Wednesday, March 17, 2021

दर्शन एवं विज्ञान

         आज विज्ञान के बारे में सब जानते हैं लेकिन जिस विषय से विज्ञान का जन्म हुआ तथा जिसे भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने ‘विज्ञानों का विज्ञान’ कहा है उस विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ को शायद ही कोई जानता होगा । प्रारंभ में एक ही विषय था तथा उसकी शाखा-प्रशाखारूप अन्य विविध विषयों का अध्ययन-अध्यापन किया जाता था । वह एक ही विषय ‘दर्शन-शास्त्र’ था । इसके प्रमाणस्वरूप हम ‘पीएच॰ डी॰’ की उपाधि को ले सकते हैं । इसका पूरा अर्थ है ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ । किसी भी विषय में किए गए गहन शोध हेतु उपाधि पीएच॰ डी॰ की ही दी जाती हे । हिन्दी में किए गए शोध को ‘डॉक्टर ऑफ हिंदी’ नहीं कहते तथा न ही फिजिक्स में किए गए गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिजिक्स’ कहते । किसी भी विषय में गहन शोध हो और उसे उपाधि दी जाऐगी ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की । यह इस तरह से समकालीन युग में किसी भी विषय में गहन शोध को ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसाफी’ की उपाधि प्रदान करना विषयों के आदिमूल यानि सब विषयों के आदि पिता ‘दर्शन-शास्त्र’ को दिया गया सम्मान है ।

        यह ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ‘विज्ञान’ विषय से कतई नजदीक है। आज इस विषय के संबंध में जानकारी तक भी न होना तथा ‘विज्ञान’ विषय का जन-जन तक विस्तार होना यह दर्शाता है कि आज का विकास एक-पक्षीय विकास है । कोई पुत्र यदि अपने माता-पिता को ही भूल जाए तो इसे किसी तरह से संतान का सही विकास नहीं कहा जाऐगा । ‘विज्ञान’ यानि कि ‘ैबपमदबम’ जिसे लैटिन शब्द ‘साईंटिया’ से आया है उसका अर्थ ‘देखना’ होता है । ‘दर्शन’ का अर्थ भी देखना होता है । इस तरह से भी ये दोनों विषय बेहद नजदीकी लगते हैं । दोनों विषयों का कार्य ‘देखना’ है। विज्ञान बाहरी वस्तुओं को देखकर उनका विश्लेषण करता है तथा उनके मूल-तत्त्वों का ज्ञान देखने वाले को प्रदान करता है । इससे हमारा बाहरी सांसारिक जीवन समृद्ध, वैभवपूर्ण एवं सुखपूर्ण बनता है। ‘दर्शन-शास्त्र’ भी बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है तथा उनके संबंध सिद्धांत-निर्माण करता है । लेकिन ‘दर्शन-शास्त्र’ यहीं पर रूक नहीं जाता है । यह विषय ‘विज्ञान’ विषय की तरह बाहरी वस्तुओं को देखता है, उनका वैचारिक विश्लेषण करता है, सिद्धांत-निर्माण करता है लेकिन फिर ‘क्यों’ का उत्तर तलाश करने का भी प्रयास करता है । ‘विज्ञान’ के पास सिर्फ ‘कैसे’ का उत्तर देने की क्षमता है जबकि ‘दर्शन-शास्त्र’ इस ‘कैसे’ से गहरे जाकर ‘क्यों’ का उत्तर भी ढूंढता है । परमाणु को इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन एवं प्रोटोन में तोड़ने की विधि विज्ञान दे सकता है लेकिन यह सब इतनी शक्ति जो उससे उत्पन्न होती है यह ‘क्यों’ होता है - इसका उत्तर ‘विज्ञान’ के पास न होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ के पास है । परमाण मैं निहित इस शक्ति का आदि स्त्रोत ‘परमात्मा’ है । उस आदि स्त्रोत के संबंध में केवल ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय ही विस्तार एवं गहनता से बतला सकता है । आप को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘विज्ञान’ से जब किसी भी क्षेत्र के ‘क्यों’ का उत्तर मांगा जाता है तो उसके पास ‘अवैज्ञानिक उत्तर’ यह होता है कि मुझे नहीं पता । इसीलिए विज्ञान हमें प्रसन्नता सुख, वैभव एवं समृद्धि दे सकता है लेकिन आदर, समर्पण, तृप्ति, संतुष्टि एवं आनंद नहीं दे सकता है । विज्ञान का कार्य मात्र बाहरी समृद्धि प्रदान करना है । आतंरिक समृद्धि आऐगी ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय से ।
        विज्ञान बाहरी विषयों का अध्ययन एवं विश्लेषण करके बाहरी जीवन को सुखी तो बना सकता है, परन्तु उसका सबसे बड़ा दोष यह है कि वह ‘जानने वाले’ के संबंध में ‘दर्शन-शास़्’ हमें बतलाता है । और इस ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को ‘विज्ञानों का विज्ञान’ इसलिए भी कहा जाता है कि क्योंकि यह बाहरी विषयों को देखकर ‘देखने वाले’ को देखने की भी सीख देता है । यह यह सीख देकर ही चुप नहीं बैठ जाता अपितु ‘योग-साधना’ के रूप में प्रयोगात्मक विधियों का अभ्यास भी करवाता है जिनसे व्यक्ति - कोई भी व्यक्ति बाहरी संसार को जानकर अपने स्वयं को भी जान लेता है। इस स्वयं के जानने में ही व्यक्ति की सर्व समस्याओं का समाधान है । हम बाहरी संसार को जानते हैं लेकिन अपने स्वयं को नहीं जानते - यह कितनी दयनीय स्थिति है हमारी व हमारे संसार की? ‘विज्ञान’ से हम अपने बाहरी संसार को समृद्ध बनाएं तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ से अपने भीतरी जीवन को समृद्ध बनाएं - यही आज के युग की सब से बड़ी जरूरत है । इस हेतु यह आवश्यक है कि ‘विज्ञान’ विषय के साथ ‘दर्शन-शास्त्र’ की भी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था हम अपने शिक्षा-संस्थानों में करें । ‘विज्ञान’ विषय की अति-लोकप्रियता तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की अति-उपेक्षा हमारे संसार को पतन एवं विनाश की तरफ ले जा रही है तथा आगे भी यह प्रचलन रहा तो हमारी समकालीन सभ्यता को इस पतन व विनाश में जाने से कोइ्र रोक नहीं सकता । व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण धरा के सर्वांगीण विकास हेतु ‘विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र’ दोनों विषयों को समान महत्त्व दिया जाना जरूरी है ।

        भारत एवं भारत से बाहर आए दिन गंभीर अपराध यथा जनसंहार, हत्याएं, आतंकवाद, उग्रवाद, बलात्कार, अनाचार, बदले की भावना, ईर्ष्या की भावना, द्वेष की भावना, तनाव, चिंता, आपाधापी, अति-प्रतियोगिता हिंसा, युद्धादि हो रहे हैं । शांति, संतुष्टि, तृप्ति, प्रेम, करुणा, समर्पण, सेवा, आदर एवं अहोभाव तो जैसे इस संसार से विदा ही हो गए हैं । इसकी जड़ में जाने के गंभीर प्रयास हो नहीं रहे हैं । ऊपरी लोपा पोती करके चिकित्सा की जाती है । इससे होता यह है कि ये इस तरह की व्याधियां और भी भयंकर रूप धारण करती जा रही हैं । आज का विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज-विज्ञान आदि सब के सब अंधविश्वासी पाखंडी व ढोंगी सिद्ध हो रहे है । इस मामले में जिस तरह धर्म के नाम पर पाखंड, ढोंग व अंधविश्वास व्याप्त हैं उससे कई गुना अधिक पाखंड ढोंग व अंधविश्वास विज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त है । ऊपरी सुख-सुविधाओं एवं समृद्धि की सारी सामग्री तो विज्ञान ने उपलब्ध करवा दी, परंतु भीतरी समृद्धि, भीतरी वैभव, भीतरी संतुष्टि, भीतरी आनंद एवं तृप्ति हेतु विज्ञान ने आज तक कुछ भी नहीं किया है । अपने क्षेत्र की उन्नति करना उसकी वैज्ञानिकता है लेकिन अपने से परे के क्षेत्र की अवहेलना करके उसकी सत्ता से ही मना कर देना उसकी घोर अवैज्ञानिकता है । अरे! वैज्ञानिक तो वह होता है जो प्रयोग करने पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है । विज्ञान के क्षेत्र में तो धर्म के क्षेत्र की तरह वैज्ञानिकों को यह रटाया जाता है कि भगवान नहीं होता, धर्म नहीं होता, कोई अदृश्य शक्ति नहीं होती तथा केवलमात्र पदार्थ ही होता है । कई दशकों से तो विज्ञान भी पदार्थ की गहराई में जाकर यह सिद्ध कर चुका है कि पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है अपितु भगवान (ऊर्जा) की ही सत्ता है । ये वैज्ञानिक है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं शदी की ही वैज्ञानिक खोजों पर अटके हुए हैं ।

        तो ‘विज्ञान’ अपनी खोजों एवं उपलब्धियों से बाहरी संसार को भौतिक सुख-सुविधाएं प्रदान करे तथा फिर ‘दर्शन-शास्त्र’ को कह दे कि लो भाई अब आप अपना काम कीजिए । यानि कि बाहरी सुख-सुविधाएं हमने जुटा दीं, अब भीतरी तृप्ति व संतुष्टि आप एकत्र कीजिए । लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है । सर्वत्र ‘विषयों’ का चिंतन तो खूब चल रहा है लेकिन ‘विषयी; की तरफ किसी का ध्यान शायद ही जाता होगा । कोई थोड़ा-बहुत ध्यान देता भी है तो उसे पुराजंद थी एवं अंधविश्वासी कहकर उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। इस ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘धर्म’, ‘नीति’, ‘योग’ व अध्यात्म की घोर उपेक्षा करने के पीछे राजनेताओं, वैज्ञानिकों एवं धर्म का व्यापार करने वालों तथा साम्यवादियों का गहरा स्वार्थ एवं षड्यंत्र भी है । विज्ञान की तरह इस क्षेत्र को भी व्यापार बना देने को उत्तेजित ऐसे काफी राजनेता, धर्मगुरु, योगाचार्य व मनोवैज्ञानिक तथा योगाचार्य यह चाहते हैं कि यदि इसी तरह से असंतुलित विकास चलता रहा तो उनकी दुकानें भी भलि तरह से चलती रहेंगी । आखिर डाॅक्टर की दुकान, बिमारों पर, वकीलों की दुकान झगड़ों पर, गुरुओं की दुकान बुद्धूओं पर ज्ञानियों की दुकान अज्ञानियों पर तथा व्यवसायियों की दुकान उपभोक्ताओं पर ही तो चलती है । ‘दर्शन-शास्त्र’ की समकालीन युग में घोर उपेक्षा के पीछे ये उपर्युक्त लोग भी हैं ।

        सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञान, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी तो चाहेंगे कि लोग भीतर व बाहर दोनों तरफ से समृद्ध व तृप्त हों । परंतु ऐसे सच्चे गुरु, ज्ञानी, आचार्य, विज्ञानी, चिकित्सक, राजनेता व व्यवसायी सदैव से कुछ ही होते आए है । इनमें से अधिकांश तो भेष किसी अन्य का ओढ़े रहते हैं तथा वास्तव में होते कुछ अन्य ही हैं । तो ‘दर्शन-शास्त्र’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन, सर्व-विषयों के पिता तथा बाह्य व भीतरी जीवन को समृद्ध बनाने में सक्षम विषय के दुश्मन ‘विज्ञान’ आदि विषय तो हैं ही, इसके साथ-साथ इसके समर्थक व रक्षक कहे जाने वाले भी इसकी नैया को डुबाने में पीछे नहीं है । आज टी॰ वी॰ के कई चैनलों पर दिन-रात ‘योग’ के संबंध में प्रवचन झाड़ने वाले या सनातन भारतीय आर्य हिंदू सभ्यता व संस्कृति पर दिन-रात अपनी मनमोहक वाणी से लोगों के दिलों पर राज करने वाले या लाखों लोगों की भीड़ कभी भी जमा करके कथा-वाचन करने वाले कथाकार या लाखों चेलों के गुरु ‘दर्शन-शास्त्र’, ‘योगा साधना’ व अध्यात्म को भारत में उचित स्थान क्यों नहीं दिलवा पाए हैं? सही बात यह है कि वे वास्तव में ऐसा करना चाहते ही नहीं हैं । उन्हें तो बस डाॅक्टरों, वकीलों आदि की तरह अपनी दुकानें ही भलि तरह से चलानी है । जागो भारत! जागो!! सही जीवन-शैली व कुछ वास्तवकि कर-गुजरने की आग अपने भीतर रखने वाले व्यक्तियों को आगे आना ही होगा । जिस तरह से तथाकथित बुरे लोगों में एकता होती है, उसी तरह से अच्छे व्यक्तियों को भी एकता से कार्य करना ही होगा । ‘विज्ञान’ व ‘दर्शन-शास्त्र’ तो गाड़ी के दो पहियों की तरह या व्यक्ति के दो पैरों की तरह हैं । गाड़ी के दोनों पहिए तथा व्यक्ति के दोनों पैर यदि सही-सलामत होंगे तो ही गाड़ी व व्यक्ति सही तरह से गति पर पाएंगे । अन्यथा तो दुर्गति, अव्यवस्था, मारामारी, तनाव, चिंता, बदले की भावना, आपाधापी एवं उपद्रव व युद्ध होते ही रहेंगे । बिमारी को ठीक करने हेतु सही चिकित्सा करनी होगी, केवल दिखावा करने या लीपापोती से काम नहीं चलेगा । संतान इतनी बड़ी कभी नहीं होती कि वह अपने माता-पिता से बड़ी हो जाए- इसी तरह अन्य विषय कितनी भी तरक्की कर लें लेकिन वे ‘दर्शन-शास्त्र’ से बड़े नहीं हो सकते । पदों, कुर्सियों, गद्दियों एवं साधनों पर जहरीले सांपों की तरह कुंडलियों मारे समर्थ लोग शायद ही कभी हकीकत को समझ पाएं - इसकी चिकित्सा यही है कि दबे-कुचले, अभावग्रस्त, अधिकारहीन, उपेक्षित लेकिन प्रतिभावान, जमीन से जुड़े लेकिन दयनीय हालत को प्राप्त लोगों को कुछ ज्यादा ही उग्र, उत्तेजित, सचेत एवं होशपूर्ण होना होगा । एकांगी विकास से छुटकारा होकर ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय को केवल तभी ही उचित स्थान सम्मान मिल पाना संभव हो सकेगा। चुप बैठ जाना कायरता है । इससे तो केवल अनधिकारियों एवं दुष्ट-प्रवृत्ति वालों को बढ़ावा ही मिलता है । तो जागो भारत जागो ।।

        एक तरह से राजनेताओं, धर्मगुरुओं, पुरोहितों, वैज्ञानिकों एवं अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने दुनिया को (विशेषकर भारत को) गुलाम बनाकर रखा हुआ है । एक नए तरह की गुलामी है यह । पूर्वकाल में भारत को केवल एक विदेशी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी ‘ईष्ट इंडिया’ ने गुलाम बनाकर रखा हुआ था लेकिन अब तक यहां भारत में करीब चार हजार ऐसी कंपनियां हैं जो जमकर यहां का माल लूट रही हैं । ऐसी कंपनियों ने भारतवासियों के खान-पान, रहन-सहन, दिनचर्या, मनोरंजन को अपने कब्जे में लेकर यहां के लोगों की सेहत, चरित्र व आचरण को भ्रष्ट करके रख दिया है । 1947 ई॰ के पश्चात् शासन करने वाली सरकारों ने इन कंपिनयों को खूब खुली छूट दी तथा स्वयं भी खूब इस समृद्ध राष्ट्र को लूट-लूटकर धन को विदेशी बैंकों में जमा करवाया । इन्हें भारत, भारतीयता, भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति, भारतीय जीवन-मूल्यों तथा भारतीय-दर्शन से कोई लेना-देना नहीं है । यहां की अधिकांश सरकारें यहां पर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की तरह कार्य कर रही हैं । यदि ‘दर्शन-शास्त्र’ में वर्णित जीवन-मूल्यों, दिनचर्या, चरित्र, आचरण, आहार-विहार, चिकित्सा आदि पर ये चलें तथा अन्यों को भी ऐसे ही चलने को प्रेरित करें तो फिर भारत में इनकी यह लूट का नंगा नांच कैसे चलेगा? यहां पर सब कुछ पूर्ववत् अंग्रेजी-शासन के अनुसार ही चल रहा है । सत्ता अंग्रेजों के हाथ से निकलकर भारतीयों के हाथ में आई तो सत्ता का हस्तांतरण जरूर हुआ लेकिन व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजों वाली दुष्ट व्यवस्था भारत में अब तक चल रही है ।

        एक और भारतीयों की मूढ़ता का अवलोकन कीजिए । आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में ‘दर्शन-शास्त्र’ विषय की मुख्य पुस्तकें ‘आंग्ल-भाषा’ में मिलती हैं । इसी बात को एक अन्य रूप में यदि कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि ‘आंग्ेल-भाषा’ में लिखी पुस्तकों को प्रामाणिक माना जाता है । हमारे भीतर पाश्चात्य विद्वानों ने एवं वहां के सत्तालोलुप राजनेताओं ने इतनी हीन-भावना से भर दिया कि आज भारत में भारतीय भाषाओं में लिखी पुस्तकें नहीं अपितु आंग्ल-भाषा मंे लिखी पुस्तकें ही लोकप्रिय हैं । आंग्ल-भाषा में लिखा हुआ कूड़ा भी वैज्ञानिक है जबकि भारतीय भाषाओं में लिखी गई उत्कृष्ट एवं वैज्ञानिक पुस्तकें भी व्यर्थ समझी जाती हैं । ‘दर्शन-शास्त्र’ पर लिखी पुस्तकों में (आंग्ल-भाषा) डॉ॰ राधाकृष्णन, डॉ॰ एस॰ एन॰ दासुगुप्त, डॉ॰ हिरियन्ना, मैक्समूलर, ग्रिफिथ, रॉथ, मैक्डोनल, विलियमजों से दयाकृष्ण, दत्त एवं चट्टोपाध्याय आदि की पुस्तकें प्रामाणिक एवं पाठ्यक्रम के दृष्टिकोण से सही मानी जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इन द्वारा लिखित पुस्तकें अधिकांश में कल्पनापूर्ण उल्लेखों, कल्पित व्याख्याओं मनधडंत दृष्टिकोणों, भेदभावपूर्ण विवरणों एवं मनमानी विचारधारा से भरी हुई है । इनकी तथा इन जैसे अन्य लेखकों की पुस्तकें भारतीय संस्कृति, भारतीय-दर्शन, भारतीय जवन-मूल्य, आचरण एवं चरित्र को दुषित एवं भ्रष्ट करने हेतु ही हैं । महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, सावरकर, गुरुदत्त, विद्यानंद सरस्वती, बैद्यनाथ शास्त्री आदि की पुस्तकों को जान-बूझकर उपेक्षित छोड़ दिया गया है । हमारे समस्त विश्वविद्यालयों के अधिकांश शिक्षक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं तथा चिंतन, विचारधारा एवं विचार में लगभग गुलाम है। । आज भी गुलाम हैं हम । हमारे वरिष्ठ शिक्षक जमीनी हकीकत से दूर विदेशी सोच की गुलामी में उलझे हुए हैं । यह उसी सुकरांत, प्लेटो व अरस्तू की सोच का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वे नारी में आत्मा भी नहीं मानते थे । ये तीन महान दार्शनिक माने जाते हैं लेकिन इनकी विकृत व भेदभावपूर्ण सोच के दर्शन इनकी विचारधारा से हो जाते हैं । कहां भारत में नारी को पुज्यनीय मानने की सनातन परंपरा तथा कहां पश्चिम की नारी में आत्मा भी न मानने की सोच? भारत की रक्षा भारतीयता को अपनाने से होगी, जमीन से जुड़ने से होगी तथा ‘भारतीय-दर्शन’ को स्वीकार करने से होगी । जागो भारत! जागो ।।
        विज्ञान से अपने भौतिक जीवन को समृद्ध बनाकर अपने आंतरिक जीवन को ‘दर्शन-शास्त्र’ के माध्यम से आनंदपूर्ण बनाएं । यही और यही आज के भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जरूरत है । इसे हम जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही जल्दी हमारा कल्याण होना संभव हो सकेगा । विदेशी उधारी सोच की गुलामी से बाहर निकलें तथा अपनी कूपमंडकता का त्याग करके अपने वैज्ञानिक एवं जमीन से जुड़े तथा निकले ‘दर्शन-शास्त्र’ का सम्मान करें । किसी भी प्रकार की गुलामी में विकास होना कभी भी संभव नहीं है, यह तथ्य पढ़े-लिखे हमारे विश्वविद्यालय के लोगों को जितनी शीघ्रता से समझ में आ जाए उतना ही अच्छा है । ‘विज्ञान’ की अंधी दौड़ तथा ‘दर्शन-शास्त्र’ की घोर उपेक्षा से केवल विनाश ही निकला है तथा आगे भी ऐसा ही हो सकता है । इस अपनी धरा को यदि हमें बचाना है तो अधूरे विकास की पश्चिमी अवधारणा से छूटकारा पाकर बहु-आयामी विकास की सनातन भारतीय आर्य हिंदू दर्शन-शास्त्र की अवधारणा को स्वीकार करना ही होगा । विज्ञान का जीवन यानि बाहरी जीवन अधूरा जीवन है । भीतर भी तो झांकें। अहम् को तो बहुत देख लिया, अव अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसकी सीढ़ी बनाएं । विज्ञान भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है ।
                                                                                            ""आचार्य शीलक राम""
                                                                                            वैदिक योगशाला कुरुक्षेत्र
                                                                                             आचार्य अकादमी रोहतक

Tuesday, March 16, 2021

कृण्वन्तो विश्मार्यम्

            ईसाईयत के प्रचार में नियुक्त षड्यन्त्रकारी एवं पूर्वाग्रह में आकण्ठ डूबे पाश्चात्य लेखकों ने पूरजोर कोशिशें की यह सिद्ध करने की कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं हैं तथा न ही भारत भूमि आर्यों की मूल जन्मभूमि है । इसको सिद्ध करने हेतु सैकड़ों विद्वानों एवं लाखों मिशनरियों को लगाया गया था । इन्होंने अपने जीवनभर स्मृतितोड़, जोड़तोड़ एवं सत्य तोड़ मेहनत की है इस हेतु । इनकी योजना को कार्यरूप देने हेतु अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया तथा युरोप के अन्य ईसाई देशों ने खरबों डालर अपनी इस दुष्ट योजना पर खर्च किए हैं । यह दो-तीन सदी पूर्व शुरू हुआ षड्यन्त्र कोई अब रूक नहीं गया है अपितु अब भी अबाध गति से चल रहा है । अब भी ईसाई देशों से तथा वेटिकन से अरबों डालर प्रतिवर्ष हिन्दुओं के मतान्तरण, हिन्दू सभ्यता व संस्कृति पर विकृत लेखन, हिन्दू मान्यताओं को अवैज्ञानिक सिद्ध करने हेतु उल्टे-पुल्टे कुतर्क प्रस्तुत करने, हिन्दू दर्शनशास्त्र को युनानी दर्शनशास्त्र से नवीन व उसका नकलची सिद्ध करने, वेद-उपनिषद्-पुराण-स्मृति-महाकाव्यों की भौंड़ी व्याख्या करने, भारतीय कला की महत्ता पर मिट्टी डालने, भारतीय भवन निर्माण कला-उद्यान निर्माण कला-सड़क निर्माण कला - चिकित्सा-शिक्षा आदि को पुराणपंथी व समयबाह्य सिद्ध करने हेतु भारत में वैध या अवैध ढंग से भेजे जा रहे हैं। इसी धन व कुचक्र के बल पर ही केरल, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा आदि को इसाईबहुल बना दिया गया है । यदि कोई व्यवस्था इसको रोकने हेतु लागू की जाती है तो सारा मीडिया शोर मचाने लगता है कि भारतीयों की धार्मिक आजादी का गला घोंटा जा रहा है । मीडिया भी तो ईसाईयत व इस्लाम के प्रभाव में ही है । अनेक गैर सरकारी संगठन सड़कों पर धरने-प्रदर्शन करने लगते हैं ।

         आर्य यानि कि विवेकपूर्ण, सज्जन, अच्छा, भला, सृजनात्मक, रचनात्मक, सुन्दर, प्रतिभाशाली, तरक्की पसन्द एवं गुणसम्पन्न । आर्य यानि कि सबका विकास व साथ में अपना विकास चाहने वाला । आर्य यानि कि अपने साथ सबका हित चिन्तक व आर्य यानि कि शस्त्र व शास्त्र में एक साथ पारंगत । आर्य यानि कि अहिंसा व हिंसा को समयानुसार प्रयोग करने में प्रवीण । आर्य यानि कि धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में सन्तुलन साधकर जीने जीवने वाला, आर्य यानि कि आर्य वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति द्वारा स्थापित मानकों पर जीवन जीने वाला व्यक्ति । इस आर्य व हिन्दू शब्द में भी हमारे कुछ उत्साही साथियों ने विवाद पैदा कर दिया है । वे कह रहे हैं कि हिन्दू, हिन्दी व हिन्दुस्तान शब्द भारतीयों को विदेशियों द्वारा दिए गए हैं । इन शब्दों का अर्थ अपमानजनक, त्रुटिकारक एवं हीनभावना से ग्रस्त है । कुछ नवीन ग्रन्थों (मुसलमान, पारसी व ईसाई) के अध्ययन से इनकी यह मान्यता बन गई है । यदि निष्पक्ष रूप से नए के साथ प्राचीन अरबी भाषा के ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए, वेदों के शब्दों का लौकिक भाषाओं में बदलता रूप देखा जाए तथा संस्कृत भाषा से अन्य भाषाओं के शब्दों में उच्चारण भेद का अवलोकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाऐगा कि यह ‘हिन्दू’ शब्द न तो विदेशियों द्वारा हमें दिया गया है तथा न ही यह कोई काफिर व बुरे व्यक्ति का प्रतीक है । वेद के ‘सिन्धू’ शब्द का ‘हिन्दू’ में परिवर्तन कोई अमान्य घटना नहीं है । ‘स’ का ‘ह’ हो जाना हरियाणवी में भी साधारण सी बात है । संस्कृत के ‘सः’ का हरियाणवी में ‘ह’ हो जाना कोई भी हरियाणवी जानने वाला व्यक्ति देख व जान सकता है । ‘हिन्दू’ शब्द किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता, यह सच है । लेकिन इसी से तो यह सिद्ध नहीं हो जाता कि यह शब्द हमें विदेशियों द्वारा दिया गया था । इस तरह के भारतीय जनजीवन में प्रचलित अनेक शब्द मिल जाएंगे कि जो हमारे प्राचीन साहित्य में नहीं मिलते । लेकिन इसी से क्या हम यही अर्थ निकाल लें कि वे सारे के सारे शब्द हमें विदेशियों ने प्रदान किए हैं? इस युग के महान राष्ट्रवादी, स्वदेशी के पोषक, महातार्किक एवं दार्शनिक स्वामी दयानन्द ने ‘आर्य’ शब्द को धारण करने हेतु जोर दिया है तथा अपने नाम के साथ ‘आर्य’ शब्द लगाने को कहा है । ‘हिन्दू’ से ‘आर्य’ शब्द को आपने सर्वश्रेष्ठ कहा है । स्वामी दयानन्द के भाषा ज्ञान, भारतीय सभ्यता व संस्कृति ज्ञान, प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के ज्ञान पर किसी प्रकार का सन्देह करने का न तो हमारा कोई प्रयास है तथा न ही ऐसा करने की हमारी कोई योग्यता है । लेकिन फिर भी स्वामी जी यदि कुछ वर्ष और शरीर में रहते तो वे भी ‘हिन्दू’ शब्द के सम्बन्ध में विविध जानकारी प्राप्त करके शायद इसको स्वीकार करने में हिचक नहीं करते ।

         हम सबको आर्य हिन्दू बनना है । जन्मना तो सभी लोग अज्ञानी, अबोध एवं मूढ़ ही होते हैं । लेकिन सब का यह कर्त्तव बनता है कि पुरुषार्थ के बल पर अपनी अज्ञानता, अपनी अबोधता एवं अपनी मूढ़ता को छोड़कर सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें । सभी व्यक्ति आर्य हिन्दू बनें तथा अन्यों को भी बनाएं । ईसाईयत के छल-कपट, इनकी लूटनीति, इनकी भेदनीति तथा इस्लाम के नरसंहारों, इनकी अज्ञानता, इनकी अवैज्ञानिक सोच को हमने अतीत में खूब देखा है तथा अब भी देख रहे हैं । धोखे या प्रलोभन या षड्यन्त्र का शिकार होकर ईसाई या मुसलमान न बनें अपितु आर्य हिन्दू ही बनें । केवल और केवल इसी से ही भारत व भारतीयता का कल्याण सम्भव हो सकता है । आप कुपथ पर न चलें अपितु सत्यथ पर चलें और यह सत्यथ आर्य वैदिक सनातन हिन्दू होना ही है ।

""आचार्य शीलक राम""
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

Thursday, March 11, 2021

भारतवर्ष का समृद्ध अतीत

           तेरह सदी की गुलामी, मुगलिया दुष्प्रभाव, पाश्चात्य पूर्वाग्रही सोच, साम्यवादी आतंकी चिन्तन तथा कांग्रेसी सेक्युलरी प्रभाव की वजह से हमारे राष्ट्र के लोगों पर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की मूढ़ता सवार है । यह मूढ़ता शिक्षित लोगों पर विशेष रूप से हावी है । अनपढ़, कम शिक्षित व अन्य व्यक्ति तो शिक्षितों की सोच से ही प्रभावित होते हैं । इन शिक्षितों को ही सभी अपना आदर्श मानते हैं तथा इन्हीं के सुझाए व बताए रास्ते पर चलने का प्रयास करते हैं । जब इन तथाकथित शिक्षितों में ही हीनभावना कूट-कूटकर भरी हुई है तो अन्य भारतीय नागरिकों की मनःस्थिति क्या होगी, इसके सम्बन्ध में अलग से कहने की कोई विशेष जरूरत नहीं है । अपने समृद्ध अतीत को गालियां देना, अपने समृद्ध अतीत को पिछड़ा हुआ मानना, अपने समृद्ध अतीत को देहाती व गंवार कहना, अपने समृद्ध अतीत को सपेरों व ओझाओं तक सीमित करके देखना, अपने समृद्ध अतीत को विज्ञान से रहित सिद्ध करके विचार रखना, अपने समृद्ध अतीत को राष्ट्र की भावना व सोच से रहित मानना तथा हर प्रसंग में अपने समृद्ध अतीत को कूपमंडूक कहते रहना हमारे दार्शनिकों, विचारकों, चिन्तकों, इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षाविदों, राजनेताओं नौकरशाहों एवं रणनीतिकारों की एक आदत सी बन गई है । कितनी बड़ी विडंबना है कि अमेरिका, आस्टेªलिया, इंग्लैण्ड आदि देश अपने समृद्ध अतीत के बिना ही उसे समृद्ध व स्वर्णिम सिद्ध करके उसे ही अपने शिक्षा-संस्थानों में पढ़ाते हैं लेकिन हमारे भारत में इसके कतई विपरीत हो रहा है । हमारे यहां वास्तव में समृद्ध अतीत होने के बावजूद भी उसे दयनीय, हीन, निम्न, अवैज्ञानिक एवं कूड़ा-कर्कट सिद्ध किया जा रहा है । हमारे भारत में शिक्षित व्यक्ति वह कार्य कर रहे हैं जिससे हरेक कदम पर राष्ट्र का अपमान होता हो । अमेरिका व आस्टेªलिया में बाहर से गए ईसाई हमलावरों ने वहां-वहां कब्जा कर लिया तथा वहां के मूल निवासियों की सभ्यता, संस्कृति, जीवनमूल्यों व अस्तित्व को समाप्त कर डाला । इसके बावजूद भी वे इन नरसंहारों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बोलते हैं तथा मनमाने ढंग से झूठ बोलकर अपने इतिहास को प्रस्तुत करते हैं । इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल आदि देशों ने एशिया व अफ्रीका महाद्वीपों में अपने उपनिवेश स्थापित करके करोड़ों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया तथा वहां की अमूल्य सम्पदा को लूट-लूटकर अपने-अपने देशों को समृद्ध बनाया। इस घोर कुकर्म के सम्बन्ध में भी ये देश अपने अतीत की निन्दा न करके उसे सही व नैतिक ठहराते है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल आदि देशों द्वारा किए गए कुकर्मों का सर्वाधिक खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा है । इन देशों के कुकर्मों के सम्बन्ध में हमारे शिक्षित भाई कुछ नहीं कहते है । पिछलग्गूपन की इनकी मानसिकता इन पर इतनी हावी है कि ये इससे प्रभावित होकर पश्चिम के सारे कूड़े कचरे को वैज्ञानिक व स्वर्णिम मानते हैं तथा भारत के वैज्ञानिक, स्वर्णिम एवं हितकारी को मूढ़तापूर्ण मानते हैं । एक तरह से भारत में तो शिक्षित होने का अर्थ ही नहीं है कि अपने समृद्ध अतीत की नकारकर उसकी निन्दा करो या उसकी खिल्ली उड़ाओ । आजादी के बाद हमारे ये पढ़े-लिखे लोग यही सब कर रहे हैं । अभी-अभी हमारे मानवीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी अमेरिका की यात्रा पर गए तो वहां पर उन्होंने भारत के अतीत की व्याख्या सपेरों से करने की बात कही। इसी का अनूकरण करके तथा अपनी मानसिकता के अनुकूल उन्होंने भारत के मंगल ग्रह अभियान का मजाक उड़ाया । प्रधानमंत्री जी को यह सोचकर ब्यान देना चाहिए या कि सपेरों का देश ‘विश्वगुरु’ कैसे हो सकता है? राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ की विचारधारा के नीेचे पला-बढ़ा व्यक्ति ऐसी भाषा का प्रयोग करे ही क्योंकि जिससे भारत के अतीत को धूमिल किया जाता है ।

            सारी दुनिया में आज जो भी भवन निर्माण विद्या का प्रचार-प्रसार हुआ है तथा इसके अनुसार जो भी प्राचीन भवन मौजूद हैं वे सारे के सारे हिन्दुओं द्वारा निर्मित है । आज भी अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया आदि महाद्वीपों में पुराने किसी भी प्रकार के भवन मौजुद हैं वे सभी के सभी हिन्दुओं द्वारा निर्मित है । किसी समय वहां पर आर्य हिन्दू ही निवास करते थे । इन सभी महाद्वीपों में स्थित किले, भवन, आवास, मीनारें, मन्दिर, मस्जिद, चर्च आदि सभी के सभी पूर्व में आर्य हिन्दुओं द्वारा निर्मित भवन ही हैं । बाद में इन भवनों को यहुदी, ईसाई व इस्लामी रूप दे दिया गया । आज भी इन भवनों की ऊपरी परतों को उखाड़कर देखा जाए तो आर्य हिन्दू का अंश छिपा हुआ मिला जाएगा । मक्का-मदीना वे वेटिकल शहरी पूरी तरह से आर्य हिन्दू है । अमेरिका, आस्टेªलिया, अफ्रीका तथा एशिया की भूमि पर जगह-जगह शिव, दुर्गा, कृष्ण आदि की मूत्र्तियां मिली हैं । ये मूत्र्तियां पांच हजार वर्ष से लेकर 10-12 हजार तक पुरानी है । अमेरिका में जब ईसाई पहली बार गए तो वहां, के मूल निवासी जिन्हें पश्चिमी विचारकों ने ‘रैड इंडियंस’ कहा है वे मूलतः भारत से गए हुए आर्य हिन्दू ही थे । ईसाईयों ने उम रैड इंडियंस यानि आर्य हिन्दुओं की निर्ममता से हत्याएं करवाई तथा बचे-खुचों को जंगलों में प्रवास करने को विवश कर दिया । बताते हैं कि हिटलर जो अपने आपको आर्य मानता या उसने कई करोड़ यहुदियों को इसीलिए मौत के घाट उतार डाला था क्योंकि उन यहुदियों ने ही अमेरिका में बसे रैड इंडियंस रूपी आर्यों का नरसंहार किया था जिनकी संख्या कई करोड़ थी । उसी का बदला लिया था हिटलर ने । हिटलर को तानाशाह, सनकी, पागल व ऐसा-वैसा घोषित करना ईसई व यहुदी विचारकों की मनमानी व भेदभावपूर्ण कपोल कल्पनाएं हैं । इन विचारकों ने एक तरफा विवरण दिया है, पूर्ण नहीं । इन विचारकों ने हिटलर का इतिहास तो दे दिया । लेकिन अमेरिकी मूल निवासियों व आस्टेªलियाई मूल निवासियों के हुए नरसंहारों का विवरण कतई नहीं दिया है । करोड़ों की संख्या में इन मूल निवासियों के नरसंहारों व उनकी संपत्ति की बेरहम लूटों के विवरणों को पूरी तरह से छिपा दिया है यहुदी, ईसाई व इस्लामी इतिहासकारों ने । संसार का सही इतिहास हिन्दुओं का इतिहास है लेकिन इसी को इन पूर्वाग्रही विचारकों व इतिहासकारों ने या तो कहा ही नहीं है या फिर उसे विकृत ढंग से कहा है ।

        हमारे यहां के लेखक व विचारक गाय की महिमा को पाखंड कहकर उसकी खिल्ली उड़ाते हैं लेकिन पश्चिम के देशों में गौमूत्र के पेटेंट करवाए जा रहे हैं - उसकी औषधीय महत्ता को ध्यान में रखते हुए । भोपाल गैस त्रासदी के कतई मध्य में जहां अनेक लोक गैस के दुष्प्रभाव से मौत के मुंह में चले गए थे वहीं पर एक परिवार यज्ञ करते हुए गैस के प्रभाव से अछूता रहा । उसे कोई भी नुकसान नहीं हुआ । गाय के गोबर से लिपेट पुते घर में रेडियो विकरिण का भी प्रभाव बहुत कम होता है । ऐसे हजारों तथ्य है। जिनकी अनदेशी पाश्चात्य के साथ-साथ भारतीय लेखक व विचारक कर रहे हैं । जागो आर्य हिन्दुओं जागो ।

                                                                                                "आचार्य शीलक राम"
                                                                                                      वैदिक योगशाला
                                                                                                        कुरुक्षेत्र

Saturday, March 6, 2021

अपने सनातन भारतीय दर्शनशास्त्र के महत्त्व को समझें

             आज भारतीय विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र-विभाग में जो "दर्शनशास्त्र" के नाम पर पढ़ाया जा रहा है वह वास्तव में न तो ‘दर्शनशास्त्र’ है तथा न ही इसका भारतीयता से कोई सम्बन्ध है । भारतीय विश्वविद्यालयों में ‘दर्शनशास्त्र’ के नाम से जो पढ़ाया जाता रहा है वह वास्तव में ‘फिलासाफी’ है और ‘फिलासाफी’ भी ऐसी कि जिसका निर्माण विलियम हंटर व लार्ड मैकाले के भारतीय शिक्षा नीतियों के भारतीयता विरोधी षड्यन्त्र, कुचक्रों, पूर्वाग्रहों, संकीर्णताओं, मूढ़ताओं व भेदभाव से ग्रस्त है । इसे ‘दर्शनशास्त्र’ तो कह ही नहीं सकते, इसके साथ-साथ इसे ‘फिलासाफी’ भी नहीं कह सकते । ‘फिलासाफी’ का अर्थ होता है ‘ज्ञान या विद्या की देवी से प्रेम’ । लेकिन जो भी व्यक्ति ज्ञान या विद्या की देवी से प्रेम करता हो, वह क्या ऐसा छली, कपटी, भेदभावी, संकीर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त एवं एकपक्षीय सोच का होगा जैसे कि ये विलियम हंटर, लार्ड मैकाले, राथ, ह्निटनी, विलियम जोन्स, मैकडोनाल, मैक्समूलर, श्लेगल, फ्रान्जबाद, हरमैन, थ्योडोर बेनके, ग्रासमैन, गोल्डस्टकर, ओल्डनबर्ग, वेबर, रोजेन, लुडविग, बुहलर, जौली, बोथलिंगम, विन्टरनित्स, कूहन, विल्सन, मोनियर विलियम, कीथ आदि विचारक कहे जाने वाले लोग थे । इन्होंने मिलकर ईसाईयत के संकेतों पर उस समय के वायसरायों के वित्तिय सहयोग से भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, भारतीय दर्शनशास्त्र, भारतीय जीवनमूल्य, भारतीय धर्मग्रन्थों, भारतीय शिक्षा, भारतीय चिकित्सा, भारतीय विज्ञान एवं हिन्दू आर्य धर्म की मनमानी, अपमानपूर्ण, हीन एवं घटिया व्याख्याएं प्रस्तुत की । इन्हीं मनमानी, अपमानपूर्ण, हीन एवं घटिया व्याख्याओं का अध्ययन हम अपने दर्शनशास्त्र-विभागों एवं संस्कृत-विभागों में कर रहे हैं । पाश्चात्या के इस षड्यन्त्र का पर्दाफाश ठीक उसी समय दुनिया के सर्वोच्च महातार्किक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पूरी योग्यता व तत्परता से किया लेकिन हम हिन्दुओं ने तथा हमारी आनी वाली सरकारों ने उनकी बातों पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया । वास्तविक आर्य हिन्दू दर्शनशास्त्र की उपेक्षा करके विकृत, पाखण्डपूर्ण एवं सायणाचार्य व उनके नकलची पाश्चात्या द्वारा प्रस्तुत किया गया दर्शनशास्त्र हम पढ़ने को विवश किया जाता रहा है और यही मूढ़ता अब भी चल रही है । हमारी अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था ने हमें पूरी तरह से अपनी स्वयं की जडों से उखाड़ने की कोशिशें की है । इन कोशिशों में हमारी सन् 1947 ई॰ के पश्चात् सत्तासीन सरकारों ने भरपूर सहयोग किया है । भारत का दर्शनशास्त्र भारतीय भूमि से उत्पन्न हुआ है तथा यह उतना ही पुरातन है जितनी पुरानी यह सृष्टि है या जितने पुराने हमारे चारों वेद हैं । और हां, हमारी अपनी भूमि से मेरा आशय आज के खण्डित भारत से न होकर भारतवर्ष से है जिसकी सीमाएं इस धरा के सभी समुद्रों को (सिन्धुआ को) स्पर्श करती थी । हमारा आर्य वैदिक सनातन हिन्दू भारतीय दर्शनशास्त्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ ‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’ तथा ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की सर्व सृष्टिय भावनाओं से ओतप्रोत है । यह यहुदी, ईसाईयत या इस्लाम की तरह कोई मजहब, सम्प्रदाय या मत नहीं है । यह वास्तव में ही धर्म का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार की सर्वसृष्टिय भावनाओं की अभिव्यक्ति मनुप्रोक्त धर्म के दस लक्षणों के माध्यम से हुई है तथा इसी को आज से 5200 वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिकसूत्र में ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयशसिद्धि सः धर्मः’ कहकर सर्वसृष्टिय धर्म को कहने का प्रयास किया है। इसी को इस धरा के सबसे वृहद् महाकाव्य महाभारतकार ने ‘अहिंसा परमोधर्मः धर्महिंसा तदैव चः’, कथन करके अभिव्यक्त किया है । सृष्टि के आदि में परमात्मा के निःश्वासरूप उत्पन्न वेदों ने इसी को ‘ऋत’ कहा है । हमारा यह दर्शनशास्त्र एकांगी एकपक्षीय, साम्प्रदायिक एवं पूर्वाग्रहपूर्ण न होकर बहुआयामी, बहुपक्षीय, सर्वकल्याणकारी एवं पूर्वाग्रहरहित है । यह केवल अपनी ही नहीं अपितु अपने साथ अन्यों की भी, यहां तक कि जड़-चेतन सर्व-सृष्टि की जरूरतों व कल्याण को ध्यान में रखकर कार्यरत रहता है। करोडों वर्ष तक इस दर्शनशास्त्र को मानने व जीने वाले आर्य हिन्दू भारतीयों ने सर्वधरा को सर्वसुखकारी एवं सर्वकल्याणकारक बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी । उस सर्वउपकारी दर्शनशास्त्र से कुछ सदी पूर्व हम दूर हो गए हैं । अच्छाई व बुराई का वह संघर्ष आज भी चल रहा है । हमारे शिक्षा के मन्दिर बुरी तरह से अभारतीयता से ग्रस्त हैं। भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी इतिहासकार श्री धर्मपाल जी इस सम्बन्ध में अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले प्रख्यात दार्शनिक विद्वान दयाकृष्ण यहां दिल्ली में बतला रहे थे कि 1850 के करीब से जब अंग्रेजों ने भारत में विश्वविद्यालय स्थापित करने शुरू किए हमारा आत्मचित्र और आत्मस्मृति बिगड़नी शुरू हुई। तब हम स्वयं को और अपने समाज व इतिहास को अंग्रेजों की दृष्टि से देखने लगे। श्री यशदेव शल्य भी इन्हीं विचारों के समर्थक हैं । राजीव भाई दीक्षित ने इस स्वदेशी दर्शनशास्त्र को अभिव्यक्त करने में गजब की सफलता पाई । लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही तरह हमने स्वयं ही असमय उनको इस धरा को छोड़ने हेतु विवश कर दिया । प्रयास चल रहे हैं वास्तविक भारतीय दर्शनशास्त्र को संसार के सामने रखने के । लेकिन विरोधी शक्तियां अब तक हम पर भारी पड़ती आई हैं । पहले ये विरोधी शक्तियां हमारे भारतवर्ष में ही पैदा हुर्ईं, फिर विदेशी इनके मार्गदर्शक बने तथा अब पिछले सात दशक से हम भारतीय ही अंग्रेजों के षड्यन्त्र व कुचक्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इन विरोधी शक्तियों ने 1947 ई॰ से पूर्व 200 वर्ष में हमें कुछ इस तरह से शिक्षित व दीक्षित कर दिया है कि हम काले अंग्रेज बनकर रह गए हैं । हम दुष्ट मैक्समूलर के उस षड्यन्त्र का एक अंग या पूर्जा बन कर कार्य कर रहे हैं कि जिसका रहस्योद्घाटन करते हुए मैक्समूलर ने स्वयं पश्चिम को सम्बोधित करते हुए कहा था कि "भारत का प्राचीन धर्म यहां डूब चुका है और फिर भी यदि ईसाईयत नहीं फैलती है तो किसका दोष होगा?“ प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ॰ के॰ वी॰ पालीवाल ने धूर्त मैक्समूलर के दुष्ट चरित्र का उद्घाटन करते हुए कहा है कि "सच्चाई तो यह है कि मैक्समूलर एक बहुरूपिये की तरह भारत और भारतीयों का सच्चा शुभचिन्तक बने रहने का ढॊग करता रहा जबकि वास्तव में वह अपने नाम, दाम और ईसाईयत की खातिर जीवन भर वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों को विकृत कर हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का प्रयास करता रहा, जिसे ब्रिटिश राज्य का पूर्ण समर्थन मिला । “खेद का विषय है कि उनके साहित्य को आज आजादी के बाद भी पहले ही की तरह समर्थन मिल रहा है जो कि सर्वथा त्याज्य एवं निन्दनीय है। आज जरूरत है भारतीय-दर्शनशास्त्र को पाश्चात्य छद्म व छली विचारकों द्वारा फैलाए गए धुंधल के से आजाद करके उसे उसी सनातन भारतीय आर्य वैदिक हिन्दुत्व से दोबारा जोड़ने का कि जिसका मधुर रस हम सनातनी आर्य हिन्दुओं की रग-रग में करोड़ों वर्ष से प्रवाहमान रहा है ।
"आचार्य शीलक राम"
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र

Thursday, March 4, 2021

विज्ञान एवं अध्यात्म की जन्म भूमि भारत

        यदि हम इतिहास, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा, खेतीबाड़ी एवं चिकित्साशास्त्र का वह निष्पक्ष अध्ययन करते हैं जोकि पूर्वाग्रहग्रसित, भेदभावपूर्ण, मतांधतापूर्ण, कपोलकल्पित एवं मात्र प्रचार की दृष्टि से ही प्रेरित होकर नहीं लिखा गया है तथा न ही साम्यवादी कुटिल सोच से लदा-भरा है तो हम निःसंकोच कह सकते हैं कि महाभारत युद्ध जो कि आज से लगभग इक्यावन सदी पूर्व हुआ था- से हुई विनाश लीला के कारण मानवों के बारह समूह इस धरा के सातों महाद्वीपों में विभिन्न स्थलों पर जाकर बस गए थे । हालांकि उन-उन स्थलों पर मानव का निवास व विकास इससे पहले भी था तथा भारत से गए आर्य वैदिक लोगों का वहां पर निवास था परन्तु फिर भी मानवों के समूहों का यह आना-जाना भारत भिन्न देशें की ओर शुरू से ही लगा रहा है । विभिन्न बदलाव एवं परिस्थितियों से बाध्य होकर या सभ्यता एवं संस्कृति प्रचारार्थ भारत से आर्य वैदिक हिन्दू ऋषि एवं संन्यासी शुरू से ही अन्य देशें की तरफ आते-आते रहे हैं । वर्तमान मानवी सृष्टि का सर्वप्रथम जन्म एवं विकास भारतवर्ष में ही हिमालय पर्वत पर हुआ था। अमरीका (अमर+ईसा), ग्वाटेमाला (गौतमालय), डेनमार्क (धेनुमार्ग), इंगलिस्तान (उगलि+स्थान), वेटिकन (वाटिका), मक्का-मदीना (मख-मेदिन), अरब (अर्व), अफगानिस्तान (अपगण-स्थान), मैक्सिको (मय), रोम (राम), इजरायल (ईस+आलय), मंगोलिया (मंगल), मिश्र (मित्र) जीसस क्राईस्ट (ईससकृष्ण) आदि-आदि सर्वत्र भारतीय आर्यों का एवं इनकी सभ्यता, संस्कृति, जीवन-मूल्यों एवं भाषा का भी प्रचलन था । देवभाषा संस्कृत से ही ये सारी भाषाएं निकली हैं । आज भी विश्व की सभी भाषाओं में संस्कृत के हजारों  शब्दों को यों का यों स्वीकार किया हुआ हैं । तुर्की भाषा में आज भी पंद्रह हजार शब्द हु-ब-हू संस्कृत भाषा के प्रयोग किए जा रहें हैं । यही दशा अन्य भाषाओं की भी है । पाश्चात्य राजनीतिशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र, भाषा, अर्थशास्त्र, युद्धनीति, शिक्षा आदि सभी के सभी युनानी पद्धति पर चल रहे हैं । यह युनानी पद्धति अन्य कहीं से नहीं जन्मी है अपितु भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से दण्डित या निष्काषित या अमर्यादित लोगों ने ही इसको जन्म दिया है - केवल भोगवादी, उपयोगितावादी, भौतिकतावादी, स्थूलतावादी, अहंवादी, संशयवादी, बाह्यार्थवादी, कामुकतावादी आदि आदि कुछ भी नाम दो इसे । युनान के सोफिस्ट विचारक भारतीय चार्वाक विचारकों के ही वंशज थे ।  हिष्पोक्रेटस चरक, सुश्रूत व वागभट्ट से ही प्रभावित थे। डैमोक्रिटस भारतीय बौद्ध सम्प्रदाय से ही प्रभावित थे । पाईथागोरस व जीसस क्राईस्ट वर्षों तक भारतीय शिक्षा-संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करते रहे थे । मूसा एवं जीसस क्राईस्ट की कब्रें भी हैं भारत में । क्योंकि इन्होंने आधे-अधूरे भारतीय विचारों का प्रचार-प्रसार किया और उनको यह आधा-अधूरा प्रचार-प्रसार हजम भी नहीं हुआ । इसका परिणाम जीसस क्राईस्ट को सूली पर लटका देना रहा । युनान यदि वैचारिक, कला एवं राजनीतिक विचारों के रूप में इतना समृद्ध था तो सुकरात को युनानियों ने जहर देकर मार क्यों डाला ? सुकरात की तो युनान में पूजा होनी चाहिए थी । वास्तविकता यह है कि मिस्त्र, युनान, रोम, अरबादि देशों हेतु ये विचार अपने स्वयं के न होकर विदेश यानि भारतीय थे । इन विचारों में केवल भोगवाद, उपयोगितावाद, स्थूलतावाद, पदार्थवाद, विश्लेषण आदि ही न होकर योग व भोग, उपयोगिता व सेवा, स्थूल व सूक्ष्म, पदार्थ व चेतना तथा विश्लेषण व संश्लेषण साथ-साथ थे । युनानी तथा उसी से जन्मी पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति अपने से विरोधी विचारों को न तो तब सहन कर पाई थी तथा न ही अब सहन कर पा रही है । पाश्चात्य सरकारें, विचारक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक शुरू से ही दूसरे राष्ट्रों, विचारधाराओं, दार्शनिकों व विज्ञान के मुखर निन्दक, विरोधी एवं दुश्मन रहे हैं । ईसाईयत व इससे जुड़े राजाओं व धर्मगुरुओं एवं विचारकों का यही घृणित इतिहास रहा है । दूसरों की श्रेष्ठता, तरक्की, विकास, जीवन-मूल्य, दर्शनशास्त्र एवं जीवन पद्धतियां इन्हें न तो पहले पसन्द थे तथा न ही आज पसन्द हैं । मोनियर विलियम, विल्सन, विलियम जोन्स, ग्रिफिथ, ओल्डनवर्ग, मैक्समूलर, राॅथ, कीथ, विलियम हन्टर, लाॅर्ड मैकाले आदि सैंकड़ों धूत्र्त विचारकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी एवं ईसाई धर्मगुरुओं के सहयोग से भारतीय राजनीति, शिक्षा, इतिहास, साहित्य, भाषाओं, दर्शनशास्त्र, धर्म, विज्ञान आदि को नष्ट करने, कलंकित करने तथा विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । येन-केन-प्रकारेण स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना तथा भारतीय को निकृष्ट सिद्ध करना करीब तीन शताब्दियों तक इनका मुख्य व्यवसाय व विषय रहा था । बाद में यही कुकृत्य साम्यवाद एवं सेक्युलरवाद ने किया जो कि अब भी चल ही रहा है । कोई विचारक इस पर प्रकाश डाल सकता है कि एकाएक सुकरात-प्लेटो-अरस्तु की तिकड़ी युनान में कैसे प्रकट हो गई? वह भी तब जब कि युनान के प्रथम दार्शनिक थेलिज से लेकर पारमेनाईडिज आदि सभी हवाई बातें करने में ही व्यस्त थे । एकदम से ऐसा क्या हो गया युनान में कि विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक युनान की धरा पर प्रकट हो गए तथा उनके बाद कुछ साल तक उनका प्रभाव रहा तथा फिर ईसाईयत का प्रभाव बढ़ने से करीब एक हजार साल तक पश्चिम में केवल कट्टरता, अज्ञानता, अन्धविश्वास, जादू-टोनों, मतांधता, मैं ठीक बाकी सब गलत आदि एकपक्षीय जीवनशैली का प्रचार प्रसार रहा । जिसने इन सब का विरोध किया उसी को मौत के घाट उतार दिया गया । ईसाईयत में दीक्षित राजाओं व धर्मगुरुओं ने यानि स्पेन, फ्रांस, इग्लैंड, इटली, डेनमार्क आदि देशों ने समस्त धरा पर लगभग 500 वर्ष तक जो जुल्म, कहर एवं नरसंहार किए- उनकी कोई अन्य मिसाल इस धरा पर नहीं मिलती है । अन्य देशों को गुलाम बनाकर वहां की सम्पदा को लूटकर अपने स्वयं के देशों का विकास करना तथा अपने सम्प्रदाय का जोर-जबरदस्ती से प्रचार करना- यह इनका मुख्य उद्देश्य रहा है । प्राकृतिक संसाधन न होते हुए भी आज युरोप की समृद्धि व भोग-विलास का कारण केवल युरोप-वासियों की मेहनत ही न होकर अन्य देशों से लूटा गया अथाह धन है । यह लूट बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को माध्यम बनाकर आज भी चल रही है । सुकरात, प्लेटो व अरस्तू को माध्यम बनाकर ही पाश्चात्य जगत आज तक बोलता आ रहा है । प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक व वैज्ञानिक व्हाईटहैड के अनुसार पश्चिम पिछले 2200 वर्ष से प्लेटो की गिरफ्त से न तो छूट पाया है तथा न ही उससे आगे कुछ तरक्की कर पाया है । इनका सारा विज्ञान, दर्शनशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि विश्लेषणपरक है । इसीलिए ये आज तक इतने नरसंहार, युद्ध, गृह युद्ध, विस्फोट, आक्रमण, कब्जे मतांतरण, बलात्कार, अनाचार एवं मर्यादाहीनता कर चुके हैं । विश्व की सर्वोच्च संस्था बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से ये आज भी उसी सुकरात-प्लेटो-अरस्तूवादी विश्लेषणपरक सोच के गुलाम होने के कारण तोड़फोड़ व मारामारी में विश्वास करते आए हैं ।
                 यह सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्यों व संस्कारों का ही अन्तर है कि अरस्तु से शिक्षा पाकर सिकन्दर दुनिया को जीतने चल पड़ता है जब कि चाणक्य से शिक्षा पाकर चन्द्रगुप्त मौर्य अपने राष्ट्र में तो स्थिरता कायम करता ही है इसके साथ-साथ वृहद् भारत के अन्य राज्यों अफगानिस्तान, ईरान, इराक, अरब, मिश्र व युनान तक शान्ति एवं सौहार्द की स्थापना करके वापिस अपनी भूमि पर लौट आता है । पता नहीं लेखक महोदय फिर भी विभिन्न पुस्तकों में यह क्यों व किस आधार पर कह रहे हैं कि अगर पुर्वी देश ‘राजनीति’ के लिए पश्चिम के ऋषि हैं तो पश्चिमी देश ‘दर्शन’ के लिए पूर्व के । पश्चिम की राजनीति में ‘नीति’ कभी रही ही नहीं- शुरू से लेकर आज तक । अर्थशास्त्र व मैंक्यावैली का अन्तर सदैव से पूर्व व पश्चिम का अन्तर रहा है। स्वामी दयानन्द व माक्र्स का अन्तर पूर्व व पश्चिम में सदैव से रहा है । अपने विरोधी विचारों को सुनने का पश्चिम कभी थी अभ्यस्त नहीं रहा है- मूसा, थेलिज, पारमेनाईडिज, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ईसामसीह व समकालीन माक्र्स, लेनिन, नीत्शे, दरिदां तक । पश्चिम कभी किसी ओशो रजनीश जैसे विचारक या दार्शनिक को सहन नहीं कर सकता । बात चाहे मूसा की हो, सुकरात की हो, ईसामसीह की हो, ब्रूनो की हो या अन्य किसी की-पश्चिम अपनी एकपक्षीय सोच से कभी बाहर नहीं निकल पाया है । इसके बावजूद भी स्वयं को सुधारने की बजाय पश्चिम पूर्व के देशों को ही सुधारने की मूढ़ता कर रहा है और हम यह सब स्वीकार भी कर रहे हैं क्योंकि हमारे चित्तों को सम्मोहित सा कर दिया गया है । थेलिज का जल को मुख्य तत्त्व मानना भारत के ‘आप’ की नकल, सोफिस्ट व उनके बाद के विचारकों द्वारा अकादमियों की स्थापना करना भारतीय आश्रम व गुरुकुलों की नकल, दार्शनिक राजा की अवधरणा भारतीय राजनीति की नकल, प्लेटो दर्शनशास्त्र का मूल उनका सत् का विचार भारतीय दर्शनशास्त्र के सत् की नकल, आदर्श राज्य के चार गुण साहस, विवेक, संयम व न्याय चाणक्य की नकल, संवाद लिखना उपनिषदों की नकल, सामाजिक वर्गीकरण में सात वर्ग मानना भारतीय वर्ण-व्यवस्था की नकल, पाईथागोरस द्वारा वैदिक गणित की नकल, मूसा व ईसा के बाईबिल में निहित पर्वत के दस उपदेश (Sermon On the Mount) भारतीय धर्म के दस लक्षणों की नकल, युद्ध-नीति में चाणक्य व बाजीराव की नकल- इस तरह के सैंकड़ों नहीं अपितु हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं । भारत में सनातन से विज्ञान एवं अध्यात्म का विकास व प्रचलन रहा है । पिछली कुछ सदियों में षडयन्त्रों के कारण सच को झूठ एवं झूठ को सच सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है कि विज्ञान पश्चिम ने दिया तथा अध्यात्म भारत ने । सही बात यह है कि पश्चिम ने विज्ञान नहीं अपितु मात्र तकनीक का विकास किया है । विज्ञान के सारे ही सिद्धान्त भारतीयों द्वारा अतीत में खोजे गए थे । हां, यह जरूर है कि भारत में तकनीक का विकास विश्व पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बहुत सीमित मात्रा में किया । पश्चिम द्वारा दिया गया अन्धाधून्ध तकनीक का विकास, समस्त संसार हेतु एक अभिशाप बन गया है । तकनीक की सारी खोजें शैतानी लोगों के पास पेटेंट हैं । इस वसुन्धरा से जुड़े विज्ञान, तकनीक व भोग की जरूरत इस समय सर्वाधिक रूप से महसूस की जा रही है ।
                                                                                                        आचार्य शीलक राम
                                                                                                        वैदिक योगशाला

Saturday, January 2, 2021

सन्तुलित विकास का आदिमूल भारतीय दर्शनशास्त्र

       युद्ध, नरसंहार, हिंसा, प्रताड़ना, बदले की भावना, मारामारी, आपाधापी, उच्छृंखलता, आगे ही आगे जाने की अन्धी दौड़, वैभव-विलास, भोग, महामारियों, प्रत्येक स्थान पर राजनीति, अविश्वास, असन्तुष्टि, निराशा, हताशा, कुण्ठा, अहम् तथा दिखावे ने इस संसार व इसके निवासियों को कहां पहुंचा दिया है इसका रोना तो सभी ही रोते हैं । जिसको देखो वही उपदेश देता मिल जायेगा। जिसको देखो वही यह कहता मिल जायेगा कि जमाना बहुत खराब है। जिसको देखो वह यह उपदेश देता मिल जायेगा कि मैं तो ठीक है गलत यदि कोई है तो केवल दूसरे हैं । अपने स्वयं को छोड़कर सभी व्यक्ति अन्यों को दोषी सिद्ध करते मिल जाएंगे । अपने स्वयं को कोई भी दोषी नहीं मानता है । कितनी बड़ी मूढ़ता चल रही है इस संसार में लेकिन इसका बोध गिने-चुने लोगों को ही है । जिनको बोध है उनकी संख्या बहुत कम है । उनकी संख्या भी कम है तथा वे अधिकांशतः निष्क्रिय भी रहते हैं। भारत में तो कुछ सदियों से यह परम्परा सी बन गई है कि अच्छे लोग लगभग चुप ही रहते है । उनका एक ही मूलमन्त्र रहता है कि हमें क्या है? हम क्या कर सकते हैं या हमारी सुनता कौन है? जबकि सुनी तो सदैव अच्छों की जाती है । बुरे व्यक्ति बरगला सकते हैं जबकि सुनी जाती है सिर्फ अच्छे व भले व्यक्तियों की । भारत के बिगाड़ का यह प्रधान कारण रहा है कि अच्छे व भले व्यक्ति मौन, धारण करके सिर्फ व सिर्फ तमाशा देखने का कार्य करते हैं । हम दोष देते रहेंगे अन्यों को लेकिन कुकृत्यों को अपनी मौन सहमति देने की अपनी महागलती को न तो मानेंगे तथा न ही उसमें सुधार करेंगे। पिछली तेरह सदी से तो यह सिलसिला चल ही रहा है ।
          मूल्यों के सम्बन्ध में यदि हम चर्चा करें तो इनको पूरी उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। जहां पर विज्ञान के विकास व अन्य ढांचागत विकास पर प्रत्येक वर्ष खरबों डालर खर्च किया जाता है वहीं पर मूल्यों की शिक्षा देने पर किसी का कोई अध्यान नहीं है। राजनीतिक मंचों से घोषणाएं तो खूब की जाती हैं परन्तु उनको लागू करने हेतु या उनकी उचित व सुचारू शिक्षा देने हेतु हमारे भारत में तो कुछ भी नहीं किया जा रहा है । 1947 से ही वायदे तो खूब किए गए लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ । होगा भी कैसे क्योंकि सरकारें यहां जिनकी सत्तासीन रही हैं वे मूलतः भारत व भारतीयता के घोर विरोधी रहे हैं उन्हें तो सेक्युलरवाद से ही फुरसत नहीं है । उन्हें तो अल्पसंख्यकों के कल्याण क नाम पर उनके तुष्टीकरण कें सिवाय कुछ नहीं सूझता है । हर तरफ सेक्युलरवाद, दलितवाद, नारीवाद, अल्पसंख्यकवाद आदि हिन्दू विरोध के नाम प्रचलित किए गए हैं ताकि उनके वोट मिलना सुनिश्चित हो सके । हिन्दू जाएंगे कहां? सारे नहीं तो कुछ तो वोट देंगे ही। ऐसे में हमारी सरकार बनना हर काल व परिस्थिति में पक्का है। तथाकथित 1947 ई॰ की आजादी के बाद यही चल रहा है । कोई इस मूढ़ता का विरोध करे तो उसका मुंह साम्प्रदायिक कहकर बन्द करवा दिया जाता है । इन मूढ़ों को यह समझ में क्यों नहीं आता कि बिना मूल्यों के आचरण में उतारे कोई राजनेता, वैज्ञानिक, चिकित्सक, शिक्षक, सुधारक, व्यापारी व किसान-मजदूर अपने कर्म को ईमानदारी व समर्पण से नहीं कर पाऐगा। ऐसे में ‘मत्स्य-न्याय’ का साम्राज्य सब तरफ फैल जाऐगा। वास्तव में वह ‘मत्स्य न्याय’ चहुंदिशि चल भी रहा है । जीवन मूल्यों से रहित आचरण के कारण हर कोई जैसे-तैसे वैभव-विलास को प्राप्त कर लेना चाहता है। साधन-साध्य का किसी भी कोई ख्याल नहीं है । सफलता मिलनी चाहिए उसको प्राप्त करने के साधन चाहे कितने ही गैर-काननूी, असभ्य, अनैतिक व अमानवीय हैं । हर तरफ एक कलाकार प्रतियोगिता चल रही है । सनातन आर्य वैदिक हिन्दू संस्कृत ने आचरण, बर्ताव, चरित्रादि को सात्विक व उज्ज्वल बनाने हेतु प्रत्येक क्षेत्र हेतु जीवनमूल्यों की खोज की है । इनके पालन करने से स्वयं के साथ अन्यों का जीवन भी खुशहाल व सम्पन्न होता है तथा राष्ट्र की प्रगति के संग समस्त धरा की प्रगति सुनिश्चित होती है। व्यक्तिगत जीवनमूल्य, पारिवारिक जीवनमूल्य, सामाजिक जीवन मूल्य, आर्थिक जीवनमूल्य, सांस्कृतिक जीवनमूल्य, राजनीतिक जीवनमूल्य, आध्यात्मिक जीवनमूल्य, सार्वभौमिक जीवनमूल्य तथा राष्ट्रीय जीवनमूल्यों की लम्बी सूचि भारतीय मनीषियों ने हमें प्रदान की । जीवन को सर्वाधिक सन्तुलन विकास, समृद्धि, दिशा व गति देने वाले इन सृजनात्मक मूल्यों की उपेक्षा करके हम एकांगी व अधूरी पाश्चात्य मात्र भोग-विलास की जीवनशैली के पीदे मूढ़ों की तरह दौड़ रहे हैं ।
        भारतीय संस्कृति के इन आधारभूत कहे जाने वाले मूल्यों का राष्ट्र की प्रगति, विकास व निार्मण में पूर्वकाल में भी रचनात्मक व प्रेरक सहयोग रहा तथा अब भी वह सहयोग व प्रेरणा चल रहे हैं। यदि हमें अपने भारत राष्ट्र की उन्नति (शारीरिक, मानसिक, वैचारिक, भावनात्मक, आर्थिक, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक) का और भी अधिक गति एवं दिशा देनी है तो हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में निहित उपर्युक्त मूल्यों का महत्त्वपूर्ण सहयोग हो सकता है । जरूरत है अपने राष्ट्र के प्रत्येक पहलू या क्षेत्र में इन मूल्यों को अपनाने व स्वीकार करने की । व्यक्ति, परिवार, समाज, संगठन, राजनीति, वाणिज्य, प्रबन्धन, विज्ञान, चिकित्सा आदि प्रत्येक क्षेत्र में यदि इन मूल्यों का कड़ाई से पालन किया जाए तो वह दिन दूर नहीं कि हम फिर से अपने भारत की खोई गरिमा को वापिस दिलवाकर इसे दोबारा से विश्वगुरु की पदवी पर आसीन कर सकेंगे। किसी राष्ट्र का निर्माण केवलमात्र भौतिक प्रगति से न होकर भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की प्रगति से सम्भव होता है । भौतिक प्रगति को यदि विज्ञान सम्पन्न करता है तो आध्यात्मिक प्रगति की शुरूआत संसार के सबसे पुरातन विषय दर्शनशास्त्र से ही सम्भव कर सकते हैं । इसी दर्शनशास्त्र की एक शाखा का नाम नीतिशास्त्र है जिसमें मूल्यों का अध्ययन किया जाता है । इस विषय के अध्ययन-अध्यापन को अपने राष्ट्र की शिक्षा-व्यवस्था में उचित स्थान देकर ही हम अपने राष्ट्र को सही समृद्धि व दिशा देने में सफल हो सकते हैं ।
आचार्य शीलक राम
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र