इस सच्चाई पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो गया है कि जीवन और जगत् में हरेक समस्या, परिस्थिति और विषय को विज्ञान की कसौटी पर ही क्यों कसा जाये?यह दृष्टिकोण ही स्वयं में अवैज्ञानिक है। सर्वप्रथम विज्ञान को ही क्यों न विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये? विज्ञान, विज्ञान में शोध, विज्ञान में प्रयुक्त शोध विधियों,विज्ञान में प्रयोग, विज्ञान की प्रयोगशालाओं,प्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्षों,इन निष्कर्षों से विभिन्न प्रकार की तकनीक निर्माण, इन तकनीक के सहारे जमीन से खनिजों की खुदाई, वृहद स्तर पर उपभोक्ता सामान का निर्माण, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खेती-बाड़ी में प्रयोग खतरनाक दवाईयों का निर्माण, चिकित्सा के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों का औषधीय बाजार, बड़े बड़े बांधों का निर्माण, विध्वंशक हथियारों का निर्माण, परिवहन के साधनों की व्यवस्था, धरती के पर्यावरण को नष्ट करने वाले वातानुकूलित यंत्रों का निर्माण, आलीशान कंक्रीट के भवनों का निर्माण आदि आदि सभी कुछ हमें विज्ञान ने ही तो प्रदान किया है। पिछले 300 वर्षों के दौरान विज्ञान की चमत्कारी खोजों का इस धरती को कितना फायदा और कितना नुक़सान हुआ है - इस पर वैज्ञानिक ढंग से सोचने की कभी कोशिशें हुई हैं? क्या तीन सदियों के दौरान हुये विज्ञान के बल पर विकास को विज्ञान की कसौटी पर कसने के कोई प्रयास हुये हैं? नहीं,नहीं और नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। वैज्ञानिक, खोजी,दार्शनिक, विचारक, तार्किक,शिक्षक, नेता, धर्मगुरु आदि सभी इस पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। इनकी चुप्पी को कभी किसी ने विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा है? विज्ञान की आड़ लेकर पिछली तीन सदियों से संसार का सबसे अधिक शोषण किया जा रहा है। यदि कोई इस पर कुछ विरोध करे तो उसे अवैज्ञानिक, परंपरावादी, पिछड़ा,रुढ़िवादी और गंवार कहकर चुप करवाने की कोशिशें की जाती हैं। दिक्कत यह है कि पूरा सिस्टम भी इन तथाकथित वैज्ञानिक सोच के लोगों के साथ खड़ा मिलता है।इनके लिये न तो मानवीय मूल्यों की कीमत है,न पाशविक जगत् के प्राणियों के प्रति कोई हमदर्दी है,न पेड़ -पौधों -जंगलों- जल -वायु आदि को शुद्ध रखने की जिम्मेदारी का कर्तव्य है।हर तरफ से यह धरती विज्ञान के दुरुपयोग के सहारे विनाश, विध्वंस, युद्धों से ग्रस्त है।
सिस्टम से हार -थककर कोई समझदार व्यक्ति दो दिशाओं में अपने जीवन को ढालता है।एक नास्तिकता की तरफ तथा दूसरा आस्तिकता की तरफ। जनसाधारण को सिस्टम से कोई अधिक दिक्कत न पहले रही है तथा न अब कोई दिक्कत है। जनसाधारण को किसी भी दिशा में मोड़कर उसका शोषण किया जा सकता है।उसे नास्तिक भी बनाया जा सकता है तथा आस्तिक भी बनाया जा सकता है। जनसाधारण को आस्तिक या नास्तिक होने में कोई रुचि नहीं होती है।उसको तो कुछ शोषक नास्तिक या आस्तिक विचारकों द्वारा अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित करने का साधन मात्र बनाया जाता है। हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है। जनसाधारण केवल पेट में जीता है,सिर में जीने की उसे फुर्सत ही नहीं है।भ्रष्ट और शोषक सिस्टम में पिसते पिसते वह नमक तेल आटा कपड़े का जुगाड करते करते अपने कंधों और घुटनों को तुड़वा बैठता है।बस ऐसे ही एड़ियों को घिसते घिसते तथा तथाकथित नास्तिक या आस्तिक किसी शोषक धर्मगुरु या नेता या सुधारक की गुलामी करते करते वह इस संसार से चला जाता है। पीछे छोड़ जाता है वही पुराना शोषण, गुलामी, दासता, गरीबी और बदहाली।इस जनसाधारण वर्ग से कभी कोई कबीर या रविदास या नानक आस्तिक होकर आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो तो तुरंत नकली आस्तिकों के झुंड उनके चारों तरफ दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं तथा उनके नाम पर भी मजहब बनाकर फिर से जनसाधारण का शोषण शुरू कर दिया जाता है। जहां तक कमाकर खाने और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की बात है,न तो आस्तिकों के तथाकथित महापुरुष लोग स्वयं की मेहनत का खाते पीते हैं तथा न ही नास्तिकों के। दोनों ही जमकर जनसाधारण का शोषण करते हैं। युनानी विचारक प्लेटो ने तो घोषणा ही कर रखी थी कि दुनिया पर शासन करने का अधिकार सिर्फ धनी मानी,अमीर ,फिलासफर लोगों को है। जनसाधारण सिर्फ शासित हो सकता है,शासक नहीं। पहले मनमाने और मनघड़ंत नियमों, कानूनों का संविधान बना दो और फिर इन्हीं को आधार बनाकर जनसाधारण पर दमनपूर्वक शासन करो! और आश्चर्यजनक तो यह है कि इसी लोकतंत्र और जनतंत्र कहकर सबसे विकसित और मानवीय राजनीतिक व्यवस्था प्रचारित किया जाता रहा है।जिसकी लाठी उसी की भैंस।
जो काम सौंदर्य के आकर्षण के बल पर शीघ्रता से किये और करवाये जा सकते हैं,वो कठोर मेहनत और प्रतिभा के बल पर नहीं करवाये जा सकते। संसार में जो सफलता सुंदरता,नयन -नक्श, आकर्षक अदाओं, मनमोहक वाक् शैली और कामुक चाल-ढाल के माध्यम से दिनों में मिल सकती है वो सफलता हाड़तोड़ मेहनत, योग्यता और प्रतिभा के माध्यम से आजीवन भी उपलब्ध होना असम्भव है।इस संसार को बना ही कुछ ऐसा दिया गया है कि यहां पर शबाब, शराब और कबाब के जरिये किसी बड़े पद पर बैठे हुये व्यक्ति से या नेता से या धर्मगुरु से या अमीर व्यक्ति से कुछ भी करवाया जा सकता है। उसकी हिम्मत नहीं कि वह मना कर दे। सफलता के इस रहस्य को जानते सभी हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से कहने की हिम्मत किसी की भी नहीं है। कहने वाले को या किसी नकली मुकदमे में फंसा दिया जायेगा या हत्या करवा दी जायेगी। प्रचार कुछ और हकीकत कुछ अन्य ही।माल कुछ दिखाते हैं और सप्लाई कुछ अन्य ही करते हैं। कामुकता हरेक व्यक्ति ही नहीं अपितु हरेक प्राणी की कमजोरी है।बस मनुष्य सदैव कामुक रहता है जबकि अन्य प्राणी संतानोत्पत्ति के लिये ही कामुक होते हैं। जनसाधारण क्या और विशिष्ट क्या - सभी के लिये कामुकता और सौंदर्य विशेष महत्व रखते आये हैं।बस,पशु और पक्षी अपनी कामुकता, अपने सौंदर्य और अपनी मनमोहक अदाओं का अधिक दुरुपयोग नहीं कर पाते हैं जबकि मनुष्य प्राणी ने तो इस क्षेत्र में सारे रिकॉर्ड तोड़ रखे हैं।इस क्षेत्र में मादा मनुष्य बहुत आगे है।हर कोई तो ऐसा नहीं करता है लेकिन अधिकांश के संबंध में यह सच है। भौतिक विज्ञान ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो लेकिन बड़े बड़े वैज्ञानिक, विज्ञान के शिक्षक, विज्ञान के शोधार्थी आदि भी कामुकता,सौंदर्य और काम बाणों से नहीं बच पाते हैं।उनकी सारी प्रतिभा, उनके विचार,चिंतन,तर्क,अनुसंधान आदि धरे के धरे रह जाते हैं। दुनिया का इतिहास उठाकर पढ़कर देख लो, बड़े -बड़े धुरंधर वैज्ञानिक, दार्शनिक,विचारक, नेता,राजा,सम्राट,किंग,प्रशासक आदि ने सौंदर्य और कामुकता के सामने सहज ही समर्पण कर दिया था।आज भी ऐसा ही हो रहा है।हरेक देश में बड़े- बड़े नेताओं, मंत्रियों, राजदूतों,उद्योगपतियों, शिक्षकों, धर्माचार्यों, अधिकारियों,न्यायविदों, अपराधियों के पास अपनी वैवाहिक जिन्दगी के अतिरिक्त अवैध नारी मित्र या पुरुष मित्र मिलते हैं।जो अमीर और बड़े लोग हैं, उनका दुराचरण भी सदाचरण की श्रेणी में गिना जाता है। लेकिन जनसाधारण किसी की तरफ कामुक नज़रों से देख भर ले तो पता नहीं कितने एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज हो जायेंगे। यही आधुनिक विकास की परिभाषा और शैली है। भारतीय नेताओं और नीति निर्माताओं ने तो अपनी सुविधा और उच्छृंखल भोग -विलास के लिये 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे कानून बना रखे हैं। क्या गजब के राष्ट्रवादी और धर्मप्रेमी प्रकृति के सांस्कृतिक लोग हैं।
संसार में ऐसा कौनसा दर्शनशास्त्र, ऐसी कौनसी फिलासफी,ऐसी कौनसी विचारधारा, ऐसा कौनसा सिद्धांत, ऐसा कौनसा संप्रदाय, ऐसा कौनसा मजहब, ऐसा कौनसा महापुरुष हैं जिसकी आड़ लेकर इन्हीं के अनुयायियों ने उपरोक्त को जनमानस की लूट और अपने स्वयं को मालामाल करने के लिये दुरुपयोग नहीं किया गया हो। किसी का कम तो किसी का अधिक सभी का दुरुपयोग हुआ है। दुरुपयोग करने वाले कोई अन्य ग्रहों से आये व्यक्ति नहीं अपितु इनके स्वयं के नजदीकी भक्त लोग ही रहे हैं।हर सही को ग़लत,हर नैतिक को अनैतिक तथा हर मानवीय को अमानवीय बना देने का हूनर अनुयायियों, भक्तों और नकल करने वालों में मौजूद होता है।इसका पता अनुयायियों के आराध्य महापुरुषों को होता भी है। लेकिन कुछ तो इसलिये चुप रह जाते हैं कि उनकी सोच ही लूटेरी,शोषक और भेदभाव की होती है और कुछ इसलिये चुप रह जाते हैं कि क्योंकि उनको मालूम होता है कि अनुयायी, भक्त, नकलची लोग ऐसे ही होते हैं। उपरोक्त दोनों हालात में जनमानस ठगा जाता है। उपरोक्त दोनों से उत्पन्न ऊहापोह के कारण सत्य के खोजियों को ही दिक्कत होती है। सत्य के खोजियों के लिये कंकड़-पत्थर से हीरे निकालने के समान मेहनत करनी पड़ती है।
भारत में पिछले 100-150 वर्षों के दौरान पैदा हुये धार्मिक,आध्यात्मिक, सुधारात्मक संगठनों ने राष्ट्रवासियों के चरित्र-निर्माण,सेवा, साधना आदि की अपेक्षा स्वयं की प्रसिद्धि,अनुयायियों की भीड़ बढ़ाने,भव्य आश्रम निर्माण करने, राजनीति में दखलंदाजी तथा स्वयं के लिये भोग विलास की सुविधाएं एकत्रित करने पर अधिक ध्यान दिया है। आर्यसमाज ने भारत को सर्वाधिक राष्ट्रभक्त और विचारक प्रदान किये हैं। लेकिन अपने शुरुआती वर्षों में पंडित गुरुदत्त,स्वामी श्रद्धानंद,लाजपत राय, जगदेव सिद्धांती,पंडित भगवद्दत्त, आर्यमुनि,आचार्य उदयवीर, युधिष्ठिर मीमांसक,रामचंद्र देहलवी, स्वामी स्वतंत्रानंद,स्वामी ओमानंद आदि सैकड़ों महापुरुषों को उत्पन्न करने के पश्चात् जैसे सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र, वैदिक जीवन -मूल्यों और संस्कृति के अध्ययन,अध्यापन,शोध,लेखन, शास्त्रार्थ,त्याग, सेवा, तपस्या, गुरुकुल शिक्षा से जैसे किनारा ही कर लिया है। आजकल के अधिकांश धर्माचार्यों, शंकराचार्यों,महामंडलेश्वरों, संतों, साधुओं ,स्वामियों, संन्यासियों, योगियों, कथाकारों और सुधारकों ने नेताओं,प्रैस और उद्योगपतियों से सांठगांठ करके अपने साम्राज्य खड़े करने शुरू कर रखे हैं।
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र-विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119