Saturday, November 16, 2024

ट्विन फ्लेम्स,सोलमेट्स, कार्मिक : तंत्र की आड़ में पनपता हुआ नया धंधा (Twin Flames, Soulmates, Karmics: A new Business Flourishing under the Guise of Tantra)

        सनातन भारतीय  संस्कृति जानने वालों की संस्कृति है, मानने वालों की नहीं! यह संस्कृति तर्क, विचार, चिंतन, विमर्श, संदेह, जिज्ञासा, प्रश्न उठाने पर आधारित आध्यात्मिक संस्कृति है! यह कारणवादकार्यवाद को मानती है!यह किसी पाखंड और ढोंग को प्रश्रय नहीं देकर तर्कबुद्धि से निष्पक्ष निर्णय लेने को महत्व देती है! यहाँ तक कि आध्यात्मिक विषयों पर भी यह सर्वप्रथम तर्क की आंखों से देखने की समर्थक रही है!यहाँ पर तो तर्क और युक्ति की मदद से किसी परिणाम पर पहुंचने को 'न्याय' कहा जाता रहा है!हजारों वर्षों से इसके लिये एक अलग से 'न्यायशास्त्र' नामक विषय का प्रचलन रहा है! वेदों, उपनिषदों से होते हुये महाभारत,श्रीमद्भगवद्गीता, सिद्धार्थ,महावीर, चार्वाक कुमारिल, शंकराचार्य, रामानुज तक तथा आधुनिक समय में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, कृष्णमूर्ति,ओशो और राजीव भाई दीक्षित तक तर्क और युक्ति को महत्व दिया जाता रहा है!बारहवीं सदी के पश्चात् तो 'नव्य न्याय' की एक ऐसी परंपरा भी शुरू हुई, जिसमें आध्यात्मिक विषयों को छोडकर केवल तर्क और युक्ति को ही महत्व दिया गया है! 'नव्य न्याय' की इस विचित्र परंपरा में समकालीन पाश्चात्य परंपरा में पैदा हुई सभी फिलासफिक चिंतन के बीज निहित रहे हैं!

    सनातन संस्कृति में एकतरफा ईमान लाने, विश्वास लाने,प्रायश्चित करने से पाप मुक्ति को कभी भी महत्व नहीं दिया गया है! पाप कोई व्यक्ति करे तथा उन पापों से मुक्ति कोई आकाश में विराजमान गाड या शक्ति दिलवाये, सनातन संस्कृति में ऐसा कभी नहीं माना गया है! जिसने भी पापकर्म, अनैतिकता, दुष्कर्म, अन्याय आदि किये हैं, उसको अपने खुद के पुरुषार्थ से मुक्त होना होगा! कर्म और फल के बीच में कोई दलाली नहीं चलेगी! कर्म और फल के बीच में कोई गुरु, पैगम्बर, मसीहा, अवतार, फकीर, महापुरुष हस्तक्षेप नहीं कर सकता है! यदि किसी ने नैतिक/अनैतिक कोई भी कर्म किया है, तो उसका फल भी भुगतना पडेगा! इसके लिये कोई क्षमा या प्रायश्चित या छूटकारा नहीं होता है!

    ध्यान रहे कि भारत में पिछली कई सदियों से बिना फल का भोग किये पाप मुक्ति की अवधारणा का प्रचलन भारतीय नहीं होकर सैमेटिक/अब्राहमिक प्रभाव है!यह यहुदी, ईसाईयत और इस्लाम से आयातित है! पिछली कई सदियों से भक्ति और कथाओं पर आधारित अनेक गुरु और कथाकार इस आयातित अवधारणा कि भारत में खूब प्रचार कर रहे हैं! यह सनातन भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शनशास्त्र और जीवनमूल्यों के बिलकुल विपरीत है! इससे मानवता का सर्वाधिक अहित हो रहा है! जब बिना फल का भोग किये ही केवल ईमान लाने या प्रायश्चित करने से पापों से मुक्ति मिल जाती हो, तो फिर कौन व्यक्ति पापकर्म नहीं करना चाहेगा? फिर पापकर्म चोरी, जारी, दुष्कर्म, बलात्कार, झूठ, कपट, अन्याय, अनैतिकता आदि करके कोई व्यक्ति क्यों फल की चिंता करेगा?बिना फलभोग किये पापों से तो मुक्ति मिल ही जानी है! धार्मिक जगत् में बेशक इस अवधारणा को धार्मिक माना जाता हो,लेकिन वास्तव में इस अवधारणा ने पाश्चात्य जगत् को उच्छृंखल, शोषक, अत्याचारी, भोगवादी और युद्ध पिपासू बना दिया है! भारत भी अब इस अवधारणा की चपेट में आ चुका है! इस सैमेटिक अब्राहमिक से प्रभावित भक्ति और कथाओं की आड़ में चलने वाले सैकड़ों संप्रदाय तथा हजारों धर्माचार्यों ने भारतीय जनमानस के आचरण और चरित्र को दुषित कर दिया है!

    शिव शक्ति/यिन यांग/ट्विन फ्लेम्स/पुरुष प्रकृति के सर्वोच्च नियमानुसार जीवन व्यतीत करना समाज,देह, प्राण,मन, विचार, भाव के प्रति दर्शक,द्रष्टा, साक्षी होकर प्रबोध की अनुभूति है! यह साधना जटिल हो चुके संसार में कष्टसाध्य, पीडाकारी और बाधाओं से भरी हुई है! लोग इस दौरान गलत तत्वों के चंगुल में फंसकर अपना शोषण करवा बैठते हैं! बहुत अधिक धैर्य की जरूरत होती है!लेकिन आजकल के मनुष्य में इसी धैर्य की सर्वाधिक कमी है! सभी को तुरंत फल चाहिये! समकालीन भ्रष्ट एवं जुगाड़ी व्यवस्था में कर्म करने के बाद भी मनचाहा फल मिलना लगभग असंभव हो चुका है! ऐसे में जिनके पास कोई रिश्वत और सिफारिश नहीं है, वो लोग सफलता से दूर ही रहने को विवश होते हैं!दूसरी तरफ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापन बाजार ने युवा-वर्ग की भोग वासना को भडकाकर उसे उन्मुक्त भोगी बना दिया है! नैतिक मूल्यों को को वह तोडता जा रहा है! बस जहाँ से भी हो उसे भोग भोगने के लिये साधन चाहियें! इसके साथ साथ अधिकांश भोजन भी कामुकता को भडकाने वाला ही उपलब्ध है! फिल्मी संसार और सौशल मीडिया ने कामुकता को भडकाने में आग में घी का काम किया है!आपाधापी और भागदौड के इस दौर में  किसी के पास किसी के दुख, दर्द, पीड़ा और अकेलेपन को बांटने के लिये समय नहीं है!सभी सभी के सामने सुख, संतुष्टि और तृप्ति पाने के लिये झोली फैलाये खड़े हैं!लोगों के पास दूसरों को देने के नाम पर दुख, दर्द, पीड़ा हताशा, तनाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है! युवक और युवतियों के पास  अपने प्रेम संबंधों में  एक दूसरे को देने के लिये विफलता के सिवाय कुछ भी नहीं है!बेरोजगारी और कमरतोड़ महंगाई ने युवाओं को और भी अधिक चिंता, भय, हताशा, अकेलेपन और घुटन से भर दिया है!

    चारों तरफ असुरक्षा से घिरे युवक- युवतियों के इसी भय का फायदा उठाने के लिये पश्चिम से आई ट्विन फ्लेम्स, सोलमेट्स, कार्मिक की एक नयी ऊलजलूल अवधारणा ने अपनी पैठ बनाने का काम किया है! क्योंकि पाश्चात्य विचारक सारे मानवीय नैतिक मूल्यों को तोडकर सदैव ही आर्थिक लाभ कमाने के अवसरों की तलाश में रहते आये हैं! उपरोक्त अवधारणा से पालित पोषित  लूटखसोट की जीवनशैली ट्विन फ्लेम्स, सोलमेट्स,कार्मिक आदि का प्रचलन पिछले कुछ दशकों से धडल्ले से हो रहा है!सौशल मीडिया पर इसके लिये सैकड़ों यू ट्यूब चैनल मौजूद हैं!प्रेम संबंधों में असफल युवक और युवतियां अपने असफल प्रेम संबंधों से उपजी हताशा, असफलता, अकेलेपन, तनाव, चिंता आदि की पूर्ति इस काल्पनिक  ट्विन फ्लेम्स, सोलमेट्स, कार्मिक,प्रेम अर्धांग, दिव्य अदृश्य साथी आदि की अवधारणा में तलाश करके अपने बहुमूल्य समय के साथ अपनी मानसिकता को भी खराब कर रहे हैं!मिलना कुछ भी नहीं है!बस, एक आश्वासन मिलता है कि उनके साथ कुछ अदृश्य शक्तियों का खेल -तमाशा हो रहा है!

    इस भुलभूलैया में फंसे अनेक युवक और युवतियां गलत तत्वों के चंगुल में उलझकर अपना शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण करवा रहे हैं!यहाँ वहाँ से जानकारियां एकत्र करके अनेक यूट्यूबर मनघड़ंत कल्पनाओं के जाल बुनकर युवा वर्ग को दिग्भ्रमित करने में लगे हुये हैं! इस शोषक अवधारणा के मूल में सिर्फ और सिर्फ उच्छृंखल सैक्स,कामवासना,उन्मुक्त भोग वासना, असफल प्रेम संबंध, दैहिक शोषण, परस्पर धोखाधड़ी,अविश्वास, झाडफूंक आदि मौजूद हैं! मूलतः इस अवधारणा के बीज सुकरात-प्लेटो-अरस्तू के डायलाग्ज,बाईबल की कहानियाँ, कुछ पौराणिक प्रसंगों को लेकर इन सब पर लाखों वर्षा पुरातन 'भारतीय तंत्र परंपरा' का तडका लगा देना रहा है!इससे तंत्र परंपरा भी बदनाम हो रही है! पाश्चात्य विचारकों में सनातन भारतीय संस्कृति के किसी भी पक्ष को समझने की प्रायोगिक व्यावहारिक क्षमता नहीं है! बस,अपने सीमित अध्ययन के आधार पर मनघड़ंत, ऊलजलूल, पूर्वग्रहपूर्ण व्याख्याएँ करने बैठ जाते हैं! विलियम जोन्स, मैकाले, मैक्समूलर, मार्क्स आदि तथा इनके चेलों ने पिछली दो सदियों के दौरान यही तो किया है!
आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136118

तंत्रयोग,अर्धनारीश्वर और ट्विन फ्लेमस की अवधारणा (Tantra Yoga, Ardhanarishvara and the Concept of Twin Flames)

  
  
          विवाह कोई  केवल प्रेम -प्यार की स्थली न होकर एक सामाजिक जिम्मेदारी अधिक है! हां, यदि प्रेम प्यार हो जाये,तो वह सोने पर सोहागा कहा जायेगा! वैसे सनातन भारतीय संस्कृति में मौजूद आठ प्रकार के विवाह बंधन में प्रथम चार में माता पिता और घर परिवार की सहमति से सब कुछ होता है!बाकी चार प्रकार के विवाह में दैहिक आकर्षण,यौन ऊर्जा तथा रंग रुप आदि की प्रधानता रहती है! समाजशास्त्री इन्हें इसे प्रेम विवाह कहने की गलती करते हैं!वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है!बस,विपरीत लिंगि युवक युवतियां काम ऊर्जा की गहनता के विशेष स्तरों की साम्यता के परस्पर आकर्षित होते हैं!वरना जिन्होंने परस्पर एक दूसरे को कभी देखा तक नहीं, उनमें प्रेम संबंधों की व्याख्या किस आधार पर कर सकते हैं? आखिर बाहरी यौन आकर्षण,रंग रुप तथा हावभाव आदि को प्रेम संबंध कैसे कहा जा सकता है?
        विवाह में प्रेम प्यार हो या न हो , लेकिन व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास या बोझ अवश्य होता है! विवाह बंधन में आये  हरेक गृहस्थी को इसे निभाना ही पडता है! जहाँ सैमेटिक अब्राहमिक सभ्यता में यह एक समझौता है, वहाँ पर सनातन भारतीय संस्कृति में यह एक सामाजिक संबंध या रिश्ता या जिम्मेदारी का अहसास है! पश्चिम में जहाँ विवाह को केवल कामवासना की पूर्ति तक सीमित कर दिया गया है, वहीं पर सनातन भारतीय संस्कृति में इसे कामेच्छा पूर्ति, संतानोत्पत्ति, संतान के पालन- पोषण, सामाजिक जिम्मेदारी  के पहलूओं सहित धर्म से जोडकर भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि का वाहन जाना गया है!सृष्टि में इससे अधिक वैज्ञानिक, व्यावहारिक, वास्तविक, नैतिक व्यवस्था मौजूद नहीं है! हजारों वर्षों के अनुभव और शोध के बाद इसे अपनाया गया था!
        भारत के एक प्रसिद्ध योगाचार्य स्वामी राम ने अपनी पुस्तक 'लिविंग विद द हिमालयन मास्टर्ज' में योगियों की चमत्कारी हिलिंग पावर  के संबंध में बतलाते हुये कहा है कि यह भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीन प्रकार की होती है! यदि कोई महापुरुष इस पावर के प्रयोग को शिष्यों के आत्मिक उत्कर्ष के लिये प्रयोग नहीं करके इसे एक व्यापार बना लेता है, वह पथभ्रष्ट हो जाता है!क्योंकि ऐसा करने से उसका अहंकार बीच में आ जाता है! वह सार्वभौमिक चेतना से अलग होकर व्यक्तिगत चेतना के केंद्र पर आ जाने से अपने आपको अस्तित्व से काट लेता है! ऐसे व्यक्ति की चमत्कारी हिलिंग पावर समाप्त हो जाती है! चमत्कारी महापुरुष सार्वभौमिक चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं! बीच में 'मैं' के आते ही सब गुड गोबर हो जाता है! ट्विन फ्लेम्स, सोलमेट्स और कार्मिक जैसे चैनल चलाने वाले सभी लोग व्यावसायिक हित को लिये हुये होते हैं! ये न तो खुद को हील कर सकते हैं तथा न ही अन्यों को! इनकी एक ही योग्यता है कि ये वाक् कला में प्रवीण होते हैं! इन्हें बातों की जलेबियां बनाना बखूबी आता है! आजकल के केवल चमड़ी तक सीमित  प्रेम प्यार में असफल   युवक और युवतियां इनके मोहपाश में जल्दी ही फंस जाते हैं! बेसिर पैर के हवा हवाई और बेतुकी वार्ताओं के लुभावने जंगल में एक बार फंसे तो कभी इससे बाहर नहीं निकल पाते हैं! अनेकों की इससे जिंदगी तबाह हो जाती है! अनेक युवतियां इससे शारीरिक शोषण का शिकार होती है!
        इनके कल्पनालोक के अनुसार 'ट्विन फ्लेम्स' एक ही आत्मा के दो हिस्से होते हैं!इनकी परस्पर तलाश करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है!इनके साथ गहन अंतरंगता, आत्मीयता, समझ, मैत्रीभाव,यौनसम्बन्ध, यौनाकर्षण, टैलीपैथिक संबंध की अनुभूति होती है! कयी बार किसी के जीवन में ट्विन फ्लेम्स और सोलमेट्स दोनों एक साथ आ जाते हैं! इससे जीवन में विषाद भर देनेवाली हलचल पैदा हो जाती है! 'सोलमेट्स'  एक समान जीवन-शैली, सोच,व्यवहार,समझ और आचरण की दो आत्माओं का परस्पर मिलना है!इनके साथ- संग रहने में काफी अच्छा महसूस होता है!इनके साथ जीवन जीना सहज लगता है!
        'कार्मिक' वो सम्मिलित बुरी- अच्छी आत्माएं हैं जो एक साथ दुखदायी और सुखदायी होती हैं!इनके साथ पूर्व जन्मों के कोई कर्म संस्कार बचे हुये होते हैं, जिनका भुगतान इस जन्म में करना होता है!इनके साथ तुरंत प्रेम और विरह होना संभव होता है! ये अंतरंग होते हुये भी संदेह, अविश्वास और भ्रम लिये हुये होती हैं! इनकी पहचान करने के लिये कयी प्रकार के लक्षणों का विवरण दिया जाता है!
        उपरोक्त तीनों प्रकार की आत्माओं की पहचान करने के लिये चिन्ह और लक्षण बतलाये गये हैं! स्प्रिट,घोष्ट, भूत, प्रेत, जिन्न, पिशाच, पीर,बाबाओं और परियों की डरावनी और रोमांचक कहानियों के इस झाड- झंखाडयुक्त जंगल में एक बार जिसने प्रवेश कर लिया, उसका यहाँ से निकलना असंभव कर दिया जाता है! और तो और अपने ट्विन फ्लेम्स की पहचान करके उससे मिलन के लिये कुछ मैडिटेशन भी बतलाई जाती हैं! इन मैडिटेशन का आध्यात्मिक प्रगति से कोई भी संबंध नहीं होता है! ये मैडिटेशन मात्र अवचेतन मन को सुझाव देने पर आधारित होती हैं! आप अपने आपको जैसे भी सुझाव दोगे, आपको वैसे ही महसूस होना शुरू हो जाता है! तंत्रयोग, मनोविज्ञान,यहुदी- ईसाई- इस्लामी-युनानी पौराणिक कहानियों का बेमेल और विचित्र सा मिश्रण तैयार करके बड़ी चालाकी से सोशल मीडिया पर प्रस्तुत किया जाता है!प्रेम -प्यार- रोमांस में असफल युवक और युवतियों को यह हकीकत की तरह लगता है! बस, वो अपने सभी सफल -असफल  प्रेम संबंधों का समाधान ढूंढने के लिये दिन- रात इनके कल्पनालोक में खोये रहते हैं! आज के वैज्ञानिक युग में यह सब पाखंड और ढोंग खूब चल रहा है!
        जैसे ज्योतिषी जनमानस को बेवकूफ बनाते हैं, ठीक वैसा ही यह एक लूटपाट का धंधा है!जैसे ज्योतिष में गणित ज्योतिष ठीक है तथा फलित ज्योतिष एक धंधा है, ठीक उसी तरह से तंत्रयोग में शिव और शक्ति की अवधारणा प्रायोगिक सत्य अनुभव और खोज पर आधारित है, जबकि यह ट्विन फ्लेम्स, सोलमेट्स, कार्मिक की अवधारणा सैक्सुअल शोषण पर टिकी हुई है!दुनिया में मूढताएं भी खूब चलती हैं! दुनिया में विश्वास पर आधारित हिप्नोसिस भी खूब काम करती है! चिकित्सा विज्ञान में भी फंक पावडर, गोली, सीरप खूब काम करते हुये देखे जाते हैं! इस तरह की चिकित्सा से ठीक होने वाले लोग मानसिक रुप से बिमार होते हैं! ऐसे मानसिक रोगियों को जहाँ से भी कुछ दिव्य, अदृश्य और चमत्कारी शक्तियों से हीलिंग का आश्वासन मिलता है, वो वहीं पर एकत्र हो जाते हैं! लेकिन ध्यान रहे कि यह किसी बिमारी का सही और स्थायी समाधान नहीं है! इससे कुछ समय के लिये राहत महसूस हो सकती है! फिर फिर उन्हीं हीलर्स के पास बार- बार चक्कर काटने पडेंगे!क्योंकि नकली बिमारियों का नकली ही समाधान हो सकता है! इप प्रकार की नकली बिमारियों का यदि कोई असली समाधान करना है तो मन के काम करने के ढंग को समझना होगा! मन का अवलोकन आवश्यक है! युवक और युवतियों के प्रेम -प्यार- विरह -धोखे -शोषण से जुडी विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिये किसी जानकार तंत्रयोगी,राजयोगी,हठयोगी से प्रायोगिक योगाभ्यास सीखकर आगे बढना होगा!युवक और युवतियों की जिन समस्याओं का समाधान योगाभ्यास से स्वयं व्यक्ति के आचरण के सुधार और परिष्कार में छिपा हुआ होता है, उसके लिये इन पाखंडियों और ढोंगियों के के जाल में फंसना जरुरी नहीं है!
आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119

Tuesday, November 12, 2024

श्रद्धा तर्क, तर्कबुद्धि तथा ईश्वर (Faith, Logic, Reason and God)

         श्रद्धा अपने उपास्य के प्रति समर्पण है, तर्क प्रत्येक पहलू की जांच करके कार्य करना है, तर्क श्रद्धा जीवन में तर्क का प्रयोग करना है। इन सबकी कसौटी पर ईश्वर का क्या स्थान है, श्रद्धालु भावुक होते हैं, तार्किक बौद्धिक होते हैं जबकि तर्कबुद्धि वालों का गुण तर्क से जीवन जीना है। समर्पण का आधर श्रद्धा होती है। संशयग्रस्त व्यक्ति कभी परमात्मा को नहीं पा सकता। बीसवीं शदी संशय से भरी हुई है। विज्ञान प्रत्येक वस्तु पर संशय सिखलाता है। अतः यह शदी परमात्मा व आध्यात्मिकता से बहुत दूर चली गई है। आत्मानुभूति और ईश्वरानुभूति के लिए श्रद्धा की मनोवृत्ति अत्यावश्यक है। आज के युग में श्रद्धा के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। लेकिन गुरुओं व उनके शिष्यों की जीवन शैली ऐसी है कि वे श्रद्धा के स्थान पर अंध्विश्वास की शरण में चले जाते हैं। इस अंध्विश्वास को श्रद्धा कहना सरासर गलत है। श्रद्धा में तो अहम् का विसर्जन होता है जबकि ये तथाकथित श्रद्धावान पूरे अहंकारी होते हैं। परिवर्तन सच्ची श्रद्धा द्वारा ही संभव है, अंधविश्वास से नहीं। तर्क चेतन मन की वस्तु है। उससे हम किसी के चेतन मन को ही प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन अचेतन मन-हृदय अछूता ही रह जाता है। चेतन मन का प्रभाव क्षणिक ही होता है, इसीलिए तो किसी को तर्क में पराजित करके हम उसका हृदय परिवर्तन नहीं कर सकते। कोई बदल तो तभी सकता है जबकि उसका अचेतन मन प्रभावित हो जाए। यह कार्य तर्क से नहीं हो सकता। धर्मिक वाद-विवाद का कहीं कोई अंत नहीं है। हृदय के प्रभावित होने पर ही मनुष्य में परिवर्तन होता है। तर्क या वाद-विवाद से लोगों का हृदय परिवर्तन होता है तो अब तक करोड़ों-करोड़ों लोगों करुणा व प्रेम के अवतार बन जाते। लेकिन ध्रती तो दिन-प्रतिदिन नारकीय ही बनती जा रही है। व्यक्ति का हृदय श्रद्धा से प्रभावित होता है, जबकि तर्क या वाद-विवाद बुद्धि का विषय है। तर्क व वाद-विवाद से बुद्धि जब थक जाती है तो वह श्रद्धा पर जाने को उत्सुक हो पाती है। सम्मोहन की अवस्था में यही तो होता है। उस अवस्था में जबकि हम चेतन होते हैं, हमारा चेतन मन तर्क व संशय में उलझा रहता है। जब सम्मोहन से ऊपरी मन को सुला दिया जाता है, तो अचेतन मन को जो कहा जाता है, वह वही स्वीकार कर लेता हैं श्रद्धा, समर्पण की भावदशा में भी तर्क व बुद्धि शांत हो जाते हैं तथा हृदय सीधे ही प्रभावित होता है। उस समय अंतर्मन का सीध संबंध ईश्वर से हो जाता है। ईश्वर से शक्ति, प्रेम, करुणा, श्रद्धा व आनंद की लहरें प्रभावित होकर हममें प्रवेश करने लगती हैं। बिना पूरी श्रद्धा व समर्पण के अंतर्मन में पूरा बदलाव संभव नहीं है। वह श्र(ा, समर्पण आदि किसी भी विषय के प्रति हो सकता है। वह ईश्वर, गुरु या किसी देवता के प्रति हो सकता है। वह किसी महान व्यक्ति के प्रति भी हो सकता है। इसीलिए तो भाव के जगत् में व्यक्ति को कुछ का कुछ दिखाई देने लगता है। जैसा भी उसका भाव या श्रद्धा होते हैं, उसको वैसा-वैसा ही दिखलाई देने लगता है। यह सब चमत्कार श्रद्धा या भाव का ही है। आजकल भाव का अर्थ बहुत ऊपरी ही लिया जाता है। भाव व भावना में कोई अंतर नहीं माना जाता है। बंगाल में तो भावना को चिंता के अर्थ में लिया जाता है।  भावना करते-करते जिस वस्तु का जो रूप बन जाए, उसको भी भाव नाम दिया जाता है। भाव से भावित पुरुष होने वाली मनोवृत्ति को भावुकता कहते हैं। भावुकता से तात्पर्य समझा जाता है कि जो भावना में बह जाता हो या जो अध्कि कल्पना प्रधन हो या जो तर्कहीन हो। प्रेम, अनुराग व श्रद्धा को भी भाव के अर्थ में कभी-कभी ग्रहण किया जाता है। प्रेमी, भावुक, लु, करुणावान व अनुरागी सभी पुरुषों का हृदय भावनाओं के प्रभाव से द्रवीभूत हो जाता है। श्रद्धालुओं को भी भावुक ही कहा जाता है। श्रद्धालु या भावुक व्यक्ति भावनाओं के अनुसार अनेक प्रकार की कल्पनाएं करके उसी के राज्य में जीवन-यापन करने लगता है। भक्ति इससे भी उच्च अवस्था है। वैष्णव संप्रदाय में भाव को सदैव पवित्र अर्थ में लिया जाता है। इसी श्रद्धा, भाव, करुणा, प्रेम, अनुराग व भक्ति का यदि कोई साधक अपनी साधना बना लेता है तो वह ईश्वर का साक्षात्कार तक कर सकता लेता है। वहाँ पर तर्कादि का कोई स्थान नहीं है।
    तर्क या बुद्धि का राज्य विचार या बुद्धि तक ही है। भाव, भक्ति या श्रद्धा के जगत् में उसकी कोई भी पहुंच नहीं है। वहाँ पर यह सब पीछे हट जाता है। तर्क, वाद-विवाद, विचार व बुद्धि से बोझिल व्यक्ति श्रद्धा के जगत् में प्रवेश कर ही नहीं सकता। उस अवस्था तक पहुंचने हेतु व्यक्ति या साध्क को इस बोझ से छुटकारा पाना ही होगा। योग की किसी भी पद्धति की साधना करने वाले व्यक्ति हेतु यह सब अति आवश्यक है। यहाँ तक कि चार्वाक, जैन व बौद्ध भी इसी पथ से आगे बढ़े तथा आत्म साक्षात्कार किया था। आजकल इनका जो स्वरूप है वह काफी पूर्ण स्वरूप से स्वार्थवश व दुकानदारी चलाने हेतु बदल दिया गया है। जैन, महावीर, सिद्धार्थ बुद्ध, चार्वाक या कोई साम्यवादी भी यदि साधना करता है या उसने की है तो तर्क-तर्क बुद्धि का साथ छोड़कर उसे भी श्रद्धा, आस्था, प्रेम, करुणा, अनुराग व भक्ति का सहारा ही लेना पड़ता है। तर्क व तर्क बुद्धि वहाँ पर सिर धुनते हैं।
    उस अवस्था को ‘नेति-नेति’ कहकर अर्थात् यह भी नहीं कहकर तर्क या तर्क बुद्धि को संतोष करना पड़ता है। उपनिषद् ने भी उस अवस्था का निर्देश  ‘आदेशो नेति-नेति’ कहकर किया है। यदि उसका उपदेश करना हो तो निषेधमुख से करना पड़ेगा। लेकिन यह ध्यान रहे कि ‘नेति-नेति’ से ब्रह्म के बुणों का विशेषणों का निर्वचनों का निषेध् होता है, स्वयं ब्रह्म या ईश्वर का नहीं। नेति-नेति से ब्रह्म या ईश्वर की निर्विशेषता सिद्ध होती है, उसकी शून्यता नहीं। महर्षि याज्ञवल्क्य बृहदारण्य उपरिषद में कहते हैं कि दृष्टा का दर्शन, विज्ञात का विज्ञान असंभव है, क्योंकि जिसके द्वारा यह सब दृश्य-प्रचंच जाना जाता है, उस विज्ञात को विज्ञेय या विषय के रूप में कैसे जाना जा सकता है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि जो भी तर्क या तर्कबु्द्धि की पहुंच से परे है उसका विज्ञान या उसके द्रष्टापन कभी लुप्त नहीं होते हैं।
    ईश्वर के अस्तित्व को केवल इसी  आधार पर नहीं नकारा जा सकता कि तर्क या तर्क बुद्धि उसको जान नहीं सकते। इनसे भी ऊपर भाव, श्रद्धा, आस्था या व्यक्ति का जगत् है। क्या पश्चिमी देशों के या क्या भारत के वे महान् भौतिकविद्, वैज्ञानिक या पदार्थवादी जो केवल तर्क-वाद-विवाद-विचार-बुद्धिकौशल के बल पर ही पूरे जीवन कार्य व विश्वास करते रहे, वे अपने जीवन के अंतिम दिनों में ईश्वरवादी, श्रद्धालु, आस्थावना या भक्तिपूर्ण होते देखे जाते हैं। वे अक्सर भारत के विभिन्न भागों में स्थित ओशो रजनीश, जिद्दू कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण, रविशंकर, रामदेव या अन्यों के आश्रमों में ध्यान करते देखे जा सकते हैं। संसार के लिए तर्क, तर्कबुद्धि या विचार का महत्वपूर्ण योगदान व स्थान है क्योंकि पदार्थ के क्षेत्रा में उन्नति इनके बिना नहीं हो सकती। परंतु श्रद्धा, आस्था करुणा, भाव प्रेम व भक्ति के जगत् में प्रवेश तर्क या तर्क बुद्धि से न होकर समर्पण से ही होगा, साधना से ही होता। संसार मंतर्क या तर्कबुद्धि से भले ही हम काम चला लें, लेकिन अध्यात्म के जगत् में या ईश्वर के जगत् में श्रद्धा से ही प्रवेश हो सकेगा। जो वैज्ञानिक बुद्धि के लोग या पदार्थवादी या निरीश्वरवादी कहते हैं कि श्रद्धा आदि से शोषण ही होता है, अन्य किसी प्रकार की उपलब्धि इससे नहीं हो सकती। वे यह भूल जाते हैं कि वे स्वयं भी तो किसी न किसी वाद, सि्द्धांत, मतादि के प्रति श्रद्धा रखते होंगे, चाहे वह ईश्वर को नकारने का ही मत क्यों न हो। यदि वे तर्क या तर्क बुद्धि या संदेह से ही सांसारिक सपफलताएं प्राप्त करना मानते हैं तो वे इन पर भी संदेह क्यों नहीं करते? तार्किक व संदेहशील भी पूरी तरह से तार्किक या संदेहपूर्ण नहीं हो सकता।
    जीवन में यदि संतुलन बनाना है तो विरोधें में सामंजस्य बनाना होगा। जीवन को यदि भलि प्रकार से संचालित करना है तो उसमें विरो्धी शक्तियों, विरो्धी पक्षों तथा विरो्धी ऊर्जाओं का होना अत्यावश्यक है। जीवन एकपक्षीय नहीं है। जीवन के अनेक पक्ष व अनेक रंग हैं। हम अपने जीवन में केवल तर्क या तर्कबुद्धि को ही क्यों स्वीकार करें? श्रद्धा व ईश्वर आदि को क्यों नहीं मानें हम? जीवन न तो केवल तर्क या तर्कबुद्धि से चल सकता है तथा न ही केवल श्रद्धा व ईश्वर को मानने से चल सकता है। जीवन में सामंजस्य, इन दोनों विरोधी लगने वाले पक्षों में सामंजस्य से ही आ सकता है। तर्क या तर्कबुद्धि तथा श्रद्धा या ईश्वर में कोई विरोध् नहीं है। विरोध्, विवाद या नकार के प्रश्न व्यक्ति ने स्वयं ही उत्पन्न किए हैं। तर्क या बुद्धि विचार को प्रधानता देती है, वह टुकड़ों में देखने की अभ्यस्त है या यों कहें कि वह किसी अखंड सत्ता के संबंध् में सोच भी नहीं सकती। व्यक्ति की सार्थकता इस संसार में रहते हुए यही हो सकती है कि तर्क या तर्क बुद्धि से अपने सांसारिक जीवन को समृ्द्ध बन कर करुणा, या ईश्वर के क्षेत्रद में प्रवेश करें। इसके बगैर व्यक्ति अशांत, तनावग्रस्त व अधूरा बना रहेगा। संपूर्ण जीवन में तृप्त जीवन में, शांत जीवन में, आनंदित जीवन में श्रद्धा व तर्क बुद्धि का होना जरूरी है। जो इनमें संतुलन साध लेता है, वह ईश्वर तक की यात्रा करने में सहज ही समर्थ हो जाता है। यही सनातन आर्य भारतीय वैदिक संस्कृति का संदेश है, जिसके कारण यह भूमि सदैव से विश्वगुरु की उपाधी से अलंकृत होती आई है।     
आचार्य शीलक राम 
असिस्टेंट प्रोफेसर 
दर्शन-विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अध्यक्ष 
आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)


भगवान् बुद्ध वेद विरोधी तथा नास्तिक नहीं थे । (Lord Buddha was not anti-Veda or an Atheist)

 

       कुरुक्षेत्र की भूमि सृष्टि-उत्पत्ति के प्रारम्भ से ही धर्म, अध्यात्म, योग, संस्कृति, आचरण एवं जीवन-मूल्यों की स्थापना व प्रचार-प्रसार हेतु महत्त्वपूर्ण रही है । धर्म-अधर्म के निर्णय हेतु महाभारत नाम का विश्वयुद्ध इसी भूमि पर हुआ था तथा उससे निकली एक अद्भूत एवं अनुपम विश्व साहित्य की कृति ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ । पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्ण ने विषाद में फंसे अर्जुन को एक ऐसा पथ आज से 5000 वर्ष पूर्व बतलाया जिसकी उपादेयता व प्रासंगिकता आज भी यथावत् है । अनिर्णय के भंवर में उलझे हुए तथा सामाजिक रूप से उचित-अनुचित व शुभ-अशुभ का निर्णय करके ‘स्व’ की यात्रा करवाने हेतु भगवान् श्रीकृष्ण का गीतोपदेश समकालीन युग हेतु उतना ही जरूरी एवं पथ-प्रदर्शक है, जितना कि द्वापर युग व कलियुग के संधिकाल में था।

        भगवान् बुद्ध के संबंध में जिस प्रकार से यह प्रचारित कर दिया गया कि वे वेद व वैदिक धर्म के कट्टर विरोधी तथा नास्तिक थे - इन सब पर विचार करके दर्शन-शास्त्र, धर्म व बौद्ध-दर्शन के विद्वानों की सोच पर तरस आता है । कुछ भारतीय विद्वानों तथा पश्चिम के भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह व पक्षपात रखने वाले विद्वानों ने अपनी दुकानें चमकाने व आजीविका चलाने हेतु कई शदी पूर्व ही भगवान् बुद्ध के संबंध में अनाप-शनाप लिखना शुरू कर दिया था । सर्वप्रथम यह कार्य अपने आपको भगवान् बुद्ध का अनुयायी कहने वालों ने ही किया था, पाश्चात्य विद्वानों ने तो यह कार्य अभी लगभग दो सदी पूर्व लार्ड मेकाले के अंग्रेजी शासनकाल से ही शुरू किया गया था । इसके पश्चात् तो बौद्ध संप्रदाय व इसकी शिक्षाओं के संबंध में अटपटे सिद्धान्तों की पुष्टि की जाने लगी तथा जिस सनातन आर्य वैदिक धर्म में आई विकृतियों को दूर करने हेतु इसका उद्भव हुआ था- उसी का धुर विरोधी इसको सिद्ध किया जाने   लगा । चिंतकों, विद्वानों, मनीषियों, दार्शनिकों व विचारकों के भी अपने पूर्वाग्रह होते हैं । अंतर सिर्फ इतना है कि जहाँ पर साधारणजन के पूर्वाग्रह मामूली होते हैं, वहीं पर महान् व्यक्तियों के पूर्वाग्रह विशिष्ट एवं बड़े-बड़े होते हैं । साधारणजन के पूर्वाग्रहों पर कौन चिंतन करता है, जबकि महान चिंतक या दार्शनिक कहे जाने वाले व्यक्तियों के पूर्वाग्रहों को सत्य मानकर बड़े-बड़े सम्प्रदायों की अट्टालिकाएं खड़ी कर दी जाती हैं । बाद के चिंतक इन्हीं को सत्य मानकर तर्कों का जाल बुन देते हैं ।

         भगवान् बुद्ध स्वयं वेदों के प्रशंसक थे एवं आर्य वैदिक संस्कृति के वट वृक्ष की छत्रछाया में ही वे पले-बढ़े एवं देहावसान को प्राप्त हुए थे । उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं इसका इस बुरी तरह से अनर्थ किया जाएगा कि आस्तिक-नास्तिक के भंवर में समस्त धरा के लोगों को उनका नाम लेकर फंसा दिया जाएगा । वे स्वयं वैदिक सनातन हिन्दू धर्म में आई विकृतियों से चिंतित थे तथा इन्हीं को दूर करने हेतु उन्होंने राजसी ठाठ-बाट छोड़कर आजीवन कड़ी मेहनत की । उनका उद्देश्य मात्र अपने धर्म में आई विकृतियों को दूर करना था, अन्य कुछ नहीं । हीनयान, महायान, स्थविरवाद, महासांघिक, वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, शून्यवाद व स्वतंत्रविज्ञानवाद जैसे दार्शनिकों सिद्धान्तों के तर्कजाल में उनकी मूल देशनाएं इस बुरी तरह से लुप्त हो जाएंगी- उन्होंने शायद ही कभी ऐसा सोचा होगा । लेकिन यह सब तो उनके साथ हुआ है। संसार में हर महान् पुरुष की शिक्षाओं का उनके अनुयायी इसी तरह से अनर्थ करते हैं तथा अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु उनका दुरुपयोग करते हैं । भगवान् बुद्ध के जन्म के चार सदी पश्चात् तक भी उनकी मूल शिक्षाएं ही लोगों को प्राप्त होती रही थी । 400 वर्ष पश्चात् तक भी आज भगवान् बुद्ध के नाम से प्रचारित क्षणभगवाद, शून्यवाद, अनात्मवाद व निरीश्वरवाद आदि सिद्धान्त इस रूप में ज्ञात तक नहीं थे। इस तरह के विचार वैसे वैदिक सनातन साहित्य में अति प्राचीन काल से ही विद्यमान रहे हैं । विचारकों ने इन सिद्धान्तों व विचारों के संबंध में शास्त्रार्थ व वाद-विवाद आदि भी खूब किए हैं, लेकिन भगवान् बुद्ध द्वारा ही इन सिद्धान्तों या मतों का उद्भव मानना अज्ञानता व मूढ़ता ही कहा जाएगा । विचार, तर्क, चिंतन, शास्त्रार्थ व वाद-विवाद की परम्परा भारत में सनातन से है । इसी परंपरा का एक हिस्सा भगवान् बुद्ध थे । भगवान् बुद्ध की तरह आधुनिक काल में स्वामी दयानंद सरस्वती एक प्रसिद्ध तार्किक, दार्शनिक व समाज सुधारक हुए हैं । उनका उद्देश्य आर्य वैदिक हिन्दू सभ्यता व संस्कृति की रक्षा करना था । उनके इस प्रयास को कुछ अज्ञानी सनातनी हिन्दू कहे जाने वाले लोगों ने इस्लाम व ईसाईयत का कुचक्र सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया । जिस व्यक्ति का जीवन ही भारत व भारतीयता हेतु सदैव समर्पित रहा था, उनके संबंध में इस तरह का घृणित दुष्प्रचार धर्म व योग को अपनी आजीविका का साधन समझने वाले लोगों ने ही किया था । ठीक इसी तरह की मूढ़ता व दुष्ट प्रवृत्ति का परिचय भगवान् बुद्ध के साथ उनके अनुयायियों ने दिया । मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने जरूर अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने हेतु ग्रन्थों का सृजन किया होगा, लेकिन उनके देहावसान के दो सदी पश्चात् उनके तथाकथित केवल आजीविका के लोभ व प्रसिद्धि के भूखे अंध-श्रद्धालुओं ने उनकेा नष्ट कर दिया होगा । भगवान् बुद्ध पढ़े-लिखे थे, वे किन्हीं पुस्तकों की रचना नहीं करते - ऐसा कैसे हो सकता है। महापुरुषों के साथ उनके अंध-शिष्यों द्वारा ऐसा दुव्र्यवहार अकसर होता आया है । शाब्दिक वाद-विवाद की बजाय अनुभव या अनुभूति पर जोर देना, अव्याकृत प्रश्नों पर मौन धारण करना आदि के संबंध में तो महत्त्वपूर्ण जानकारियां कोई विवेकी जन ही बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन से निकाल सकता है । इसके साथ उनके अनुयायियों द्वारा उनके नाम पर शुरू किए गए विभिन्न सिद्धान्तों यथा क्षणभंगवाद, अनात्मवाद, निरीश्वरवाद, शून्यवाद आदि का महत्त्वपूर्ण विवरण व ये सब विभिन्न बौद्ध दार्शनिकों ने किस स्वार्थ व पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर शुरू किए थे तथा समकालीन युग में उनके व उनके अनुयायियों के नैतिक, धार्मिक व दार्शनिक विचारों की क्या उपादेयता व प्रासंगिकता हो सकती है - इसके संबंध में काफी खोज करने की जरूरत है । ब्राह्मण व श्रमण परम्पराओं का नाम लेकर शिक्षा संस्थानों के उच्च कोटि के शिक्षक व दार्शनिक काफी भ्रम पहले ही फैला चुके हैं । ज्ञात संसार में भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का सर्वाधिक दुरुप्रयोग हुआ है । उनके अपने अनुयायियों ने ही उनकी शिक्षाओं की जो मनमानी व्याख्याएं करके पूरे बुद्ध के समाज सुधार आन्दोलन को बदनाम किया है - उसकी मिसाल समस्त धरा पर अनुपलब्ध है । 

आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

अध्यक्ष
आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)


दर्शन एवं विज्ञान (Philosophy and Science)-Acharya Shilak Ram

    आज विज्ञान के बारे में सब जानते हैं लेकिन जिस विषय से विज्ञान का जन्म हुआ तथा जिसे भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने ‘विज्ञानों का विज्ञान’ कहा है उस विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ को शायद ही कोई जानता होगा । प्रारंभ में एक ही विषय था तथा उसकी शाखा-प्रशाखारूप अन्य विविध विषयों का अध्ययन-अध्यापन किया जाता था । वह एक ही विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ था । इसके प्रमाणस्वरूप हम ‘पीएच॰ डी॰’ की उपाधि को ले सकते हैं । इसका पूरा अर्थ है ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ । किसी भी विषय में किए गए गहन शोध हेतु उपाधि पीएच॰ डी॰ की ही दी जाती हे । हिन्दी में किए गए शोध को ‘डॉक्टर ऑफ ’हिंदी’ नहीं कहते तथा न ही फिजिक्स में किए गए गहन शोध को ‘‘डॉक्टर ऑफ  फिजिक्स’ कहते । किसी भी विषय में गहन शोध हो और उसे उपाधि दी जाऐगी ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’  की उपाधि प्रदान करना विषयों के आदिमूल यानि सब विषयों के आदि पिता ‘दर्शन-शास्त्र’ को दिया गया सम्मान है ।

    यह ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ‘विज्ञान’ विषय से कतई नजदीक है। आज इस विषय के संबंध में जानकारी तक भी न होना तथा ‘विज्ञान’ विषय का जन-जन तक विस्तार होना यह दर्शाता है कि आज का विकास एक-पक्षीय विकास है । कोई पुत्र यदि अपने माता-पिता को ही भूल जाए तो इसे किसी तरह से संतान का सही विकास नहीं कहा जाऐगा । ‘विज्ञान’ यानि कि ‘Science’ जिसे लैटिन शब्द ‘साईंटिया’ से आया है उसका अर्थ ‘देखना’ होता है । ‘दर्शन’ का अर्थ भी देखना होता है । इस तरह से भी ये दोनों विषय बेहद नजदीकी लगते हैं । दोनों विषयों का कार्य ‘देखना’ है। विज्ञान बाहरी वस्तुओं को देखकर उनका विश्लेषण करता है तथा उनके मूल-तत्त्वों का ज्ञान देखने वाले को प्रदान करता है । इससे हमारा बाहरी सांसारिक जीवन समृद्ध, वैभवपूर्ण एवं सुखपूर्ण बनता है। ‘दर्शन-शास्त्र’ भी बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है तथा उनके संबंध सिद्धांत-निर्माण करता है । लेकिन ‘दर्शन-शास्त्र’ यहीं पर रूक नहीं जाता है । यह विषय ‘विज्ञान’ विषय की तरह बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है, सिद्धांत-निर्माण करता है लेकिन फिर ‘क्यों’ का उत्तर तलाश करने का भी प्रयास करता है । ‘विज्ञान’ के पास सिर्फ ‘कैसे’ का उत्तर देने की क्षमता है जबकि ‘दर्शन-शास्त्र’ इस ‘कैसे’ से गहरे जाकर ‘क्यों’ का उत्तर भी ढूंढता है । परमाणु को इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन एवं प्रोटोन में तोड़ने की विधि विज्ञान दे सकता है लेकिन यह सब इतनी शक्ति जो उससे उत्पन्न होती है यह ‘क्यों’ होता है - इसका उत्तर ‘विज्ञान’ के पास न होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ के पास है । परमाण मैं निहित इस शक्ति का आदि स्त्रोत ‘परमात्मा’ है । उस आदि स्त्रोत के संबंध में केवल ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ही विस्तार एवं गहनता से बतला सकता है । आप को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘विज्ञान’ से जब किसी भी क्षेत्र के ‘क्यों’ का उत्तर मांगा जाता है तो उसके पास ‘अवैज्ञानिक उत्तर’ यह होता है कि मुझे नहीं पता । इसीलिए विज्ञान हमें प्रसन्नता सुख, वैभव एवं समृद्धि दे सकता है लेकिन आदर, समर्पण, तृप्ति, संतुष्टि एवं आनंद नहीं दे सकता है । विज्ञान का कार्य मात्र बाहरी समृद्धि प्रदान करना है । आतंरिक समृद्धि आऐगी ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय से ।

    विज्ञान बाहरी विषयों का अध्ययन एवं विश्लेषण करके बाहरी जीवन को सुखी तो बना सकता है, परन्तु उसका सबसे बड़ा दोष यह है कि वह ‘जानने वाले’ के संबंध में ‘दर्शन-शास़्’ हमें बतलाता है । और इस ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को ‘विज्ञानों का विज्ञान’ इसलिए भी कहा जाता है कि क्योंकि यह बाहरी विषयों को देखकर ‘देखने वाले’ को देखने की भी सीख देता है । यह यह सीख देकर ही चुप नहीं बैठ जाता अपितु ‘योग-साधना’ के रूप में प्रयोगात्मक विधियों का अभ्यास भी करवाता है जिनसे व्यक्ति - कोई भी व्यक्ति बाहरी संसार को जानकर अपने स्वयं को भी जान लेता है। इस स्वयं के जानने में ही व्यक्ति की सर्व समस्याओं का समाधान है । हम बाहरी संसार को जानते हैं लेकिन अपने स्वयं को नहीं जानते - यह कितनी दयनीय स्थिति है हमारी व हमारे संसार की?

‘विज्ञान’ से हम अपने बाहरी संसार को समृद्ध बनाएं तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ से अपने भीतरी जीवन को समृद्ध बनाएं-यही आज के युग की सब से बड़ी जरूरत है । इस हेतु यह आवश्यक है कि ‘विज्ञान’ विषय के साथ ‘दर्शन-शास्त्र’ की भी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था हम अपने शिक्षा-संस्थानों में करें । ‘विज्ञान’ विषय की अति-लोकप्रियता तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की अति-उपेक्षा हमारे संसार को पतन एवं विनाश की तरफ ले जा रही है तथा आगे भी यह प्रचलन रहा तो हमारी समकालीन सभ्यता को इस पतन व विनाश में जाने से कोइ्र रोक नहीं सकता । व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण धरा के सर्वांगीण विकास हेतु ‘विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र’ दोनों विषयों को समान महत्त्व दिया जाना जरूरी है ।

    भारत एवं भारत से बाहर आए दिन गंभीर अपराध यथा जनसंहार, हत्याएं, आतंकवाद, उग्रवाद, बलात्कार, अनाचार, बदले की भावना, ईष्र्या की भावना, द्वेष की भावना, तनाव, चिंता, आपाधापी, अति-प्रतियोगिता हिंसा, युद्धादि हो रहे हैं । शांति, संतुष्टि, तृप्ति, प्रेम, करुणा, समर्पण, सेवा, आदर एवं अहोभाव तो जैसे इस संसार से विदा ही हो गए हैं । इसकी जड़ में जाने के गंभीर प्रयास हो नहीं रहे हैं । ऊपरी लोपा पोती करके चिकित्सा की जाती है । इससे होता यह है कि ये इस तरह की व्याधियां और भी भयंकर रूप धारण करती जा रही हैं । आज का विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज-विज्ञान आदि सब के सब अंधविश्वासी पाखंडी व ढोंगी सिद्ध हो रहे है । इस मामले में जिस तरह धर्म के नाम पर पाखंड, ढोंग व अंधविश्वास व्याप्त हैं उससे कई गुना अधिक पाखंड ढोंग व अंधविश्वास विज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त है । ऊपरी सुख-सुविधाओं एवं समृद्धि की सारी सामग्री तो विज्ञान ने उपलब्ध करवा दी, परंतु भीतरी समृद्धि, भीतरी वैभव, भीतरी संतुष्टि, भीतरी आनंद एवं तृप्ति हेतु विज्ञान ने आज तक कुछ भी नहीं किया है । अपने क्षेत्र की उन्नति करना उसकी वैज्ञानिकता है लेकिन अपने से परे के क्षेत्र की अवहेलना करके उसकी सत्ता से ही मना कर देना उसकी घोर अवैज्ञानिकता है । अरे! वैज्ञानिक तो वह होता है जो प्रयोग करने पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है । विज्ञान के क्षेत्र में तो धर्म के क्षेत्र की तरह वैज्ञानिकों को यह रटाया जाता है कि भगवान नहीं होता, धर्म नहीं होता, कोई अदृश्य शक्ति नहीं होती तथा केवलमात्र पदार्थ ही होता है । कई दशकों से तो विज्ञान भी पदार्थ की गहराई में जाकर यह सिद्ध कर चुका है कि पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है अपितु भगवान (ऊर्जा) की ही सत्ता है । ये वैज्ञानिक है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं शदी की ही वैज्ञानिक खोजों पर अटके हुए हैं ।

    तो ‘विज्ञान’ अपनी खोजों एवं उपलब्धियों से बाहरी संसार को भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान करे तथा फिर ‘दर्शन-शास्त्र’ को कह दे कि लो भाई अब आप अपना काम कीजिए । यानि कि बाहरी सुख-सुविधाएं हमने जुटा दीं, अब भीतरी तृप्ति व संतुष्टि आप एकत्र कीजिए । लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है । सर्वत्र ‘विषयों’ का चिंतन तो खूब चल रहा है लेकिन ‘विषयी; की तरफ किसी का ध्यान शायद ही जाता होगा । कोई थोड़ा-बहुत ध्यान देता भी है तो उसे पुराजंद थी एवं अंधविश्वासी कहकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। इस ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘धर्म’, ‘नीति’, ‘योग’ व अध्यात्म की घोर उपेक्षा करने के पीछे राजनेताओं, वैज्ञानिकों एवं धर्म का व्यापार करने वालों तथा साम्यवादियों का गहरा स्वार्थ एवं षड्यंत्र भी है । विज्ञान की तरह इस क्षेत्र को भी व्यापार बना देने को उत्तेजित ऐसे काफी राजनेता, धर्मगुरु, योगाचार्य व मनोवैज्ञानिक तथा योगाचार्य यह चाहते हैं कि यदि इसी तरह से असंतुलित विकास चलता रहा तो उनकी दुकानें भी भलि तरह से चलती रहेंगी । आखिर डाॅक्टर की दुकान, बिमारों पर, वकीलों की दुकान झगड़ों पर, गुरुओं की दुकान बुद्धूओं पर ज्ञानियों की दुकान अज्ञानियों पर तथा व्यवसायियों की दुकान उपभोक्ताओं पर ही तो चलती है । ‘दर्शन-शास्त्र’ की समकालीन युग में घोर उपेक्षा के पीछे ये उपर्युक्त लोग भी हैं ।

    सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञान, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी तो चाहेंगे कि लोग भीतर व बाहर दोनों तरफ से समृद्ध व तृप्त हों । परंतु ऐसे सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञानी, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी सदैव से कुछ ही होते आए है । इनमें से अधिकांश तो भेष किसी अन्य का ओढ़े रहते हैं तथा वास्तव में होते कुछ अन्य ही हैं । तो ‘दर्शन-शास्त्र’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन, सर्व-विषयों के पिता तथा बाह्य व भीतरी जीवन को समृद्ध बनाने में सक्षम विषय के दुश्मन ‘विज्ञान’ आदि विषय तो हैं ही, इसके साथ-साथ इसके समर्थक व रक्षक कहे जाने वाले भी इसकी नैया को डुबाने में पीछे नहीं है । आज टी॰ वी॰ के कई चैनलों पर दिन-रात ‘योग’ के संबंध में प्रवचन झाड़ने वाले या सनातन भारतीय आर्य हिंदू सभ्यता व संस्कृति पर दिन-रात अपनी मनमोहक वाणी से लोगों के दिलों पर राज करने वाले या लाखों लोगों की भीड़ कभी भी जमा करके कथा-वाचन करने वाले कथाकार या लाखों चेलों के गुरु ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘योगा साधना’ व अध्यात्म को भारत में उचित स्थान क्यों नहीं दिलवा पाए हैं? सही बात यह है कि वे वास्तव में ऐसा करना चाहते ही नहीं हैं । उन्हें तो बस डाॅक्टरों, वकीलों आदि की तरह अपनी दुकानें ही भलि तरह से चलानी है । जागो भारत! जागो!! सही जीवन-शैली व कुछ वास्तवकि कर-गुजरने की आग अपने भीतर रखने वाले व्यक्तियों को आगे आना ही होगा । जिस तरह से तथाकथित बुरे लोगों में एकता होती है, उसी तरह से अच्छे व्यक्तियों को भी एकता से कार्य करना ही होगा । ‘विज्ञान’ व ‘दर्शन-शास्त्र’ तो गाड़ी के दो पहियों की तरह या व्यक्ति के दो पैरों की तरह हैं । गाड़ी के दोनों पहिए तथा व्यक्ति के दोनों पैर यदि सही-सलामत होंगे तो ही गाड़ी व व्यक्ति सही तरह से गति पर पाएंगे । अन्यथा तो दुर्गति, अव्यवस्था, मारामारी, तनाव, चिंता, बदले की भावना, आपाधापी एवं उपद्रव व युद्ध होते ही रहेंगे । बिमारी को ठीक करने हेतु सही चिकित्सा करनी होगी, केवल दिखावा करने या लीपापोती से काम नहीं चलेगा । संतान इतनी बड़ी कभी नहीं होती कि वह अपने माता-पिता से बड़ी हो जाए- इसी तरह अन्य विषय कितनी भी तरक्की कर लें लेकिन वे ‘दर्शन-शास्त्र’ से बड़े नहीं हो सकते । पदों, कुर्सियों, गद्दियों एवं साधनों पर जहरीले सांपों की तरह कुंडलियों मारे समर्थ लोग शायद ही कभी हकीकत को समझ पाएं - इसकी चिकित्सा यही है कि दबे-कुचले, अभावग्रस्त, अधिकारहीन, उपेक्षित लेकिन प्रतिभावान, जमीन से जुड़े लेकिन दयनीय हालत को प्राप्त लोगों को कुछ ज्यादा ही उग्र, उत्तेजित, सचेत एवं होशपूर्ण होना होगा । एकांगी विकास से छुटकारा होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को केवल तभी ही उचित स्थान सम्मान मिल पाना संभव हो सकेगा। चुप बैठ जाना कायरता है । इससे तो केवल अनधिकारियों एवं दुष्ट-प्रवृत्ति वालों को बढ़ावा ही मिलता है । तो जागो भारत जागो ।।

    एक तरह से राजनेताओं, धर्मगुरुओं, पुरोहितों, वैज्ञानिकों एवं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने दुनिया को (विशेषकर भारत को) गुलाम बनाकर रखा हुआ है । एक नए तरह की गुलामी है यह । पूर्वकाल में भारत को केवल एक विदेशी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी ‘ईष्ट इंडिया’ ने गुलाम बनाकर रखा हुआ था लेकिन अब तक यहां भारत में करीब चार हजार ऐसी कंपनियां हैं जो जमकर यहां का माल लूट रही हैं । ऐसी कंपनियों ने भारतवासियों के खान-पान, रहन-सहन, दिनचर्या, मनोरंजन को अपने कब्जे में लेकर यहां के लोगों की सेहत, चरित्र व आचरण को भ्रष्ट करके रख दिया है । 1947 ई॰ के पश्चात् शासन करने वाली सरकारों ने इन कंपिनयों को खूब खुली छूट दी तथा स्वयं भी खूब इस समृद्ध राष्ट्र को लूट-लूटकर धन को विदेशी बैंकों में जमा करवाया । इन्हें भारत, भारतीयता, भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति, भारतीय जीवन-मूल्यों तथा भारतीय-दर्शन से कोई लेना-देना नहीं है । यहां की अधिकांश सरकारें यहां पर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की तरह कार्य कर रही हैं । यदि ‘दर्शन-शास्त्र’ में वर्णित जीवन-मूल्यों, दिनचर्या, चरित्र, आचरण, आहार-विहार, चिकित्सा आदि पर ये चलें तथा अन्यों को भी ऐसे ही चलने को प्रेरित करें तो फिर भारत में इनकी यह लूट का नंगा नांच कैसे चलेगा? यहां पर सब कुछ पूर्ववत् अंग्रेजी-शासन के अनुसार ही चल रहा है । सत्ता अंग्रेजों के हाथ से निकलकर भारतीयों के हाथ में आई तो सत्ता का हस्तांतरण जरूर हुआ लेकिन व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजों वाली दुष्ट व्यवस्था भारत में अब तक चल रही है ।

    एक और भारतीयों की मूढ़ता का अवलोकन कीजिए । आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की मुख्य पुस्तकें ‘आंग्ल-भाषा’ में मिलती हैं । इसी बात को एक अन्य रूप में यदि कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि ‘आंग्ेल-भाषा’ में लिखी पुस्तकों को प्रामाणिक माना जाता है । हमारे भीतर पाश्चात्य विद्वानों ने एवं वहां के सत्तालोलुप राजनेताओं ने इतनी हीन-भावना से भर दिया कि आज भारत में भारतीय भाषाओं में लिखी पुस्तकें नहीं अपितु आंग्ल-भाषा मंे लिखी पुस्तकें ही लोकप्रिय हैं । आंग्ल-भाषा में लिखा हुआ कूड़ा भी वैज्ञानिक है जबकि भारतीय भाषाओं में लिखी गई उत्कृष्ट एवं वैज्ञानिक पुस्तकें भी व्यर्थ समझी जाती हैं । ‘दर्शन-शास्त्र’ पर लिखी पुस्तकों में (आंग्ल-भाषा) डाॅ॰ राधाकृष्णन, डाॅ॰ एस॰ एन॰ दासुगुप्त, डाॅ॰ हिरियन्ना, मैक्समूलर, ग्रिफिथ, राॅथ, मैक्डोनल, विलियमजों से दयाकृष्ण, दत्त एवं चट्टोपाध्याय आदि की पुस्तकें प्रामाणिक एवं पाठ्यक्रम के दृष्टिकोण से सही मानी जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन द्वारा लिखित पुस्तकें अधिकांश में कल्पनापूर्ण उल्लेखों, कल्पित व्याख्याओं मनधडंत दृष्टिकोणों, भेदभावपूर्ण विवरणों एवं मनमानी विचारधारा से भरी हुई है । इनकी तथा इन जैसे अन्य लेखकों की पुस्तकें भारतीय संस्कृति, भारतीय-दर्शन, भारतीय जवन-मूल्य, आचरण एवं चरित्र को दुषित एवं भ्रष्ट करने हेतु ही हैं । महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, सावरकर, गुरुदत्त, विद्यानंद सरस्वती, बैद्यनाथ शास्त्री आदि की पुस्तकों को जान-बूझकर उपेक्षित छोड़ दिया गया है । हमारे समस्त विश्वविद्यालयों के अधिकांश शिक्षक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं तथा चिंतन, विचारधारा एवं विचार में लगभग गुलाम है। । आज भी गुलाम हैं हम । हमारे वरिष्ठ शिक्ष्ज्ञक जमीनी हकीकत से दूर विदेशी सोच की गुलामी में उलझे हुए हैं । यह उसी सुकरांत, प्लेटो व अरस्तू की सोच का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वे नारी में आत्मा भी नहीं मानते थे । ये तीन महान दार्शनिक माने जाते हैं लेकिन इनकी विकृत व भेदभावपूर्ण सोच के दर्शन इनकी विचारधारा से हो जाते हैं । कहां भारत में नारी को पुज्यनीय मानने की सनातन परंपरा तथा कहां पश्चिम की नारी में आत्मा भी न मानने की सोच? भारत की रक्षा भारतीयता को अपनाने से होगी, जमीन से जुड़ने से होगी तथा ‘भारतीय-दर्शन’ को स्वीकार करने से होगी । जागो भारत! जागो ।।

    विज्ञान से अपने भौतिक जीवन को समृद्ध बनाकर अपने आंतरिक जीवन को ‘दर्शन-शास्त्र’ के माध्यम से आनंदपूर्ण बनाएं । यही और यही आज के भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जरूरत है । इसे हम जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही जल्दी हमारा कल्याण होना संभव हो सकेगा । विदेशी उधारी सोच की गुलामी से बाहर निकलें तथा अपनी कूपमंडकता का त्याग करके अपने वैज्ञानिक एवं जमीन से जुड़े तथा निकले ‘दर्शन-शास्त्र’ का सम्मान करें । किसी भी प्रकार की गुलामी में विकास होना कभी भी संभव नहीं है, यह तथ्य पढ़े-लिखे हमारे विश्वविद्यालय के लोगों को जितनी शीघ्रता से समझ में आ जाए उतना ही अच्छा है । ‘विज्ञान’ की अंधी दौड़ तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ की घोर उपेक्षा से केवल विनाश ही निकला है तथा आगे भी ऐसा ही हो सकता है । इस अपनी धरा को यदि हमें बचाना है तो अधूरे विकास की पश्चिमी अवधारणा से छूटकारा पाकर बहु-आयामी विकास की सनातन भारतीय आर्य हिंदू दर्शन-शास्त्र की अवधारणा को स्वीकार करना ही होगा । विज्ञान का जीवन यानि बाहरी जीवन अधूरा जीवन है । भीतर भी तो झांकें। अहम् को तो बहुत देख लिया, अव अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसकी सीढ़ी बनाएं । विज्ञान भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है ।

आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अध्यक्ष
आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)


कृण्वन्तो विश्मार्यम् (Krinvanto Vishamaryam)-Acharya Shilak Ram

        ईसाईयत के प्रचार में नियुक्त षड्यन्त्रकारी एवं पूर्वाग्रह में आकण्ठ डूबे पाश्चात्य लेखकों ने पूरजोर कोशिशें की यह सिद्ध करने की कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं हैं तथा न ही भारत भूमि आर्यों की मूल जन्मभूमि है । इसको सिद्ध करने हेतु सैकड़ों विद्वानों एवं लाखों मिशनरियों को लगाया गया था । इन्होंने अपने जीवनभर स्मृतितोड़, जोड़तोड़ एवं सत्य तोड़ मेहनत की है इस हेतु । इनकी योजना को कार्यरूप देने हेतु अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया तथा युरोप के अन्य ईसाई देशों ने खरबों डालर अपनी इस दुष्ट योजना पर खर्च किए हैं । यह दो-तीन सदी पूर्व शुरू हुआ षड्यन्त्र कोई अब रूक नहीं गया है अपितु अब भी अबाध गति से चल रहा है । अब भी ईसाई देशों से तथा वेटिकन से अरबों डालर प्रतिवर्ष हिन्दुओं के मतान्तरण, हिन्दू सभ्यता व संस्कृति पर विकृत लेखन, हिन्दू मान्यताओं को अवैज्ञानिक सिद्ध करने हेतु उल्टे-पुल्टे कुतर्क प्रस्तुत करने, हिन्दू दर्शनशास्त्र को युनानी दर्शनशास्त्र से नवीन व उसका नकलची सिद्ध करने, वेद-उपनिषद्-पुराण-स्मृति-महाकाव्यों की भौंड़ी व्याख्या करने, भारतीय कला की महत्ता पर मिट्टी डालने, भारतीय भवन निर्माण कला-उद्यान निर्माण कला-सड़क निर्माण कला - चिकित्सा-शिक्षा आदि को पुराणपंथी व समयबाह्य सिद्ध करने हेतु भारत में वैध या अवैध ढंग से भेजे जा रहे हैं। इसी धन व कुचक्र के बल पर ही केरल, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा आदि को इसाईबहुल बना दिया गया है । यदि कोई व्यवस्था इसको रोकने हेतु लागू की जाती है तो सारा मीडिया शोर मचाने लगता है कि भारतीयों की धार्मिक आजादी का गला घोंटा जा रहा है । मीडिया भी तो ईसाईयत व इस्लाम के प्रभाव में ही है । अनेक गैर सरकारी संगठन सड़कों पर धरने-प्रदर्शन करने लगते हैं । ये इस तरह के संगठन ईसाईयत व इस्लामी देशों से भेजे रूपयों से ही पलते-बढ़ते आए हैं । भाजपा की मोदी सरकार ने ऐसे सैंकड़ों संगठनों पर अभी-अभी प्रतिबन्ध लगाकर एक सराहनीय कार्य किया है । कल ही नागालैंड के एक उग्रवादी संगठन से समझौता करके भी श्री मोदी जी ने सूझबूझ का परिचय दिया है ।

        आर्य यानि कि विवेकपूर्ण, सज्जन, अच्छा, भला, सृजनात्मक, रचनात्मक, सुन्दर, प्रतिभाशाली, तरक्की पसन्द एवं गुणसम्पन्न । आर्य यानि कि सबका विकास व साथ में अपना विकास चाहने वाला । आर्य यानि कि अपने साथ सबका हित चिन्तक व आर्य यानि कि शस्त्र व शास्त्र में एक साथ पारंगत । आर्य यानि कि अहिंसा व हिंसा को समयानुसार प्रयोग करने में प्रवीण । आर्य यानि कि धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में सन्तुलन साधकर जीने जीवने वाला, आर्य यानि कि आर्य वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति द्वारा स्थापित मानकों पर जीवन जीने वाला व्यक्ति । इस आर्य व हिन्दू शब्द में भी हमारे कुछ उत्साही साथियों ने विवाद पैदा कर दिया है । वे कह रहे हैं कि हिन्दू, हिन्दी व हिन्दुस्तान शब्द भारतीयों को विदेशियों द्वारा दिए गए हैं । इन शब्दों का अर्थ अपमानजनक, त्रुटिकारक एवं हीनभावना से ग्रस्त है । कुछ नवीन ग्रन्थों (मुसलमान, पारसी व ईसाई) के अध्ययन से इनकी यह मान्यता बन गई है । यदि निष्पक्ष रूप से नए के साथ प्राचीन अरबी भाषा के ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए, वेदों के शब्दों का लौकिक भाषाओं में बदलता रूप देखा जाए तथा संस्कृत भाषा से अन्य भाषाओं के शब्दों में उच्चारण भेद का अवलोकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाऐगा कि यह ‘हिन्दू’ शब्द न तो विदेशियों द्वारा हमें दिया गया है तथा न ही यह कोई काफिर व बुरे व्यक्ति का प्रतीक है । वेद के ‘सिन्धू’ शब्द का ‘हिन्दू’ में परिवर्तन कोई अमान्य घटना नहीं है । ‘स’ का ‘ह’ हो जाना हरियाणवी में भी साधारण सी बात है । संस्कृत के ‘सः’ का हरियाणवी में ‘ह’ हो जाना कोई भी हरियाणवी जानने वाला व्यक्ति देख व जान सकता है । ‘हिन्दू’ शब्द किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता, यह सच है । लेकिन इसी से तो यह सिद्ध नहीं हो जाता कि यह शब्द हमें विदेशियों द्वारा दिया गया था । इस तरह के भारतीय जनजीवन में प्रचलित अनेक शब्द मिल जाएंगे कि जो हमारे प्राचीन साहित्य में नहीं मिलते । लेकिन इसी से क्या हम यही अर्थ निकाल लें कि वे सारे के सारे शब्द हमें विदेशियों ने प्रदान किए हैं? इस युग के महान राष्ट्रवादी, स्वदेशी के पोषक, महातार्किक एवं दार्शनिक स्वामी दयानन्द ने ‘आर्य’ शब्द को धारण करने हेतु जोर दिया है तथा अपने नाम के साथ ‘आर्य’ शब्द लगाने को कहा है । ‘हिन्दू’ से ‘आर्य’ शब्द को आपने सर्वश्रेष्ठ कहा है । स्वामी दयानन्द के भाषा ज्ञान, भारतीय सभ्यता व संस्कृति ज्ञान, प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के ज्ञान पर किसी प्रकार का सन्देह करने का न तो हमारा कोई प्रयास है तथा न ही ऐसा करने की हमारी कोई योग्यता है । लेकिन फिर भी स्वामी जी यदि कुछ वर्ष और शरीर में रहते तो वे भी ‘हिन्दू’ शब्द के सम्बन्ध में विविध जानकारी प्राप्त करके शायद इसको स्वीकार करने में हिचक नहीं करते ।

        हम सबको आर्य हिन्दू बनना है । जन्मना तो सभी लोग अज्ञानी, अबोध एवं मूढ़ ही होते हैं । लेकिन सब का यह कत्र्तव्य बनता है कि पुरुषार्थ के बल पर अपनी अज्ञानता, अपनी अबोधता एवं अपनी मूढ़ता को छोड़कर सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें । सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें तथा अन्यों को भी बनाएं । ईसाईयत के छल-कपट, इनकी लूटनीति, इनकी भेदनीति तथा इस्लाम के नरसंहारों, इनकी अज्ञानता, इनकी अवैज्ञानिक सोच को हमने अतीत में खूब देखा है तथा अब भी देख रहे हैं । धोखे या प्रलोभन या षड्यन्त्र का शिकार होकर ईसाई या मुसलमान न बनें अपितु आर्य हिन्दू ही बनें । केवल और केवल इसी से ही भारत व भारतीयता का कल्याण सम्भव हो सकता है । आप कुपथ पर न चलें अपितु सत्यथ पर चलें और यह सत्यथ आर्य वैदिक सनातन हिन्दू होना ही है ।

  • आचार्य शीलक राम

        कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

  •  आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)


आर्य हिन्दू भारतीय कौन? (Who is Arya Hindu Indian?)-Acharya Shilak Ram

सनातन से जो इस धरावासी, उनको हिन्दू जान ।
करोड़ों वर्ष से यहां रहते आए, बिना किसी व्यवधान ॥1
जिससे सब मत उत्पन्न हुए, ईसाई, पारसी, मुसलमान ।
यहुदियों का भी निकास जहां से, उनको ले हिन्दू पहचान ॥2
यहुदी, पारसी, ईसाई सभी ही, या सुन लो मुसलमान ।
भारत से ही ये गए सभी हैं, भिन्न-भिन्न काल के मान ॥3
जेन्द अवेस्ता भी नकल वेद थी, बाईबिल नई या पुरानी ।
हिन्दू नकल पर कुरान रची हैं, कर-करके बेईमानी ॥4
आर्य हिन्दू उन्हें कहा जाता, जो इन सबकी है माता ।
एक बेल को मीठे-खट्टे फल, धर्म सनातन उसे कहा जाता ॥5
भू-सांस्कृतिक-गुण अवधारणा, आर्य हिन्दू भारत की ।
अपने संग करो हित अन्य का, स्वार्थ संग परमार्थ की ॥6
विरोधाभासी आर्य हिन्दू का जीवन, माने प्रकृति को माता ।
फूल व काँटे जरूरी साथ-साथ, नियम इसे कहें विधाता ॥7
विरोधाभास में जीना सीखा, इन्हीं को मूल तत्त्व माना ।
आर्य हिन्दू वह कहलाए भारतीय, रहस्य संसार का जाना ॥8
किसी भी पथ से चलना चाहे, किसी को करे स्वीकार ।
आर्य हिन्दू उसे कहा जाता, समान महत्त्व सकार व नकार ॥9
करुणा संग कट्टरता जिसमें, अवसर के अनुसार ।
आर्य हिन्दू वह भारतीय है, जो उचित करे इनका समाहार ॥10
परम धर्म अहिंसा को कहता, तत्त्पर हिंसा धर्म रक्षा को ।
आर्य हिन्दू उसको कहा जाता, जो अपनाए इसी शिक्षा को ॥11
आतंकवाद को जो दे न बढ़ावा, पर सक्षम विनाश करने को ।
मरने संग मारना भी आता, तत्त्पर परपीड़ा हरने को ॥12
आतंकवाद है पंथों का कुपुत्र, यहुदी, पारसी या ईसाई ।
मुसलमान बस आतंक का पथ है, निर्दोष हिंसा जिसने बढ़ाई ॥13
आर्य हिन्दू भारत धर्म है, सनातन से जो चला आता ।
बाकी इसके सभी पंथ या मत हैं, यह इन सबका बाप कहलाता॥14
जिस धर्म में अनेक पंथ हैं, भिन्न प्रकार के विचार ।
आर्य हिन्दू वह कहलाए भारत, जिसका दर्शनशास्त्र सर्व स्वीकार॥15
जिसका इतिहास सर्व प्राचीन है, जो प्रचलित सृष्टि के आदि से ।
अनेक आए व अनेक चले गए, जो रहा सुरक्षित बर्बादी से ॥16
महत्त्व दे जो पुरुषार्थ को, धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष ।
तर्क हो चाहे हो तर्कातीत, महत्त्व दे परोक्ष-अपरोक्ष ॥17
एक अकेला जो धर्मस्वरूप है, आर्य हिन्दू सुनो भारतीय ।
बाकी तो सब एकपक्षीय हैं, प्रस्तुत ब्रह्माण्ड यह अद्वितीय ॥18
बेवजह जिसने न सताया किसी को, कहलाए वही आर्य हिन्दू ।
चक्रवर्ती राज करोड़ों साल तक, समस्त भूमि समस्त सिन्धु ॥19
शान्ति संग क्रान्ति को माने, वह आर्य हिन्दू कहलाए ।
अपनों संग परायों की रक्षा, न बेवजह रक्त बहाए ॥20
दर्शनशास्त्र जिसका सर्वगुणसंपन्न, हरेक विचार सम्मान ।
नास्तिक संग आस्तिक मर्यादा, बिना किसी भी व्यवधान ॥21
स्थायित्व संग परिवर्तन भी माने, आर्य भारतीय हिन्दू उसे जान ।
‘अतिथि देवोभवः’ जिसकी मर्यादा, दे प्रतिष्ठा देवता के समान ॥22
केन्द्र हमारा एक है सबका, परिधि पर हम हैं अनेक ।
रोम-रोम में समाई सीख यह, वह हिन्दू कहलाए प्रत्येक ॥23
अच्छा बनने की जिसे सनक है, वैदिक आर्य हिन्दू भारतीय ।
समस्त धरा पर नहीं समानता, प्रथम द्वितीय या तृतीय ॥24
सिद्धान्तों की जहां भरमार है, जो परस्पर हैं विरोधी ।
आर्य हिन्दू वह कहा जाए भारतीय, निरोधी संग, प्रबोधी ॥25
सिन्धु नदी के आसपास का क्षेत्र, हिन्द महासागर का परिवेश ।
अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, मंगोलिया, चीन सब देश ॥26
म्यांमार, नेपाल से लेकर, पूर्वी एशिया सब स्थान ।
भूमि से लेकर हिन्द सागर तक, कहलाता आर्य हिन्दूस्थान ॥27
करोड़ों वर्ष तक जो यहां रहे हैं, समस्त धरा जिनके संस्कार ।
आर्य हिन्दू वे कहलाएं भारतीय, होती आई है जय-जयकार ॥28
छोटी ईकाई जिसका परिवार, वृहद् ईकाई आर्य बनना ।
पग-पग पर विरोध बुराई का, वसुधैव कुटुम्बकम् सुनना ॥29
हिन्दू शब्द नहीं दिया विदेशी ने, तद्भव शब्द यह हमारा ।
आर्य है वही भारतीय सुन लो, हिन्दू शब्द नहीं उधारा ॥30
इतिहास बिगाड़ कहते कुछ भी, सत्य नहीं यह किसी प्रकार से ।
सिन्धु का ही तद्भव शब्द यह, जो वीरोचित निज व्यवहार से ॥31
हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्थान सब, शब्द अपने ही हमारे हैं ।
बचे रहें कुप्रचार विदेशी से, पूर्ण स्वेदशी-नहीं उधारे हैं ॥32
जाति-भावना की अकड़ त्यागकर, कहलाओ सब आर्य हिन्दू ।
परस्पर रखो विवाह सम्बन्ध भी, पर्यन्त आसिन्धू सिन्धु ॥33
इस लोक का सुख भोगकर, जो सोचे दूसरे भी लोक की ।
आर्य हिन्दू वह सुनो भारतीय, जिसकी शैली मध्य शोक-विशोक की ॥34
पूर्वजन्म में जिसकी प्रतिष्ठा, माने जो चैरासी लाख को ।
आर्य, हिन्दू वह सुनो भारतीय, जो तत्पर मरने साख को ॥35
‘मैं’ के संग जो माने ‘हम’ भी, दे अन्यों को भी आदर ।
आर्य हिन्दू वह जगत् प्रसिद्ध है, प्राण गंवाने को तत्पर हिन्द चादर॥36
आसिन्धू-सिन्धु करोड़ों साल में, जन्में नए-नए विचार ।
उन सबका संग्रह आर्य हिन्दू चिन्तन, करे नए-नए आविष्कार ॥37
बुराई का जो सदैव विरोधी, सत्य की खोज निकाल ।
हिन्दू आर्य वह कहलाए भारतीय, जो रहा करोड़ों वर्ष भूपाल ॥38
अन्धविश्वासी जो नहीं अन्धभक्त, तर्क की प्रतिष्ठा पूरी ।
अन्तिम सीमा तक उसे ले जाए, न तृप्ति हिन्दू अधूरी ॥39
सर्वप्राचीन जिसकी राष्ट्र धारणा, मेलजोल व भाईचारा ।
हिन्दू वही जो आर्य कहलाता, जो सदैव सर्वधरा का सहारा ॥40
स्वयं के चरित्र को निखारने हेतु, जिसने हर युग में दी है सीख ।
देने व लेने में रखा सन्तुलन, न मांगी किसी से भीख ॥41
आर्य हिन्दू व सुनों भारतीय, जिसने दुनिया को विज्ञान सिखाया ।
कला, संस्कृति, दर्शनशास्त्र सब, खेती करने का राज सुझाया ॥42
प्रकृति के अनेक रहस्यों का, जिसने किया प्रथम उद्घाटन ।
आर्य हिन्दू वह सुनो भारतीय, सोचे कल्याण की हर जन ॥43
वेद संहिता जिसके आदि ग्रन्थ हैं, इन्हें माने परम प्रमाण ।
आर्य वैदिक वही जानो भारतीय, जिसका धरा वृहद् परिमाण ॥44
वेद-उपनिषद् को उतारे जीवन, आसिन्धू-सिन्धु उपजे विचार ।
आर्य वैदिक वे सभी भारतीय, जो इन सबको करें स्वीकार ॥45
तुलामान जिसने दिया विश्व को, काल मान व दूरी मान ।
आर्य हिन्दू वही भारतीय है, माने मनु की सन्तान ॥46
आर्य हिन्दू भारतीय सभी, भले व सृजक के प्रतीक ।
न आए किसी बहकावे में, सुनो यहीं है सब ठीक ॥47
देशी-विदेशी बचो षड्यन्त्र, हम आर्य हिन्दू सब भारतीय ।
इस से शुद्ध न कोई धरा पर, न मिले उदाहरण द्वितीय॥त्र48
इस अपनी धरा को पवित्र माने, करे इसी की ही पूजा ।
तत्पर रहे मरने-मिटने को, जड़ लगान अन्य नहीं दूजा ।।49
मातृभूमि व पितृभूमि के प्रति, जिसका समर्पण है विचित्र ।
कण-कण जिसका सेवनीय है, वह धरती भारत की पवित्र ।।50
‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’ कहता नित, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जाने ।
आर्य है वह हिन्दू भारतीय, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ पहचाने ।।51
‘यतेमहि स्वराज्ये’ उद्घोष कर, जो सारी धरा पर घूमे ।
आर्य है वह हिन्दू भारतीय सुनो, रज को पावन मानकर चूमे ।।52
‘मा कश्चिद् दुखभागभवेत’ की, जिसकी है करुण पुकार ।
चक्रवर्ती साम्राज्य की ध्वजा की, उस हिन्दू की रही है सरकार ।।53
भगवा ध्वज समस्त मही पर, जिसने करोड़ों वर्ष फहराया ।
आर्य हिन्दू वह वीर भारतीय, ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ कहलाया ।।54
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

आचार्य अकादमी चुलियाणा
रोहतक (हरियाणा)

Tuesday, November 5, 2024

भारतीय इतिहास का दर्शनशास्त्र (Philosophy of Indian History)

 

एक प्रसिद्ध विचारक, दार्शनिक, रहस्यदर्शी ने मैडम ब्लावहस्की (थियोसोफिकल सोसायटी) के संबंध में अपने कई प्रवचनों में काफी कुछ रहा है इन्होंने उनको महान रहस्यदर्शी, हिमालय के योगियों निर्देश प्राप्त करने वाली तथा भारतीय योग जगत को बहुमूल्य योगदान देने वाली बतलाया है यह इतनी प्रशंसा तो आज की ही बात है लेकिन स्वयं उनके समय में भारतीय धर्म, दर्शनशास्त्र, योग, राष्ट्रवाद स्वदेशी के पटल के महानायक महर्षि दयानन्द उनके समय में जीवित थे। महर्षि दयानन्द से इन थियोसोफिकल सोसायटी वालों ने छल-कपटपूर्ण व्यवहार करके किस तरह अपने स्वयं को प्रचारित करके विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का कुप्रयास किया था-इस षड्यन्त्र को महर्षि दयानन्द ने स्वयं बतलाया है महर्षि जी उनके छल-कपट को भांप गए तथा उनसे कोई भी सम्पर्क आदि रखना समाप्त कर दिया इन थियोसाफिकल सोसायटी वालों ने अपनी इस संस्था चाहा था कि जिससे महर्षि दयानन्द के नाम का प्रयोग करके वे अपने आपको विश्व आध्यात्मिक जगत् में प्रसिद्ध कर सकें सम्मोहन का प्रयोग करके भ्रम पैदा कर देना तथा सामान्यजन को उस भ्रम में उलझाकर चेले-चपाटे बनाना इनका एक अन्य उद्देश्य था इनके निवेदन पर जब एक बार महर्षि दयानन्द जी इनसे मिलने गए तो भवन के भीतर प्रवेश करते समय एकाएक पुष्पवर्षा होने लगी महर्षि जी इनकी कपट लीला को समझ गए तथा इनके भ्रम को दूर करने हेतु आपने भी सम्मोहन से वहां रखे दीपक को प्रज्ज्वलित कर दिया। यहीं से महर्षि दयानन्द का इनसे मोह भंग हुआ था

इन्हीं मैडम ब्लावट्स्की ने पाश्चात्य षड्यन्त्रकारी उपनिवेषवादियों के कपटपूर्ण संकेतों पर एक संस्थाथियोसोफिकल सोसायटीबनाई थी ताकि उदर से यह दिखलाया जा सके कि यह सोसायटी इसके लोग भारतीय सनातन आर्य वैदिक हिन्दू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साधना योग हेतु कार्य कर रहे है। लेकिन वास्तव में यह संस्था भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धम्र, साधना, योग, दर्शनशास्त्र, विज्ञान, चिकित्सा जीवनमूल्यों को पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित प्रभावित सिद्ध करने हेतु निर्मित की गई थी यह कार्य भी हो जाए, स्वयं को विश्वगुरु के रूप में स्थापित किया जा सके तथा इससे अरबों रूपये की कमाई भी की जा सके-ये उद्देश्य थे इन आपार से कुछ तथा अन्दर से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के। यूरोप के साम्राज्य को पूरी दुनिया में सुदृढ़ करने हेतु अनेक सिद्धान्त कहानियाँ पाश्चात्य विद्वानों ने कपोलकल्पित की। इन सिद्धान्तों कपोल कल्पनाओं को मूर्त रूप देने हेतु एक मोहरा यह संस्था इसके लोग भी थे। भारतीय उपमहाद्वीप में अलगाववाद के बीच बोने तथा इनमें हीनता की ग्रंथि के बीज बोने हेतु पाश्चात्य उपनिवेषवादियों ने जिन अनेक कपोलकल्पनाओं को जन्म दिया उनमें से एक थीलेम्यूरिया थ्योरी। इसके अन्तर्गत इन्होंने यह प्रचारित करने का प्रयास किया कि मैडागास्कर आदि द्वीपों के माध्यम से यूरोप का प्रभाव श्रीलंका में आया। यह करीब दो करोड़ वर्ष पूर्व की घटना है। यही प्रभाव फिर भारत के दक्षिण में भी प्रवेश कर गया तमिल-सिंहली विवाद की जड़ में यही तो है। षड्यन्त्र करके दंगे-फसाद करवाना, नरसंहार करना इसके माध्यम से यहां अपनी लूट के कुकृत्य को शुरू कर देना-यही यूरोप की चाल पिछली पांच सदियों से चल रही है।

हेमेटिक-सेमेटिक आर्य-अनार्य के विवाद को फैलाकर अपना उल्लू सिद्ध करना युरोपियन लोगों ने अतीत में खूब किया है तथा इसे वे अब भी कर रहे हैं हमारे यहां यह आरक्षण की महामारी भी इसी कुत्सित सोच की देन है। ऊपर से देखने पर यह लगता है तथा सब मानते भी हैं कि इन मैडम ब्लावट्रकी का बौद्ध-मत से गहरा नाता था। लेकिन श्रीलंका में बौद्धमत को कुचलने में इन्होंने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया था। यूरोप की कपोल कल्पना आर्य-अनार्य को विस्तार देने, दक्षिण भारत पर लेक्यूरिया संस्कृति का प्रभाव होने आदि का दक्षिण के बौद्धमतानुयायियों ने विरोध किया था। बौद्धों के इस विरोध को कुचलने को हथियार अंग्रेजों ने मैडम ब्लावट्रकी को बनाया था। जहां भी सम्भव हुआ वहीं यूरोप वालों ने अलगाव, उग्रवाद, भेदभाव, ऊंच-नीच, जाति-पाति, वर्गभेद को बढ़ावा दिया है ताकिफूट डालो राज करो। की अपनी कपटनीति में ये सफल हो सकें। भारत उनकी कपटनीति का सर्वाधिक प्रभावित होने वाला, सर्वाधिक विनाश लीला भोगने वाला लेकिन सर्वाधिक संघर्षशील डटे रहने वाला राष्ट्र है सभी राष्ट्र झुक गए लेकिन पूरी तरह कभी नहीं झुका तथा अपनी मूल संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली, जीवनदर्शन, जीवनमूल्यों, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा आदि को बचाए हुए है। आज ईसाई देश चर्च संगठनों का दुष्प्रयोग कर रहे हैं तो पूर्व में उन्होंने इस कार्य हेतु वायसरायों के साथ-साथ मेक्समूलर, ग्रिफिथ, विल्सन, राॅय, मैक्डोनाल्ड मैडम ब्लावट्रकी आदि का भरपूर प्रयोग किया था। हमारे यहां के मूर्ख विद्वान् जिनकी सोच यूरोपीय सोच साम्यवादी-सेक्यूलरी सोच से आगे जा ही नहीं सकती वह इन मैडम ब्लावट्रकी आदि को यहां के शिक्षा पाठ्यक्रमों में भारत के स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी योद्धा बतलाती है। सत्यानाश हो ऐसी गली-सड़ी सोच का। इन्हीं षड्यंत्र कारिणी मैडम ब्लावट्रकी को एक बडे़ दार्शनिक ने भारतीय योग साधना, अध्यात्म, दर्शनशास्त्र, रहस्यवाद के उच्चकोटि के भाष्यकार एक अग्रणी योगिनी बतलाते हैं तथा भारतीय योग-साधना की उद्धारिका के रूप में उनको उच्चारित करते हैं

प्रसिद्ध समकालीन दार्शनिक रहस्यदर्शी जिद्दू कृष्णमूर्ति का भी मैडम ब्लावट्रकी की संस्था ने खूब दुरुपयोग करने का प्रयास किया था हालांकि जिद्दू कृष्णमूर्ति ने इस षड्यन्त्र को सफल नहीं होने दिया तथा अपने आपको उस संस्था से अलग करेकृष्णमूर्ति फाऊंडेशन की स्थापना कर ली थी। पहले इन मैडम ब्लावट्रकी की थियोसोफिकल सोसायटी ने अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने हेतु महर्षि दयानन्द को साघन बनाने का षड्यन्त्र रचा लेकिन इनकी एक चली बाद में जिद्दू कृष्णमूर्ति को इस हेतु तैयार किया गया लेकिन यहां भी वे सफल हो सके तथा अध्यात्म की सनातन भारतीय ऊर्जा ने जिद्दू कृष्ण मूर्ति को उनसे अलग कर दिया। पिछले पांच सौ वर्षों से पश्चिमी लोग अपने को सर्वश्रेष्ठ, शासक प्राचीन तथा बाकी संसार उज्जड़ गंवार सिद्ध करने में लगे हुए हैं इस षड्यन्त्र का समाना पूरी ताकत राष्ट्रभक्ति से डटकर चन्द्रगुप्त मौर्य, चाणक्य, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शिवाजी, महाराणा प्रताप, राणा सांगा, गुरु गोविन्द सिंह, महाराज रणजीत सिंह, महर्षि दयानन्द, सावरकर, अरविन्द, पी॰ एन॰ ओक, सीताराम गोयल, रामस्वरूप वैंकट चलैथा की तरह किया जाना चाहिए। भारत अजेय है। विभाजन, षड्यन्त्र, भेदभाव, पूर्वाग्रह, नरसंहार, लूट, शोषणादि के आधार पर स्वयं को स्थापित करना तथा अन्यों को दबाकर गुलामों की तरह रखना ईसाईयत इस्लाम की पहचान है। इस सबको सामना पहले भी भारत ने ही किया है, अब भी भारत ही कर रहा है तथा भविष्य में भी भारत ही    करेगा

आचार्य शीलक राम