वह मादकता ही क्या जिसमें रह जाए जग का भय ॥
क्रूर जीवन संसार, सबका दुष्ट व्यवहार ।
सबका मतलब काम, चाहे निकले हो बदनाम ।
प्रेमी कहां किसी के रोकने से रूकते हैं
चाहे बने कोई कितना भी निर्दय ॥1
जब तत्त्पर होने को एक, शत्रु हो जाए प्रत्येक ।
ध्यान प्रेम कहां देते हैं, मौत को भी छू लेते हैं ।
छा जाती है ऐसी मादकता चहूं दिशि,
विचलित नहीं कर सकता उनको कोई भी विषय ॥2
डर व प्रेम नहीं एक साथ, असंभव हाथ में हाथ ।
प्रेम किया तो क्या डरना, चाहे इस पथ पर हो मरना ।
देह व मन पर सावन की फुहार सी मादकता छाए,
हार न होती वहां, होती है बस जय ही जय ॥3
सुन लो जो है मेरा, मुझ हेतु वही है सवेरा ।
उसके बिना मैं न रहूं, कितनी बार यह कहूं ।
प्रेम पथ पर मैं कहीं तक भी जा सकता हूं,
किसी को भी न होना चाहिए इस पर संशय ॥4
धूर्त है यह संसार, सबका कपटी व्यवहार ।
प्रेम की बस बातें करते, अन्यथा मारते व मरते।
अस्तित्व में झांकने की खिड़की है प्रेमिका सुनो,
मिलन न हुआ तो मेरा यहां मरना है तय ॥5
वासना से सब बंधे हैं, प्रेम-पथ पर अंधे हैं ।
बस नजर है चमड़ी पर, धोखा दे दें दमड़ी पर ।
क्या जाने वे प्रेम की गहराई को,
कपटी, व्यापारी, छली, भोगी, संचय ॥6
क्या नशा करे कोई शराब, शतरंगी देखे ख्वाब ।
मादकता प्रेम की सुनो ऐसी, गहराई की गहराई जैसी ।
जो गया वो वापिस कभी न आया है
अहम् का मरना सुनो जहां है विनय ॥7
साहस यह सबसे बड़ा, करने को मैं हूं खड़ा ।
कौन है जो मुझे रोकेगा, खुद चाहे मुझे टोकेगा ।
चाहे अंग-अंग कट जाए इस पथ पर,
नहीं बिगड़ेगी इससे मेरी प्रेमी की लय ॥8
डर में भागना होता है, प्रेम में जागना होता है ।
मृत्यु होनी वहां निश्चित, साथ छोड़े सब परिचित ।
आनंद की वर्षा में हर पल भीगना तब,
उपलब्ध हो जाता वह इसी देह में अभय ॥9
अद्भूत, विचित्र वहां मस्ती; बिन तोल मिले खूब सस्ती।
सिर दिए वह मिलती है, कमल फूल सी खिलती है ।
सब डूबे उसमें मेरी चाहना यह,
प्रेमशास्त्र का सुनो यह अनिर्वचनीय नय ॥10
अहम् जाने दो तुम अपना, लगेगा जग यह सपना ।
अपने में सबको ही पाओगे, प्रेम-योगी कहलाओगे ।
कुल जाति, मर्यादा, स्थान सब व्यर्थ हैं,
कोई भी हो सकती है उस योगी वय ॥11
मेरा मुझमें कुछ भी नहीं है, जैसा जाना वैसी ही कही है ।
बुरा मानो चाहे कोई भला, प्रेम है एक दिव्य कला ।
साधना करके जाना बस मैंने सब,
मैं तो हूं मात्र परमपिता का एक संजय ॥12
चमड़ी से भीतर चले जाओ, चित्त अपने के विकार मिटाओ ।
कहा-कही से यह न होगा, साधना करके बना अंतर्भोगा ।
मैंने भी इसे इसी तरह जाना है,
यही है मेरा सुनो कुल इतना परिचय ॥13
मछली रहे चाहे बिन पानी, ऋतु करें कितनी भी मनमानी ।
पानी उछले नीचे को जाए, अग्नि जले ऊपर को कहलाए ।
जलधर बरसें नीर वसुधा पर,
नहीं रूकते प्रेम पान करने से पय ॥14
जीना हो चाहे मरना, चढ़ना हो चाहे उतरना ।
कुछ भी कहे समाज, निर्भय फिर भी अंदाज ।
पल-पल असह्य हो विरह में रहना,
हर तल हो जाए दोनों का पूर्ण विलय ॥15
नेत्र न देखें कुछ और, बस प्रेम की गौर ।
हर जगह दिखाई दे अपना, जीना हो या खपना ।
वियोग प्रेमी से असह्य हो जाए,
हर दिन देह होती जाती है क्षय ॥16
प्रेमी मेरा मैं उसकी, बात नहीं अब वश की ।
असंभव उसके बिना जीना, कहूं मैं ठोककर सीना ।
मेरा आराध्य मेरा प्रभु वह,
हम परस्पर अर्जुन व धनंजय ॥17
हमारी मादकता इतनी गहरी, क्या करेगा कोई प्रहरी ।
पीछे रह गया सब डरना, अब तो प्रेम बस करना ।
जिसे रोकना हो देखे हमें रोककर,
हम प्रेमी इस जगत् के इतने योग्य ॥18
- आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो.9813013065, 8901013065
e mail id : shilakram9@gmail.com
क्रूर जीवन संसार, सबका दुष्ट व्यवहार ।
सबका मतलब काम, चाहे निकले हो बदनाम ।
प्रेमी कहां किसी के रोकने से रूकते हैं
चाहे बने कोई कितना भी निर्दय ॥1
जब तत्त्पर होने को एक, शत्रु हो जाए प्रत्येक ।
ध्यान प्रेम कहां देते हैं, मौत को भी छू लेते हैं ।
छा जाती है ऐसी मादकता चहूं दिशि,
विचलित नहीं कर सकता उनको कोई भी विषय ॥2
डर व प्रेम नहीं एक साथ, असंभव हाथ में हाथ ।
प्रेम किया तो क्या डरना, चाहे इस पथ पर हो मरना ।
देह व मन पर सावन की फुहार सी मादकता छाए,
हार न होती वहां, होती है बस जय ही जय ॥3
सुन लो जो है मेरा, मुझ हेतु वही है सवेरा ।
उसके बिना मैं न रहूं, कितनी बार यह कहूं ।
प्रेम पथ पर मैं कहीं तक भी जा सकता हूं,
किसी को भी न होना चाहिए इस पर संशय ॥4
धूर्त है यह संसार, सबका कपटी व्यवहार ।
प्रेम की बस बातें करते, अन्यथा मारते व मरते।
अस्तित्व में झांकने की खिड़की है प्रेमिका सुनो,
मिलन न हुआ तो मेरा यहां मरना है तय ॥5
वासना से सब बंधे हैं, प्रेम-पथ पर अंधे हैं ।
बस नजर है चमड़ी पर, धोखा दे दें दमड़ी पर ।
क्या जाने वे प्रेम की गहराई को,
कपटी, व्यापारी, छली, भोगी, संचय ॥6
क्या नशा करे कोई शराब, शतरंगी देखे ख्वाब ।
मादकता प्रेम की सुनो ऐसी, गहराई की गहराई जैसी ।
जो गया वो वापिस कभी न आया है
अहम् का मरना सुनो जहां है विनय ॥7
साहस यह सबसे बड़ा, करने को मैं हूं खड़ा ।
कौन है जो मुझे रोकेगा, खुद चाहे मुझे टोकेगा ।
चाहे अंग-अंग कट जाए इस पथ पर,
नहीं बिगड़ेगी इससे मेरी प्रेमी की लय ॥8
डर में भागना होता है, प्रेम में जागना होता है ।
मृत्यु होनी वहां निश्चित, साथ छोड़े सब परिचित ।
आनंद की वर्षा में हर पल भीगना तब,
उपलब्ध हो जाता वह इसी देह में अभय ॥9
अद्भूत, विचित्र वहां मस्ती; बिन तोल मिले खूब सस्ती।
सिर दिए वह मिलती है, कमल फूल सी खिलती है ।
सब डूबे उसमें मेरी चाहना यह,
प्रेमशास्त्र का सुनो यह अनिर्वचनीय नय ॥10
अहम् जाने दो तुम अपना, लगेगा जग यह सपना ।
अपने में सबको ही पाओगे, प्रेम-योगी कहलाओगे ।
कुल जाति, मर्यादा, स्थान सब व्यर्थ हैं,
कोई भी हो सकती है उस योगी वय ॥11
मेरा मुझमें कुछ भी नहीं है, जैसा जाना वैसी ही कही है ।
बुरा मानो चाहे कोई भला, प्रेम है एक दिव्य कला ।
साधना करके जाना बस मैंने सब,
मैं तो हूं मात्र परमपिता का एक संजय ॥12
चमड़ी से भीतर चले जाओ, चित्त अपने के विकार मिटाओ ।
कहा-कही से यह न होगा, साधना करके बना अंतर्भोगा ।
मैंने भी इसे इसी तरह जाना है,
यही है मेरा सुनो कुल इतना परिचय ॥13
मछली रहे चाहे बिन पानी, ऋतु करें कितनी भी मनमानी ।
पानी उछले नीचे को जाए, अग्नि जले ऊपर को कहलाए ।
जलधर बरसें नीर वसुधा पर,
नहीं रूकते प्रेम पान करने से पय ॥14
जीना हो चाहे मरना, चढ़ना हो चाहे उतरना ।
कुछ भी कहे समाज, निर्भय फिर भी अंदाज ।
पल-पल असह्य हो विरह में रहना,
हर तल हो जाए दोनों का पूर्ण विलय ॥15
नेत्र न देखें कुछ और, बस प्रेम की गौर ।
हर जगह दिखाई दे अपना, जीना हो या खपना ।
वियोग प्रेमी से असह्य हो जाए,
हर दिन देह होती जाती है क्षय ॥16
प्रेमी मेरा मैं उसकी, बात नहीं अब वश की ।
असंभव उसके बिना जीना, कहूं मैं ठोककर सीना ।
मेरा आराध्य मेरा प्रभु वह,
हम परस्पर अर्जुन व धनंजय ॥17
हमारी मादकता इतनी गहरी, क्या करेगा कोई प्रहरी ।
पीछे रह गया सब डरना, अब तो प्रेम बस करना ।
जिसे रोकना हो देखे हमें रोककर,
हम प्रेमी इस जगत् के इतने योग्य ॥18
- आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो.9813013065, 8901013065
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