Wednesday, February 26, 2025

सनातन धर्म और संस्कृति पर मंडराता एक और बड़ा खतरा (Another big threat looming on Sanatan religion and culture)

 

 धर्म, धार्मिकता और धर्मांधता में फर्क होता है!किसी वाद, मत, सिद्धांत,संप्रदाय, विचार को मानना गलत नहीं है!धर्म को जानकर उसे आचरण में उतारना आवश्यक होता है! इससे व्यक्ति में धार्मिकता की बढोतरी होती है!धर्म और धार्मिकता में धर्मांधता खतरनाक है! धर्म और धार्मिकता में धार्मिक कट्टरता नहीं होती है!यह धार्मिक कट्टरता धर्मांधता में बदल जाती है!कट्टरता में 'मैं सही बाकी सब गलत' मानने की प्रवृत्ति होती है!धर्म को तो धारण किया है! धर्म का तो साक्षात्कार करना होता है! धर्म तो अस्तित्व का स्वभाव यानि होना होता है!लेकिन वाद के प्रति वादाग्रह, मत के प्रति मताग्रह, सिद्धांत के सिद्धांताग्रह,संप्रदाय के प्रति सांप्रदायिक आग्रह, विचार के विचाराग्रह  कट्टरता को बढ़ावा देता है!कट्टरता तो कहीं भी सही नहीं होती है!किसी भी वाद, मत,सिद्धांत, विचार, संप्रदाय या स्वपक्ष में कट्टरता खतरनाक होती है! इनके अनुसार हम संकुचित हो जाते हैं! पर और  विपक्ष दोनों में संतुलन ही तो किसी व्यक्ति को निष्पक्ष बनाता है! लेकिन निष्पक्ष व्यक्ति पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति सम्मान और समान दृष्टि से देखता है!
किसी व्यक्ति को वीतराग बनाती है राग और विराग में संतुलन की साधना!ओशो के अनुसार रागी और विरागी दोनों एक समान हैं! दोनों का संबंध संसार या किसी बाहरी विषय से होता है! लेकिन वीतरागी दोनों से पार हो जाता है! वीतरागी संतुलन साध लेता है! वीतरागी निष्पक्ष और निष्काम हो जाता है! रागी और विरागी दोनों संसारी हैं जबकि वीतरागी ही आध्यात्मिक होता है! आत्मस्वरूप की अनुभूति के लिये साधक को वीतरागी होना पडेगा!
महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र,1/37 में कहा है- 'वीतरागविषयं वा चित्तम्'
अर्थात् वीतरागी महापुरुषों में चित् को लगाने से भी ध्यान लग जाता है!क्या प्रयागराज महाकुम्भ में कोई ऐसा सिद्ध युगपुरुष मौजूद है जिस पर चित्त को लगाया जा सके? इसका उत्तर 'ना' में ही मिलेगा! तो फिर ये लाखों साधु दिखने वाले लोग क्या कर रहे हैं!
 यदि आपको शारीरिक रूप से निरोग और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना हैं तो प्रतिदिन चौबीस घंटे में से डेढ घंटा योगाभ्यास के लिये अवश्य निकालकर रखना!आप कोशिश करें कि सनातन ऋषि, महर्षि, राजर्षि, योगियों वाला योगाभ्यास ही किया जाये! समकालीन बाबाओं,योग गुरुओं और व्यापारी योग शिक्षकों के बताये अशुद्ध और विकृत योगरुपी व्यायामयोग और श्वासयोग से बचकर रहें! किसान नेता डल्लेवाल 77 दिन से बिना खाये पीये धरने पर सही सलामत हैं! लेकिन हमारे तथाकथित पूज्यपाद योगीराज बाबा लोग तो एक सप्ताह की भूख हड़ताल पर ही बेहोश होकर हस्पताल पहुँच जाते हैं!कौन बड़ा योगी है- डल्लेवाल या ये तथाकथित लाखों करोड़ के मालिक बाबा लोग? नकली योगियों ने सनातन योग को खूब बदनाम किया है!
आदि शंकराचार्य ने धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिये आज से 2500 वर्षों पहले भारत के चार कोनों में चार पीठों की स्थापना की थी!इस व्यवस्था में जब से संघ जैसे नकली सांस्कृतिक संगठनों का दबाव बढ़ा है, तब से यह व्यवस्था विकृत होकर रह गई है!आज भारत में 450 के लगभग राजनीति द्वारा उकसाये गये स्वघोषित शंकराचार्य मौजूद हैं! ये सभी खुद को जगद्गुरु मानते हैं! इनको इतनी भी समझ नहीं है कि ये अपनी इन हरकतों की वजह से सनातन धर्म और संस्कृति का उपहास करके इन्हें कमजोर कर रहे हैं! पहले सनातन धर्म की सारी व्यवस्था पर चार शंकराचार्यों का नियंत्रण होता था, लेकिन अब आदि शंकराचार्य द्वारा राष्ट्र रक्षार्थ तैयार विभिन्न अखाडों ने अपने आपको उस सनातन व्यवस्था से अलग कर दिया है! इससे भी सनातन धर्म कमजोर हुआ है! ये अखाड़े और शंकराचार्य खुद ही परस्पर पद,प्रतिष्ठा,पीठाधीश्वर और प्रसिद्धि पाने की लालसा में न्यायालयों के चक्कर काट रहे हैं! ये खुद ही कुत्ते बिल्लियों की तरह परस्पर लड रहे हैं! खुद को असली और दूसरे को नकली शंकराचार्य, पीठाधीश्वर या धर्माचार्य  बतलाना यह सिद्ध करता है कि इन्हें सनातन धर्म और संस्कृति की हित की कोई चिंता नहीं है!जब भी महाकुम्भ होता है तो ये उसे ही 144 वर्षों में आनेवाला महाकुम्भ घोषित कर देते हैं! पता नहीं यह किस ज्योतिषीय गणना के अनुसार होता है! इससे ये खुद को तो उपहास का पात्र बनाते ही हैं, इसके साथ साथ सनातन धर्म और संस्कृति का भी उपहास करवा रहे हैं!पिछले कई दशकों से सनातन धर्म के शंकराचार्यों,जगद्गुरुओं, पीठाधीश्वरों, संतों, स्वामियों, संन्यासियों की व्यवस्था में धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, योग, साधना और राष्ट्रवाद कम है तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षा अधिक मौजूद है! संघ जैसे संगठनों द्वारा सनातन की इस परंपरा को नष्ट करके अपने खुद के अयोग्य व्यक्तियों को शंकराचार्य,पीठाधीश्वर, धर्मगुरु आदि स्थापित करने के प्रयासों के कारण सनातन धर्म और संस्कृति अपमानित होकर कमजोर हुये हैं!अब तो प्रयागराज महाकुम्भ में आयोजित धर्मसंसद में राहुल गाँधी आदि नेताओं को सनातन धर्म का अपमान करने पर  इस्लामिक शैली पर सनातन धर्म से बहिष्कृत करने का फतवा भी जारी कर दिया गया है!सनातन धर्म, संस्कृति, वेद,मनुस्मृति, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि महापुरुषों का आजकल के तथाकथित नव बौद्ध,तथाकथित मूलनिवासी, तथाकथित दलित, नव ईसाई आदि हर दिन अपमान करते रहते हैं!उनके विरोध में भी फतवे जारी करने की हिम्मत करो! उपरोक्त में से अधिकांश तो विदेशी शक्तियों के संकेत पर ऐसा कर रहे हैं! और तो और सत्ताधारी दल के तथाकथित हिन्दू कहलवाने वाले नेता भी ऐसा कर रहे हैं! बनारस में सैकड़ों मंदिरों को अभी पीछे किसने तोडा था? श्रीराम मंदिर को खोलने के बारे में सनातनी मर्यादा का किसने उल्लंघन किया था - यह धर्म संसद के धर्माचार्यों को भलि तरह से पता है! सभी को नोटिस भिजवाने की हिम्मत करके दिखलाओ! किसान आंदोलन के दौरान सनातनी किसानों को किसने सनातन द्रोही, राष्ट्रद्रोही, धर्मद्रोही कहा था? उन सभी नेताओं और धर्मगुरुओं को भी नोटिस भिजवाओ!भारत में प्रतिदिन हजारों गौवंश मांस के लिये काटा जा रहा है!अधिकांश गौवंश के कत्लखाने हिन्दू और जैन भाईयों के द्वारा ही संचालित हैं!सत्ताधारी दल के अनेक नेता भी इसमें शामिल हैं! इन सभी को नोटिस भिजवाना चाहिये! आखिर हमारे यहाँ राजनीतिक,धार्मिक, नैतिक,तार्किक दोगलापन चरम पर है!
ये तथाकथित सनातनी कहे जाने वाले साधु, धर्मगुरु,आचार्य, संन्यासी, स्वामी, शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, कथाकार ही सनातनी जीवनशैली को आचरण में नहीं उतारकर या तो राजनीति कर रहे हैं या फिर अय्याशी का जीवन जी रहे हैं!यम, नियम,त्याग,संयम, तपस्या, साधना आदि करना तो जैसे इन्होंने छोड़ ही दिया है!मुझे तो यह लग रहा है कि सनातन धर्म और संस्कृति को इस समय सबसे बड़ा खतरा ईसाई और इस्लाम की बजाय इनके सहयोग और उकसाने पर काम करने वाली भारत-विरोधी नीली, पीली शक्तियों से है!विदेशी शक्तियों से सहायता प्राप्त  भारत के ही कुछ लोग अपनी राजनीतिक दुकानदारी चलाने के लिये गरीब,पिछड़े,दलित आदिवासी,मूलनिवासी,नवबौद्ध के नाम पर कुछ कानूनी धाराओं का अनुचित लाभ उठाकर हरेक सनातन प्रतीकों का सरेआम मजाक उडा रहे हैं!इन सनातन धर्म, संस्कृति और राष्ट्र विरोधी शक्तियों को सजा देने का कोई प्रावधान नहीं है! भारत,भारतीय और भारतीयता को सबसे बड़ा खतरा इन्हीं शक्तियों से है! बाकी गली, कूचे, कस्बे, शहर में हर महीने पैदा होने वाले नये- नये तथाकथित  भगवानों,सद्गुरुओं,जगत् गुरुओं, बाबाओं, तांत्रिकों,संतों,महंतों, कथाकारों, मोक्ष देने वालों ने धर्म की आड में जो बखेड़ा खड़ा कर रखा है, उससे सनातन धर्म और संस्कृति को बचाने के लिये कोई व्यवस्था होना चाहिये!आज के दिन महर्षि दयानंद सरस्वती और गुरु रविदास को याद करते हुये हम सबको इस हेतु प्रयास करने चाहियें!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र - 136119

अब्राहमिक प्रभाव से ग्रस्त हमारे अधिकांश शिक्षक और धर्माचार्य (Most of our teachers and religious leaders suffer from Abrahamic influence)

        हमारे आजकल के कथाकार,संत, योगाचार्य,स्वामी, संन्यासी आदि लोगों को कहते नहीं थकते हैं कि गंगा स्नान, महाकुम्भ स्नान, ब्रह्मसरोवर स्नान, दान, हवन आदि करने करवाने से मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी! पिछले सात आठ दशकों के दौरान पैदा हुये तथाकथित नकली भगवान्, संत, कथाकार और जगत् गुरु आदि तो पूरा दावा करके नामदान, माला, दीक्षा आदि दे रहे हैं कि इससे उनके सभी बुरे कर्म समाप्त हो जायेंगे तथा सीधे ही स्वर्ग, मुक्ति, सचखंड, मोक्ष की प्राप्ति हो  जायेगी! वेद से लेकर उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, रामायण, महाभारत आदि कोई भी हमारा शास्त्र यह नहीं कहता है कि बिना कर्मों का भोग किये कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जायेगा! किये कर्मों का फल मिलना अवश्यंभावी है! लगता है कि हमारे सनातनी गुरुओं, कथाकारों, संतों, महामंडलेश्वरों और शंकराचार्यो पर भी यहुदी, ईसाईयत और इस्लाम का कुप्रभाव पड़ गया है! उपरोक्त तीन सैमेटिक अब्राहमिक मजहबों में क्षमायाचना करने पर बिना भोग किये ही कर्मों का प्रभाव क्षीण होना माना गया है! हमारे सनातन धर्म और संस्कृति में तो कहा गया है-

नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ।। (ब्रह्मवैवर्त पुराण,17/37)
अर्थात्  बिना भोगे करोड़ों कल्प वर्षों में भी कर्म का फल क्षीण नहीं होता। निश्चित रूप से अपने किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों का फल मनुष्य को अवश्य ही भोगना पड़ता है।
यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। एवं पूर्व कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।!!
(महाभारत,अनुशासन पर्व, अध्याय 7)
अर्थात्  जैसे हजारों गायों में बछड़ा अपनी मां को पहचान लेता है, वैसे ही पूर्व में किया हुआ कर्म अपने कर्त्ता को ढूंढ़ लेता है।
वैसे यह कहना बिलकुल सही है कि व्यावहारिक दर्शनशास्त्र का जन्म सदैव सुख और दुख की अतियों पर पहुंचे हुये कर्ममार्गी मेहनतकश लोग ही करते हैं!फुर्सत में सदैव पेट भरे हुये,निठल्ले, शोषक और आलसी लोग ही सोच -विचार करते हैं!ऐसे लोगों की फिलासफी सदैव अव्यवहारिक होती है!एकतरफा भोगी व्यक्ति दिन रात अनैतिक, अधार्मिक कर्मों को करके उनके फल को बिना भोगे ही संसार में मजे करने की फिलासफी को प्रधानता देते आये हैं! यानि कर्मों के करने में भी आजादी और कर्मों के फल को भोगने में भी आजादी! श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देने वाले ज्ञानानंद, गीतानंद आदि भी इसी अब्राहमिक सीख का दुष्प्रचार कर रहे हैं कि हमारे चेला चेली बन जाओ, तुम्हारे सभी पाप कर्म समाप्त हो जायेंगे! लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि हमारा अधिकार कर्म करने में, फल भोगने में नहीं! देखिये-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन!
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगो...!!
(श्रीमद्भगवद्गीता, 2/47)
ये तथाकथित आजकल के गुरु अपना व्यापार चलाने के लिये स्वयं ही सनातन धर्म और संस्कृति का विनाश करने पर तुले हुये हैं!सनातनियों को  यहुदी, ईसाईयत और इस्लाम का भय दिखलाकर चेला- चेलियों बढाना ही इनका लक्ष्य रह गया है!बहुसंख्यक सनातनियों को इतना भीरु बना दिया है कि वो शायद किसी भी आकस्मिक खतरे का सामना नहीं कर पायेगा!सत्ता दिन रात उसको भयभीत करने का काम कर रही है! सनातनी भयभीत होकर ही तो सत्ता को मतदान करेगा! भयभीत सनातनियों के सामने खुद को तारणहार के रूप में प्रस्तुत करना सत्ता का ही रचाया हुआ घटिया खेल है! अन्यथा सत्ता ने सनातनियों के हित में कोई काम नहीं किया है, जिससे प्रभावित होकर वह उसको बार -बार सत्ता प्रदान करता रहे! बस, सनातनियों के भीतर ईसाईयत, इस्लाम आदि का भय भर दिया गया है!भयभीत सनातनियों के सामने इन ढोंगियों को मतदान करने के सिवाय को रास्ता बचता नहीं है! सनातनियों को पहले 700 वर्षों तक मुगलों ने लूटा, 173 वर्षों तक अंग्रेजों ने लूटा, आजादी के पश्चात् 50 वर्षों तक इधर उधर होते रहे हैं! और अब अपने आपको सनातनियों का हितैषी कहने वाले ही सनातनियों को लूट रहे हैं!यह सनातनियों पर अब्राहमिक दुष्प्रभाव के कारण हो रहा है! कोई सत्य बोले या आवाज उठाये या प्रश्न करे तो सत्ता द्वारा उसको खामोश कर दिया जायेगा!सनातन धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, दर्शनशास्त्र, नैतिकता और योग साधना आदि से किसी को कोई लेना -देना नहीं है!
 अब्राहमिक दुष्प्रभाव के कारण हालात यह हो गये हैं कि अगर तुम सफल नहीं हो, तो दुनिया में तुम्हारा कोई भी नहीं है! दुनियावी लोग सिर्फ सफल लोगों के पीछे- पीछे जी -हुजूरी करते हुये घूमते हैं! असफल लोगों को कोई भी नहीं पूछता है! संसार में सिर्फ सफल लोगों को ही सम्मान मिलता है! असफल लोगों को सदैव हरेक कदम पर उपेक्षा, प्रताड़ना और अपमान का सामना करना पडता है! संसार की यही रीति नीति है!
 'न्याय' सत्य तक पहुंचने के लिये होता है, न कि किसी की हार या जीत के लिये!पक्ष या विपक्ष की हार या जीत सत्य का उद्देश्य नहीं होता है! सत्य निष्पक्ष होता है! निष्पक्ष कभी भी पक्ष या विपक्ष का समर्थक या विरोधी नहीं होता है! निष्पक्ष तो पक्ष और विपक्ष दोनों को ही अपने में समाहित करने की शक्ति और सामर्थ्य रखता है! वास्तव में सत्य पक्ष या विपक्ष में न होकर पक्ष और विपक्ष का समर्थन करने वालों को एक साथ ले आकर निष्पक्ष होता है!सत्य का किसी से कोई झगड़ा नहीं होता है! सत्य सदैव विरोधियों को भी अपने साथ लाकर सत्पथ को प्रशस्त करता है!

 अच्छा,सत्यनिष्ठ और तार्किक व्यक्ति सदैव दुखी और सत्ता द्वारा प्रताड़ित रहा है, आज भी दुखी और प्रताड़ित है तथा लग रहा है कि भविष्य में भी दुखी और प्रताड़ित ही रहेगा!इसका कोई भी विकल्प नहीं है! पिछली कई सदियों से संसार में धर्मसत्ता,धनसत्ता, जनसत्ता और राजसत्ता भले,अच्छे और तार्किक व्यक्ति के साथ शायद ही कभी खडी रही हो!भला, सही और तार्किक व्यक्ति सदैव उपरोक्त चार प्रकार की सत्ताओं के आंखों की किरकिरी बना रहा है! उपरोक्त चार प्रकार की सत्ताओं ने कभी भी भले, अच्छे और तार्किक व्यक्ति को सम्मान नही दिया है!महर्षि दयानंद, ओशो तथा राजीव भाई दीक्षित इसके ताजा उदाहरण हैं!
 गुरुडम का इतना प्रचलन हो गया है कि हर गाँव,कस्बे और शहर में शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, भगवान् और  जगतगुरु पैदा हो रहे हैं!जिसको देखो वही मनमानी उपाधियाँ लगाकर घूम रहा है!महिमामंडन के लिये हरेक के साथ लाखों की भीड मौजूद होती है! नैगेटिव निर्धारित करके ब्राडिंग के जरिये एक बलात्कारी को संत बना दिया जाता है,एक शोषक उद्योगपति को गरीबों का तारणहार बना दिया जाता है तथा एक लूटेरे नेता को भगवान् की तरह पूजा करने योग्य बना दिया जाता है!कुछ दशकों से एआई तथा इसके एडवांस वर्जन की नई तकनीकों के जरिये गोबरगणेश को प्रतिभाशाली और प्रतिभाशाली को गोबरप्रसाद सिद्ध करने के प्रयास बहुतायत से हो रहे हैं!
 सनातन धर्म और संस्कृति में यह दुष्प्रभाव अब्राहमिक मजहबों से आयातित है!हमारे धर्माचार्यों को इतना भी मालूम नहीं है कि इससे सनातन धर्म और संस्कृति का ही नुकसान हो रहा है!इस तरह से तो सनातन धर्म और संस्कृति संसार से लुप्त ही हो जायेंगे!
 और इस तरह का नुकसान करने वाले लोग ही अपने आपको सनातन धर्म और संस्कृति का सबसे बड़ा हितैषी कह रहे हैं!इससे बड़ा अन्य मजाक क्या हो सकता है?
 महर्षि मनु ने आचरण की महत्ता को बतलाते हुये कहा है-
एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम्!
सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहु: परम्!!
अर्थात्  किसी व्यक्ति का आचरण ही उसे धार्मिक बनाता है! सभी प्रकार के तप का मूल आधार श्रेष्ठ आचरण ही है!
लेकिन यह आचरण की पवित्रता दुर्लभ हो गई है!कुछ भी गलत या अधार्मिक या अनैतिक या  गैर कानूनी आचरण करके सफलता पाने के लिये पागल बने हुये हैं! शायद आचरण की शुद्धता तो केवल मंचों, पीठों और गद्दियों से दिये जाने वाले प्रवचनों तक ही सीमित होकर रह गई है! अब्राहमिक उन्मुक्त भोगवादी आचरण ही अधिकांश नागरिकों का लक्ष्य बन गया है! उपयोगितावादी आचरण ही अनुकरणीय बन गया है! पापाचार,दुराचार और भ्रष्टाचार करके आगे बढना ही आज की फिलासफी बन गई है!
 वेदों में सभी प्रकार के आचरण का मूल जागरुकता या होश या सजगता को बतलाया गया है!देखिये-
 यो जागार तमृच्य: कामयंते  यो जागार तमु सामानि यंति!
यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्येन्योका:!! (ऋग्वेद,5/44/14)
अर्थात् जो सजग रहता है, ऋग्वेद उसे को चाहता है! जो सजग रहता है, सामवेद की ऋचाएँ उसी पर आती हैं! सजग रहने वाले से सोम कहता है कि मैं तुम्हारा प्रिय सखा या मित्र या सहयात्री हूँ!
बेहोश व्यक्ति सभी प्रकार के अनैतिक/अधार्मिक/ आपराधिक कर्म करने में तत्पर मिलेगा!तमस में डूबे हुये व्यक्ति से सदाचारी होने की आशा नहीं की जा सकती है! हमारे धर्माचार्यों ने वैदिक आचरण को त्यागकर अब्राहमिक उन्मुक्त भोगवादी जीवन- शैली को अपना लिया है!जिन धर्माचार्यों को सनातनी जनमानस के आचरण को सदाचारी बनाने का जिम्मा था, आजकल वो स्वयं ही अब्राहमिक जीवन -मूल्यों को सही मानकर चल रहे हैं!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119

'दुख' और 'जिज्ञासा' तथा इसके समाधान की खोज ही ‌समस्त दर्शनशास्त्र और फिलासफी के जन्मदाता हैं ('Suffering' and 'curiosity' and the search for its solution are the originators of all Philosophy and Philosophy)

        
        'दुख' सांसारिक और आध्यात्मिक दर्शनशास्त्र का जन्मदाता है। यदि दुख न हो तो संसार में किसी भी दर्शनशास्त्र का जन्म ही नहीं होगा। 'विश्राम' में केवल 'दर्शन' होता है। यदि वास्तव में कोई विश्राम को उपलब्ध हुआ हो तो। लेकिन विश्राम को उपलब्ध होना इतना आसान और सहज नहीं है। इसके लिये 'दुख' को देखना, जानना और समझना होगा। 'दुख' को वास्तविक रुप से, बिना किसी लाग-लपेट, पूर्वाग्रह,धारणा और आवरण के जानकार ही कोई व्यक्ति विश्राम को उपलब्ध हो सकता है। इसके पश्चात् तर्क,युक्ति, संदेह, प्रश्न, विचार आदि शांत हो जाते हैं।इस अवस्थारहित अवस्था को 'दर्शन' कहा गया है।धन, दौलत,पद, प्रतिष्ठा, जायदाद, बैंक बैलेंस आदि होने के पश्चात् उपलब्ध होने वाले विश्राम से पैदा हुआ दर्शनशास्त्र निठल्ले व्यक्तियों का दर्शनशास्त्र होता है। बहुसंख्यक मेहनतकश जनमानस के किसी काम का नहीं होता है।इस तरह से उपलब्ध हुआ विश्राम केवल ऊपरी या सतही होता है। उनके भीतर भी उथल-पुथल चलती रहती है। सांसारिक जनमानस के काम में आनेवाला दर्शनशास्त्र वहीं होता है,जो दुख, हताशा,कुंठा, द्वेष, बदले की भावना, अकेलेपन,अति कामुकता आदि से प्रेरणा लेकर इनके समाधान हेतु पैदा होता है। साहित्य में भी स्वांतसुखाय और परांतसुखाय का भेद इसी के दृष्टिगत होता है। विश्राम या स्वांतसुखाय में उत्पन्न दर्शनशास्त्र आंतरिक, आध्यात्मिक, आत्मिक आदि लिये हुये व्यक्तिगत होता है। समकालीन पाश्चात्य संसार में उत्पन्न अस्तित्ववादी फिलासफी दुख और दुख से उत्पन्न आधि व्याधियों के दृष्टिगत है। लेकिन वह आधा-अधूरा और अधकचरा है। उनके पास यदि निज आत्मस्वरुप को जानने की सनातन भारतीय जीवनशैली योगाभ्यास होती तो क्रांतिकारी रुपांतरण होने की संभावना हो सकती थी। लेकिन ऐसा हो न सका। सनातन भारतीय जीवन दर्शनशास्त्र की पद्धति बाहरी संसार और इसकी वास्तविकता को जानकार अपने निज आत्मस्वरुप का साक्षात्कार करना है। पश्चिम में उत्पन्न अधिकांश फिलासफी सांसारिक भौतिक समृद्धि से उत्पन्न दुख,हताशा, कुंठा, तनाव, चिंता, अनिद्रा आदि परेशानियों से आगे नहीं बढ़ता है।देह की जरुरतों को पूरा करने तक सीमित फिलासफी का अंत और भी अधिक दुख, हताशा, कुंठा, तनाव,चिंता, अनिद्रा आदि पर होना अवश्यंभावी है!देह के साथ देही की जरुरतों को भी समझना आवश्यक है। परिपूर्ण, परिपक्व और समग्र दर्शनशास्त्र देह और देही दोनों की जरुरतों पर केंद्रित होगा ही।श्रम से थका हुआ व्यक्ति विश्राम को ही सबकुछ समझ लेता है। इसी श्रम से हारे थके हुये पश्चिम के लोग भारत में विभिन्न योग गुरुओं के पास सुख की तलाश में बैठे हुये हैं।श्रम से परेशान व्यक्ति विश्राम से उत्पन्न विचारधारा/फिलासफी को सही मानने को विवश हो जाता है।इस तरह से उपलब्ध नकली विश्राम ने संसार में आपाधापी, शोषण,आतंक, हिंसा,अ़धप्रतियोगिता, भेदभाव को जन्म देकर संसार को और भी अधिक नारकीय बना दिया है। ऐसे लोगों ने इस संसार को एकतरफा भौतिक सुख सुविधाओं को एकत्र करने के लिये पागल बनाया हुआ है! इन्हें अपने सिवाय अन्यों की कोई चिंता नहीं है!ये एकतरफा उपयोगितावादी उच्छृंखल भोगवादी हैं!

        प्रसिद्ध युनानी फिलासफर सुकरात ने कहा था कि 'मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता '।विचारक लोग पिछली तेईस सदियों से इस उक्ति को सुकरात की विनम्रता कहकर प्रचारित करते आ रहे हैं। लेकिन बात इसके बिल्कुल विपरीत है।यह उक्ति सुकरात की विनम्रता नहीं अपितु उनके अहंकार का प्रतीक है। यदि वो कुछ भी नहीं जानते थे,तो युनानी जनमानस को क्या उपदेश कर रहे थे कि जिसके फलस्वरूप उनको जहर देकर युनानियों ने ही उनकी हत्या कर दी थी।मान लो कि यह भी ठीक नहीं है तो सुकरात इतना जो जानते ही थे कि वो कुछ नहीं जानते हैं।यह कुछ नहीं जानना भी तो एक प्रकार से जानना ही है। फिर असत्य कथन किसलिये और क्यों किया? और फिर यदि उनकी इस उक्ति को ठीक भी मान लिया जाये तो समस्या फिर भी उठती है कि क्या विचारों की अभिव्यक्ति के लिये प्रसिद्ध युनान सुकरात के मामूली से विचारों से इतना परेशान हो गया कि विचारकर्ता की हत्या ही कर दी?यह कैसी वैचारिक आजादी है? और एक अन्य समस्या यह भी है कि सुकरात कौनसे ज्ञान की बात कर रहे थे! आत्मिक ज्ञान की या इंद्रियक भौतिक ज्ञान की? आखिर महान कहे जाने वाले ऐसे व्यक्तियों की टिप्पणियों या विचारों पर संदेह क्यों नहीं किया जाता है?एक अन्य युनानी फिलासफर प्रोटेगोरस के अनुसार 'मनुष्य ही सभी वस्तुओं का मापदंड है '। यह विचार भी संसार में अव्यवस्था, भेदभाव और शोषण को जन्म देनेवाला सिद्ध हुआ है।इस सृष्टि में जितना महत्व मनुष्य का है, उतना ही महत्व अन्य जीव जंतुओं का भी है।उनको भी मनुष्य की तरह से अपना जीवन जीने का अधिकार है। सृष्टि में संतुलन आवश्यक है।इस प्रकार की उक्तियों ने मनुष्य को सृष्टि के शोषण का अधिकार दे दिया है।इस विचार ने मनुष्य को यह अधिकार दे दिया है कि वह अपने अंध स्वार्थ को पूरा करने के लिये समस्त सृष्टि का शोषण करे, अन्य जीवों को मारकर खा जाये,उन पर ज़ुल्म करें तथा घातक हथियारों से इस धरती का विनाश कर दे। और यदि इस विचार को सही मान भी लें तो एशिया और अफ्रीका के देशों पर युनानी संस्कृति से प्रेरित आक्रमणकारियों ने हमले करके जो करोड़ों लोगों की हत्याएं की थीं, क्या वो सब मनुष्य नहीं थे?यह दोगलापन किस लिये?

        सच बात तो यह है कि मनुष्य का अधिकांश ज्ञान उसकी झूठी  धारणाओं, पूर्वाग्रहों, विश्वासों आदि  पर आधारित है। व्यक्ति इनमें उलझकर या इनसे राग- विराग बनाकर अपने 'स्व' पर ,अपने केंद्र पर,अपने अस्तित्व के चेतन स्वरूप को भूला देता है। जबकि व्यक्ति एक साथ ही चेतन 'स्व' और उसकी प्राकृतिक अभिव्यक्ति तथा इससे उत्पन्न समस्या भी है। यदि समग्रता से होशपूर्ण जीवन का सामना किया जायेगा तो व्यक्ति का जीवन आनंदमय, तृप्त और संतुष्ट हो सकता है।यही व्यक्ति का स्वभाव भी है। आखिर हम खुद को खंडों में तोड़कर उसी को अपना होना क्यों मान लेते हैं। जीवन समग्रता है।

        बड़ी दिलचस्प बात है कि तिकड़मबाजी, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार आदि करके लाभप्रद, प्रतिष्ठा,पद,सुविधाओं को पाकर विभिन्न मंचों से नैतिक प्रवचन करना या सहजता से जीवन जीने के भाषण देना आसान है लेकिन सांसारिक जीवन यापन की दौड़ में भूख, बेरोजगारी, अभाव, बदहाली, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था आदि में पिसता कराहता हुआ जनमानस नैतिक,सहज, प्रफुल्लित और मस्त जीवन कैसे जीये? समस्या यही तो है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि 'हमारा कर्म पर अधिकार है,फल पर नहीं'। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं होना चाहिये कि हम नित्यप्रति के जीवन में शिक्षा,शोध, प्रतियोगिता, काम-धंधे,खरीददारी,न्याय के बाजार, लेन-देन, मतदान, में भ्रष्टाचरण होते देखकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तथा अपने अधिकार पर अनावश्यक डाका डालने वालों के विरोध में आवाज न उठायें? इस प्रकार के आचरण से तो सनातन धर, संस्कृति, नैतिकता, दर्शनशास्त्र आदि का ही नाश हो जायेगा! आध्यात्मिक साधना में यह उपदेश ठीक हो सकता है या वैश्विक ऋत व्यवस्था में इसका मूल्य हो सकता है लेकिन नित्यप्रति के जीवन में इसे आचरण में उतारना धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था में बैठे लोगों की धींगामुश्ती, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था को बढ़ावा देना है! ऐसे में तो जनमानस को न्याय मांगने का भी अधिकार नहीं है!बस,कर्म करो और चुप बैठ जाओ! मतदान करों और नेताओं से कोई प्रश्न मत करो! धर्माचार्यों के अनाचरण और अनैतिकता पर चुप रहो!बस,अपना कर्म करो,जो भी होगा वह ठीक है तथा उसे बिना ना नुकर के स्वीकार करो! किसान खेती-बाड़ी का कर्म करे लेकिन फसलों का उचित भावरुपी फल पाने की मांग न करे! विद्यार्थी दिन रात पढाई करे लेकिन सफलता या नौकरी या उचित काम-धंधे के रूप में अधिकार की मांग पर चुप रहकर सिस्टम के भ्रष्टाचार पर चुप्पी साधे रहे! भगवान् श्रीकृष्ण ऐसा उपदेश नहीं दे सकते हैं! स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी महाभारत के युद्ध में पांडव पक्ष की धर्म की विजय के फल की कामना की थी! उनके समस्त प्रयास कर्म और कर्मफल पर अधिकार को ध्यान में रखकर ही संपन्न हुये थे!
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119

Thursday, February 20, 2025

शोधालेख आमंत्रण (Call for Research Papers)

                                                शोधालेख आमंत्रण

धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, योग व हिन्दी के प्रचार प्रसार को समर्पित आचार्य अकादमी चुलियाणा , रोहतक (हरियाणा) संस्था निम्न अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक शोध पत्रिकाओं  पीयर रिव्यूड  के लिए शोध पत्र आमंत्रित करती है-

🖊🖊प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका (त्रैमासिक), (ISSN No. 2249-2976), Impact Factor : 7.158🖊🖊

🖊🖊चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका (त्रैमासिक), (ISSN No. 2229-7227), Impact Factor : 7.170🖊🖊

👉 माह मार्च 2025 के लिए शोधलेख आमंत्रित हैं।

👉 अंतरराष्ट्रीय त्रैमासिक शोध पत्रिका प्रमाण व  चिन्तन के आगामी अंक के लिए शोध आलेख आमंत्रित हैं।

👉 मल्टीडीसिप्लिनरी / विभिन्न विषयों पर मौलिक शोध-पत्र, कृतिदेव फॉन्ट 010, कृष्णा, Arial/Times New Roman फॉन्ट साइज 14 के साथ वर्ड फ़ाइल में टाइप होकर 2200 से 2500 शब्दों का होना चाहिए।

👉सहयोग राशि : 2000/-प्रति शोध आलेख

👉 संपादक :- आचार्य शीलक राम

 Email :- shilakram9@gmail.com

website: www.pramanaresearchjournal.com

website: www.chintanresearchjournal.com