Thursday, September 4, 2025

वैज्ञानिक के साथ धार्मिक और नैतिक होना भी आवश्यक है (Apart from being scientific, it is also necessary to be religious and moral.)


इस सच्चाई पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो गया है कि जीवन और जगत् में हरेक समस्या, परिस्थिति और विषय को विज्ञान की कसौटी पर ही क्यों कसा जाये?यह दृष्टिकोण ही स्वयं में अवैज्ञानिक है। सर्वप्रथम विज्ञान को ही क्यों न विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये? विज्ञान, विज्ञान में शोध, विज्ञान में प्रयुक्त शोध विधियों,विज्ञान में प्रयोग, विज्ञान की प्रयोगशालाओं,प्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्षों,इन निष्कर्षों से विभिन्न प्रकार की तकनीक निर्माण, इन तकनीक के सहारे जमीन से खनिजों की खुदाई, वृहद स्तर पर उपभोक्ता सामान का निर्माण, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खेती-बाड़ी में प्रयोग खतरनाक दवाईयों का निर्माण, चिकित्सा के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों का औषधीय बाजार, बड़े बड़े बांधों का निर्माण, विध्वंशक हथियारों का निर्माण, परिवहन के साधनों की व्यवस्था, धरती के पर्यावरण को नष्ट करने वाले वातानुकूलित यंत्रों का निर्माण, आलीशान कंक्रीट के भवनों का निर्माण आदि आदि सभी कुछ हमें विज्ञान ने ही तो प्रदान किया है। पिछले 300 वर्षों के दौरान विज्ञान की चमत्कारी खोजों का इस धरती को कितना फायदा और कितना नुक़सान हुआ है - इस पर वैज्ञानिक ढंग से सोचने की कभी कोशिशें हुई हैं? क्या तीन सदियों के दौरान हुये विज्ञान के बल पर विकास को विज्ञान की कसौटी पर कसने के कोई प्रयास हुये हैं? नहीं,नहीं और नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। वैज्ञानिक, खोजी,दार्शनिक, विचारक, तार्किक,शिक्षक, नेता, धर्मगुरु आदि सभी इस पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। इनकी चुप्पी को कभी किसी ने विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा है? विज्ञान की आड़ लेकर पिछली तीन सदियों से संसार का सबसे अधिक शोषण किया जा रहा है। यदि कोई इस पर कुछ विरोध करे तो उसे अवैज्ञानिक, परंपरावादी, पिछड़ा,रुढ़िवादी और गंवार कहकर चुप करवाने की कोशिशें की जाती हैं। दिक्कत यह है कि पूरा सिस्टम भी इन तथाकथित वैज्ञानिक सोच के लोगों के साथ खड़ा मिलता है।इनके लिये न तो मानवीय मूल्यों की कीमत है,न पाशविक जगत् के प्राणियों के प्रति कोई हमदर्दी है,न पेड़ -पौधों -जंगलों- जल -वायु आदि को शुद्ध रखने की जिम्मेदारी का कर्तव्य है।हर तरफ से यह धरती विज्ञान के दुरुपयोग के सहारे विनाश, विध्वंस, युद्धों से ग्रस्त है।

सिस्टम से हार -थककर कोई समझदार व्यक्ति दो दिशाओं में अपने जीवन को ढालता है।एक नास्तिकता की तरफ तथा दूसरा आस्तिकता की तरफ। जनसाधारण को सिस्टम से कोई अधिक दिक्कत न पहले रही है तथा न अब कोई दिक्कत है। जनसाधारण को किसी भी दिशा में मोड़कर उसका शोषण किया जा सकता है।उसे नास्तिक भी बनाया जा सकता है तथा आस्तिक भी बनाया जा सकता है। जनसाधारण को आस्तिक या नास्तिक होने में कोई रुचि नहीं होती है।उसको तो कुछ शोषक नास्तिक या आस्तिक विचारकों द्वारा अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित करने का साधन मात्र बनाया जाता है। हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है। जनसाधारण केवल पेट में जीता है,सिर में जीने की उसे फुर्सत ही नहीं है।भ्रष्ट और शोषक सिस्टम में पिसते पिसते वह नमक तेल आटा कपड़े का जुगाड करते करते अपने कंधों और घुटनों को तुड़वा बैठता है।बस ऐसे ही एड़ियों को घिसते घिसते तथा तथाकथित नास्तिक या आस्तिक किसी शोषक धर्मगुरु या नेता या सुधारक की गुलामी करते करते वह इस संसार से चला जाता है। पीछे छोड़ जाता है वही पुराना शोषण, गुलामी, दासता, गरीबी और बदहाली।इस जनसाधारण वर्ग से कभी कोई कबीर या रविदास या नानक आस्तिक होकर आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो तो तुरंत नकली आस्तिकों के झुंड उनके चारों तरफ दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं तथा उनके नाम पर भी मजहब बनाकर फिर से जनसाधारण का शोषण शुरू कर दिया जाता है। जहां तक कमाकर खाने और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की बात है,न तो आस्तिकों के तथाकथित महापुरुष लोग स्वयं की मेहनत का खाते पीते हैं तथा न ही नास्तिकों के। दोनों ही जमकर जनसाधारण का शोषण करते हैं। युनानी विचारक प्लेटो ने तो घोषणा ही कर रखी थी कि दुनिया पर शासन करने का अधिकार सिर्फ धनी मानी,अमीर ,फिलासफर लोगों को है। जनसाधारण सिर्फ शासित हो सकता है,शासक नहीं। पहले मनमाने और मनघड़ंत नियमों, कानूनों का संविधान बना दो और फिर इन्हीं को आधार बनाकर जनसाधारण पर दमनपूर्वक शासन करो! और आश्चर्यजनक तो यह है कि इसी लोकतंत्र और जनतंत्र कहकर सबसे विकसित और मानवीय राजनीतिक व्यवस्था प्रचारित किया जाता रहा है।जिसकी लाठी उसी की भैंस।

जो काम सौंदर्य के आकर्षण के बल पर शीघ्रता से किये और करवाये जा सकते हैं,वो कठोर मेहनत और प्रतिभा के बल पर नहीं करवाये जा सकते। संसार में जो सफलता सुंदरता,नयन -नक्श, आकर्षक अदाओं, मनमोहक वाक् शैली और  कामुक चाल-ढाल के माध्यम से दिनों में मिल सकती है वो सफलता हाड़तोड़ मेहनत, योग्यता और प्रतिभा के माध्यम से आजीवन भी उपलब्ध होना असम्भव है।इस संसार को बना ही कुछ ऐसा दिया गया है कि यहां पर शबाब, शराब और कबाब के जरिये किसी बड़े पद पर बैठे हुये व्यक्ति से या नेता से या धर्मगुरु से या अमीर व्यक्ति से कुछ भी करवाया जा सकता है। उसकी हिम्मत नहीं कि वह मना कर दे। सफलता के इस रहस्य को जानते सभी हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से कहने की हिम्मत किसी की भी नहीं है। कहने वाले को या किसी नकली मुकदमे में फंसा दिया जायेगा या हत्या करवा दी जायेगी। प्रचार कुछ और हकीकत कुछ अन्य ही।माल कुछ दिखाते हैं और सप्लाई कुछ अन्य ही करते हैं। कामुकता हरेक व्यक्ति ही नहीं अपितु हरेक प्राणी की कमजोरी है।बस मनुष्य सदैव कामुक रहता है जबकि अन्य प्राणी संतानोत्पत्ति के लिये ही कामुक होते हैं। जनसाधारण क्या और विशिष्ट क्या - सभी के लिये कामुकता और सौंदर्य विशेष महत्व रखते आये हैं।बस,पशु और पक्षी अपनी कामुकता, अपने सौंदर्य और अपनी मनमोहक अदाओं का अधिक दुरुपयोग नहीं कर पाते हैं जबकि मनुष्य प्राणी ने तो इस क्षेत्र में सारे रिकॉर्ड तोड़ रखे हैं।इस क्षेत्र में मादा मनुष्य बहुत आगे है।हर कोई तो ऐसा नहीं करता है लेकिन अधिकांश के संबंध में यह सच है। भौतिक विज्ञान ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो लेकिन बड़े बड़े वैज्ञानिक, विज्ञान के शिक्षक, विज्ञान के शोधार्थी आदि भी कामुकता,सौंदर्य और काम बाणों से नहीं बच पाते हैं।उनकी सारी प्रतिभा, उनके विचार,चिंतन,तर्क,अनुसंधान आदि धरे के धरे रह जाते हैं। दुनिया का इतिहास उठाकर पढ़कर देख लो, बड़े -बड़े धुरंधर वैज्ञानिक, दार्शनिक,विचारक, नेता,राजा,सम्राट,किंग,प्रशासक आदि ने सौंदर्य और कामुकता के सामने सहज ही समर्पण कर दिया था।आज भी ऐसा ही हो रहा है।हरेक देश में बड़े- बड़े नेताओं, मंत्रियों, राजदूतों,उद्योगपतियों, शिक्षकों, धर्माचार्यों, अधिकारियों,न्यायविदों, अपराधियों के पास अपनी वैवाहिक जिन्दगी के अतिरिक्त अवैध नारी मित्र या पुरुष मित्र मिलते हैं।जो अमीर और बड़े लोग हैं, उनका दुराचरण भी सदाचरण की श्रेणी में गिना जाता है। लेकिन जनसाधारण किसी की तरफ कामुक नज़रों से देख भर ले तो पता नहीं कितने एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज हो जायेंगे। यही आधुनिक विकास की परिभाषा और शैली है। भारतीय नेताओं और नीति निर्माताओं ने तो अपनी सुविधा और उच्छृंखल भोग -विलास के लिये 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे कानून बना रखे हैं। क्या गजब के राष्ट्रवादी और धर्मप्रेमी प्रकृति के सांस्कृतिक लोग हैं।

संसार में ऐसा कौनसा दर्शनशास्त्र, ऐसी कौनसी फिलासफी,ऐसी कौनसी विचारधारा, ऐसा कौनसा सिद्धांत, ऐसा कौनसा संप्रदाय, ऐसा कौनसा मजहब, ऐसा कौनसा महापुरुष हैं जिसकी आड़ लेकर इन्हीं के अनुयायियों ने उपरोक्त को जनमानस की लूट और अपने स्वयं को मालामाल करने के लिये दुरुपयोग नहीं किया गया हो। किसी का कम तो किसी का अधिक सभी का दुरुपयोग हुआ है। दुरुपयोग करने वाले कोई अन्य ग्रहों से आये व्यक्ति नहीं अपितु इनके स्वयं के नजदीकी भक्त लोग ही रहे हैं।हर सही को ग़लत,हर नैतिक को अनैतिक तथा हर मानवीय को अमानवीय बना देने का हूनर अनुयायियों, भक्तों और नकल करने वालों में मौजूद होता है।इसका पता अनुयायियों के आराध्य महापुरुषों को होता भी है। लेकिन कुछ तो इसलिये चुप रह जाते हैं कि उनकी सोच ही लूटेरी,शोषक और भेदभाव की होती है और कुछ इसलिये चुप रह जाते हैं कि क्योंकि उनको मालूम होता है कि अनुयायी, भक्त, नकलची लोग ऐसे ही होते हैं। उपरोक्त दोनों हालात में जनमानस ठगा जाता है। उपरोक्त दोनों से उत्पन्न ऊहापोह के कारण सत्य के खोजियों को ही दिक्कत होती है। सत्य के खोजियों के लिये कंकड़-पत्थर से हीरे निकालने के समान मेहनत करनी पड़ती है।
भारत में पिछले 100-150 वर्षों के दौरान पैदा हुये धार्मिक,आध्यात्मिक, सुधारात्मक संगठनों ने राष्ट्रवासियों के चरित्र-निर्माण,सेवा, साधना आदि  की अपेक्षा स्वयं की प्रसिद्धि,अनुयायियों की भीड़ बढ़ाने,भव्य आश्रम निर्माण करने, राजनीति में दखलंदाजी तथा स्वयं के लिये भोग विलास की सुविधाएं एकत्रित करने पर अधिक ध्यान दिया है। आर्यसमाज ने भारत को सर्वाधिक राष्ट्रभक्त और विचारक प्रदान किये हैं। लेकिन अपने शुरुआती वर्षों में पंडित गुरुदत्त,स्वामी श्रद्धानंद,लाजपत राय, जगदेव सिद्धांती,पंडित भगवद्दत्त, आर्यमुनि,आचार्य उदयवीर, युधिष्ठिर मीमांसक,रामचंद्र देहलवी, स्वामी स्वतंत्रानंद,स्वामी ओमानंद आदि सैकड़ों महापुरुषों को उत्पन्न करने के पश्चात् जैसे सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र, वैदिक जीवन -मूल्यों और संस्कृति के अध्ययन,अध्यापन,शोध,लेखन, शास्त्रार्थ,त्याग, सेवा, तपस्या, गुरुकुल शिक्षा से जैसे किनारा ही कर लिया है। आजकल के अधिकांश धर्माचार्यों, शंकराचार्यों,महामंडलेश्वरों, संतों, साधुओं ,स्वामियों, संन्यासियों, योगियों, कथाकारों और सुधारकों ने नेताओं,प्रैस और उद्योगपतियों से सांठगांठ करके अपने साम्राज्य खड़े करने शुरू कर रखे हैं।


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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र-विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र- 136119

मोरल,फिलासफिकल और साइकोलॉजिकल काउंसलिंग : सत्य,तथ्य या भ्रम? (Moral, philosophical and psychological counselling: Truth, fact or myth?)


 कोई व्यक्ति धूर्त होकर अपने आपको सज्जन दिखलाने का ढोंग कब तक करने में सफल हो सकता है? कोई व्यक्ति परले दर्जे का अय्याश और ढोंगी होते हुये भी अपने आपको कब तक संयमी दिखलाने में सफल हो सकता है? एक व्यक्ति झूठा, धोखेबाज और स्वार्थी होकर भी अपने आपको कब तक सत्यवादी, निष्कपट और निस्वार्थी दिखलाने में सफल हो सकता है? ध्यान रहे कि हमारे तथाकथित उच्च -शिक्षित और उच्च -कोटि के महापुरुष कहलवाने वाले सुधारक, नेता, धर्माचार्य, पूंजीपति, कथाकार, प्रोफेसर, प्रशासनिक अधिकारी, स्वामी, संन्यासी, फकीर,फादर, मौलवी,योगाचार्य, सद्गुरु आदि इस कला में पारंगत होते हैं। छोटे स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड जल्दी हो जाता है लेकिन बड़े स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड आजीवन नहीं होता है।हां, कोई आशाराम या गुरमीत राम या रामपाल आदि का जल्दी भांडाफोड हो जाता है और वो जेल पहुंच जाते हैं। लेकिन वो फिर भी मूढों और बेवकूफों के आदरणीय भगवान् बने रहते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या करें,वह  सुबह कुछ है, दोपहर को कुछ और है तथा शाम को कुछ अन्य ही हो जाता है।वह अपने कपट,छल, ईर्ष्या,द्वेष, कामुकता, धूर्तता को अधिक समय तक छिपाने में सफल नहीं हो पता। इसीलिये जन-सामान्य की नजरों में वह महान या बड़ा नही है। अपने नित्यप्रति के आचरण के इस दोगलेपन की चिकित्सा या काउंसलिंग किसी भी काउंसलर या काउंसलिंग के पास उपलब्ध है?साईकोलाजिकल या फिलासाफिकल काउंसलिंग के माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौजूद नैतिक या वैचारिक या भावनात्मक या मानसिक या सैद्धांतिक अस्थिरता, द्वंद्व,असामान्यता आदि को ठीक करने पर व्याख्यान,लैक्चर, गोष्ठियां आदि तो खूब होते हैं लेकिन परिणाम बिल्कुल शून्य है। जनसाधारण हो या विशिष्ट हो, नेता हो या उच्च -अधिकारी हो, प्रोफेसर हो या मनोचिकित्सक हो, कथाकार हो या योगाचार्य हो, काउंसलर हो या चिकित्सक हो- सभी के सभी पहले की अपेक्षा और भी अधिक धूर्त, ईर्ष्यालु,कामुक, स्वार्थी, झूठे, लालची ,हताश, अकेले और आचरण के दोगलेपन से ग्रस्त होते जा रहे हैं। किसी असामान्य व्यक्ति की साईकोलाजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग करने की चिकनी चुपड़ी- बातें सुनने में बड़ी मजेदार लगती हैं लेकिन जब परिणाम दिखलाने की बात आती है तो स्वयं काउंसलर भी लड़ाई -झगडे पर उतर आते हैं।उस समय तो लगता है कि जनसाधारण की अपेक्षा इन तथाकथित काउंसलिंग करने वाले काउंसलर को ही काउंसलिंग की सर्वाधिक आवश्यकता है, यदि कोई काउंसलिंग हो सकती हो तो! आप काउंसलिंग से संबंधित किसी भी व्याख्यान, लैक्चर,गोष्ठी, सैमिनार में जाईये, आपको वही रटी रटाई तथा घिसी पिटी सुकरात,देकार्त,फ्रायड,एडलर,जुंग,  मैचिन, रोजर्स,पार्संस, मैस्लो की उबाऊ बातें सुनने को मिलेंगी। हां, अपने आपको कुछ अलग दिखलाने के लिये भारत में आजकल कुछ काउंसलर ने अष्टांगयोग, विपश्यना, प्राणापान,प्रेक्षा ,साक्षी और कृष्णमूर्ति के अवलोकन को भी अपने काउंसलिंग से संबंधित व्याख्यानों, आलेखों और पुस्तकों में सम्मिलित कर दिया है। लेकिन ऐसे काउंसलर के चरित्र और आचरण में सनातन भारतीय योगविद्या, योगाभ्यास और अध्यात्म का अ ,आ, इ ,ई भी अभ्यास और अनुशासन में नहीं है।बस ,अपने अपने व्याख्यानों, लैक्चर और पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं। प्रायोगिक सृजनात्मक परिणाम की जहां तक बात है,न तो पश्चिम में तथा न ही भारत में किसी काउंसलर ने आज तक कुछ भी करके दिखलाया है। सभी के सभी काउंसलर बस विचारों, सिद्धांतों और विधियों की जुगाली करते जा रहे हैं। द्वितीय महायुद्ध से लेकर अब इजरायल-अरब  युद्ध,रुस- युक्रेन युद्ध,भारत- पाकिस्तान युद्ध सहित अन्य किसी भी क्षेत्र में व्याप्त नैतिक, वैचारिक, भावनात्मक, दार्शनिक, चारित्रिक, सैद्धांतिक आदि मुद्दों की विषमता पर कुछ भी सृजनात्मक और रचनात्मक करके दिखलाया हो तो बतलाओ।बस, सभी के सभी टाईमपास कर रहे हैं या काउंसलिंग की आड़ में दुकानदारी कर रहे हैं या प्रसिद्ध होने की सनक का शिकार हैं।
पश्चिम वाले तो अपनी उपयोगितावादी फिलासफी को जैसे तैसे बचा लेंगे लेकिन आप लोग अपने दर्शनशास्त्र को कैसे बचाओगे? इस फिलासफिकल काउंसलिंग के माध्यम से आपने तो दर्शनशास्त्र विषय को ही समाप्त करने का जुगाड कर लिया है। भारत में पहले ही दर्शनशास्त्र-विभाग बंद हो रहे हैं।क्योंकि हमारे दर्शनशास्त्रियों, नेताओं, नीति-निर्माताओं की मूर्ख सोच के कारण विद्यार्थियों की इस विषय में कोई रुचि नहीं रह गई है। इनकी बेवकूफी और उपेक्षा के कारण यह विषय न तो रोजगार दे पा रहा है,न चरित्र दे पा रहा है,न नैतिक मूल्य दे पा रहा है,न तर्क दे पा रहा है तथा न ही प्रामाणिक विचारक दे पा रहा है। होना तो यह चाहिये था कि आप भारतीय बच्चों को भारतीय दर्शनशास्त्र के अंतर्गत न्यायशास्त्र,ज्ञानशास्त्र,तर्कशास्त्र,नीतिशास्त्र, योगशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन,अध्यापन और शोध आदि करने करवाने पर जोर देते। लेकिन आपने ऐसा नहीं करके दर्शनशास्त्र विषय की बजाय स्वयं के प्रसिद्ध हो जाने पर अधिक जोर -आजमाइश की है।पश्चिम वाले तो अपनी फिलासफी के अनुसार उपयोगितावादी, स्वार्थी, उन्मुक्त भोगी और यूज एंड थ्रो के अनुसार जीवन यापन कर रहे हैं लेकिन भारतीय न तो पाश्चात्य हो पा रहे हैं तथा न ही भारतीय हो पा रहे हैं। अपने दर्शनशास्त्र की उपेक्षा और पाश्चात्य की अंधी नकल ने भारतीयों को कहीं का भी नहीं छोड़ा है। इनकी हालत न यहां के रहे, न वहां के रहे वाली हो चुकी है।
यह भी बड़ा दिलचस्प है कि तांत्रिक टोने- टोटके और झाड़-फूंक से नित्यप्रति के जीवन की समस्याओं के समाधान की बात जितनी लोकप्रिय भारत में है ,उतना ही लोकप्रिय युरोप और अमरीका आदि में भी है।बस, फर्क यह है कि भारत के संबंध में मीडिया द्वारा दुष्प्रचार अधिक कर दिया जाता है जबकि युरोप और अमरीका के संबंध में इसे छिपा लिया जाता है।जिसकी लाठी,उसी भैंस वाली कहावत यहां भी लागू हो रही है। पश्चिम और भारत में आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व वो लोग करते हैं जो कभी न कभी अपने जीवन की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, वैचारिक आदि समस्याओं के समाधान के लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास अवश्य गये होंगे तथा अब भी जाते हैं। समस्याग्रस्त या असामान्य व्यक्ति का लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास जाकर अपनी समस्याओं का समाधान करवाना क्या सही है या गलत - इस संबंध में भी अंधेरगर्दी मिलती है। यदि बहुत से व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का समाधान इन बाबाओं, तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास मिल जाता है तो इन्हें काउंसलर कहा जायेगा या नहीं कहा जायेगा - इस संबंध में साईकोलाजिकल और फिलासफिकल काउंसलर का नकारात्मक दृष्टिकोण उनके खुद को बिमार होने की ओर संकेत करता है।यह नहीं होना चाहिये।
 एक व्यक्ति का होना बहुत से सिस्टम और तंत्रों का सम्मिलित रुप से मौजूद होना है।एक व्यक्ति में अनेक सिस्टम या तंत्र काम कर रहे हैं,इन सबके सम्मिलित ढांचे को व्यक्ति कहते हैं। यदि व्यक्ति के आत्मिक स्वरूप को कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाये तो एक व्यक्ति में लसिका तंत्र,हड्डी तंत्र,धातु तंत्र,नलिकाविहीन ग्रंथि तंत्र,पाचन तंत्र, मूत्र विसर्जन तंत्र, श्वास तंत्र,चक्र तंत्र,त्रिदोष तंत्र, त्रिगुण तंत्र,पंचकोश तंत्र,सप्त शरीर तंत्र आदि होते हैं। कोई व्यक्ति जब असामान्य या असहज होता है तो उसे कौनसी काउंसलिंग देना चाहिये ताकि वह व्यावहारिक, तार्किक, मानसिक, वैचारिक रुप से ठीक हो जाये? कोई व्यक्ति जब असहज या असामान्य होता है तो उस व्यक्ति के कौनसे हिस्से में विकार आता है कि काउंसलिंग द्वारा जिसके ठीक किये जाने से वह व्यक्ति ठीक हो जायेगा? सामाजिक परिवेश, व्यक्तिगत परिवेश,उस व्यक्ति का स्थूल शरीर, प्राण शरीर,मनस शरीर आदि में से किसकी चिकित्सा या काउंसलिंग द्वारा वह व्यक्ति ठीक हो सकेगा - इसका निर्धारण कैसे होगा? एक व्यक्ति के कौनसे सिस्टम या तंत्र की चिकित्सा या काउंसलिंग करने से वह व्यक्ति खुद ठीक ठीक महसूस करेगा - काउंसलिंग इस संबंध में हवा में लाठियां चलाते हुये नजर आते हैं। पाश्चात्य और उसकी नकल करके बनाई गई भारतीय काउंसलिंग में हरेक काउंसलर मोरल या साइकोलॉजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग पर टिककर नहीं रहता है।एक प्रकार की काउंसलिंग को शुरू करके वह अन्य प्रकार की काउंसलिंग को भी जबरदस्ती करके प्रवेश करवाकर एक बेमेल ऐसा दलिया तैयार कर देता है जो न तो कोई पोषण देता है,न खाने में स्वादिष्ट है तथा न ही  अधिक दिन तक टिक सकता है।मोरल वाले मोरल तक, साइकोलॉजिकल वाले साइकोलॉजिकल तक तथा फिलासफिकल वाले फिलासफिकल काउंसलिंग तक सीमित क्यों नहीं रहते हैं?ये अपनी सीमाओं का उल्लंघन क्यों करते हैं?इनका इस प्रकार का व्यवहार क्या इन्हें स्वयं ही बिमार, असामान्य और असहज नहीं बतलाता है? और यदि एक दूसरे में घालमेल किये बगैर काम नहीं चल रहा है तो इन कयी प्रकार की काउंसलिंग को मिलकर एक ही कर दो।अलग अलग दुकान खोलना क्यों आवश्यक है? इनके इस सनकी व्यवहार से लग रहा है कि काउंसलिंग के नाम पर जो कुछ चल रहा है,उसमें किसी व्यक्ति की काउंसलिंग कम और  अपनी प्रसिद्धि, अहंकार की तुष्टि और  दुकानदारी अधिक है।कोरे शाब्दिक प्रवचन, संवाद, डायलाग,उपदेश, शिक्षाएं, सत्संग, गोष्ठियां, सैमिनार किसी किसी व्यक्ति को कहां तक और कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाते हैं - इस संबंध में अधिकांश परिणाम और निष्कर्ष नकारात्मक ही हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान भी अपनी 100-150 वर्षों की यात्रा में आत्मा और चेतना के अध्ययन से होते हुये आज व्यवहारिक मनोविज्ञान पर आ चुके हैं। और ये यहां पर भी टिक पायेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम आत्मा, चेतना आदि को नहीं देख सकते तो व्यवहार भी कहां दिखाई पड़ता है? सिर्फ व्यवहार के प्रभाव ही हमें दिखाई पडते हैं।तो समस्या वहीं की वहीं हैं। आखिर किसी व्यक्ति को हम वह कैसे बना सकते हैं, जिसके बनने की संभावनाएं और योग्यताएं उसके चित्त में मौजूद करोड़ों करोड़ों संस्कारों के समूह में मौजूद ही नहीं हैं। उदाहरणार्थ सुकरात ने हैमलेट विष को पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। जिद्दू कृष्णमूर्ति के सिर में आजीवन भयंकर पीड़ा होती रही थी।यह सब क्या है?एक बात और है - सुकरात को सुकरात बनने में और जिद्दू कृष्णमूर्ति को जिद्दू कृष्णमूर्ति बनने में उनके गुरुओं की दशकों की मेहनत का परिणाम था।आज हम उपरोक्त महापुरुषों की विधियों के सहयोग से बिना किसी साधना, तपस्या, संयम, अनुशासन, योगाभ्यास के कैसे किसी व्यक्ति की काउंसलिंग करके उसे नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक रूप से सहज, संतुष्ट, संतुलित और तृप्त बना सकते हैं?
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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र -विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119

दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान

 

*दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान*

हरियाणा की प्रसिद्ध दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रवाद, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित तथा लेखक, कवि, आलोचक तथा 50 से ज्यादा क्रांतिकारी पुस्तकों के लेखक आचार्य शीलक राम द्वारा संचालित व चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2229-7227) प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2249-2976), हिन्दू अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348-0114), आर्य अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348 – 876X) व द्रष्टा अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन :  2277-2480) प्रकाशित करने वाली संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) द्वारा आयोजित 48वीं राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता प्रदत विषय *रक्षाबंधन (श्रावणी पर्व)* के परिणामों की घोषणा कर दी गई है। विजेताओं के नाम निम्न प्रकार से हैं-

पहला स्थान* - दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम

दूसरा स्थान* - डॉ. फूल कुमार राठी रोहतक, हरियाणा

तीसरा स्थान* - डॉ ओमप्रकाश द्विवेदी ओम, पडरौना कुशीनगर

चौथा स्थान*  - डॉ. अम्बे कुमारी, गया, बिहार

पाचवां स्थान* - बी के शर्मा,  इन्दौर, मध्य प्रदेश

छठा स्थान* - डॉ. भेरूसिंह चौहान "तरंग", झाबुआ, मध्य प्रदेश

सातवां स्थान* - अनिल ओझा,  इंदौर

आठवां स्थान* - राम कुमार प्रजापति, अलवर, राजस्थान

नौवां स्थान* - गौतम इलाहाबादी, रेवाड़ी, हरियाणा

दसवां स्थान* - बलबीर सिंह ढाका रोहतक, हरियाणा

इसके अलावा प्रतियोगिता के विशिष्ट पुरस्कृत कवि निम्न प्रकार से हैं-

             सुमन लता "सुमन", फतेहाबाद, हरियाणा

             नरेन्द्र कुमार वैष्णव "सक्ती", छत्तीसगढ़

             डॉ अनुपम भारद्वाज मिश्रा

 

सभी विजेताओं को आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक के अध्यक्ष *आचार्य शीलक राम* व पूरी टीम की ओर से बहुत-बहुत बधाई।

Friday, April 11, 2025

सैलीब्रिटीज का अंधानुकरण सनातनधर्मियों के लिये खतरे की घंटी (Blind imitation of celebrities is a warning bell for Sanatan Dharmis)


सनातनियों का सैलीब्रिटी के पीछे भागकर उनका अंधानुकरण करना एक पागलपन का रुप ले चुका है। जिसको देखो वही अहंकारी गुरुओं, वाचाल कथाकारों, चमत्कारी बाबाओं, गृहस्थबिगाड़ू नामदानियों, अधकचरे योगियों, हू- हा तांत्रिकों,  चिकित्सा विज्ञान को धता बताने वाले झाडफूंकियों, मायिक  पर्चानिकालुओं,लाईलाज बिमारियों को ठीक करने वाले इलू गिलुओं, गंदगी का पर्याय फकीरों और ईमानधारी बेईमानों के पीछे पागल होकर दौड़ रहा है। अपने सारे विवेक और तर्कशक्ति को बिना सोच -विचार किये किसी ऐरे- गेरे सैलीब्रिटी के चरणों में रखकर उनकी गुलामी करना पतन और विनाश की पराकाष्ठा है।
 सनातनी वास्तव में ऐसा क्यों कर रहे हैं?यह जानना भी दिलचस्प है।आप सोच रहे होंगे कि इसका कारण सनातनियों का धार्मिक प्रवृत्ति का होना है। नहीं, ऐसा नहीं है। सनातनी यदि अपने सनातन धर्म को अपने आचरण में उतारने की हिम्मत करता तो वह ऐसा कभी नहीं करता। किन्हीं सैलीब्रिटी का अंधानुकरण करने वाला व्यक्ति सनातनी नहीं कहा जा सकता। सनातनी जिसके पास अपनी धार्मिक जिज्ञासा को शांत करने या योग साधना का अभ्यास करने जायेगा ,इन कार्यों को वह सोच विचारकर ही करेगा। तर्क के तराजू पर तोलकर ही वह ऐसा करेगा। लेकिन ऐसा कहीं कुछ देखने में नहीं आ रहा है। अधिकांश सनातनी अंधों की भीड़ द्वारा की जाने वाली जय जयकार को सुनकर, टीवी चैनल पर मौजूदगी को देखकर, धुआंधार प्रचार को देखकर,भव्य आश्रमों और गाड़ियों को देखकर, नेताओं की हाजिरी देखकर और पूंजीपतियों की जी हुजूरी देखकर यह अंदाजा लगाता है कि फलां फलां प्रसिद्ध व्यक्ति हमारा गुरु बनने योग्य है। आजकल का सनातनी अपने गुरु में अध्यात्म, योग- साधना, शास्त्रीय ज्ञान, चरित्र बल, वीतरागता,त्याग, तपस्या आदि को न देखकर सिर्फ बाहरी प्रसिद्धि और हंसो हल्ले को देखता है।
सनातनी भाई अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये सोर्ट कट चाहते हैं। दुनिया भर के कुकर्म करो और किसी गुरु की शरण में जाकर कोई पाप माफी की टैक्नीक पा लो। कुछ चढ़ावा आदि चढावो और पापमुक्ति हो गई। इन सार्ट कट की तकनीक देने वाले बाबाओं, तांत्रिकों, संतों, कथाकारों और महामंडलेश्वरों की वजह से पापों से मुक्ति पाना इतना आसान हो गया है कि जनसाधारण भारतीय पाप करने से तनिक भी नहीं डरता है।इन पाखंडियों ने सभी का डर निकाल दिया है। कोई यज्ञ हवन करवाओ, किसी धाम की सात मंगलवार परिक्रमा करो,चढावा चढाओ,भंडारा करो, कोई तांत्रिक क्रिया करो, किसी तीर्थ स्थल पर स्नान करो और सारे घृणित से घृणित पाप छू मंतर।गजब टैक्नीक है पाप माफी की।अन्य मजहबों में इसी तरह की टैक्नीक हैं लेकिन भारतीयों में आजकल पाप करके पाप माफी का धंधा जोरों पर है। अभी एक हिंदू से मतांतरित किसी बाजिंदर नाम के ईसाई पादरी को बलात्कार के अपराध में उम्रकैद की सजा हुई है। सत्ताधारी दल के अनेक बलात्कार में लिप्त बाजिंदर ऊपर तक पहुंच के कारण खुले घूम रहे हैं। बलात्कारियों के जेल से छूटते ही बलिदानियों की तरह उनका स्वागत सत्ताधारी दल के लोगों द्वारा किया जाना पागलपन की पराकाष्ठा है। सनातन धर्म का चोला ओढ़ हुये सत्ताधारी दल द्वारा लिव इन रिलेशनशिप आदि अमानवीय कुकर्मों को कानूनी वैधता दिलवाना इनके आसुरी अब्राहमिक चरित्र को उजागर करता है।

सनातनी धर्माचार्य अपने अनुयायियों को यह क्यों नहीं समझाते किये हुये कर्म का फल अवश्यंभावी है।इसकी कोई माफी नहीं होती है। इसलिये सर्वप्रथम अपने नित्यप्रति के आचरण, चाल-चलन, चरित्र आदि में सुधार करो। मोटे चढावे तथा चेलों की संख्या बढ़ाने के नशे में अपराधियों, बलात्कारियों, डकैतों, भ्रष्टाचारियों, चोरों आदि सभी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिये जा रहे हैं। यदि वास्तव में इनमें संतत्व होता तो ऐसे धूर्त और पापी लोगों को धक्के मारकर अपने आश्रमों से भगा दिया जाता। लेकिन इन धर्माचार्यों द्वारा तो ऐसे पापियों को पहली पंक्ति में सम्मान के साथ बिठाया जाता है तथा फूलमालाओं से जोरदार स्वागत किया जाता है। वैसे तो ये तथाकथित धर्माचार्य जनसाधारण को माया मोह से दूर रहने के उपदेश देते हैं लेकिन स्वयं धन दौलत और माया मोह को पाने के लोभ-लालच में भ्रष्टाचारियों, पापियों, डकैतों, अपराधियों और बलात्कारियों को पाप माफी का आशीर्वाद देते हैं। और फिर यही धर्माचार्य कहते हैं कि सनातन धर्म और संस्कृति मुसलमानों या ईसाईयों के कारण खतरे में है। वास्तव में सनातन धर्म और संस्कृति के लिये सबसे बड़ा खतरा ये धर्माचार्य स्वयं ही हैं।अपनी गलतियों, पापों, अपराधों और कुकर्मों को छिपाने के लिये ये क्या क्या नहीं करते हैं?

पूजा-स्थलों में जाना अतीत में किये गये पापों की माफी के लिये होता है या फिर वर्तमान में अनैतिक कर्म नहीं करने का संकल्प लेने के लिये होता है या परमात्मा ने आज तक जो भी दिया है, उसके लिये धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये होता है? सनातनियों ने अपनी सनातनी मर्यादा को भूलाकर अतीत में किये पाप कर्मों की माफी मांगने या फिर भविष्य में सफलता प्रदान करने के लिये पूजा-स्थलों पर जाना शुरू किया हुआ है। परमात्मा को भी प्रलोभन देते हैं कि यदि मेरी इच्छा पूर्ण हुई तो आपको ये चढ़ाया चढ़ा दूंगा/दूंगी। परमात्मा तुम्हारे चढावे का भूखा बैठा या तुम्हारी भक्ति का भूखा है या फिर वह तुमसे कुछ अन्य ही चाहता है? अपने अंधे अनुयायियों की वासना, कामना और प्रलोभन का फायदा उठाने के लिये बाबा, धर्माचार्य, सद्गुरु, साईं, कथाकार, तांत्रिक, ज्योतिषी, पर्चा निकालने वाले, मौलवी, फकीर, पादरी खूब नौटंकी खेलते हैं। खुद बिमार होने पर हस्पताल में चिकित्सा करवाते हैं लेकिन भक्तों के कैंसर, टीबी, अस्थमा,शूगर, गठिया,कोरोना तक की घातक बिमारियों को गदा , चालीसा,मोरपंख , ताबीज ,चद्दर , यंत्र,मंत्र, तंत्र,शक्तिपात, भभूत चटाकर, चिमटा मारकर,मुंह में  थूककर ,गोद में बिठाकर, आलिंगन में लेकर आदि के चमत्कार से तुरंत ठीक कर देते हैं।जो जितना बड़ा पाखंडी और झूठा होता है उसके पास उतनी ही अधिक भीड़ होती है। किसी ने प्रश्न उठाया तो धार्मिक भावनाएं आहत हो जाती हैं।बस, चुपचाप इस मूढ़ता को देखते रहो। ज़बान हिलाना भी मना है।

 सनातन धर्म और संस्कृति के इन तथाकथित ठेकेदारों ने मज़ाक का विषय बनाकर रख छोड़ा है। इन्होंने कर्म और कर्मफल व्यवस्था को बिल्कुल तहश नहश कर दिया है। परमात्मा और मनुष्य के बीच में अनगिनत मध्यस्थ और दलाल पैदा हो गये हैं। भक्तों को जो कुछ भी कामना पूरी करवानी है या फिर पाप माफी करवानी है तो आप सीधे परमात्मा से नहीं मिल सकते हैं। सब्जी मंडी और अनाजमंडी की तरह से मध्यस्थ और दलालों का आपको सहारा लेना ही पडेगा।
 सनातन धर्म और संस्कृति में पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व है। हमारे तथाकथित राजनीतिक बाबाओं ने पुरुषार्थ को उपेक्षित करके सनातन धर्म को एक कट्टर मजहब या संप्रदाय या कल्ट में परिवर्तित कर दिया है।आप सीधे परमात्मा से नहीं मिल सकते हैं। आपको परमात्मा की अनुभूति के लिये दलालों का या अवतारों का या पैगंबरों का या मसीहाओं या तारणहारों की शरण में जाना ही होगा। वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों, स्मृतियों आदि ग्रंथों को परे फेंककर बाबाओं ने सनातन धर्म को एक दुकानदारी बना दिया है।इन बाबाओं से आप मनचाही कामनाओं को पूरा कर सकते हैं।ये बाबा लोग सनातन धर्म और संस्कृति पर कुंडली मारकर बैठ गये हैं। सनातन धर्माचार्यों की जगह पर राजनीतिक बाबा लोगों को स्थापित करके पुरातन परंपरा को नष्ट किया जा है। अभी संघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत का बयान आया है कि सनातन शास्त्रों को दोबारा से लिखा जाना चाहिये। यानी ये अपनी सुविधानुसार और राजनीतिक लाभ अनुसार सनातन धर्म और संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा हैं। सनातन शास्त्रों को बदलने का इनको किसने दिया है? वक्फ बोर्ड को कानूनी रूप देकर इन्होंने सनातनियों की बहुत सी जमीन जायदाद पर मुसलमानों का एकाधिकार स्वीकार कर लिया है।इनके शासन के दौरान वक्फ बोर्ड की जायदाद दोगुना हो चुकी है। भारत के बहुसंख्यक सनातनियों को कमजोर करने पर वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि सभी पूरी ताकत से लगे हुये हैं। लगता है कि सनातन विरोधी पाप कर्मों लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिकता, गौहत्या, गौमांस भक्षण, शास्त्रों में फेरबदल, गुरु परंपरा की समाप्ति, पूजा-स्थलों के विध्वंस, वैदिक आचार विचार को उपयोगितावादी बनाने को जायज और संवैधानिक बनाकर वेदों -उपनिषदों- दर्शनशास्त्रों -स्मृतियों- महाकाव्यों-चिकित्सा ग्रंथों आदि को म्लेच्छ रुप देना इनकी मानसिकता प्रकट हो रही है। पता नहीं ये किन गुप्त भारत -भारतीय -भारतीयता विरोधी शक्तियों के दबाव में काम कर रहे हैं? अधिकांश पौराणिक संगठन, आश्रम,मठ, कथावाचक, सुधारक, शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, आचार्य , योगाचार्य आदि तो चुप हैं ही,सबसे अधिक आश्चर्यजनक आर्यसमाज संगठन की चुप्पी है। लगता है कि अधिकांश सनातनी कहलवाने वाले बाबा लोग सरकारी बाबा बनकर काम कर रहे हैं।इनको सनातन धर्म और संस्कृति की कोई चिंता नहीं है।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र 136119

चार्वाक जिंदाबाद (Long live Charvak)



महर्षि बृहस्पति ने कहा है कि जब तक जीओ,सुख से जीओ और कर्ज करवाकर घी पीओ। मरने के बाद दाह-संस्कार कर देंगे।कर्ज चुकाने के लिये कोई पुनर्जन्म तो होना नहीं है।तो फिर कर्ज क्या श्मशान की राख वापस करेगी? हमारे अधिकांश धर्मगुरु, कथाकार, योगाचार्य,अभिनेता, खिलाड़ी,नेता, पूंजीपति ,अधिकारी, व्यापारी,न्यायाधीश, प्रोफेसर , चिकित्सक आदि बृहस्पति के दर्शनशास्त्र को अपने आचरण में उतार रहे हैं।समकालीन संदर्भ में इसी बृहस्पति के दर्शनशास्त्र पर थोड़ा विचार कर लेते हैं।
एक या एक से अधिक व्यक्तियों का एक साथ मित्र या प्रेमी या प्रेमिका या पति या पत्नी या भाई या बहन या माता या पिता के रूप में रहने का कारण प्रेम या प्यार या स्नेह या ममता आदि कभी भी नहीं होते हैं। विषमता ,असुरक्षा, भेदभाव, प्रताड़ना,अंध-प्रतियोगिता ,अन्यान्य, ज़ुल्म,अव्यवस्था और अपराध से लबालब भरे संसार में प्रेम, प्यार, दोस्ती आदि का कोई स्थान नहीं है। परस्पर प्रेम,प्यार, स्नेह, ममता,मैत्री आदि सिर्फ एक ऐसा आदर्श हैं जिसको कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। सुधारक, कथाकार,संत, योगी, धर्माचार्य,शिक्षक, नेता आदि विविध मंचों से झूठ पर झूठ बोलते रहते हैं।ये सब जनसाधारण को इस संबंध में वास्तविकता से अवगत नहीं होने देते हैं। संसार के सबसे बड़े झूठ को सत्य कहकर प्रचारित करना बडे और आदरणीय लोगों का धंधा बन चुका है। भुक्तभोगी लोग विरोधाभास से भरे हुये संसार में प्रेम, प्यार ,स्नेह, ममता ,मित्रता आदि की असलियत बता सकते हैं।हवा हवाई वक्तव्य देने से कुछ भी हासिल नहीं होता है। ऐसे वक्तव्यों से किसी का न तो पेट भरता है,न किसी को शिक्षा मिलती है,न आवास मिलता है तथा न ही बिमार होने पर दवाई मिलती है।

किन्हीं भी व्यक्तियों का परस्पर एक दूसरे के समीप आना प्रेम या प्यार या मैत्री आधारित न होकर कुछ अन्य कारणों पर आधारित होता है।उन कारणों में मुख्यतः किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ की पूर्ति की कामना, किसी जरूरत को पूरा करने का लक्ष्य,कामुक संबंध बनाने की चाह,अकेलेपन से परेशान होना आदि की गिनती की जा सकती है। उपरोक्त स्वार्थ, जरूरत, कामुकता और अकेलेपन की समस्याओं का संबंध वर्तमान से भी हो सकता है और भविष्य से भी हो सकता है। अतीत को तो लोग लगभग भूल ही जाते हैं। लोग अतीत की सिर्फ दुश्मनी को ही याद रखते हैं, सहयोग आदि को तो लोग लगभग भूला ही देते हैं।बस एक बार स्वार्थ, जरूरत, कामवासना और अकेलेपन की समस्याओं का समाधान हुआ और तुरंत अपने मित्रों, दोस्तों, प्रेमियों, प्रेमिकाओं, माता, पिता,भाई, बहन, गुरु आदि को भूल जाना एक सामान्य सी आदत सभी में देखी जा सकती है। सांसारिक व्यक्ति तो ऐसे ही होते हैं। संसार में सफलता ऐसे लोगों को ही मिलती है। संसार में उन लोगों की कोई हैसियत, इज्जत, सम्मान, प्रतिष्ठा और गिनती नहीं होती है, जिनके पास प्रेम, प्यार, मैत्री,वायदा निभाने की दौलत होती है। ऐसे लोगों को हर किसी से,हर कदम पर तथा हर समय पर सिर्फ विश्वासघात ही मिलता है।

 बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करना सांसारिक व्यक्ति के लिये तो असंभव है। संसार में यह किसी से छिपी बात नहीं है कि काम निकलने पर पुराने से पुराने मित्रों को धोखा दे दिया जाता है। बिना जरूरत के कोई किसी से दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाता है। रुपये की जरूरत है, सुरक्षा की जरूरत है,कामुक संबंध बनाने हैं या अकेलापन दुखी कर रहा है तो आपको किसी भी लडके या लड़की की तरफ दोस्ती या प्रेम का हाथ बढ़ाना चाहिये। और जब आपकी जरूरत, सुरक्षा, अकेलेपन की समस्या और कामवासना की पूर्ति कहीं और से पूरी होने लगे तो तुरंत दोस्ती तोड़ दो। यहां स्थाई दोस्ती और दुश्मनी जैसा कुछ भी अस्तित्व में मौजूद नहीं होता है। हां, अपने दोस्तों को ठगने या मूर्ख बनाने या उनसे काम निकालने के लिये इस प्रकार की शिक्षाओं को हथियार की तरह प्रयोग किया जा सकता है।आचार्य चाणक्य ने आज से 3800 वर्षों पूर्व अपने ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में कहा था 'अर्थ एवं प्रधान इति कोटल्य:!!अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति!! अर्थात् संसार में धन ही मुख्य वस्तु है।धन के अधीन ही धर्म और काम हैं।

 इस उपदेश की सत्यता में कोई संदेह नहीं है कि भौतिक धन,दौलत, गाड़ी, बंगले, जमीन, जायदाद, कारखाने, बैंक बैलेंस मरते समय साथ में नहीं जायेंगे। यह भी ठीक है कि प्रेम, भाईचारा,आदर , सम्मान, संतुष्टि, तृप्ति तथा करुणामय व्यवहार ही मरते समय साथ जायेंगे। लेकिन समस्या यह है कि सांसारिक लोग प्रेम, भाईचारे आदि की भाषा को समझते ही नहीं है।इस तरह का बर्ताव करने वाले व्यक्ति को पागल, मूर्ख, भोला,अविकसित और पुरातनपंथी मानकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। ऐसे व्यक्ति को पुलिस, प्रशासन, नेता,शिक्षा, डाकखाना, सेना, चिकित्सा आदि सभी विभागों में कोई महत्व नहीं दिया जाता है। ऐसे व्यक्ति को सभी यह कहकर अपमानित करते हैं कि तुम कौनसे युग में जी रहे हो? ऐसे व्यक्ति को तो कहीं लाईन में लगकर सामान भी सरलता से नहीं लेने देते हैं। भौतिक संसार का नियम तो धोखाधड़ी,झूठ, कपट,छल, विश्वासघात, आपाधापी, हिंसा, प्रताड़ना, अपमान, पाखंड, ढोंग आदि के साथ जीना है। सीधे -साधे व्यक्ति को तो कोई बस या ट्रेन में बैठने की सीट तक भी नहीं देता है। ऐसा व्यक्ति छोटी या बड़ी किसी भी नौकरी के इंटरव्यू में कभी भी सफल नहीं हो सकता है। खेती-बाड़ी करते समय ऐसे व्यक्ति को जुताई,बुआई, सिंचाई,कटाई,फसल बेचने तक में परेशान होना पड़ता है। धक्के मारकर सभी उसे पीछे धकेल देते हैं। नेताओं, धर्मगुरुओं, सुधारकों, शिक्षकों आदि के लिये ऐसे भोले-भाले लोग झूठे भाषण और प्रवचन सुनाने के काम आते हैं।चालाक और धूर्त किस्म के लोग तो नेताओं आदि से अपने काम निकलवा लेते हैं, लेकिन भोले-भाले लोगों का शोषण जारी रहता है। नेताओं, धर्माचार्यों, सुधारकों और उच्च अधिकारियों की तरह भोले-भाले लोग भी यदि धोखेबाज,छली,कपटी, झूठे, मौकापरस्त और मतलबी हो जायेंगे तो फिर इन उपरोक्त धूर्तों की धर्म, राजनीति, सत्संग,योग शिविर ,समाज सुधार की दुकानदारी बंद हो जायेगी।

एक अन्य प्रसंग में आचार्य चाणक्य कहते हैं 'अमरवदर्थजातमाजयेत् ।।
अर्थवान सर्वलोकस्य बहुमत:।।
महेंद्रमप्यर्थहीनं न बहुमन्यते लोक:।।दारिद्र्य्ं खलु पुरुषस्य जीवितं मरणम्।।अकुलीनोपि कुलीनाद्विशिष्ट::!!
अर्थात् अपने आपको अमर समझकर धन का अर्जन करो।धनहीन इंद्र का भी कोई आदर नहीं करता है।धनहीन गरीब मनुष्य की जीते जी मौत हो जाती है। असभ्य होने पर भी  धनवानों को सर्वत्र सम्मान मिलता है। पहले का समय हो या आजकल का समय हो, सम्मान पाने के लिये केंद्र में धन - दौलत  मुख्य रहते आये हैं। इससे यह सिद्ध है कि भौतिक संसार में धन -दौलत ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिसके पास यह नहीं है,उसका जीवन अभी और केवल


अभी नर्क है। उसने मानवदेह में आकर सिर्फ अपने जीवन को व्यर्थ गंवा दिया है। भौतिक संसार में केवल धन- दौलत ही परमात्मा है। यदि किसी के पास धन दौलत है तो फिर उसको सर्वत्र सम्मान ही मिलेगा। लेकिन यदि किसी के पास धन दौलत नहीं है तो उसे सर्वत्र अपमान,प्रताड़ना, छुआछूत,गालियां, बदहाली आदि का सामना करना पड़ेगा। यदि आपके पास ऊंची ऊंची उपाधियां हैं, आपने सैकड़ों पुस्तकें लिख रखी हैं,आप प्रतिभाशाली हो, आप अखबारों में आर्टिकल लेखक हो,लेकिन आपके पास धनं- दौलत नहीं है,तो सच मानिये कि किसी गली का आवारा कुत्ता भी आपका सम्मान नहीं करेगा।वह भी आपको काटने दौड़ेगा। विद्या, बुद्धि, प्रतिभा, विद्वता आदि का कहीं कोई सम्मान नहीं है।इस तरह की बातें सिर्फ भोले-भाले और सीधे -साधे लोगों को एकतरफा ईमानदारी, निष्पक्षता, निष्ठा, मेहनत, पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाकर उन्हें हर तरफ से लूला,लंगडा,बहरा और बंद बुद्धि बनाये रखकर भौतिक संसार की दौड़ से बाहर करना है।

 ध्यान रहे कि सत्यवादिता, ईमानदारी, मेहनत, निष्पक्षता, करुणा, समर्पण, प्रेम, सम्मान, सौहार्द , भाईचारा, संतुष्टि , तृप्ति आदि आध्यात्मिक रूप से हर व्यक्ति के लिये लाभकारी हैं। ऐसा व्यक्ति अपने आपमें सदैव मस्त और आनंदमय रहता है। लेकिन ऐसा व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष,तप, स्वाध्याय के सहयोग से भौतिक संसार में खुद की भौतिक तरक्की कभी नहीं कर सकता है।वह सदैव गरीब, बदहाल, असहाय,पिछडा हुआ, अपमानित और उपेक्षित ही रहता है। भौतिक संसार में आगे बढ़ने के लिये जिन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जा है, वो अस्त्र-शस्त्र भोले-भाले व्यक्ति को नहीं मिलता है। इससे हताश करके अपने वर्तमान और भविष्य को कूड़ेदान में। डाल देंगे।

 धोखेबाज़,लूटेरे,शोषक, झूठे और कपटाचरण करने वाले नेता, धर्मगुरु, सुधारक, उच्च अधिकारी, न्यायाधीश, पूंजीपति , प्रोफेसर, इंजीनियर, चिकित्सक आदि विभिन्न मंचों से मेहनत, ईमानदारी, निष्पक्षता, संयम, नैतिकता आदि के उपदेश पिलाकर जनमानस को बेवकूफ बनाते रहते हैं। क्योंकि ये जो विभिन्न मंचों से मोटे -मोटे उपदेश करते हैं,उन पर स्वयं नहीं चलते हैं।
आजकल के लूटपाट, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी,झूठ, कपट और छल के संसार में नेता, धर्मगुरु, सुधारक, योगाचार्य,संत, कथाकार, पूंजीपति, न्यायाधीश, उच्च -अधिकारी, प्रोफेसर, चिकित्सक आदि सभी के पास करोड़ों अवैध रुपये मिल रहे हैं लेकिन राजनीति, पुलिस और न्याय व्यवस्था में पहुंच होने के कारण इनका कुछ नहीं बिगडता है। इनके पास सीबी,आई ईडी और न्यायालय कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करता है। यदि किसी किसान, मजदूर आदि के पास थोड़ा बहुत कैश भी मिल जाये तो उसे तुरंत जेल भेज दिया जाता है। पुलिस, कानून, न्यायालय, सीबीआई,ईडी आदि केवल उच्च पहुंच वाले धनी -मानी लोगों की सुरक्षा के लिये तैनात रहते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ठीक ही कहा है कि 'दुनिया ठगिये मक्कर से, रोटी खाईये घी शक्कर से'।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119

दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी और जीवन -दर्शनशास्त्र (Philosophy, Philosophy and Life - Philosophy)

 दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी और जीवन -दर्शनशास्त्र

जब तक जीवन-दर्शन, जीवनचर्या, जीवनशैली नहीं बनते हैं तब तक यह सब वैचारिक कबड्डी से बढ़कर कुछ भी नहीं है। लेकिन जीवन के हरेक क्षेत्र में इसका विपरीत हो रहा है। जिसको देखो वही प्रवचन दे रहा है लेकिन प्रवचन में कही गई शिक्षाओं को स्वयं के आचरण में स्थान नहीं देता है। हमारे महापुरुषों की हर अच्छी बात,सीख और उपदेश ने व्यापार का रुप धारण कर लिया है। लगता है कि इन्होंने जनता जनार्दन को बेवकूफ समझ लिया है या फिर बेवकूफ बनाने के लिये ही प्रवचन आदि किये जा रहे हैं। आचरण, चरित्र, जीवनचर्या और जीवनशैली में सुधार से इन्हें कोई मतलब नहीं है।

और देखिये, हमारे वायदाखिलाफी करने वाले नेताओं पर कानूनी कार्रवाई होना चाहिये, लेकिन ऐसा कहीं नहीं होता है। लोकलुभावन घोषणाएं करके सत्ता में आ जाते हैं और बाद में उनको पूरा करने के लिये कुछ भी नहीं करते हैं। जनता यदि विरोध करे तो लाठी और गोलियों से उनका स्वागत किया जाता है। आखिर वायदाखिलाफी करने वाले नेताओं को जेल क्यों नहीं होना चाहिये?जब हरेक ज़ुल्म की सजा निर्धारित है तो नेताओं को खुली छूट किसलिये? यदि वायदाखिलाफी के विरुद्ध कानून बन जायेगा तो अधिकांशतः नेता जेलों में होंगे। आचरण में कथनी और करनी का भेद यहां भी मौजूद है। अधिकांश कानून प्रभावी लोगों के हितार्थ बनाये जाते हैं। जनमानस की कोई चिंता नहीं है।

और देखिये, जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिये पांच किलो अनाज फेंक दिया जाता है। और इसे रेवड़ी संस्कृति कहकर दुष्प्रचार भी किया जाता है। वास्तव में यह रेवड़ी संस्कृति नहीं, अपितु राष्ट्र की पूंजी पर सबका अधिकार का सवाल है। यदि व्यवस्था लोकतांत्रिक है तो सबको सुविधाओं को भोगने का अधिकार होना ही चाहिये।पूंजीपति यह न सोचें कि उनकी कमाई केवल उन्हीं की मेहनत का परिणाम है। पूंजीपतियों ने जो अरबों -खरबों कमाकर एकत्र कर लिये हैं, उसमें किसान, मजदूर आदि की भी मेहनत का योगदान है। यदि पूंजीपतियों का योगदान दस प्रतिशत है तो किसान और मजदूर का नब्बे प्रतिशत योगदान है। लेकिन व्यवस्था की तानाशाही बोलने तक नहीं देती है। भारतीय मेहनतकश वर्ग की उसकी कमाई का अधिकांश हिस्सा तो ये पूंजीपति, धर्मगुरु, उच्च- अधिकारी और नेता खा जाते हैं। सारे समानता के प्रवचन और व्याख्यान सिर्फ कागजों, योजनाओं और मंचों तक सिकुड़ कर रह जाते हैं। कोई आवाज  उठाये  तो  उसकी  खैर   नहीं है।

हरियाणा में सरकारी विद्यालयों में छात्रों की संख्या घटने से विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। पिछले एक दशक में हजार के आसपास विद्यालय बंद किये जा चुके हैं। इसके पीछे सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जोकि बिल्कुल गलत है। अधिकांश सरकारी विद्यालय स्टाफ,धन और व्यवस्था की कमी की वजह से बंद हुये हैं। निजी विद्यालयों की तरफ सत्ता का झुकाव सबको पता है। अधिकांश निजी विद्यालयों के मालिकों का नेताओं से अच्छा रसूख है। सरकार खुद ही सरकारी विद्यालयों को बंद करने की मानसिकता रखती है। शिक्षा को भी व्यापार बना दिया गया है। यहां भी करनी और कथनी में भेद का आचरण मौजूद है। लोग सस्ते में शिक्षित होंगे तो रोजगार मांगेंगे और निजी विद्यालयों के मालिकों की काली कमाई पर रोक लग जायेगी।

हमारे सनातन योगाभ्यास का भी यही हाल है।बस प्रचार,प्रचार और प्रचार। योगाभ्यास से किसी को कोई मतलब नहीं है। संपूर्ण योगाभ्यास का व्यापारी बाबाओं ने व्यापारीकरण कर दिया है। जहां भी रुपया बनता हो,बनाओ। अभी अमरीका के 1776 फीट ऊंचे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर  पर आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा योगाभ्यास करवाया गया है।21 जनवरी के विश्व योगा डे (योग दिवस नहीं)की तैयारियां चल रही हैं। योगाभ्यास में इतना दिखावा और नाटकबाजी करने की क्या जरूरत है? योगाभ्यास से अहंकार,दिखावे, नाटकबाजी,पद, प्रतिष्ठा आदि विकारों को दूर करके चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना है। लेकिन योगा (योग नहीं)के अभ्यास द्वारा शैतानी दिमाग की भीड़ को तैयार किया जा रहा है। योगा सिखाने, सीखने और इसकी आड़ में राजनीति करने वाले लोगों के दुष्टाचरण से साफ दिखाई पड़ रहा है कि इनके पास नैतिकता,सात्विकता, सद्विचार, सद्भावना आदि का कोई चिह्न मौजूद नहीं है।
सरकार का मतलब जनमानस का हित सर्वोपरि होना चाहिये लेकिन हो विपरीत रहा है। हरेक राजनीतिक दल स्वयं की ही सेवा करने में व्यस्त है। राजनीति से सेवा करने की सीख तो कब की गायब हो गई है। अधिकांश लोग राजनीति में वही आते हैं जिनकी आपराधिक प्रवृत्ति होती है।आम जनसाधारण भारतीय चुनाव लड़कर ही दिखला दो।एक विधायक और सांसद अपने चुनावी खर्च पर 50-50,100-100 करोड़ रुपये खर्च कर देता है। फ्री में पांच किलो अनाज से पेट भरने वाला भारतीय चुनाव लड़ेगा?
संचार माध्यम जनता तक सत्य सुचनाएं पहुंचाने हेतु होते हैं लेकिन ये सभी सरकारों की गुलामी और सेवा करने में लगे हुये हैं। पूरा संचार का सिस्टम हैक किया जा चुका है। मीडिया सच्चाई नहीं दिखलाकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार का प्रशस्ति गान करने पर लगा हुआ है। टीवी चैनल की मालिक और करोड़ों अरबों में खेल रहे हैं और जनमानस दाल, रोटी,आटे, तेल, किराये, गैस और बच्चों की फीस के लिये पसीना पसीना हो रहा है। संवैधानिक आदर्श समता, समानता, भाईचारा, संसाधनों का समान बंटवारा गये तेल लेने।

बड़ी पीढ़ी और युवा पीढ़ी में परस्पर संवाद आवश्यक है। लेकिन इस संवाद को अब्राहमिक सोच ने भंग कर दिया है। भारतीय धर्म और संस्कृति में निहित जीवनमूल्यों की शिक्षा देने की कोई चिंता और व्याकुलता सिस्टम की ओर से नहीं है। दुनिया को नैतिकता और तर्क सिखाने वाले भारत में नैतिकता और तार्किकता गायब हो गये हैं।
महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की आयु कम है। इसकी तह में जाना आवश्यक है। इसके कारण की तलाश करने की अपेक्षा लीपापोती करने पर ध्यान अधिक है। पुरुषों की बैचेनी, व्याकुलता, बेबसी, अकेलेपन, तनाव और चिंता की किसी को कोई चिंता नहीं है। रिसर्च जर्नल्स में नारी गरिमा के आलेख प्रकाशित करने और करवाने वालों को शायद दिमागी लकवा लगा हुआ है।
धर्म की आड़ में चमत्कार अधिक और जीवनमूल्यों को धारण करने की बात कम है। विभिन्न मंचों से धर्मगुरु लोग जिन बातों का प्रचार-प्रसार करते हैं, यदि उनकी कही गई दस प्रतिशत बातों को भी वो निजी आचरण में उतार लें तो भारत विश्वगुरू बन जाये। लेकिन करे कौन? सारे आदर्श और उपदेश केवल मेहनतकश भारतीयों के लिये ही आरक्षित हैं। बड़े लोगों को हर क्षेत्र में धींगामुश्ती करने की खुली छूट मिली हुई है।

 भारत में खुदाईयों से मिले सबूत यह सिद्ध करते हैं कि कश्मीर, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा,आसाम, केरल, तमिलनाडु आदि सभी जगह पर 12000 वर्षों से नगरीय और ग्रामीण दोनों प्रकार की बस्तियां मौजूद थीं। लेकिन शिक्षा संस्थानों में वही मैकालयी पुस्तकें रटवाई जा रही हैं। भारत को राजनीतिक आजादी तो कहने को मिल गई है लेकिन मानसिक, शैक्षिक,शोधपरक,व्यापारिक, आर्थिक, सामाजिक और तार्किक आजादी अब भी नहीं मिली है। मंदबुद्धि,अल्पबुद्धि,,मूढबुद्धि  लोगों से भारत भरा हुआ है।जी हुजूरी और लंबलेट हो जाना ही सफलता और सम्मान का प्रतीक बन गया है।

भारत का रोल मॉडल कहे जाने वाले गुजरात में किसी हस्पताल का विडियोज़ से जुडा कारनामा उजागर हुआ है। हस्पताल के कर्मचारियों ने महिला रोगियों के एक्सरे,अल्ट्रासाउंड तथा अन्य चैक अप के हजारों अश्लील विडियोज़ टैलीग्राम पर रुपये लेकर अपलोड किये हैं।चैक अप के दौरान यह सब काम गुप्त विडियोज़ से किया गया होगा। रुपये कमाने के लिये लोग किसी भी सीमा तक जा रहे हैं। मूल्य, नैतिकता, सदाचरण आदि का कोई महत्व नहीं है।एक नये कहे जाने वाले लेकिन पुरातन विषय 'चिकित्सा नैतिकता' का बड़ा शोर मचा रखा है। लेकिन मूल्य , नैतिकता और सदाचार तो सब जगह लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। पाश्चात्य प्रभाव के कारण मैडिकल इथिक्स का बड़ा शोर मचा हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि किसी का कुछ नहीं बिगड़नेवाला।

 किसी ने कहा है कि कीचड़ और लीचड़ से बचकर रहो। लेकिन समस्या तो यह है कि बचकर कैसे रहा जाये तथा इस तरह से बचना क्या भगोड़ापन नहीं कहा जायेगा?जब मजहब, संप्रदाय, राजनीति, शिक्षा, व्यापार, प्रबंधन, खेती-बाड़ी आदि सब जगह लीचड भरे हुये हैं तथा गली,सड़क,गटर,नाले,पार्क आदि सब जगह पर कीचड़ ही कीचड़ भरा हुआ है,इन दोनों से बचकर रहने से सांसारिक जीवन एक कदम भी नहीं चल पायेगा।संसार को लीचड़ और कीचड़ मानकर तो सिद्धार्थ गौतम भी भागकर चले गये थे तथा संसार के प्रथम भगोडे कहलाये। लेकिन हुआ क्या? वापस इसी लीचड़ और कीचड़ वाले संसार में आये या नहीं?इस संसार से भागने के फलस्वरूप अधिकांश भारत को निठल्ले,कायर और भगोडे भिक्षुओं से भर दिया। सर्वप्रथम भारत को विदेशी आक्रांताओं हेतु सहज टारगेट भी भिक्षुओं ने ही बना दिया था।

' सेव अर्थ ' कहकर हजारों किलोमीटर की यात्रा करने का ढोंग करने वाले पाखंडी बाबा अब कहां छिप गये हैं? सत्ताधारी दल द्वारा अपने पूंजीपति साथियों को लाभ पहुंचाने के लिये तेलंगाना में जंगलों को उजाड़कर वहां पर कोई भव्य निर्माण करने की योजना पर काम हो रहा है। आगे आओ बाबा जी, रोको भारतीय भूमि को बर्बाद होने से। भारत को जंगल काटने वालों और जंगलराज से बचाओ। पाखंड करना छोड़कर आओ मैदान में तथा सरकार के विरोध में धरना प्रदर्शन आदि करो।वास्तविकता यह है कि कोई भी बाबा धरती और जंगल को बचाने नहीं आयेगा।इन बाबाओं , पूंजीपतियों और नेताओं की परस्पर दोस्ती है। ये तीनों मिलकर जनमानस का रक्तपान इसी तरह से करते रहेंगे। मंचों से जो जोशीले और सदाचार के प्रवचन दिये जाते हैं,उनको ये खुद ही नहीं मानते हैं।इनके कर्मों और आचरण में कोई भी तालमेल नहीं है! मांसाहारी अहिंसा और करुणा के प्रवचन दे रहे हैं।नकली डिग्रीधारी उच्च शिक्षा का महत्व बतला रहे हैं।भ्रष्टाचारी सदाचार का उपदेश दे रहे हैं। बलात्कारी महिला सम्मान की सीख दे रहे हैं। तामसिक लोग सात्विकता के महत्व को बतला रहे हैं। बलात्कारी बाबा बार-बार पैरोल पर बाहर आ रहे हैं। न्याय करने वाले न्यायाधीश स्वयं हजारों करोड़ रुपये के साथ पकडे जाकर भी न्याय और पद की शपथ ले लेते हैं। और तो और अब तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश ही लड़कियों के गुप्तांगों से छेड़छाड़ करने को सही ठहरा रहे हैं। वाह रे न्याय के रखवाले भारतीय महारथियों।

 अपने आराध्य महापुरुषों का अनुयायी लोग कितना अनुसरण करते हैं,इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये।आचार्य रजनीश  उर्फ ओशो ने फिरंगियों की सुविधा के लिये कई ध्यान विधियों का निर्माण किया तथा अपने आध्यात्मिक मिशन के प्रचार प्रसार और आश्रमों के संचालन का महत्वपूर्ण भार भी फिरंगियों पर ही डाला था।जो परिणाम आना था,वह आया भी। फिरंगियों ने ओशो की अधिकांश आध्यात्मिक संपदा पर जबरन अधिकार करके भारतीय संन्यासियों को आश्रमों से भगा दिया। यहां तक कि पूना के आश्रम में भी ओशो संन्यासियों को लाठियां मारकर पीटा तक गया है। पूना का आश्रम अपना आध्यात्मिक वैभव इतनी जल्दी खो देगा,इसका आशा ओशो को भी नहीं रही होगी। फिरंगियों ने जहां भी प्रवेश किया, वहीं पर विनाश, मतांतरण, शोषण, व्यापार, भेदभाव और छुआछूत को शुरू कर दिया। ओशो की ध्यान विधियों का फिरंगियों पर कोई प्रभाव नहीं पड सका।जो फिरंगी ओशो के सर्वाधिक समीप रहते थे,जब उनका यह बुरा हाल है तो बाकी का क्या हाल होगा, अंदाज लगाया जा सकता है। ओशो की आध्यात्मिक संपदा जितनी जल्दी गुरुडम और पाखंडी का शिकार हुई, उतनी जल्दी तो आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन आदि भी नहीं हुये हैं। आर्यसमाज जैसे क्रांतिकारी संगठन को पाखंडी बनने में कई दशक लग गये लेकिन ओशो रजनीश के देहावसान को प्राप्त होते ही फिरंगियों ने पूरी आध्यात्मिक साधना और पुस्तक परंपरा को अपने कब्जे में लेकर सबको गलत सिद्ध कर दिया है। ओशो के फिरंगी संन्यासियों ने ही ओशो को सबसे पहले गलत सिद्ध कर दिया है। भारतीय संन्यासियों का नंबर तो बाद में आता है।पढ़ें लिखे भारतीय अनपढ़ों को फिर भी अक्ल नहीं आ रही है। ओरेगॉन अमरीका में ओशो के साथ जो दुर्व्यवहार किया था,वह पूरे संसार के सामने है। परमहंस योगानंद, राधास्वामी, इस्कॉन, रामकृष्ण मिशन, महेश योगी, ब्रह्माकुमारीज,आर्ट ऑफ लिविंग,जग्गी वासुदेव आदि मिशनरी जबरन प्रचारकों, बाईबल,ईसा मसीह,सैंट पाल,सैंट थामस आदि का प्रशस्ति गान वैसे ही नहीं करते आये हैं। आखिर या तो ये उनसे मिले हुये हैं या फिर वहां पर इनको अपनी जड़ों को जमाना है। अपनी जड़ों को पश्चिम में रोपने के लिये भारतीय धर्माचार्य झूठ का सहारा लेते आये हैं।सच बोलते इनका वही बुरा हाल किया जायेगा,जो बुरा हाल ओशो का किया था। राजीव भाई दीक्षित ने सच बोलना जारी रखा,उनका क्या हुआ?वो तो अधिकांशतः भारत में ही काम करते आ रहे थे।फिरंगियों का आचरण उनकी कथनी से बिल्कुल विपरीत होता है।थियोसोफिकल सोसायटी के कर्नल अल्काट, ब्लावट्स्की,ऐनी बेसेंट आदि ने जिद्दू कृष्णमूर्ति का यूज करके उनको विश्वगुरु प्रचारित करके सनातन धर्म के विरोध में अपने ईसाईयत और नवबौद्ध के सम्मिलित एजेंडे को सफल बनाने का पुरजोर प्रयास किया था, लेकिन स्वयं जिद्दू कृष्णमूर्ति ने उनके षड्यंत्र पर पानी फेर दिया था।काश, ओशो के पास भी कोई ऐसी संन्यासियों की सजग और सचेत मंडली होती जो फिरंगियों के मनसूबे को सफल नहीं होने देती। पश्चिमी लोगों की करनी और कथनी का भेद हर अवसर, परिस्थिति और स्थान पर दिखाई पड़ता है।

एक तरफ तो आधुनिक युग ने भौतिक क्षेत्र में चमत्कारिक तरक्की कर ली है तो दूसरी तरफ आचरण और चरित्र से संबंधित नैतिक, मानसिक, मूल्यपरक, तार्किक, सदाचार, सद्भावना आदि सब कुछ लुप्त सा हो गया है।होश,जागरण, जागरुकता, विवेक,समझ,संवेदनशीलता आदि को कहीं कोई महत्व नहीं दिया जाता है। आदर्शवादी प्रवचन सभी देते हैं लेकिन आचरण में उतारने की न तो शिक्षा दी जाती है तथा न ही कोई ऐसा कर रहा है। दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी आदि सिर्फ बातचीत तक सिमटकर रह गये हैं।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119

 

*आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)*

राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता

आपको जानकर अतीव प्रसन्नता होगी कि भारत की प्रसिद्ध धर्म, दर्शन, योग व हिन्दी के प्रसार-प्रचार को समर्पित तथा अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका  (आईएसएसएन:2249-2976),  चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन:2229-7227), हिन्दू अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन : 2348-0114), आर्य अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2348 – 876x) व द्रष्टा अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2277-2480)  को प्रकाशित करने वाली संस्था *आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)* के तत्वावधान में निःशुल्क राष्ट्रीय 44वीं कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है ।

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प्रतियोगिता की शर्तें:-

1. आपकी रचना देवनागरी लिपि में टंकित होनीं चाहिए।

2. दिए गए उपरोक्त विषय पर रचनाये स्वीकार की जाएंगी ।

3. रचना में किसी भी प्रकार के अश्लील, असामाजिक व राष्ट्र विरोधी शब्द नही होने चाहिए।

4. एक रचनाकार केवल एक ही रचना भेज सकता है।

5. रचना की उत्कृष्टता के आधार पर विजेताओं का चयन किया जाएगा।

6. चयन पैनल का निर्णय सर्वमान्य होगा।

7. रचना के नीचे रचनाकार की सामान्य जानकारियां जैसे- नाम, पता, सम्पर्क सूत्र, ई-मेल आदि अवश्य लिखी होनी चाहिए।

8. ग्रुप में किसी प्रकार का वाट्सएप व यूट्यूब लिंक ना पोस्ट करें l ऐसा करने पर उसे ग्रुप से बाहर कर दिया जाएगाl

9. रचना 18 अप्रैल 2025 तक ग्रुप में भेज सकते हैं, उसके बाद किसी भी रचनाकार की रचना स्वीकार नही की जाएगी।

10. विजेताओं की घोषणा  ग्रुप में ही की जाएगी।

11. दस सर्वश्रेष्ठ कवियों को आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) की ओर से प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे॥

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पंजीकरण शुल्क - *निःशुल्क*

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रचनाएं केवल हिन्दी कवि व कविताएं ग्रुप में ही स्वीकार की जाएंगी।

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निवेदक :

*आचार्य शीलक राम*

अध्यक्ष आचार्य अकादमी चुलियाणा

रोहतक (हरियाणा)

*वैदिक योग शाला*

कुरूक्षेत्र (हरियाणा)