Saturday, July 30, 2016

ब्रह्मानंद चालीसा

जय जय जगत्गुरु ब्रह्मानंद । प्रतिपल अनुभूति आनंद ।।
कैथल जिले में जन्म लिया । हरि हरियाणा को पावन किया ।।
जन्म से ही उनका अद्भूत चरित्र । की लीलाएं सब विचित्र-विचित्र ।।
बालपन से ही तपस्या-प्रेमी थे । चरित्रवान धर्मी नेमी थे ।।
अनेक गुरुओं का किया सत्संग । अज्ञान कारा की ज्ञान से भंग ।।
जहां से भी मिला खूब पीया । मिले जीवन को भरपूर जीया ।।
उच्च-शिक्षित थे शास्त्र-पारंगत । किया सम्मान हर एक मत ।।
सनातन जो मिला संस्कृति से । जोड़ा उसको इहलोक धरती से ।।
भर-भर झोली ज्ञान का प्रसाद । घर-घर जाकर दिया स्वाद ।।
प्रेम, करुणा, मैत्री अवतार । योग, धर्म का बतलाया सार ।।
ब्रह्मरूप हो किया प्रचार । अंज्ञान-अंधकार पर किया प्रहार ।।
‘ओýम तत् सत्’ को पहचाना । जगत् हरेक कण-कण जाना ।।
रचना की ‘ब्रह्मानंद ब्रह्म-विचार’ । ब्रह्म अनुभूति का इसमें प्रचार ।।
‘शारीरकोपनिषद्’ रचना अमर । हो उद्धार जाने कोई अगर ।।
‘ब्रह्मानंद नीति-विचार’ को देख । शुभ-अशुभ का अद्भूत लेख ।।
‘गौ-रक्षा’ में गौ की महिमा । भारतीय संस्कृति उच्चतम गरिमा ।।
विविध रत्न ‘ब्रह्मानंद पचासा’ । मानव मात्र की हर पूरी हो आशा ।।
गागर में गुरु ने भर दिया सागर । वैदिक-ज्ञान को किया उजागर ।।
वेद-उपनिषद्-गीता का सार । मूढ़ से मूढ़ का हो सकता उद्धार ।।
वैदिक ऋषियों की वे थे कड़ी । अज्ञान-व्याधि रामबाण जड़ी ।।
अमृतवर्षा की जहां भी गए । उद्धारकत्र्ता सब हेतु ही भए ।।
स्वयं सुधरो फिर दो उपदेश । ढोंग-पाखंड का भरो मत भेष ।।
ऐसा हर अनुयायी बतलाया । संभलकर चलना जगत् है माया ।।
‘स्व-ज्ञान’ सुनो ज्ञानों का ज्ञान । साधना कर यों ही मत मान ।।
नीति का दीपक तभी जलेगा । ब्रह्मज्ञान का जब फूल खिलेगा ।।
एकांगी नहीं ज्ञानी तुम बनो । झूठा नहीं सत्य ज्ञान से तनो ।।
सत्य-परिवर्तन होगा बस इसी से । भटकाव होगा अन्य किसी से ।।
आचरण उतारो तुम सद्-विचार। काम न देगा बस विचार ही विचार ।।
गौ है दूसरी माता हमारी । पालक-पोषक सुनो महतारी ।।
गौ दुग्ध सब औषध खजाना । करो प्रयोग जो चाहता हो पाना ।।
सब देवों का है इसमें वास । दिव्य-चेतना के यह है पास ।।
वैदिक संस्कृति वैज्ञानिक हमारी । सनातन संस्कृति की विशेषता सारी ।।
इसके बताए पथ पर सब चलना । कष्ट आने पर कभी मत हिलना ।।
यज्ञ, हवन, संध्या करो सब । पहले जरूरी था - जरूरी है अब ।।
पर्यावरण शुद्ध बनेगा सारा । स्वास्थ्यप्रद व निरोगी हो न्यारा ।।
बाहर के साथ भीतर की शुद्धि । देह शुद्ध हो - शुद्ध हो बुद्धि ।।
शुद्ध देह में प्रभु शीघ्र प्रकाश । होगा यह सब ‘स्व’ के प्रयास ।।
समस्त धरा यह ज्ञान फैलाओ । आलस्य त्यागो आओ-आओ ।।
शील धर्म, ज्ञान, मैत्री, मर्यादा । होती नहीं यह कभी भी ज्यादा ।।
जगत्गुरु ब्रह्मानंद आदेश । पूरा अपनाओ कुछ बचे न शेष ।।

-आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

Sunday, July 24, 2016

कृण्वन्तो विश्मार्यम्

           ईसाईयत के प्रचार में नियुक्त षड्यन्त्रकारी एवं पूर्वाग्रह में आकण्ठ डूबे पाश्चात्य लेखकों ने पूरजोर कोशिशें की यह सिद्ध करने की कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं हैं तथा न ही भारत भूमि आर्यों की मूल जन्मभूमि है । इसको सिद्ध करने हेतु सैकड़ों विद्वानों एवं लाखों मिशनरियों को लगाया गया था । इन्होंने अपने जीवनभर स्मृतितोड़, जोड़तोड़ एवं सत्य तोड़ मेहनत की है इस हेतु । इनकी योजना को कार्यरूप देने हेतु अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया तथा युरोप के अन्य ईसाई देशों ने खरबों डालर अपनी इस दुष्ट योजना पर खर्च किए हैं । यह दो-तीन सदी पूर्व शुरू हुआ षड्यन्त्र कोई अब रूक नहीं गया है अपितु अब भी अबाध गति से चल रहा है । अब भी ईसाई देशों से तथा वेटिकन से अरबों डालर प्रतिवर्ष हिन्दुओं के मतान्तरण, हिन्दू सभ्यता व संस्कृति पर विकृत लेखन, हिन्दू मान्यताओं को अवैज्ञानिक सिद्ध करने हेतु उल्टे-पुल्टे कुतर्क प्रस्तुत करने, हिन्दू दर्शनशास्त्र को युनानी दर्शनशास्त्र से नवीन व उसका नकलची सिद्ध करने, वेद-उपनिषद्-पुराण-स्मृति-महाकाव्यों की भौंड़ी व्याख्या करने, भारतीय कला की महत्ता पर मिट्टी डालने, भारतीय भवन निर्माण कला-उद्यान निर्माण कला-सड़क निर्माण कला - चिकित्सा-शिक्षा आदि को पुराणपंथी व समयबाह्य सिद्ध करने हेतु भारत में वैध या अवैध ढंग से भेजे जा रहे हैं। इसी धन व कुचक्र के बल पर ही केरल, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा आदि को इसाई बहुल बना दिया गया है । यदि कोई व्यवस्था इसको रोकने हेतु लागू की जाती है तो सारा मीडिया शोर मचाने लगता है कि भारतीयों की धार्मिक आजादी का गला घोंटा जा रहा है । मीडिया भी तो ईसाईयत व इस्लाम के प्रभाव में ही है । अनेक गैर सरकारी संगठन सड़कों पर धरने-प्रदर्शन करने लगते हैं । ये इस तरह के संगठन ईसाईयत व इस्लामी देशों से भेजे रूपयों से ही पलते-बढ़ते आए हैं । भाजपा की मोदी सरकार ने ऐसे सैंकड़ों संगठनों पर अभी-अभी प्रतिबन्ध लगाकर एक सराहनीय कार्य किया है । कल ही नागालैंड के एक उग्रवादी संगठन से समझौता करके भी श्री मोदी जी ने सूझबूझ का परिचय दिया है ।
         आर्य यानि कि विवेकपूर्ण, सज्जन, अच्छा, भला, सृजनात्मक, रचनात्मक, सुन्दर, प्रतिभाशाली, तरक्की पसन्द एवं गुणसम्पन्न । आर्य यानि कि सबका विकास व साथ में अपना विकास चाहने वाला । आर्य यानि कि अपने साथ सबका हित चिन्तक व आर्य यानि कि शस्त्र व शास्त्र में एक साथ पारंगत । आर्य यानि कि अहिंसा व हिंसा को समयानुसार प्रयोग करने में प्रवीण । आर्य यानि कि धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में सन्तुलन साधकर जीने जीवने वाला, आर्य यानि कि आर्य वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति द्वारा स्थापित मानकों पर जीवन जीने वाला व्यक्ति । इस आर्य व हिन्दू शब्द में भी हमारे कुछ उत्साही साथियों ने विवाद पैदा कर दिया है । वे कह रहे हैं कि हिन्दू, हिन्दी व हिन्दुस्तान शब्द भारतीयों को विदेशियों द्वारा दिए गए हैं । इन शब्दों का अर्थ अपमानजनक, त्रुटिकारक एवं हीनभावना से ग्रस्त है । कुछ नवीन ग्रन्थों (मुसलमान, पारसी व ईसाई) के अध्ययन से इनकी यह मान्यता बन गई है । यदि निष्पक्ष रूप से नए के साथ प्राचीन अरबी भाषा के ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए, वेदों के शब्दों का लौकिक भाषाओं में बदलता रूप देखा जाए तथा संस्कृत भाषा से अन्य भाषाओं के शब्दों में उच्चारण भेद का अवलोकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाऐगा कि यह
           ‘हिन्दू’ शब्द न तो विदेशियों द्वारा हमें दिया गया है तथा न ही यह कोई काफिर व बुरे व्यक्ति का प्रतीक है । वेद के ‘सिन्धू’ शब्द का ‘हिन्दू’ में परिवर्तन कोई अमान्य घटना नहीं है । ‘स’ का ‘ह’ हो जाना हरियाणवी में भी साधारण सी बात है । संस्कृत के ‘सः’ का हरियाणवी में ‘ह’ हो जाना कोई भी हरियाणवी जानने वाला व्यक्ति देख व जान सकता है । ‘हिन्दू’ शब्द किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता, यह सच है । लेकिन इसी से तो यह सिद्ध नहीं हो जाता कि यह शब्द हमें विदेशियों द्वारा दिया गया था । इस तरह के भारतीय जनजीवन में प्रचलित अनेक शब्द मिल जाएंगे कि जो हमारे प्राचीन साहित्य में नहीं मिलते । लेकिन इसी से क्या हम यही अर्थ निकाल लें कि वे सारे के सारे शब्द हमें विदेशियों ने प्रदान किए हैं? इस युग के महान राष्ट्रवादी, स्वदेशी के पोषक, महातार्किक एवं दार्शनिक स्वामी दयानन्द ने ‘आर्य’ शब्द को धारण करने हेतु जोर दिया है तथा अपने नाम के साथ ‘आर्य’ शब्द लगाने को कहा है । ‘हिन्दू’ से ‘आर्य’ शब्द को आपने सर्वश्रेष्ठ कहा है । स्वामी दयानन्द के भाषा ज्ञान, भारतीय सभ्यता व संस्कृति ज्ञान, प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के ज्ञान पर किसी प्रकार का सन्देह करने का न तो हमारा कोई प्रयास है तथा न ही ऐसा करने की हमारी कोई योग्यता है । लेकिन फिर भी स्वामी जी यदि कुछ वर्ष और शरीर में रहते तो वे भी ‘हिन्दू’ शब्द के सम्बन्ध में विविध जानकारी प्राप्त करके शायद इसको स्वीकार करने में हिचक नहीं करते ।
हम सबको आर्य हिन्दू बनना है । जन्मना तो सभी लोग अज्ञानी, अबोध एवं मूढ़ ही होते हैं । लेकिन सब का यह कत्र्तव्य बनता है कि पुरुषार्थ के बल पर अपनी अज्ञानता, अपनी अबोधता एवं अपनी मूढ़ता को छोड़कर सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें । सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें तथा अन्यों को भी बनाएं । ईसाईयत के छल-कपट, इनकी लूटनीति, इनकी भेदनीति तथा इस्लाम के नरसंहारों, इनकी अज्ञानता, इनकी अवैज्ञानिक सोच को हमने अतीत में खूब देखा है तथा अब भी देख रहे हैं । धोखे या प्रलोभन या षड्यन्त्र का शिकार होकर ईसाई या मुसलमान न बनें अपितु आर्य हिन्दू ही बनें । केवल और केवल इसी से ही भारत व भारतीयता का कल्याण सम्भव हो सकता है । आप कुपथ पर न चलें अपितु सत्यथ पर चलें और यह सत्यथ आर्य वैदिक सनातन हिन्दू होना ही है ।
-आचार्य शीलक राम

Tuesday, July 19, 2016

मादकता

वह मादकता ही क्या जिसमें रह जाए जग का भय ॥
क्रूर जीवन संसार, सबका दुष्ट व्यवहार ।
सबका मतलब काम, चाहे निकले हो बदनाम ।
प्रेमी कहां किसी के रोकने से रूकते हैं
चाहे बने कोई कितना भी निर्दय ॥1
जब तत्त्पर होने को एक, शत्रु हो जाए प्रत्येक ।
ध्यान प्रेम कहां देते हैं, मौत को भी छू लेते हैं ।
छा जाती है ऐसी मादकता चहूं दिशि,
विचलित नहीं कर सकता उनको कोई भी विषय ॥2
डर व प्रेम नहीं एक साथ, असंभव हाथ में हाथ ।
प्रेम किया तो क्या डरना, चाहे इस पथ पर हो मरना ।
देह व मन पर सावन की फुहार सी मादकता छाए,
हार न होती वहां, होती है बस जय ही जय ॥3
सुन लो जो है मेरा, मुझ हेतु वही है सवेरा ।
उसके बिना मैं न रहूं, कितनी बार यह कहूं ।
प्रेम पथ पर मैं कहीं तक भी जा सकता हूं,
किसी को भी न होना चाहिए इस पर संशय ॥4
धूर्त है यह संसार, सबका कपटी व्यवहार ।
प्रेम की बस बातें करते, अन्यथा मारते व मरते।
अस्तित्व में झांकने की खिड़की है प्रेमिका सुनो,
मिलन न हुआ तो मेरा यहां मरना है तय ॥5
वासना से सब बंधे हैं, प्रेम-पथ पर अंधे हैं ।
बस नजर है चमड़ी पर, धोखा दे दें दमड़ी पर ।
क्या जाने वे प्रेम की गहराई को,
कपटी, व्यापारी, छली, भोगी, संचय ॥6
क्या नशा करे कोई शराब, शतरंगी देखे ख्वाब ।
मादकता प्रेम की सुनो ऐसी, गहराई की गहराई जैसी ।
जो गया वो वापिस कभी न आया है
अहम् का मरना सुनो जहां है विनय ॥7
साहस यह सबसे बड़ा, करने को मैं हूं खड़ा ।
कौन है जो मुझे रोकेगा, खुद चाहे मुझे टोकेगा ।
चाहे अंग-अंग कट जाए इस पथ पर,
नहीं बिगड़ेगी इससे मेरी प्रेमी की लय ॥8
डर में भागना होता है, प्रेम में जागना होता है ।
मृत्यु होनी वहां निश्चित, साथ छोड़े सब परिचित ।
आनंद की वर्षा में हर पल भीगना तब,
उपलब्ध हो जाता वह इसी देह में अभय ॥9
अद्भूत, विचित्र वहां मस्ती; बिन तोल मिले खूब सस्ती।
सिर दिए वह मिलती है, कमल फूल सी खिलती है ।
सब डूबे उसमें मेरी चाहना यह,
प्रेमशास्त्र का सुनो यह अनिर्वचनीय नय ॥10
अहम् जाने दो तुम अपना, लगेगा जग यह सपना ।
अपने में सबको ही पाओगे, प्रेम-योगी कहलाओगे ।
कुल जाति, मर्यादा, स्थान सब व्यर्थ हैं,
कोई भी हो सकती है उस योगी वय ॥11
मेरा मुझमें कुछ भी नहीं है, जैसा जाना वैसी ही कही है ।
बुरा मानो चाहे कोई भला, प्रेम है एक दिव्य कला ।
साधना करके जाना बस मैंने सब,
मैं तो हूं मात्र परमपिता का एक संजय ॥12
चमड़ी से भीतर चले जाओ, चित्त अपने के विकार मिटाओ ।
कहा-कही से यह न होगा, साधना करके बना अंतर्भोगा ।
मैंने भी इसे इसी तरह जाना है,
यही है मेरा सुनो कुल इतना परिचय ॥13
मछली रहे चाहे बिन पानी, ऋतु करें कितनी भी मनमानी ।
पानी उछले नीचे को जाए, अग्नि जले ऊपर को कहलाए ।
जलधर बरसें नीर वसुधा पर,
नहीं रूकते प्रेम पान करने से पय ॥14
जीना हो चाहे मरना, चढ़ना हो चाहे उतरना ।
कुछ भी कहे समाज, निर्भय फिर भी अंदाज ।
पल-पल असह्य हो विरह में रहना,
हर तल हो जाए दोनों का पूर्ण विलय ॥15
नेत्र न देखें कुछ और, बस प्रेम की गौर ।
हर जगह दिखाई दे अपना, जीना हो या खपना ।
वियोग प्रेमी से असह्य हो जाए,
हर दिन देह होती जाती है क्षय ॥16
प्रेमी मेरा मैं उसकी, बात नहीं अब वश की ।
असंभव उसके बिना जीना, कहूं मैं ठोककर सीना ।
मेरा आराध्य मेरा प्रभु वह,
हम परस्पर अर्जुन व धनंजय ॥17
हमारी मादकता इतनी गहरी, क्या करेगा कोई प्रहरी ।
पीछे रह गया सब डरना, अब तो प्रेम बस करना ।
जिसे रोकना हो देखे हमें रोककर,
हम प्रेमी इस जगत् के इतने योग्य ॥18
- आचार्य शीलक राम
दर्शन विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
मो.9813013065, 8901013065
e mail id : shilakram9@gmail.com

Saturday, July 16, 2016

सब झूठ के पुजारी

 
किसी भी कर्म का फल नहीं मिला।
आरंभ से ही यह चल रहा सिलसिला।।
अच्छा करके सदैव मिली बर्बादी।
छिन गई सारी आशाएं, आजादी।।

सारी आशाएं मिल चुकी धूल।
मेरे सब हो चूके हैं प्रतिकूल।।
साथ देने में सब पीछे रहते।
पूरा स्वार्थ कर मुझे बुरा कहते।।

कोई भी नहीं मर्यादा मानते।
काम पूरा हो फिर नहीं जानते।।
सबको अपने-अपने से मतलब।
मित्र दु¢खी उन्हें यह चिंता कब।।

सीढ़ी बनाने को सब उत्सुक।
बना दिया उन सबने भिक्षुक।।
सच कहो तो हो जाते नाराज।
झूठ के पूजक हैं सब आज।।

कपट नहीं कर सकता सच्चा मित्र।
एक समान होता वह बाहर-भीतर।।
ऐसे मित्रों की समझे कोई कीमत।
केवल वो समझे, करे जो हिम्मत।।

कहां हैं ऐसे समझाने वाले।
उपर से मित्र भीतर से काले।।
झूठों के सब झूठे हैं दावे।
है कोई जो इनको समझावे।।

दृष्टि रखते अपने हित पर।
अपने हो जाएं चाहे इससे बेघर।।
मित्र हित को माने झमेला।
सच्चा मित्र जग में अकेला।।

लोग सरल हैं, यहां पर कितने।
क्यों तत्पर हैं, मरने-मिटने।।
सीख लो अवश्य कुटिलता प्यारे।
नही ंतो जीओगे किसके सहारे।।

तुम दोगे, देगा कोई अन्य।
बनकर टेढ़ा, हो जाओ धन्य।।
अस्तित्व भी मदद करेगा तुम्हारी।
स्वर्णिम सीख यही है हमारी।।

सीधे वृक्ष यहां शीघ्र कटते हैं।
टेढ़े-मेढ़े ही जाते डटते हैं।।
सरल-सहज का भी यही हाल है।
ले जाता उनको शीघ्र काल है।।

विश्व के संघर्ष में यदि डटना है।
विरोधी लोगों से नहीं पिटना है।।
चाणक्य कुटिलता तुम अपनाओ।
मिलेगी सफलता कहीं भी जाओ।।
समझे कौन यहां मेरी पीड़ा।
हर पथ होता रहा भीड़ा।।
संकट में हूं कतई अकेला।
अन्यथा यहां सदा रहता मेला।।
-आचार्य शीलक राम

भूखे भजन न होई गोपाला


हाल बुरा है आशाएं अधूरी।
जीवन बना है गैर जरूरी।।
ऐसे ही जीवन बीता जाता।
अर्थ अपने मुझको बतलाता।।

दुख आए चाहे सुख आए। 
हर दिन मुझको बहुत सताए।।
संतुष्टि मुझको कोई नहीं देता।
भ्राता, मित्र, शत्रु चाहे नेता।।

यथार्थ व आदर्श में अंतर है।
व्यवहार ही भाई सत्य मंत्र है।।
क्हना व करना कती विपरीत है।
कौन यहाँ पर किसका मीत है।।

मात्र उपदेश से भरता नहीं पेट।
हो जाऐगा मटियामेट।।
हकीकत कुछ भिन्न होती है।
सत्य का बस यही मोती है।।

थोड़ी कुटिलता यहां चाहिए जरूर।
केवल उपदेश का करना न गरूर।।
कौन समझता है, सत्य-उपदेश को।
जानो-मानो परिवेश को।।

करते कुछ हैं, कहते कुछ हैं।
भरे सब जगह, ऐसे ही तुच्छ हैं।।
धोखा न खाओ, सत्य पहचानो।
जीवन जाना है, माना या न माना।।

संतुष्टि भीतर यह कहता योग।
दुर्लभ यह मिलना संयोग।।
प्रथम जरूरी पेट का भरना।
फिर सार्थक कहीं पर ठहरना।।

कहने को यह बहुत सरल है।
अनुभव में यह सम गरल है।।
बकते बहुत जो भरे हैं पेट।
वर्षा, सर्दी जानें क्या जेठ।।

क्या होता केवल भीतरी स्ंतुष्टि से।
सांसारिक जीवन चले पेट की पुष्टि से।।
आनंद, अहोभाव पेट नहीं भरते।
क्या लाभ ऐसे तड़पकर मरते।।

भीतरी संतुष्टि को क्या मैं चांटू।
कुछ भी पास नहीं जो अब बांटू।।
लगते अमीरों के षड्यंत्र धर्म, ध्यान।
जीवन दूभर जीना उनकी मान।।

भूखे पेट न हो सकती भक्ति।
भक्ति को भी चाहिए शक्ति।।
बदहाल को ना दो भक्ति की शिक्षा।
-आचार्य शीलक राम