'दुख' सांसारिक और आध्यात्मिक दर्शनशास्त्र का जन्मदाता है। यदि दुख न हो तो संसार में किसी भी दर्शनशास्त्र का जन्म ही नहीं होगा। 'विश्राम' में केवल 'दर्शन' होता है। यदि वास्तव में कोई विश्राम को उपलब्ध हुआ हो तो। लेकिन विश्राम को उपलब्ध होना इतना आसान और सहज नहीं है। इसके लिये 'दुख' को देखना, जानना और समझना होगा। 'दुख' को वास्तविक रुप से, बिना किसी लाग-लपेट, पूर्वाग्रह,धारणा और आवरण के जानकार ही कोई व्यक्ति विश्राम को उपलब्ध हो सकता है। इसके पश्चात् तर्क,युक्ति, संदेह, प्रश्न, विचार आदि शांत हो जाते हैं।इस अवस्थारहित अवस्था को 'दर्शन' कहा गया है।धन, दौलत,पद, प्रतिष्ठा, जायदाद, बैंक बैलेंस आदि होने के पश्चात् उपलब्ध होने वाले विश्राम से पैदा हुआ दर्शनशास्त्र निठल्ले व्यक्तियों का दर्शनशास्त्र होता है। बहुसंख्यक मेहनतकश जनमानस के किसी काम का नहीं होता है।इस तरह से उपलब्ध हुआ विश्राम केवल ऊपरी या सतही होता है। उनके भीतर भी उथल-पुथल चलती रहती है। सांसारिक जनमानस के काम में आनेवाला दर्शनशास्त्र वहीं होता है,जो दुख, हताशा,कुंठा, द्वेष, बदले की भावना, अकेलेपन,अति कामुकता आदि से प्रेरणा लेकर इनके समाधान हेतु पैदा होता है। साहित्य में भी स्वांतसुखाय और परांतसुखाय का भेद इसी के दृष्टिगत होता है। विश्राम या स्वांतसुखाय में उत्पन्न दर्शनशास्त्र आंतरिक, आध्यात्मिक, आत्मिक आदि लिये हुये व्यक्तिगत होता है। समकालीन पाश्चात्य संसार में उत्पन्न अस्तित्ववादी फिलासफी दुख और दुख से उत्पन्न आधि व्याधियों के दृष्टिगत है। लेकिन वह आधा-अधूरा और अधकचरा है। उनके पास यदि निज आत्मस्वरुप को जानने की सनातन भारतीय जीवनशैली योगाभ्यास होती तो क्रांतिकारी रुपांतरण होने की संभावना हो सकती थी। लेकिन ऐसा हो न सका। सनातन भारतीय जीवन दर्शनशास्त्र की पद्धति बाहरी संसार और इसकी वास्तविकता को जानकार अपने निज आत्मस्वरुप का साक्षात्कार करना है। पश्चिम में उत्पन्न अधिकांश फिलासफी सांसारिक भौतिक समृद्धि से उत्पन्न दुख,हताशा, कुंठा, तनाव, चिंता, अनिद्रा आदि परेशानियों से आगे नहीं बढ़ता है।देह की जरुरतों को पूरा करने तक सीमित फिलासफी का अंत और भी अधिक दुख, हताशा, कुंठा, तनाव,चिंता, अनिद्रा आदि पर होना अवश्यंभावी है!देह के साथ देही की जरुरतों को भी समझना आवश्यक है। परिपूर्ण, परिपक्व और समग्र दर्शनशास्त्र देह और देही दोनों की जरुरतों पर केंद्रित होगा ही।श्रम से थका हुआ व्यक्ति विश्राम को ही सबकुछ समझ लेता है। इसी श्रम से हारे थके हुये पश्चिम के लोग भारत में विभिन्न योग गुरुओं के पास सुख की तलाश में बैठे हुये हैं।श्रम से परेशान व्यक्ति विश्राम से उत्पन्न विचारधारा/फिलासफी को सही मानने को विवश हो जाता है।इस तरह से उपलब्ध नकली विश्राम ने संसार में आपाधापी, शोषण,आतंक, हिंसा,अ़धप्रतियोगिता, भेदभाव को जन्म देकर संसार को और भी अधिक नारकीय बना दिया है। ऐसे लोगों ने इस संसार को एकतरफा भौतिक सुख सुविधाओं को एकत्र करने के लिये पागल बनाया हुआ है! इन्हें अपने सिवाय अन्यों की कोई चिंता नहीं है!ये एकतरफा उपयोगितावादी उच्छृंखल भोगवादी हैं!
प्रसिद्ध युनानी फिलासफर सुकरात ने कहा था कि 'मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता '।विचारक लोग पिछली तेईस सदियों से इस उक्ति को सुकरात की विनम्रता कहकर प्रचारित करते आ रहे हैं। लेकिन बात इसके बिल्कुल विपरीत है।यह उक्ति सुकरात की विनम्रता नहीं अपितु उनके अहंकार का प्रतीक है। यदि वो कुछ भी नहीं जानते थे,तो युनानी जनमानस को क्या उपदेश कर रहे थे कि जिसके फलस्वरूप उनको जहर देकर युनानियों ने ही उनकी हत्या कर दी थी।मान लो कि यह भी ठीक नहीं है तो सुकरात इतना जो जानते ही थे कि वो कुछ नहीं जानते हैं।यह कुछ नहीं जानना भी तो एक प्रकार से जानना ही है। फिर असत्य कथन किसलिये और क्यों किया? और फिर यदि उनकी इस उक्ति को ठीक भी मान लिया जाये तो समस्या फिर भी उठती है कि क्या विचारों की अभिव्यक्ति के लिये प्रसिद्ध युनान सुकरात के मामूली से विचारों से इतना परेशान हो गया कि विचारकर्ता की हत्या ही कर दी?यह कैसी वैचारिक आजादी है? और एक अन्य समस्या यह भी है कि सुकरात कौनसे ज्ञान की बात कर रहे थे! आत्मिक ज्ञान की या इंद्रियक भौतिक ज्ञान की? आखिर महान कहे जाने वाले ऐसे व्यक्तियों की टिप्पणियों या विचारों पर संदेह क्यों नहीं किया जाता है?एक अन्य युनानी फिलासफर प्रोटेगोरस के अनुसार 'मनुष्य ही सभी वस्तुओं का मापदंड है '। यह विचार भी संसार में अव्यवस्था, भेदभाव और शोषण को जन्म देनेवाला सिद्ध हुआ है।इस सृष्टि में जितना महत्व मनुष्य का है, उतना ही महत्व अन्य जीव जंतुओं का भी है।उनको भी मनुष्य की तरह से अपना जीवन जीने का अधिकार है। सृष्टि में संतुलन आवश्यक है।इस प्रकार की उक्तियों ने मनुष्य को सृष्टि के शोषण का अधिकार दे दिया है।इस विचार ने मनुष्य को यह अधिकार दे दिया है कि वह अपने अंध स्वार्थ को पूरा करने के लिये समस्त सृष्टि का शोषण करे, अन्य जीवों को मारकर खा जाये,उन पर ज़ुल्म करें तथा घातक हथियारों से इस धरती का विनाश कर दे। और यदि इस विचार को सही मान भी लें तो एशिया और अफ्रीका के देशों पर युनानी संस्कृति से प्रेरित आक्रमणकारियों ने हमले करके जो करोड़ों लोगों की हत्याएं की थीं, क्या वो सब मनुष्य नहीं थे?यह दोगलापन किस लिये?
सच बात तो यह है कि मनुष्य का अधिकांश ज्ञान उसकी झूठी धारणाओं, पूर्वाग्रहों, विश्वासों आदि पर आधारित है। व्यक्ति इनमें उलझकर या इनसे राग- विराग बनाकर अपने 'स्व' पर ,अपने केंद्र पर,अपने अस्तित्व के चेतन स्वरूप को भूला देता है। जबकि व्यक्ति एक साथ ही चेतन 'स्व' और उसकी प्राकृतिक अभिव्यक्ति तथा इससे उत्पन्न समस्या भी है। यदि समग्रता से होशपूर्ण जीवन का सामना किया जायेगा तो व्यक्ति का जीवन आनंदमय, तृप्त और संतुष्ट हो सकता है।यही व्यक्ति का स्वभाव भी है। आखिर हम खुद को खंडों में तोड़कर उसी को अपना होना क्यों मान लेते हैं। जीवन समग्रता है।
बड़ी दिलचस्प बात है कि तिकड़मबाजी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार आदि करके लाभप्रद, प्रतिष्ठा,पद,सुविधाओं को पाकर विभिन्न मंचों से नैतिक प्रवचन करना या सहजता से जीवन जीने के भाषण देना आसान है लेकिन सांसारिक जीवन यापन की दौड़ में भूख, बेरोजगारी, अभाव, बदहाली, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था आदि में पिसता कराहता हुआ जनमानस नैतिक,सहज, प्रफुल्लित और मस्त जीवन कैसे जीये? समस्या यही तो है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि 'हमारा कर्म पर अधिकार है,फल पर नहीं'। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं होना चाहिये कि हम नित्यप्रति के जीवन में शिक्षा,शोध, प्रतियोगिता, काम-धंधे,खरीददारी,न्याय के बाजार, लेन-देन, मतदान, में भ्रष्टाचरण होते देखकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तथा अपने अधिकार पर अनावश्यक डाका डालने वालों के विरोध में आवाज न उठायें? इस प्रकार के आचरण से तो सनातन धर, संस्कृति, नैतिकता, दर्शनशास्त्र आदि का ही नाश हो जायेगा! आध्यात्मिक साधना में यह उपदेश ठीक हो सकता है या वैश्विक ऋत व्यवस्था में इसका मूल्य हो सकता है लेकिन नित्यप्रति के जीवन में इसे आचरण में उतारना धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था में बैठे लोगों की धींगामुश्ती, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था को बढ़ावा देना है! ऐसे में तो जनमानस को न्याय मांगने का भी अधिकार नहीं है!बस,कर्म करो और चुप बैठ जाओ! मतदान करों और नेताओं से कोई प्रश्न मत करो! धर्माचार्यों के अनाचरण और अनैतिकता पर चुप रहो!बस,अपना कर्म करो,जो भी होगा वह ठीक है तथा उसे बिना ना नुकर के स्वीकार करो! किसान खेती-बाड़ी का कर्म करे लेकिन फसलों का उचित भावरुपी फल पाने की मांग न करे! विद्यार्थी दिन रात पढाई करे लेकिन सफलता या नौकरी या उचित काम-धंधे के रूप में अधिकार की मांग पर चुप रहकर सिस्टम के भ्रष्टाचार पर चुप्पी साधे रहे! भगवान् श्रीकृष्ण ऐसा उपदेश नहीं दे सकते हैं! स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी महाभारत के युद्ध में पांडव पक्ष की धर्म की विजय के फल की कामना की थी! उनके समस्त प्रयास कर्म और कर्मफल पर अधिकार को ध्यान में रखकर ही संपन्न हुये थे!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119
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