कोई व्यक्ति धूर्त होकर अपने आपको सज्जन दिखलाने का ढोंग कब तक करने में सफल हो सकता है? कोई व्यक्ति परले दर्जे का अय्याश और ढोंगी होते हुये भी अपने आपको कब तक संयमी दिखलाने में सफल हो सकता है? एक व्यक्ति झूठा, धोखेबाज और स्वार्थी होकर भी अपने आपको कब तक सत्यवादी, निष्कपट और निस्वार्थी दिखलाने में सफल हो सकता है? ध्यान रहे कि हमारे तथाकथित उच्च -शिक्षित और उच्च -कोटि के महापुरुष कहलवाने वाले सुधारक, नेता, धर्माचार्य, पूंजीपति, कथाकार, प्रोफेसर, प्रशासनिक अधिकारी, स्वामी, संन्यासी, फकीर,फादर, मौलवी,योगाचार्य, सद्गुरु आदि इस कला में पारंगत होते हैं। छोटे स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड जल्दी हो जाता है लेकिन बड़े स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड आजीवन नहीं होता है।हां, कोई आशाराम या गुरमीत राम या रामपाल आदि का जल्दी भांडाफोड हो जाता है और वो जेल पहुंच जाते हैं। लेकिन वो फिर भी मूढों और बेवकूफों के आदरणीय भगवान् बने रहते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या करें,वह सुबह कुछ है, दोपहर को कुछ और है तथा शाम को कुछ अन्य ही हो जाता है।वह अपने कपट,छल, ईर्ष्या,द्वेष, कामुकता, धूर्तता को अधिक समय तक छिपाने में सफल नहीं हो पता। इसीलिये जन-सामान्य की नजरों में वह महान या बड़ा नही है। अपने नित्यप्रति के आचरण के इस दोगलेपन की चिकित्सा या काउंसलिंग किसी भी काउंसलर या काउंसलिंग के पास उपलब्ध है?साईकोलाजिकल या फिलासाफिकल काउंसलिंग के माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौजूद नैतिक या वैचारिक या भावनात्मक या मानसिक या सैद्धांतिक अस्थिरता, द्वंद्व,असामान्यता आदि को ठीक करने पर व्याख्यान,लैक्चर, गोष्ठियां आदि तो खूब होते हैं लेकिन परिणाम बिल्कुल शून्य है। जनसाधारण हो या विशिष्ट हो, नेता हो या उच्च -अधिकारी हो, प्रोफेसर हो या मनोचिकित्सक हो, कथाकार हो या योगाचार्य हो, काउंसलर हो या चिकित्सक हो- सभी के सभी पहले की अपेक्षा और भी अधिक धूर्त, ईर्ष्यालु,कामुक, स्वार्थी, झूठे, लालची ,हताश, अकेले और आचरण के दोगलेपन से ग्रस्त होते जा रहे हैं। किसी असामान्य व्यक्ति की साईकोलाजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग करने की चिकनी चुपड़ी- बातें सुनने में बड़ी मजेदार लगती हैं लेकिन जब परिणाम दिखलाने की बात आती है तो स्वयं काउंसलर भी लड़ाई -झगडे पर उतर आते हैं।उस समय तो लगता है कि जनसाधारण की अपेक्षा इन तथाकथित काउंसलिंग करने वाले काउंसलर को ही काउंसलिंग की सर्वाधिक आवश्यकता है, यदि कोई काउंसलिंग हो सकती हो तो! आप काउंसलिंग से संबंधित किसी भी व्याख्यान, लैक्चर,गोष्ठी, सैमिनार में जाईये, आपको वही रटी रटाई तथा घिसी पिटी सुकरात,देकार्त,फ्रायड,एडलर,जुंग, मैचिन, रोजर्स,पार्संस, मैस्लो की उबाऊ बातें सुनने को मिलेंगी। हां, अपने आपको कुछ अलग दिखलाने के लिये भारत में आजकल कुछ काउंसलर ने अष्टांगयोग, विपश्यना, प्राणापान,प्रेक्षा ,साक्षी और कृष्णमूर्ति के अवलोकन को भी अपने काउंसलिंग से संबंधित व्याख्यानों, आलेखों और पुस्तकों में सम्मिलित कर दिया है। लेकिन ऐसे काउंसलर के चरित्र और आचरण में सनातन भारतीय योगविद्या, योगाभ्यास और अध्यात्म का अ ,आ, इ ,ई भी अभ्यास और अनुशासन में नहीं है।बस ,अपने अपने व्याख्यानों, लैक्चर और पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं। प्रायोगिक सृजनात्मक परिणाम की जहां तक बात है,न तो पश्चिम में तथा न ही भारत में किसी काउंसलर ने आज तक कुछ भी करके दिखलाया है। सभी के सभी काउंसलर बस विचारों, सिद्धांतों और विधियों की जुगाली करते जा रहे हैं। द्वितीय महायुद्ध से लेकर अब इजरायल-अरब युद्ध,रुस- युक्रेन युद्ध,भारत- पाकिस्तान युद्ध सहित अन्य किसी भी क्षेत्र में व्याप्त नैतिक, वैचारिक, भावनात्मक, दार्शनिक, चारित्रिक, सैद्धांतिक आदि मुद्दों की विषमता पर कुछ भी सृजनात्मक और रचनात्मक करके दिखलाया हो तो बतलाओ।बस, सभी के सभी टाईमपास कर रहे हैं या काउंसलिंग की आड़ में दुकानदारी कर रहे हैं या प्रसिद्ध होने की सनक का शिकार हैं।
पश्चिम वाले तो अपनी उपयोगितावादी फिलासफी को जैसे तैसे बचा लेंगे लेकिन आप लोग अपने दर्शनशास्त्र को कैसे बचाओगे? इस फिलासफिकल काउंसलिंग के माध्यम से आपने तो दर्शनशास्त्र विषय को ही समाप्त करने का जुगाड कर लिया है। भारत में पहले ही दर्शनशास्त्र-विभाग बंद हो रहे हैं।क्योंकि हमारे दर्शनशास्त्रियों, नेताओं, नीति-निर्माताओं की मूर्ख सोच के कारण विद्यार्थियों की इस विषय में कोई रुचि नहीं रह गई है। इनकी बेवकूफी और उपेक्षा के कारण यह विषय न तो रोजगार दे पा रहा है,न चरित्र दे पा रहा है,न नैतिक मूल्य दे पा रहा है,न तर्क दे पा रहा है तथा न ही प्रामाणिक विचारक दे पा रहा है। होना तो यह चाहिये था कि आप भारतीय बच्चों को भारतीय दर्शनशास्त्र के अंतर्गत न्यायशास्त्र,ज्ञानशास्त्र,तर्कशास्त्र,नीतिशास्त्र, योगशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन,अध्यापन और शोध आदि करने करवाने पर जोर देते। लेकिन आपने ऐसा नहीं करके दर्शनशास्त्र विषय की बजाय स्वयं के प्रसिद्ध हो जाने पर अधिक जोर -आजमाइश की है।पश्चिम वाले तो अपनी फिलासफी के अनुसार उपयोगितावादी, स्वार्थी, उन्मुक्त भोगी और यूज एंड थ्रो के अनुसार जीवन यापन कर रहे हैं लेकिन भारतीय न तो पाश्चात्य हो पा रहे हैं तथा न ही भारतीय हो पा रहे हैं। अपने दर्शनशास्त्र की उपेक्षा और पाश्चात्य की अंधी नकल ने भारतीयों को कहीं का भी नहीं छोड़ा है। इनकी हालत न यहां के रहे, न वहां के रहे वाली हो चुकी है।
यह भी बड़ा दिलचस्प है कि तांत्रिक टोने- टोटके और झाड़-फूंक से नित्यप्रति के जीवन की समस्याओं के समाधान की बात जितनी लोकप्रिय भारत में है ,उतना ही लोकप्रिय युरोप और अमरीका आदि में भी है।बस, फर्क यह है कि भारत के संबंध में मीडिया द्वारा दुष्प्रचार अधिक कर दिया जाता है जबकि युरोप और अमरीका के संबंध में इसे छिपा लिया जाता है।जिसकी लाठी,उसी भैंस वाली कहावत यहां भी लागू हो रही है। पश्चिम और भारत में आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व वो लोग करते हैं जो कभी न कभी अपने जीवन की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, वैचारिक आदि समस्याओं के समाधान के लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास अवश्य गये होंगे तथा अब भी जाते हैं। समस्याग्रस्त या असामान्य व्यक्ति का लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास जाकर अपनी समस्याओं का समाधान करवाना क्या सही है या गलत - इस संबंध में भी अंधेरगर्दी मिलती है। यदि बहुत से व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का समाधान इन बाबाओं, तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास मिल जाता है तो इन्हें काउंसलर कहा जायेगा या नहीं कहा जायेगा - इस संबंध में साईकोलाजिकल और फिलासफिकल काउंसलर का नकारात्मक दृष्टिकोण उनके खुद को बिमार होने की ओर संकेत करता है।यह नहीं होना चाहिये।
एक व्यक्ति का होना बहुत से सिस्टम और तंत्रों का सम्मिलित रुप से मौजूद होना है।एक व्यक्ति में अनेक सिस्टम या तंत्र काम कर रहे हैं,इन सबके सम्मिलित ढांचे को व्यक्ति कहते हैं। यदि व्यक्ति के आत्मिक स्वरूप को कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाये तो एक व्यक्ति में लसिका तंत्र,हड्डी तंत्र,धातु तंत्र,नलिकाविहीन ग्रंथि तंत्र,पाचन तंत्र, मूत्र विसर्जन तंत्र, श्वास तंत्र,चक्र तंत्र,त्रिदोष तंत्र, त्रिगुण तंत्र,पंचकोश तंत्र,सप्त शरीर तंत्र आदि होते हैं। कोई व्यक्ति जब असामान्य या असहज होता है तो उसे कौनसी काउंसलिंग देना चाहिये ताकि वह व्यावहारिक, तार्किक, मानसिक, वैचारिक रुप से ठीक हो जाये? कोई व्यक्ति जब असहज या असामान्य होता है तो उस व्यक्ति के कौनसे हिस्से में विकार आता है कि काउंसलिंग द्वारा जिसके ठीक किये जाने से वह व्यक्ति ठीक हो जायेगा? सामाजिक परिवेश, व्यक्तिगत परिवेश,उस व्यक्ति का स्थूल शरीर, प्राण शरीर,मनस शरीर आदि में से किसकी चिकित्सा या काउंसलिंग द्वारा वह व्यक्ति ठीक हो सकेगा - इसका निर्धारण कैसे होगा? एक व्यक्ति के कौनसे सिस्टम या तंत्र की चिकित्सा या काउंसलिंग करने से वह व्यक्ति खुद ठीक ठीक महसूस करेगा - काउंसलिंग इस संबंध में हवा में लाठियां चलाते हुये नजर आते हैं। पाश्चात्य और उसकी नकल करके बनाई गई भारतीय काउंसलिंग में हरेक काउंसलर मोरल या साइकोलॉजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग पर टिककर नहीं रहता है।एक प्रकार की काउंसलिंग को शुरू करके वह अन्य प्रकार की काउंसलिंग को भी जबरदस्ती करके प्रवेश करवाकर एक बेमेल ऐसा दलिया तैयार कर देता है जो न तो कोई पोषण देता है,न खाने में स्वादिष्ट है तथा न ही अधिक दिन तक टिक सकता है।मोरल वाले मोरल तक, साइकोलॉजिकल वाले साइकोलॉजिकल तक तथा फिलासफिकल वाले फिलासफिकल काउंसलिंग तक सीमित क्यों नहीं रहते हैं?ये अपनी सीमाओं का उल्लंघन क्यों करते हैं?इनका इस प्रकार का व्यवहार क्या इन्हें स्वयं ही बिमार, असामान्य और असहज नहीं बतलाता है? और यदि एक दूसरे में घालमेल किये बगैर काम नहीं चल रहा है तो इन कयी प्रकार की काउंसलिंग को मिलकर एक ही कर दो।अलग अलग दुकान खोलना क्यों आवश्यक है? इनके इस सनकी व्यवहार से लग रहा है कि काउंसलिंग के नाम पर जो कुछ चल रहा है,उसमें किसी व्यक्ति की काउंसलिंग कम और अपनी प्रसिद्धि, अहंकार की तुष्टि और दुकानदारी अधिक है।कोरे शाब्दिक प्रवचन, संवाद, डायलाग,उपदेश, शिक्षाएं, सत्संग, गोष्ठियां, सैमिनार किसी किसी व्यक्ति को कहां तक और कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाते हैं - इस संबंध में अधिकांश परिणाम और निष्कर्ष नकारात्मक ही हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान भी अपनी 100-150 वर्षों की यात्रा में आत्मा और चेतना के अध्ययन से होते हुये आज व्यवहारिक मनोविज्ञान पर आ चुके हैं। और ये यहां पर भी टिक पायेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम आत्मा, चेतना आदि को नहीं देख सकते तो व्यवहार भी कहां दिखाई पड़ता है? सिर्फ व्यवहार के प्रभाव ही हमें दिखाई पडते हैं।तो समस्या वहीं की वहीं हैं। आखिर किसी व्यक्ति को हम वह कैसे बना सकते हैं, जिसके बनने की संभावनाएं और योग्यताएं उसके चित्त में मौजूद करोड़ों करोड़ों संस्कारों के समूह में मौजूद ही नहीं हैं। उदाहरणार्थ सुकरात ने हैमलेट विष को पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। जिद्दू कृष्णमूर्ति के सिर में आजीवन भयंकर पीड़ा होती रही थी।यह सब क्या है?एक बात और है - सुकरात को सुकरात बनने में और जिद्दू कृष्णमूर्ति को जिद्दू कृष्णमूर्ति बनने में उनके गुरुओं की दशकों की मेहनत का परिणाम था।आज हम उपरोक्त महापुरुषों की विधियों के सहयोग से बिना किसी साधना, तपस्या, संयम, अनुशासन, योगाभ्यास के कैसे किसी व्यक्ति की काउंसलिंग करके उसे नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक रूप से सहज, संतुष्ट, संतुलित और तृप्त बना सकते हैं?
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119
"क्रांतिकारी विचारक, लेखक, कवि, आलोचक, संपादक" हरियाणा की प्रसिद्ध दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रवादी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) का संचालन तथा साथ-साथ कई शोध पत्रिकाओं का प्रकाशन। मेरी अब तक धर्म, दर्शन, सनातन संस्कृति पर पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आचार्य शीलक राम पता: आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक हरियाणा वैदिक योगशाला कुरुक्षेत्र, हरियाणा ईमेल : shilakram9@gmail.com
Thursday, September 4, 2025
मोरल,फिलासफिकल और साइकोलॉजिकल काउंसलिंग : सत्य,तथ्य या भ्रम? (Moral, philosophical and psychological counselling: Truth, fact or myth?)
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