Thursday, September 4, 2025

वैज्ञानिक के साथ धार्मिक और नैतिक होना भी आवश्यक है (Apart from being scientific, it is also necessary to be religious and moral.)


इस सच्चाई पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो गया है कि जीवन और जगत् में हरेक समस्या, परिस्थिति और विषय को विज्ञान की कसौटी पर ही क्यों कसा जाये?यह दृष्टिकोण ही स्वयं में अवैज्ञानिक है। सर्वप्रथम विज्ञान को ही क्यों न विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये? विज्ञान, विज्ञान में शोध, विज्ञान में प्रयुक्त शोध विधियों,विज्ञान में प्रयोग, विज्ञान की प्रयोगशालाओं,प्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्षों,इन निष्कर्षों से विभिन्न प्रकार की तकनीक निर्माण, इन तकनीक के सहारे जमीन से खनिजों की खुदाई, वृहद स्तर पर उपभोक्ता सामान का निर्माण, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खेती-बाड़ी में प्रयोग खतरनाक दवाईयों का निर्माण, चिकित्सा के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों का औषधीय बाजार, बड़े बड़े बांधों का निर्माण, विध्वंशक हथियारों का निर्माण, परिवहन के साधनों की व्यवस्था, धरती के पर्यावरण को नष्ट करने वाले वातानुकूलित यंत्रों का निर्माण, आलीशान कंक्रीट के भवनों का निर्माण आदि आदि सभी कुछ हमें विज्ञान ने ही तो प्रदान किया है। पिछले 300 वर्षों के दौरान विज्ञान की चमत्कारी खोजों का इस धरती को कितना फायदा और कितना नुक़सान हुआ है - इस पर वैज्ञानिक ढंग से सोचने की कभी कोशिशें हुई हैं? क्या तीन सदियों के दौरान हुये विज्ञान के बल पर विकास को विज्ञान की कसौटी पर कसने के कोई प्रयास हुये हैं? नहीं,नहीं और नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। वैज्ञानिक, खोजी,दार्शनिक, विचारक, तार्किक,शिक्षक, नेता, धर्मगुरु आदि सभी इस पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। इनकी चुप्पी को कभी किसी ने विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा है? विज्ञान की आड़ लेकर पिछली तीन सदियों से संसार का सबसे अधिक शोषण किया जा रहा है। यदि कोई इस पर कुछ विरोध करे तो उसे अवैज्ञानिक, परंपरावादी, पिछड़ा,रुढ़िवादी और गंवार कहकर चुप करवाने की कोशिशें की जाती हैं। दिक्कत यह है कि पूरा सिस्टम भी इन तथाकथित वैज्ञानिक सोच के लोगों के साथ खड़ा मिलता है।इनके लिये न तो मानवीय मूल्यों की कीमत है,न पाशविक जगत् के प्राणियों के प्रति कोई हमदर्दी है,न पेड़ -पौधों -जंगलों- जल -वायु आदि को शुद्ध रखने की जिम्मेदारी का कर्तव्य है।हर तरफ से यह धरती विज्ञान के दुरुपयोग के सहारे विनाश, विध्वंस, युद्धों से ग्रस्त है।

सिस्टम से हार -थककर कोई समझदार व्यक्ति दो दिशाओं में अपने जीवन को ढालता है।एक नास्तिकता की तरफ तथा दूसरा आस्तिकता की तरफ। जनसाधारण को सिस्टम से कोई अधिक दिक्कत न पहले रही है तथा न अब कोई दिक्कत है। जनसाधारण को किसी भी दिशा में मोड़कर उसका शोषण किया जा सकता है।उसे नास्तिक भी बनाया जा सकता है तथा आस्तिक भी बनाया जा सकता है। जनसाधारण को आस्तिक या नास्तिक होने में कोई रुचि नहीं होती है।उसको तो कुछ शोषक नास्तिक या आस्तिक विचारकों द्वारा अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित करने का साधन मात्र बनाया जाता है। हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है। जनसाधारण केवल पेट में जीता है,सिर में जीने की उसे फुर्सत ही नहीं है।भ्रष्ट और शोषक सिस्टम में पिसते पिसते वह नमक तेल आटा कपड़े का जुगाड करते करते अपने कंधों और घुटनों को तुड़वा बैठता है।बस ऐसे ही एड़ियों को घिसते घिसते तथा तथाकथित नास्तिक या आस्तिक किसी शोषक धर्मगुरु या नेता या सुधारक की गुलामी करते करते वह इस संसार से चला जाता है। पीछे छोड़ जाता है वही पुराना शोषण, गुलामी, दासता, गरीबी और बदहाली।इस जनसाधारण वर्ग से कभी कोई कबीर या रविदास या नानक आस्तिक होकर आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो तो तुरंत नकली आस्तिकों के झुंड उनके चारों तरफ दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं तथा उनके नाम पर भी मजहब बनाकर फिर से जनसाधारण का शोषण शुरू कर दिया जाता है। जहां तक कमाकर खाने और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की बात है,न तो आस्तिकों के तथाकथित महापुरुष लोग स्वयं की मेहनत का खाते पीते हैं तथा न ही नास्तिकों के। दोनों ही जमकर जनसाधारण का शोषण करते हैं। युनानी विचारक प्लेटो ने तो घोषणा ही कर रखी थी कि दुनिया पर शासन करने का अधिकार सिर्फ धनी मानी,अमीर ,फिलासफर लोगों को है। जनसाधारण सिर्फ शासित हो सकता है,शासक नहीं। पहले मनमाने और मनघड़ंत नियमों, कानूनों का संविधान बना दो और फिर इन्हीं को आधार बनाकर जनसाधारण पर दमनपूर्वक शासन करो! और आश्चर्यजनक तो यह है कि इसी लोकतंत्र और जनतंत्र कहकर सबसे विकसित और मानवीय राजनीतिक व्यवस्था प्रचारित किया जाता रहा है।जिसकी लाठी उसी की भैंस।

जो काम सौंदर्य के आकर्षण के बल पर शीघ्रता से किये और करवाये जा सकते हैं,वो कठोर मेहनत और प्रतिभा के बल पर नहीं करवाये जा सकते। संसार में जो सफलता सुंदरता,नयन -नक्श, आकर्षक अदाओं, मनमोहक वाक् शैली और  कामुक चाल-ढाल के माध्यम से दिनों में मिल सकती है वो सफलता हाड़तोड़ मेहनत, योग्यता और प्रतिभा के माध्यम से आजीवन भी उपलब्ध होना असम्भव है।इस संसार को बना ही कुछ ऐसा दिया गया है कि यहां पर शबाब, शराब और कबाब के जरिये किसी बड़े पद पर बैठे हुये व्यक्ति से या नेता से या धर्मगुरु से या अमीर व्यक्ति से कुछ भी करवाया जा सकता है। उसकी हिम्मत नहीं कि वह मना कर दे। सफलता के इस रहस्य को जानते सभी हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से कहने की हिम्मत किसी की भी नहीं है। कहने वाले को या किसी नकली मुकदमे में फंसा दिया जायेगा या हत्या करवा दी जायेगी। प्रचार कुछ और हकीकत कुछ अन्य ही।माल कुछ दिखाते हैं और सप्लाई कुछ अन्य ही करते हैं। कामुकता हरेक व्यक्ति ही नहीं अपितु हरेक प्राणी की कमजोरी है।बस मनुष्य सदैव कामुक रहता है जबकि अन्य प्राणी संतानोत्पत्ति के लिये ही कामुक होते हैं। जनसाधारण क्या और विशिष्ट क्या - सभी के लिये कामुकता और सौंदर्य विशेष महत्व रखते आये हैं।बस,पशु और पक्षी अपनी कामुकता, अपने सौंदर्य और अपनी मनमोहक अदाओं का अधिक दुरुपयोग नहीं कर पाते हैं जबकि मनुष्य प्राणी ने तो इस क्षेत्र में सारे रिकॉर्ड तोड़ रखे हैं।इस क्षेत्र में मादा मनुष्य बहुत आगे है।हर कोई तो ऐसा नहीं करता है लेकिन अधिकांश के संबंध में यह सच है। भौतिक विज्ञान ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो लेकिन बड़े बड़े वैज्ञानिक, विज्ञान के शिक्षक, विज्ञान के शोधार्थी आदि भी कामुकता,सौंदर्य और काम बाणों से नहीं बच पाते हैं।उनकी सारी प्रतिभा, उनके विचार,चिंतन,तर्क,अनुसंधान आदि धरे के धरे रह जाते हैं। दुनिया का इतिहास उठाकर पढ़कर देख लो, बड़े -बड़े धुरंधर वैज्ञानिक, दार्शनिक,विचारक, नेता,राजा,सम्राट,किंग,प्रशासक आदि ने सौंदर्य और कामुकता के सामने सहज ही समर्पण कर दिया था।आज भी ऐसा ही हो रहा है।हरेक देश में बड़े- बड़े नेताओं, मंत्रियों, राजदूतों,उद्योगपतियों, शिक्षकों, धर्माचार्यों, अधिकारियों,न्यायविदों, अपराधियों के पास अपनी वैवाहिक जिन्दगी के अतिरिक्त अवैध नारी मित्र या पुरुष मित्र मिलते हैं।जो अमीर और बड़े लोग हैं, उनका दुराचरण भी सदाचरण की श्रेणी में गिना जाता है। लेकिन जनसाधारण किसी की तरफ कामुक नज़रों से देख भर ले तो पता नहीं कितने एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज हो जायेंगे। यही आधुनिक विकास की परिभाषा और शैली है। भारतीय नेताओं और नीति निर्माताओं ने तो अपनी सुविधा और उच्छृंखल भोग -विलास के लिये 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे कानून बना रखे हैं। क्या गजब के राष्ट्रवादी और धर्मप्रेमी प्रकृति के सांस्कृतिक लोग हैं।

संसार में ऐसा कौनसा दर्शनशास्त्र, ऐसी कौनसी फिलासफी,ऐसी कौनसी विचारधारा, ऐसा कौनसा सिद्धांत, ऐसा कौनसा संप्रदाय, ऐसा कौनसा मजहब, ऐसा कौनसा महापुरुष हैं जिसकी आड़ लेकर इन्हीं के अनुयायियों ने उपरोक्त को जनमानस की लूट और अपने स्वयं को मालामाल करने के लिये दुरुपयोग नहीं किया गया हो। किसी का कम तो किसी का अधिक सभी का दुरुपयोग हुआ है। दुरुपयोग करने वाले कोई अन्य ग्रहों से आये व्यक्ति नहीं अपितु इनके स्वयं के नजदीकी भक्त लोग ही रहे हैं।हर सही को ग़लत,हर नैतिक को अनैतिक तथा हर मानवीय को अमानवीय बना देने का हूनर अनुयायियों, भक्तों और नकल करने वालों में मौजूद होता है।इसका पता अनुयायियों के आराध्य महापुरुषों को होता भी है। लेकिन कुछ तो इसलिये चुप रह जाते हैं कि उनकी सोच ही लूटेरी,शोषक और भेदभाव की होती है और कुछ इसलिये चुप रह जाते हैं कि क्योंकि उनको मालूम होता है कि अनुयायी, भक्त, नकलची लोग ऐसे ही होते हैं। उपरोक्त दोनों हालात में जनमानस ठगा जाता है। उपरोक्त दोनों से उत्पन्न ऊहापोह के कारण सत्य के खोजियों को ही दिक्कत होती है। सत्य के खोजियों के लिये कंकड़-पत्थर से हीरे निकालने के समान मेहनत करनी पड़ती है।
भारत में पिछले 100-150 वर्षों के दौरान पैदा हुये धार्मिक,आध्यात्मिक, सुधारात्मक संगठनों ने राष्ट्रवासियों के चरित्र-निर्माण,सेवा, साधना आदि  की अपेक्षा स्वयं की प्रसिद्धि,अनुयायियों की भीड़ बढ़ाने,भव्य आश्रम निर्माण करने, राजनीति में दखलंदाजी तथा स्वयं के लिये भोग विलास की सुविधाएं एकत्रित करने पर अधिक ध्यान दिया है। आर्यसमाज ने भारत को सर्वाधिक राष्ट्रभक्त और विचारक प्रदान किये हैं। लेकिन अपने शुरुआती वर्षों में पंडित गुरुदत्त,स्वामी श्रद्धानंद,लाजपत राय, जगदेव सिद्धांती,पंडित भगवद्दत्त, आर्यमुनि,आचार्य उदयवीर, युधिष्ठिर मीमांसक,रामचंद्र देहलवी, स्वामी स्वतंत्रानंद,स्वामी ओमानंद आदि सैकड़ों महापुरुषों को उत्पन्न करने के पश्चात् जैसे सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र, वैदिक जीवन -मूल्यों और संस्कृति के अध्ययन,अध्यापन,शोध,लेखन, शास्त्रार्थ,त्याग, सेवा, तपस्या, गुरुकुल शिक्षा से जैसे किनारा ही कर लिया है। आजकल के अधिकांश धर्माचार्यों, शंकराचार्यों,महामंडलेश्वरों, संतों, साधुओं ,स्वामियों, संन्यासियों, योगियों, कथाकारों और सुधारकों ने नेताओं,प्रैस और उद्योगपतियों से सांठगांठ करके अपने साम्राज्य खड़े करने शुरू कर रखे हैं।


...........
आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र-विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र- 136119

मोरल,फिलासफिकल और साइकोलॉजिकल काउंसलिंग : सत्य,तथ्य या भ्रम? (Moral, philosophical and psychological counselling: Truth, fact or myth?)


 कोई व्यक्ति धूर्त होकर अपने आपको सज्जन दिखलाने का ढोंग कब तक करने में सफल हो सकता है? कोई व्यक्ति परले दर्जे का अय्याश और ढोंगी होते हुये भी अपने आपको कब तक संयमी दिखलाने में सफल हो सकता है? एक व्यक्ति झूठा, धोखेबाज और स्वार्थी होकर भी अपने आपको कब तक सत्यवादी, निष्कपट और निस्वार्थी दिखलाने में सफल हो सकता है? ध्यान रहे कि हमारे तथाकथित उच्च -शिक्षित और उच्च -कोटि के महापुरुष कहलवाने वाले सुधारक, नेता, धर्माचार्य, पूंजीपति, कथाकार, प्रोफेसर, प्रशासनिक अधिकारी, स्वामी, संन्यासी, फकीर,फादर, मौलवी,योगाचार्य, सद्गुरु आदि इस कला में पारंगत होते हैं। छोटे स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड जल्दी हो जाता है लेकिन बड़े स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड आजीवन नहीं होता है।हां, कोई आशाराम या गुरमीत राम या रामपाल आदि का जल्दी भांडाफोड हो जाता है और वो जेल पहुंच जाते हैं। लेकिन वो फिर भी मूढों और बेवकूफों के आदरणीय भगवान् बने रहते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या करें,वह  सुबह कुछ है, दोपहर को कुछ और है तथा शाम को कुछ अन्य ही हो जाता है।वह अपने कपट,छल, ईर्ष्या,द्वेष, कामुकता, धूर्तता को अधिक समय तक छिपाने में सफल नहीं हो पता। इसीलिये जन-सामान्य की नजरों में वह महान या बड़ा नही है। अपने नित्यप्रति के आचरण के इस दोगलेपन की चिकित्सा या काउंसलिंग किसी भी काउंसलर या काउंसलिंग के पास उपलब्ध है?साईकोलाजिकल या फिलासाफिकल काउंसलिंग के माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौजूद नैतिक या वैचारिक या भावनात्मक या मानसिक या सैद्धांतिक अस्थिरता, द्वंद्व,असामान्यता आदि को ठीक करने पर व्याख्यान,लैक्चर, गोष्ठियां आदि तो खूब होते हैं लेकिन परिणाम बिल्कुल शून्य है। जनसाधारण हो या विशिष्ट हो, नेता हो या उच्च -अधिकारी हो, प्रोफेसर हो या मनोचिकित्सक हो, कथाकार हो या योगाचार्य हो, काउंसलर हो या चिकित्सक हो- सभी के सभी पहले की अपेक्षा और भी अधिक धूर्त, ईर्ष्यालु,कामुक, स्वार्थी, झूठे, लालची ,हताश, अकेले और आचरण के दोगलेपन से ग्रस्त होते जा रहे हैं। किसी असामान्य व्यक्ति की साईकोलाजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग करने की चिकनी चुपड़ी- बातें सुनने में बड़ी मजेदार लगती हैं लेकिन जब परिणाम दिखलाने की बात आती है तो स्वयं काउंसलर भी लड़ाई -झगडे पर उतर आते हैं।उस समय तो लगता है कि जनसाधारण की अपेक्षा इन तथाकथित काउंसलिंग करने वाले काउंसलर को ही काउंसलिंग की सर्वाधिक आवश्यकता है, यदि कोई काउंसलिंग हो सकती हो तो! आप काउंसलिंग से संबंधित किसी भी व्याख्यान, लैक्चर,गोष्ठी, सैमिनार में जाईये, आपको वही रटी रटाई तथा घिसी पिटी सुकरात,देकार्त,फ्रायड,एडलर,जुंग,  मैचिन, रोजर्स,पार्संस, मैस्लो की उबाऊ बातें सुनने को मिलेंगी। हां, अपने आपको कुछ अलग दिखलाने के लिये भारत में आजकल कुछ काउंसलर ने अष्टांगयोग, विपश्यना, प्राणापान,प्रेक्षा ,साक्षी और कृष्णमूर्ति के अवलोकन को भी अपने काउंसलिंग से संबंधित व्याख्यानों, आलेखों और पुस्तकों में सम्मिलित कर दिया है। लेकिन ऐसे काउंसलर के चरित्र और आचरण में सनातन भारतीय योगविद्या, योगाभ्यास और अध्यात्म का अ ,आ, इ ,ई भी अभ्यास और अनुशासन में नहीं है।बस ,अपने अपने व्याख्यानों, लैक्चर और पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं। प्रायोगिक सृजनात्मक परिणाम की जहां तक बात है,न तो पश्चिम में तथा न ही भारत में किसी काउंसलर ने आज तक कुछ भी करके दिखलाया है। सभी के सभी काउंसलर बस विचारों, सिद्धांतों और विधियों की जुगाली करते जा रहे हैं। द्वितीय महायुद्ध से लेकर अब इजरायल-अरब  युद्ध,रुस- युक्रेन युद्ध,भारत- पाकिस्तान युद्ध सहित अन्य किसी भी क्षेत्र में व्याप्त नैतिक, वैचारिक, भावनात्मक, दार्शनिक, चारित्रिक, सैद्धांतिक आदि मुद्दों की विषमता पर कुछ भी सृजनात्मक और रचनात्मक करके दिखलाया हो तो बतलाओ।बस, सभी के सभी टाईमपास कर रहे हैं या काउंसलिंग की आड़ में दुकानदारी कर रहे हैं या प्रसिद्ध होने की सनक का शिकार हैं।
पश्चिम वाले तो अपनी उपयोगितावादी फिलासफी को जैसे तैसे बचा लेंगे लेकिन आप लोग अपने दर्शनशास्त्र को कैसे बचाओगे? इस फिलासफिकल काउंसलिंग के माध्यम से आपने तो दर्शनशास्त्र विषय को ही समाप्त करने का जुगाड कर लिया है। भारत में पहले ही दर्शनशास्त्र-विभाग बंद हो रहे हैं।क्योंकि हमारे दर्शनशास्त्रियों, नेताओं, नीति-निर्माताओं की मूर्ख सोच के कारण विद्यार्थियों की इस विषय में कोई रुचि नहीं रह गई है। इनकी बेवकूफी और उपेक्षा के कारण यह विषय न तो रोजगार दे पा रहा है,न चरित्र दे पा रहा है,न नैतिक मूल्य दे पा रहा है,न तर्क दे पा रहा है तथा न ही प्रामाणिक विचारक दे पा रहा है। होना तो यह चाहिये था कि आप भारतीय बच्चों को भारतीय दर्शनशास्त्र के अंतर्गत न्यायशास्त्र,ज्ञानशास्त्र,तर्कशास्त्र,नीतिशास्त्र, योगशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन,अध्यापन और शोध आदि करने करवाने पर जोर देते। लेकिन आपने ऐसा नहीं करके दर्शनशास्त्र विषय की बजाय स्वयं के प्रसिद्ध हो जाने पर अधिक जोर -आजमाइश की है।पश्चिम वाले तो अपनी फिलासफी के अनुसार उपयोगितावादी, स्वार्थी, उन्मुक्त भोगी और यूज एंड थ्रो के अनुसार जीवन यापन कर रहे हैं लेकिन भारतीय न तो पाश्चात्य हो पा रहे हैं तथा न ही भारतीय हो पा रहे हैं। अपने दर्शनशास्त्र की उपेक्षा और पाश्चात्य की अंधी नकल ने भारतीयों को कहीं का भी नहीं छोड़ा है। इनकी हालत न यहां के रहे, न वहां के रहे वाली हो चुकी है।
यह भी बड़ा दिलचस्प है कि तांत्रिक टोने- टोटके और झाड़-फूंक से नित्यप्रति के जीवन की समस्याओं के समाधान की बात जितनी लोकप्रिय भारत में है ,उतना ही लोकप्रिय युरोप और अमरीका आदि में भी है।बस, फर्क यह है कि भारत के संबंध में मीडिया द्वारा दुष्प्रचार अधिक कर दिया जाता है जबकि युरोप और अमरीका के संबंध में इसे छिपा लिया जाता है।जिसकी लाठी,उसी भैंस वाली कहावत यहां भी लागू हो रही है। पश्चिम और भारत में आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व वो लोग करते हैं जो कभी न कभी अपने जीवन की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, वैचारिक आदि समस्याओं के समाधान के लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास अवश्य गये होंगे तथा अब भी जाते हैं। समस्याग्रस्त या असामान्य व्यक्ति का लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास जाकर अपनी समस्याओं का समाधान करवाना क्या सही है या गलत - इस संबंध में भी अंधेरगर्दी मिलती है। यदि बहुत से व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का समाधान इन बाबाओं, तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास मिल जाता है तो इन्हें काउंसलर कहा जायेगा या नहीं कहा जायेगा - इस संबंध में साईकोलाजिकल और फिलासफिकल काउंसलर का नकारात्मक दृष्टिकोण उनके खुद को बिमार होने की ओर संकेत करता है।यह नहीं होना चाहिये।
 एक व्यक्ति का होना बहुत से सिस्टम और तंत्रों का सम्मिलित रुप से मौजूद होना है।एक व्यक्ति में अनेक सिस्टम या तंत्र काम कर रहे हैं,इन सबके सम्मिलित ढांचे को व्यक्ति कहते हैं। यदि व्यक्ति के आत्मिक स्वरूप को कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाये तो एक व्यक्ति में लसिका तंत्र,हड्डी तंत्र,धातु तंत्र,नलिकाविहीन ग्रंथि तंत्र,पाचन तंत्र, मूत्र विसर्जन तंत्र, श्वास तंत्र,चक्र तंत्र,त्रिदोष तंत्र, त्रिगुण तंत्र,पंचकोश तंत्र,सप्त शरीर तंत्र आदि होते हैं। कोई व्यक्ति जब असामान्य या असहज होता है तो उसे कौनसी काउंसलिंग देना चाहिये ताकि वह व्यावहारिक, तार्किक, मानसिक, वैचारिक रुप से ठीक हो जाये? कोई व्यक्ति जब असहज या असामान्य होता है तो उस व्यक्ति के कौनसे हिस्से में विकार आता है कि काउंसलिंग द्वारा जिसके ठीक किये जाने से वह व्यक्ति ठीक हो जायेगा? सामाजिक परिवेश, व्यक्तिगत परिवेश,उस व्यक्ति का स्थूल शरीर, प्राण शरीर,मनस शरीर आदि में से किसकी चिकित्सा या काउंसलिंग द्वारा वह व्यक्ति ठीक हो सकेगा - इसका निर्धारण कैसे होगा? एक व्यक्ति के कौनसे सिस्टम या तंत्र की चिकित्सा या काउंसलिंग करने से वह व्यक्ति खुद ठीक ठीक महसूस करेगा - काउंसलिंग इस संबंध में हवा में लाठियां चलाते हुये नजर आते हैं। पाश्चात्य और उसकी नकल करके बनाई गई भारतीय काउंसलिंग में हरेक काउंसलर मोरल या साइकोलॉजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग पर टिककर नहीं रहता है।एक प्रकार की काउंसलिंग को शुरू करके वह अन्य प्रकार की काउंसलिंग को भी जबरदस्ती करके प्रवेश करवाकर एक बेमेल ऐसा दलिया तैयार कर देता है जो न तो कोई पोषण देता है,न खाने में स्वादिष्ट है तथा न ही  अधिक दिन तक टिक सकता है।मोरल वाले मोरल तक, साइकोलॉजिकल वाले साइकोलॉजिकल तक तथा फिलासफिकल वाले फिलासफिकल काउंसलिंग तक सीमित क्यों नहीं रहते हैं?ये अपनी सीमाओं का उल्लंघन क्यों करते हैं?इनका इस प्रकार का व्यवहार क्या इन्हें स्वयं ही बिमार, असामान्य और असहज नहीं बतलाता है? और यदि एक दूसरे में घालमेल किये बगैर काम नहीं चल रहा है तो इन कयी प्रकार की काउंसलिंग को मिलकर एक ही कर दो।अलग अलग दुकान खोलना क्यों आवश्यक है? इनके इस सनकी व्यवहार से लग रहा है कि काउंसलिंग के नाम पर जो कुछ चल रहा है,उसमें किसी व्यक्ति की काउंसलिंग कम और  अपनी प्रसिद्धि, अहंकार की तुष्टि और  दुकानदारी अधिक है।कोरे शाब्दिक प्रवचन, संवाद, डायलाग,उपदेश, शिक्षाएं, सत्संग, गोष्ठियां, सैमिनार किसी किसी व्यक्ति को कहां तक और कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाते हैं - इस संबंध में अधिकांश परिणाम और निष्कर्ष नकारात्मक ही हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान भी अपनी 100-150 वर्षों की यात्रा में आत्मा और चेतना के अध्ययन से होते हुये आज व्यवहारिक मनोविज्ञान पर आ चुके हैं। और ये यहां पर भी टिक पायेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम आत्मा, चेतना आदि को नहीं देख सकते तो व्यवहार भी कहां दिखाई पड़ता है? सिर्फ व्यवहार के प्रभाव ही हमें दिखाई पडते हैं।तो समस्या वहीं की वहीं हैं। आखिर किसी व्यक्ति को हम वह कैसे बना सकते हैं, जिसके बनने की संभावनाएं और योग्यताएं उसके चित्त में मौजूद करोड़ों करोड़ों संस्कारों के समूह में मौजूद ही नहीं हैं। उदाहरणार्थ सुकरात ने हैमलेट विष को पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। जिद्दू कृष्णमूर्ति के सिर में आजीवन भयंकर पीड़ा होती रही थी।यह सब क्या है?एक बात और है - सुकरात को सुकरात बनने में और जिद्दू कृष्णमूर्ति को जिद्दू कृष्णमूर्ति बनने में उनके गुरुओं की दशकों की मेहनत का परिणाम था।आज हम उपरोक्त महापुरुषों की विधियों के सहयोग से बिना किसी साधना, तपस्या, संयम, अनुशासन, योगाभ्यास के कैसे किसी व्यक्ति की काउंसलिंग करके उसे नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक रूप से सहज, संतुष्ट, संतुलित और तृप्त बना सकते हैं?
.........
आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र -विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119

दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान

 

*दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान*

हरियाणा की प्रसिद्ध दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रवाद, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित तथा लेखक, कवि, आलोचक तथा 50 से ज्यादा क्रांतिकारी पुस्तकों के लेखक आचार्य शीलक राम द्वारा संचालित व चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2229-7227) प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2249-2976), हिन्दू अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348-0114), आर्य अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348 – 876X) व द्रष्टा अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन :  2277-2480) प्रकाशित करने वाली संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) द्वारा आयोजित 48वीं राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता प्रदत विषय *रक्षाबंधन (श्रावणी पर्व)* के परिणामों की घोषणा कर दी गई है। विजेताओं के नाम निम्न प्रकार से हैं-

पहला स्थान* - दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम

दूसरा स्थान* - डॉ. फूल कुमार राठी रोहतक, हरियाणा

तीसरा स्थान* - डॉ ओमप्रकाश द्विवेदी ओम, पडरौना कुशीनगर

चौथा स्थान*  - डॉ. अम्बे कुमारी, गया, बिहार

पाचवां स्थान* - बी के शर्मा,  इन्दौर, मध्य प्रदेश

छठा स्थान* - डॉ. भेरूसिंह चौहान "तरंग", झाबुआ, मध्य प्रदेश

सातवां स्थान* - अनिल ओझा,  इंदौर

आठवां स्थान* - राम कुमार प्रजापति, अलवर, राजस्थान

नौवां स्थान* - गौतम इलाहाबादी, रेवाड़ी, हरियाणा

दसवां स्थान* - बलबीर सिंह ढाका रोहतक, हरियाणा

इसके अलावा प्रतियोगिता के विशिष्ट पुरस्कृत कवि निम्न प्रकार से हैं-

             सुमन लता "सुमन", फतेहाबाद, हरियाणा

             नरेन्द्र कुमार वैष्णव "सक्ती", छत्तीसगढ़

             डॉ अनुपम भारद्वाज मिश्रा

 

सभी विजेताओं को आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक के अध्यक्ष *आचार्य शीलक राम* व पूरी टीम की ओर से बहुत-बहुत बधाई।