानस को
धर्म,अध्यात्म, योग आदि की आड लेकर अपनी अय्याशी का जुगाड़ करने पर लगे
हुये हैं!
दर्शनशास्त्र एक ऐसा विषय रहा है जिसमें धर्म, अध्यात्म, योग, राजनीति,
अर्थव्यवस्था, व्यापार, वाणिज्य, विज्ञान, खेतीबाड़ी, रक्षा आदि सभी विषयों
को तर्क और युक्ति के तराजू पर तोलकर स्वीकार या अस्वीकार किया जाता है!
लेकिन जानबूझकर इस विषय को बर्बाद कर दिया गया है! वजह केवल यही है ताकि
अपनी लूटपाट और धोखाधड़ी को निर्बाध चलाये रखा जा सके! इसीलिये इस समय भारत
में दर्शनशास्त्र विषय सर्वाधिक उपेक्षित है!
हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि आज के सनातनी कहलवाने वाले धर्मगुरु जनता
जनार्दन की सेवा नहीं कर रहे हैं अपितु उल्टे जनता जनार्दन से सेवा करवा
रहे हैं!ईसाई धर्मगुरु इस मामले में बेहतर कार्य कर रहे हैं! सात समुन्द्र
पार से आकर भारत के दुर्गम पहाड़ी, जंगली और दूरदराज के इलाकों में सेवा
करना कोई हंसी खेल नहीं है! हमारे सनातनी धर्मगुरु,
मठाधीश,शंकराचार्य,भिक्षु, महंत,स्वामी, योगी, मुनि भारतीय होते हुये भी
सेवा का कार्य नहीं कर रहे हैं!इनकी अकड सातवें आसमान से ऊंची है!इनको जब
तक अपमानित नहीं किया जाता है, तब तक ये अपने महलनूमा आश्रमों,
मठों,विहारों, गुरुकुलों, सत्संग घरों से बाहर नहीं निकलते हैं! जिन
सहिष्णुता, समन्वय, करुणा,सर्वे भवन्तु सुखिनः आदि गुणों के कारण सनातन
भारतीय संस्कृति धरा पर अग्रणी मार्गदर्शक रही है, वे गुण आज नदारद हैं!
हमारे अधिकांश सनातनी धर्मगुरुओं की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक,
आध्यात्मिक क्षेत्रों में आवश्यक जीवन-मूल्यों में अरुचि होने के कारण
जनमानस का इनसे विश्वास उठ गया है!इन अय्यास,अनैतिक, निठल्ले और आचरण
भ्रष्ट धर्मगुरुओं की दुष्ट जीवन शैली के कारण जनमानस का इनके ऊपर से भरोसा
समाप्त हो गया है!पिछले दशकों में आमतौर पर भारतीय साधु ,संतों, गीता
मनीषियों,गीता मर्मज्ञों, स्वामियों, संन्यासियों, नाथों और सिद्धों को
आवारा, अपराधी, निठल्ले और कामचोर समझा जाने लगा है!ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि
हमारे साधु संतों ने सनातन धर्म और संस्कृति के जीवन मूल्यों को छोडकर
धर्म और संस्कृति को दुकानदारी बना दिया है! इन्हें अपना पेट भरने से मतलब
रह गया है! बस, जैसे जैसे अपना स्वार्थ पूरा हो जाये! भारत में एक करोड़
ऐसे निठल्ले साधुओं की भीड़ मौजूद है! इनका मानव सेवा, समाज सेवा, धर्म
सेवा, संस्कृति सेवा, राष्ट्र सेवा से कोई भी लेना देना नहीं है! बस, आवारा
घूमते रहते हैं, नशा करते हैं चोरी करते हैं तथा अनैतिक कामों में लिप्त
पाये जाते हैं! इन करोड़ में मुश्किल से एक लाख ऐसे होंगे जिनके पास आलीशान
महलनूमा मठ,आश्रम,योग केंद्र, डेरे, सत्संग घर,नाम केंद्र,मजार आदि उपलब्ध
हैं! इनका जीवन राजकुमार,राजा, महाराजा, सम्राटों जैसा भव्यता लिये हुये
आधुनिक सुविधाओं से संपन्न विलासितापूर्ण है! कहाँ हमारे यहाँ संन्यासी के
लिये एक स्थान पर तीन दिन से अधिक नहीं रुकने का विधान था और कहाँ आज के ये
अय्याशी करने वाले तथाकथित नकली साधु, महात्मा,पीर ,फकीर आदि? सच तो यह है
कि जनमानस ने थोड़ा बहुत सनातन धर्म और संस्कृति को अपने निज प्रयास से
बचाकर रखा हुआ है! इन नकली, निठल्ले, अय्याशी करने वाले साधु महात्माओं ने
तो सनातन धर्म और संस्कृति को समाप्त करने के सारे जुगाड़ कर रखे हैं! वेद,
उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, स्मृति, धर्मसूत्र, व्याकरण,निघंटु, निरुक्त,
महाकाव्य, आयुर्वेद, ज्योतिष , श्रीमद्भगवद्गीता आदि के अध्ययन अध्यापन
करने करवाने की तो इन साधु महात्माओं को स्वप्न में भी नहीं सुझती है!पूरे
भारत में कोई एक भी विश्वसनीय और विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय मौजूद नहीं
है, जिसमें सनातन धर्म और संस्कृति की पढ़ाई, लिखाई ,अभ्यास आदि हो
सके!ईसाईयत और इस्लाम को मानने वालों ने अपने मजहब की शिक्षाओं के प्रचार
प्रसार के लिये विश्व स्तरीय आलीशान विश्वविद्यालय खोले हुये हैं! लेकिन
भारत में सनातन धर्म और संस्कृति के अध्ययन और अध्यापन के लिये ऐसी कोई
व्यवस्था नहीं है! न हमारे इन तथाकथित नकली साधु महात्माओं को इसकी चिंता
है तथा न ही नेताओं को! कुरुक्षेत्र में इस समय चलने वाले गीता जयंती
महोत्सव में आपको श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षाओं के लिये अनुकरणीय कुछ भी
देखने और जानने को नहीं मिलेगा! पूरे ब्रह्मसरोवर पर दुकानदारी ही
दुकानदारी तथा सरकार का प्रचार ही देखने को मिल रहा है! इन मूढों से कोई
पूछे तो कि यह गीता जयंती महोत्सव किस दृष्टिकोण से है?
सैमिनार, गोष्ठी, संत सम्मेलन आदि के नाम पर वही घिसी-पिटी ऊबाऊ बातें तथा
वही राजनीति, धर्म,संस्कृति की आड में दुकानदारी चलाने वाले शोषक
चेहरे!श्रीमद्भगवद्गीता जैसे कालजयी भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेश को साधु
महात्माओं और जनमानस द्वारा आचरण में उतारने के लिये पूरे आयोजन में कोई
उत्साह और व्यवस्था नहीं है!
गीता जयंती महोत्सव में तथाकथित गीता मनीषी,साधु, संन्यासी, स्वामी, योगी,
प्रोफेसर वही भैंस जुगाली वाली रटी हुई पंक्तियों को दोहराते हुये मिल
जायेंगे कि गीता में दुनिया की सभी समस्याओं के कारण और निवारण समाधान
मौजूद हैं! इनसे कोई पूछे तो कि यदि यह सच है तो गीता की मदद से भारत से
बेरोजगारी,अशिक्षा, बेकारी, भूखमरी, आवास, बिजली, पानी, सिंचाई, कुपोषण,
भ्रष्टाचार, अपराध की समस्याओं का समाधान ही कर दो!किसानों की समस्याओं का
समाधान कर दो! किसान कुरुक्षेत्र के समीप ही एक वर्ष से धरना दे रहे
हैं!गीता की मदद से कुरुक्षेत्र का बाईपास ही बनवा दो! कुरुक्षेत्र
विश्वविद्यालय की हालत ही सुधार दो! स्वयं ब्रह्मसरोवर की दयनीय हालत को ही
ठीक कर दो! इस समय चल रही गीता जयंती की ट्रैफिक की जर्जर हो चुकी समस्या
को ही ठीक करवा दो! और तो और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षाओं को जनमानस और
साधु महात्माओं के आचरण में उतारने को ही सार्थक करवा दो! गीता के आधार पर
इनमें से किसी समस्या का समाधान तो करवाकर दिखलाओ! बस, तोतों की तरह गीता
के श्लोक दोहराने से कुछ भी सार्थक, रचनात्मक धार्मिक नहीं होनेवाला है!
कुरुक्षेत्र में ही स्थित भारत के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में गीता अध्ययन
केंद्र तथा बाकी विश्वविद्यालय में श्रीमद्भगवद्गीता पर एक भी ढंग की
शोधपरक पुस्तक, व्याख्या या भाष्य नहीं लिखा गया है! क्या गीता में इसका
कोई समाधान मौजूद है?
दिखिये-
1) गीता, 3/8 में ‘नियतं कुरु कर्म’ कहा है!
2) गीता, 6/25 में ‘शनै:शनैरुपरमेद बुद्ध्या धृतिगृहीतया’ कहा है! 3) गीता,
6/34 में’ चंचलं हि मन: कृष्णा: प्रमाथि बलवद्दृढम्’ कहा है!
4) गीता, 2/41 में ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ कहा है!
5) गीता, 2/48 में ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय’ कहा है!
6)गीता, 9/29 में ‘समो हं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यो स्ति न प्रिय:’ कहा है!
7) गीता, 3/21 में ‘ यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवोतरो जन:’ कहा है!
8) गीता, 2/3 में ‘क्लैब्यं मा सम गम: पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते’ कहा है!
9) गीता, 2/48, 49 में ‘सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा’ तथा ‘कृपणा फलहेतव:’कहा है!
10)गीता, 2/59 में ‘परं दृष्ट्वा निवर्तते’ कहा है!
11)गीता, गीता का सातवां पूरा अध्याय ‘ आत्मसंयमयोग’ शीर्षक से है!
12)गीता, 4/38 में ‘न हि सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ कहा है!
13)गीता, 6/5 में ‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मामवसादयेत्’ कहा है!
14)गीता, 1/32 में ‘न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च’ कहा है!
15)गीता, 2/48 में ‘सुखेदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ कहा है!
16)गीता, 18/67 में ‘इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन’ कहा है!
17) गीता,18/2 में ‘सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षण:’ कहा है!
18) गीता, 18/63 में ‘विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु’ कहा है!
श्रीमद्भगवद्गीता की उपरोक्त सीख कोई भी साधु, महात्मा, कथाकार, गीता मनीषी
अपने आचरण में उतारने को तत्पर नहीं दिखाई देता है! इसके विपरीत सभी मिलकर
भारत की बहुसंख्यक मेहनतकश पुरुषार्थी किसान और मजदूर आबादी का शोषण करने
में लगे हुये हैं! प्रतिभाशाली युवा वर्ग उपेक्षा का शिकार होकर निराशा के
गर्त में डूबा हुआ है!गिने चुन हुये लोग सत्ता के सहयोग से भारत की अधिकांश
पूंजी, सुख सुविधाओं तथा संसाधनों पर कब्जा किये बैठे हैं!गीता का मुख्य
उपदेश अन्याय, अव्यवस्था और अधर्म के विरोध में लडना है!लेकिन जब उपेक्षित
लोग अपने साथ हो रहे जुल्म,भेदभाव,शोषण आदि का विरोध करते हैं तो ये
तथाकथित गीता मनीषी, गीता मर्मज्ञ, कथाकार, स्वामी, संन्यासी, साधु,
महात्मा और महामंडलेश्वर आदि कौरवों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं! अपने
अधिकार के लिये लडने वाले, स्वधर्म का पालन करने वाले तथा फल की चिंता न
करके कर्म करने वाले किसान, मजदूर, बेरोजगार युवा तथा सैनिक को गद्दार,
पाकिस्तानी,खालिस्तानी, देशद्रोही आदि की उपाधि देते हैं! शायद इन्होंने
श्रीमद्भगवद्गीता के किसी एक श्लोक को भी ध्यान से नहीं पढा होगा!
…………
आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119
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