Sunday, March 12, 2017

दिव्य रंगरास की होली.......

होली, फागुन, रितुराज बसंत
आए न आए यहां हुए समान!
भीतर बाहर में छाया धूंधलका
पग पग पर प्रिये खडे व्यवधान!!
शीतल समीर कांटों सी चुभती
पीडा का ही देती है अहसास!
कोयल भी उल्लू सम लगती
अंधेरा चहुंदिशि अनायास!!
रंग गुलाल लाल पीला केसरिया
बेढंगा लगता इनको देखना!
सब रस रसहीन रसना कहती
स्व की अनुभूति कोई लेख ना!!
कोई मनाओ होली दुलहंडी
सबके अपने अपने ढंग हैं!
जिसने जो चाहा वही मिला
सब अपनी प्रियत्मा के संग हैं!!
एक रगंरास भीतर में चलता
वही हमारा दिव्य रंगरास!
सर्व धरा हमारी हम सर्व धरा
रोम रोम में नृत्य का उल्लास!!

##आचार्य शीलक राम##
वैदिक योगशाला

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