Wednesday, October 16, 2019

आजादी व गुलामी के मध्य झूलता भारत

            समकालीन युग के एक विचारक श्री यशदेव शल्य का मैं एक आलेख पढ़ रहा था जिसमें इन्होंने भारत की मानसिक गुलामी की भयावहता को रेखांकित करने का प्रयास किया है । राजनीतिक आजादी के सात दशक पश्चात् भी हम मानसिक रूप में गुलाम हैं । यदि मैं शल्य जी की ही बात को आगे बढ़ाऊं तो यह कहना सही रहेगा कि भारत की राजनीतिक आजादी भी एक छलावे के अतिरिकत कुछ नहीं है । राजनीति के शीर्ष पर हमारे भारत में सन् 1947 ई॰ से ही इंडियावालों का कब्जा है । इंडिया वालों की कुरीतियों, कमियों, मूढ़ताओं, मूर्खताओं एवं आंधी प्रतियोगिताओं को स्वीकार करने में भी हम अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते रहे हैं । पश्चिम की विकृतियां भी हमारे लिए आदरणीय बनी हैं तथा अब भी बन रही हंै। पश्चिम का कूड़ा-कर्कट भी हमारे लिए स्वर्ण है । पश्चिम की अंधी नकल ही हमारे लिए सृजनात्मक के रूप में मूर्तिमान है । कितनी बड़ी विडम्बना है यह कि जिस भारतवर्ष ने सम्पूर्ण धरा को लाखों वर्ष जीवन जीना, विचार करना, तर्क करना, चिन्तन करना, खोज करना, चिकित्सा करना, व्यापार करना, खेतीबाड़ी करना एवं शिक्षा देना सिखाया, इस सब को सिखाने के पश्चात् भी जो हमारे ऋषि शान्त नहीं बैठे अपितु नीति व धर्म के सर्वसमन्वयकारी विश्वबंधुत्व के रहस्य समझाए तथा परमानन्द की इसी जन्म में अनुभूत करने हेतु योग के सूत्रों को दिया-उन्हीं ऋषियों के सुपुत्र इतने कुपुत्र सिद्ध होंगे कि वे अन्धी नकल को ही सृजन समझने की महामूढ़ता करेंगे। सन् 1947 ई॰ के पश्चात् यही सब हो रहा है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धभक्ति, अन्धी नकल, चापलूसी एवं अन्धानुकरण व्याप्त है और कहा जाता है कि महाजन जिस रास्ते पर चलते हैं साधारणजन भी उसी पथ का अनुकरण करते हैं । क्या महाजन, क्या उच्च शिक्षित, क्या सभ्य, क्या उच्चाधिकारी, क्या राजनेता, कया धर्मगुरु, क्या वैज्ञानिक, क्या शिक्षाशास्त्री, क्या भाषास्त्री या क्या सुधारक- सभी के सभी नकलची बन्दर सिद्ध हो रहे हैं और इसके बावजूद भी बड़े-बड़े मंचों पर यह चिन्तन-मनन होता है कि आजादी के सात दशक पश्चात् भी भारत इंडिया व भारत में क्यों विभाजित हो गया है पूरी तरह से ? वहां सात दशक से लगाचार यह शोध हो रही है कि भारत अब तक भी गरीब, जाहिल, नकलची, पिछड़ा हुआ एवं गुलाम क्यों बना हुआ है? अब इन विचार के कोल्हुओं को यह सीधी सपाट बात समझ में क्यों नहीं आती की किसी भी राष्ट्र का चहुंमुखी विकास उस राष्ट्र की अपनी भूमि, जीवनमूल्यों, दर्शनशास्त्र, शिक्षा, धर्म आदि से जुड़े रहकर ही हो सकता है । अपनी जड़ों से उखड़कर कोई भी राष्ट्र आज तक उन्नति नहीं कर पाया है । और तो और हम आज के अति भौतिकवादी कहे जाने वाले देश अमरीका, आस्ट्रेलिया, जापान, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इजरायल आदि ने जो इतनी चमत्कारिक उन्नति कर रखी है वह सब हवा में नहीं की अपितु अपनी भूमि, अपनी संस्कृति, अपने जीवनमूल्यों, अपने दर्शनशास्त्र, अपने आचार-विचार, अपनी शिक्षा-प्रणाली, अपनी चिकित्सा, अपनी प्रयोगशालाओं एवं अपने धर्म से जुड़कर ही की है । इस समय इस धरा पर शायद भारत ही अकेला ऐसा देश है जो खुलेरूप में धडल्ले से अपने स्वयं की पृष्ठभूमि को ही नष्ट किए दे रहा है । हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी को अपने हाथों से ही काट रहे हैं और यह महामूढ़ता करने के लिए हमने अनेक तर्क एकत्र करके रखे हुए हैं । क्या लाभ है ऐसे में बड़े-बड़े राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के पिछड़ेपन एवं यहां की गरीबी पर चिन्तन-मनन करने का । नारों के सम्मोहन से ही यदि किसी व्यक्ति, समाज, राज्य या राष्ट्र की प्रगति हो सकती होती तो काफी राष्ट्र कब के समृद्ध हो गए होते । भारत तो अब तक विश्वगुरु बन जाना चाहिए था । गरीबी हटाओ, मनरेगा, नरेगा, अटल पेंशन, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, मेक इन इंडिया, डिजीटल इंडिया आदि आदि की भारतीय जन-मानस को सम्मोहित करके रखे जाने की तथा पिछड़ेपन में धकेलने की अनेक लोकलुभावनी योजनाएं सन् 1977 ई॰ के पश्चात् बनीं व चली हैं । इन सबके बावजूद भी भारत और बदहाली की तरफ गया है । तरक्की हुई है हमारे भारत में लेकिन वह मात्र इंडिया वालों की हुई है। भारत की दस प्रतिशत आबादी की तो खूब तरक्की हुई है । उस दस प्रतिशत की आबादी की प्रतिव्यक्ति आय या उनकी कुल सम्पत्ति सन् 1947 ई॰ के पश्चात् लाखों गुना बढ़ी है लेकिन बाकी बची 90 प्रतिशत आगादी तब भी गरीब व बदहाल थी और वह आज भी अभावग्रस्त एवं बेरोजगार है। गान्धी व नेहरु से लेकर आज के नरेन्द्र मोदी जी तक सबने सम्मोहन से काम लिया है । गान्धी, नेहरु, अम्बेडकर, इन्दिरा, मोरार जी, चरणसिंह, राजीव, अटल बिहारी ने नारे तो खूब दिए लेकिन विकास हुआ सिर्फ उस दस प्रतिशत आबादी का जो चुनावों में वोट तक डालना मूर्खता का कृत्य समझती है । वोट डालें कोई लेकिन विकास हो किन्हीं अन्यों का । वोट डाले सामान्य जन लेकिन विकास हो सिर्फ उद्योगपतियों, नेताओं एवं उच्चाधिकारियों का । लोकतन्त्र के पहरेदार सामान्यजन लेकिन यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था सामान्यजन का गला घोंटकर विकास उनका करे कि जो इस लोकतन्त्र को गरीबों के शोषण व उनकी गुलामी की रस्सी समझते हैं । यही होता आया है हमारे भारत व उनके इंडिया में पिछले सात दशक से और यदि आपने कुछ सत्य कहा तो आपकी खैर नहीं । सामान्यजन की स्वतन्त्रता वहीं तक है जहां तक कि दस प्रतिशत इंडियावालों के अधिकारों में कोई हस्तक्षेप न होता हो । यदि आपने सत्य कहा तो स्वामी दयानन्द की तरह आपको अपने ही जहर देकर मौत के घाट उतार देंगे । यदि आपने तर्कबुद्धि का प्रयोग करके कुछ कथन कर दिया तो सुभाष चन्द्र बोस की तरह आपको खामोश कर दिया जाऐगा। यदि आपने वास्तव में ही इंडियावालों की कुर्सी के सम्बन्ध में सोचने की हिमाकत की तो आपको लाल बहादुर शास्त्री की तरह विष देकर मौत की निद्रा में धकेल दिया जायेगा । यदि आपने विवेक से काम लेकर वास्तव में ही इंडिया का विरोध करके भारत को भारत तथा फिर इसे विश्वगुरु बनाने हेतु भागीरथ प्रयास किया तो आपको राजीव भाई दीक्षित की तरह परलोक की यात्रा पर आपके अपने महान कहे जाने वाले ही भेज देंगे। यदि आपने वास्तव में ही सनातन आर्य वैदिक ऋषियों वाले उस भारत के स्वप्न को साकार करने हेतु पुरुषार्थ करने की सोची कि जिससे भारत को एक सनातन यात्रा सहस्रादियों से कहा जाता रहा है तो आपको ओशो रजनीश की तरह वहीं लोग देहत्याग को विवश कर देंगे कि जो अब विश्वशान्ति के ठेकेदार बने हुए हैं । कितना बड़ा पाखण्ड चल रहा है हमारे भारत में और पाखण्ड भी पूरे तामझाम व पूर्वी व्यवस्था से । राजनेता, धर्मनेता, धननेता, अधिकारीनेता आदि सभी मिले हुए हैं । स्वयं का विकास तो हो ही रहा है -बाकी देश जाए भाड़ में । राजनीतिक दल व नेता पहले तो अपनी सरकारों को सत्ता में लाने हेतु संघर्ष करते हैं और जब सरकार बन जाती है तो पूरे पांच वर्ष उस सरकार को बचाने में लगे रहते हैं । बीच-बीच में जो समय मिलता है उसमं इनके खुद के वैभव-विलास का जुगाड़ करने हेतु अरबों-खरबों की दौलत जोड़ने का कुकर्म किया जाता है । देश का विकास हो भी तो कब व कैसे हो? यदि लोग रोजगार आदि की आवाज उठाएं भी तो आरक्षण आदि का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है । रोजगार से ध्यान हटाने का आरक्षण एक अचूक हथियार है। हर दल ने इस हथियार का भरपूर प्रयोग किया है । क्या कांग्रेस, क्या वामपंथी व क्या दक्षिणपंथी कही जाने वाली भाजपा-सबके सब आरक्षण की महामूर्खता का प्रयोग करने में प्रवीण हैं । विकास जाए तेल लेने-बस किसी तरह जनता को रोके रखा जाए । यह कुनीति सभी दलों की रही है । मोदी जी से काफी आशाएं थीं लेकिन ये महोदय भी इंडिया की सेवा करने में व्यस्त हो गए हैं। तो यह कथन करने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि भारत न तो राजनीतिक रूप से आजाद हुआ है, न मानसिक रूप से आजाद हुआ है, न आर्थिक-शैक्षणिक-व्यावसायिक रूप से ही । गान्धी व नेहरु ने सन् 1947 ई॰ के आसपास तथा इससे पूर्व के 20-25 वर्षों तक जो स्वतन्त्रता का ढिंडोरा पीटा था । वह एक ढोंगमात्र था । यह सब अब सिद्ध भी हो चुका है । एक नए प्रकार की गुलामी की नींव तो भारत में उसी दिन रख दी गई थी जब कांग्रेसियों के प्रयासों से गान्धी ने अफ्रीका से लौटकर भारत की भूमि पर प्रथम कदम रखे थे । क्रान्तिकारियों को दफन करने का जो कुचक्र कांग्रेसियों ने गान्धी को भारत में बुलाकर रचा था उसमें वे सफल रहे । अरविन्द, सुभाष, पटेल, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सावरकर जैसे क्रान्तिकारियों को गुमनामी के अन्धेरे में धकेलने में ये पूरी तरह सफल रहे हैं । अब सात दशक बाद सुभाष चन्द्र बोस की फाईलों के आंशिक उजागर होने से इसकी पुष्टि हो जाती है तो कहने का तात्पर्य यही है कि भारत की आजादी का सिर्फ ढिंडोरा पीटा जाता रहा है। सम्मोहित करके रखा हुआ है भारतीयों को । किसी को नारों से, कोई भाषणों से, कोई फूट डालने से, कोई आरक्षण से या फिर कोई विदेशी गुलाम शिक्षा से सम्मोहित करके रखा हुआ है ताकि उनको सत्य के दर्शन ही न हो सकें । इस क्रम में धार्मिक कहे जाने वाले काफी महानुभावों ने भी अपनी प्रसिद्धि की रक्षा हेतु तथा माया के साम्राज्य खड़ा करने के कुकर्मस्वरूप भारत के साथ गद्दारी करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी । जब सन् 1925ई॰ से लेकर सन् 1947 ई॰ के 22 वर्ष के लम्बे काल में गान्धी व नेहरु का सहारा लेकर कांग्रेसी भारत का बेड़ा गर्क करने में लगे हुए थे तो ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ क्या कर रहा था? उस समय क्रान्तिकारियों को एकजूट करके एक विशाल आन्दोलन गान्धी-नेहरु की काट हेतु क्यों नहीं खड़ा किया इस संगठन ने? हिन्दू महासभा व आर्यसमाज नामक संगठन भी थे उस समय। कितने देशद्रोही अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा इस संगठन ने? मुझे तो लगता है कि या तो इस संगठन का क्रान्तिकारी गतिविधियों में सन् 1947 ई॰ से पूर्व कोई योगदान नहीं रहा था या फिर इसने गांधी-नेहरुवादी नकली आजादी के आन्दोलन में ही थोड़ा-बहुत सहयोग किया होगा । भारत की मानसिक गुलामी जो पिछली बारह शदी से निरन्तर चल रही थी उस गुलामी के बन्धन तोड़ने हेतु कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया। ‘अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तदेव चः’ की महाभारत की सीख को इस संगठन ने अपनी चर्चा का अंग क्यों नहीं बनाया। हमारे  देश के लोग तो आज भी इतने गुलाम हैं कि ये अब तक भी नाथू राम गौड़से को हत्यारा कहकर पुकारते हैं । जिन वीर क्रान्तिकारियों ने भारत विरोधियों की हत्याएं की हैं हम उन सबको क्रान्तिकारी वीर बलिदानी कहकर पुकारते हैं लेकिन नाथूराम गौड़से को...?
              हमारे दुर्भाग्य की कोई सीमा इसीलिए नहीं है कि क्योंकि हम सत्य को न तो जानने के इच्छुक हैं तथा अधिकांश में झूठे नारों व तसलियों के भरोसे भारत को विश्वगुरु बनाना चाहते हैं । हमारी धरा आज भी इंडिया व भारत के मध्य पिस रही है । हमारी धरा आज भी विदेशी अन्धी नकल के बोझ तले दबकर कराह रही है । हमारी भारत भूमि आज सम्वत् 2072 में भी अपने चिन्तन, अपने विचार, अपने तर्क एवं अपने दर्शनशास्त्र से रहित है। आज भी हमारे बुद्धिजीवी, धनजीवी, धर्मजीवी शिक्षाजीवी, व्यापारजीवी, खेलजीवी व मनोरंजनजीवी सभी के सभी पश्चिम की अन्धी एवं भौंड़ी नकल एवं पूर्वाग्रहों के दास बनकर भारतभूमि को चिढ़ा रहे हैं । लेकिन गुलामी, पूर्वाग्रहों, नकल, सम्मोहन, नारों की चीखों एवं अन्धानुकरण के घटाघोप अन्धेरे से बाहर हम शीघ्र ही आजादी की खुली-ताजी हवा में श्वास अवश्य लेंगे ।
आचार्य (डा) शीलक राम
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

2 comments:

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