Saturday, November 8, 2025

सनातन धर्म, संस्कृति और दर्शनशास्त्र को सबसे बड़ा खतरा (The biggest threat to Sanatan Dharma, culture and philosophy)

 सनातन धर्म, संस्कृति और दर्शनशास्त्र को सबसे बड़ा खतरा 
सनातन धर्म और संस्कृति को फिलहाल सबसे बड़ा खतरा हिंदुओं से ही है। जरथुष्ट्र से लेकर मूसा,ईसा, मुहम्मद, सिद्धार्थ गौतम आदि के अनुयायियों और अब हिंदू हितकारी कहे जाने इन ढोंगियों तथा साम्यवादियों और नवयानियों से खतरा बना रहता आया है।साईरस, सिकंदर,कासिम,गौरी, गजनी, अब्दाली, चंगेज, नादिर,बाबर, हुमायूं, शाहजहां, औरंगजेब, अकबर, कार्नवालिस, मैकाले आदि अब्राहमिक हमले पिछले 3000 वर्षों से होते आ रहे हैं। उपरोक्त सभी अब्राहमिक मजहबी थे तथा अब्राहमिक मजहबों के प्रचार-प्रसार के लिये तथा आर्थिक लूट के लिये हमले किये गये थे। फिलहाल भारत पर और सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहे हमले करने वाले कोई बाहरी हमलावर ने होकर हिंदू हितकारी कहे जाने वाले अंधानुयायी हैं। इन्होंने अपनी पहचान को छिपा दिया है।भारत, सनातन धर्म और सनातन संस्कृति को अब्राहमिक कहे जाने बाहरी हमलावर तो पूरी तरह से बर्बाद नहीं कर पाये थे। लेकिन फिलहाल जो खतरा सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहा है,वह पहले वाले हमलों से भी घातक है। इस समय अपने आपको सनातनी कहकर ही सनातन को बर्बाद करने मे लगे हुये हैं। सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहे इस हमले को सनातनी जनमानस भी समझ नहीं पा रहा है। आर्यसमाज से थोडी आशा थी कि वह ढाल बनकर खड़ा होगा लेकिन महर्षि दयानंद सरस्वती के कुछ समर्पित शिष्यों को छोड़कर यह संगठन भी इन नकली हिंदू हितकारियों के झांसे में फंसकर रह गया है।इन नकली हिंदू हितकारियों का साथ एक तरफ तो अब्राहमिक मजहब दे रहे हैं, दूसरी तरफ भारत के कुछ अमीर घराने सहयोग कर रहे हैं तथा तीसरी तरफ अनेक नकली शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, स्वामी, संन्यासी, सद्गुरु आदि सहयोग कर रहे हैं। सामुहिक रूप से कोई भी संगठन सनातन धर्म और संस्कृति के रक्षार्थ फिलहाल प्रस्तुत नहीं है। हां, व्यक्तिगत रूप से अनेक विचारक, सुधारक, विद्वान, दार्शनिक तथा कुछ छोटे स्तर के संगठन अवश्य प्रयासरत हैं।वो सभी अपनी जान पर खेलकर प्रयासरत हैं।इसी क्रम में महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, सुभाष चन्द्र बोस, बिस्मिल, भगतसिंह, अशफाक,राजीव भाई दीक्षित जैसे कयी महापुरुष अपना बलिदान दे चुके हैं। वांगचुक जैसे राष्ट्रवादी लोग भी राष्ट्रभक्त होने की सजा भुगत रहे हैं।

अब्राहमिक सोच का अंधानुकरण करने वाले नकली हिंदू हितकारियों ने पिछले दशक में पता नहीं कितने समकालीन वैदिक स्वामी दयानंद सरस्वती, राष्ट्रवादी इतिहासकार धर्मपाल, स्वदेशी राजीव भाई दीक्षित को छीन लिया है। वैसे तो आजादी के पश्चात् ही यह दुष्ट परंपरा साम्यवाद और नवयान की आड़ में शुरू हो गई थी लेकिन पिछले एक दशक के दौरान  सनातन धर्म और संस्कृति पर जो हमले हुये हैं, उन्होंने अब्राहमिक,नवयानी और साम्यवादियों के सम्मिलित रुप को भी पीछे छोड़ दिया है।बचे खुचे सनातन धर्म और संस्कृति को बर्बाद करके अपनी सत्ता कायम करने के लिये इन्होंने नकली शंकराचार्य,ढोगी संत,शोषक स्वामी, कपटी संन्यासी और व्यापारी योगाचार्य पैदा कर दिये पैदा हैं। विश्वविद्यालयों के शीर्ष पर अनपढ़ और पाखंडी लोगों को बैठा दिया है। सरकार सहायता प्राप्त अकादमियों और पीठों द्वारा जी- हुजूरी और चापलूसी करने वाले सम्मानित हो रहे हैं और मौलिक प्रतिभाशाली विचारक उपेक्षित किये जा रहे हैं।मुगल दरबारी चारण और भाटों के समकक्ष चापलूसों की पुस्तकें पुरस्कृत हो रही हैं जबकि जमीनी वास्तविकता को अभिव्यक्ति देने वाली राष्ट्रवादी पुस्तकों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जा रहा है। ऐसे सनातन धर्म और संस्कृति विरोधी कुकृत्य करके भारत को विश्वगुरु बनाने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। यदि कोई इन कुकृत्यों का विरोध करे तो उसे देशद्रोही और सनातनद्रोही कहकर गालियां दी जा रही हैं। जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम से भारत को बांटने के जितने घृणित प्रयास इस समय चल रहे हैं,इतने घृणित प्रयास शायद सभी अब्राहमिक संगठनों ने मिलकर पिछले 3000 वर्षों के दौरान किये होंगे।

 सर्वधर्मसमभाव क्या है? सर्वमतसमभाव क्या है?'धर्म' के साथ सर्व लगाना अपने आपमें महामूर्खता है।धर्म अनेक थोडे ही होते हैं। धर्म तो एक ही होता है। यदि सर्वमतसमभाव सही है तो यह सबके लिये यानी पारसी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम, जैन,बौद्ध के लिये भी है या केवल हिन्दू मतानुयायियों के लिये ही है?सच तो यह है कि इस अवधारणा का सबसे अधिक नुकसान हिंदू को ही हुआ है। पारसी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम, जैन,बौद्ध आदि को इसका अधिक नुकसान नहीं हुआ है। हिंदू को छोड़कर सभी मत हमलावर मन :स्थिति के रहे हैं।पूरी दुनिया को फतेह करके अपने अपने मत में दीक्षित करके अपना सांप्रदायिक,मजहबी और राजनीतिक साम्राज्य स्थापित करना इनका एकमात्र लक्ष्य रहा है। पिछले 3000 वर्षों से आर्यधर्मी रक्षात्मक होकर जीवन जी रहे हैं।आज भी स्थिति में कोई अधिक बदलाव नहीं हुआ है।इसीलिये आज भी आर्यधर्मी या सनातनधर्मी या वैदिकधर्मी सर्वाधिक असुरक्षित है।जब से इन्होंने हमलावर और रक्षात्मक शक्तियों में संतुलन बनाना बंद करके एकतरफा सर्वमतसमभाव का जीवन जीना शुरू किया है तभी से ये रक्षात्मक होकर रह गये हैं।ऐसी विषम स्थिति में सनातन या आर्य या वैदिक धर्म तो बचेगा लेकिन इसको आचरण में उतारने वाला इस धरती पर कोई नहीं बचेगा। सीधा सा तर्क है कि यदि यदि सभी मत समान हैं तो फिर आपको पारस, यहुदी, ईसाई, इस्लामी, जैन, बौद्ध आदि अपने अपने मतानुसार आज तक दूसरे देशों पर जो भी आक्रमण,हिंसा,मारकाट, नरसंहार , मतांतरण, युद्ध, बलात्कार, लूटपाट आदि करते आये हैं,उस सबको आपको जायज मानना होगा। क्यों? क्योंकि यह सब करने उनके मतानुसार सही है।उन द्वारा किये गये हरेक अमानवीय कृत्य को आपको मानना ही होगा, क्योंकि आप सर्वमतसमभाव को मानते हो।हां, यदि आप भीतर से कुछ और बाहर से कुछ अन्य हो,तो फिर आप कुछ भी कर सकते हो। लेकिन यह तो धर्मानुसार नहीं है।यह दुर्व्यवहार संप्रदाय अनुसार या मजहब अनुसार या मत अनुसार ठीक हो सकता है लेकिन धर्मानुसार नहीं। धर्म तो भीतर और बाहर से एक समान व्यवहार की सीख देता है।इसीलिये सर्वमतसमभाव की अवधारणा में फंसकर हिंदू ने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी से वार करके अपने ही पैरों को काट डाला है। भारत में विवेकानंद, प्रभुपाद, गांधी, परमहंस योगानंद, हेडगेवार आदि लोग तथा आजकल के अधिकांश शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, स्वामी, संन्यासी, मुनि, योगाचार्य, सुधारक , राजनीतिक दल और नेता लोग आदि सभी इस सर्वमतसमभाव के भंवरजाल में फंसकर सनातन धर्म, दर्शनशास्त्र और संस्कृति को लुप्तप्राय: करने में सहयोगी बन रहे हैं।

 भारत में सनातन से ही 'मत' या 'संप्रदाय' बनाने की परंपरा धर्मानुसार रही है। लेकिन इस परंपरा को खंडित करने का कार्य सर्वप्रथम शंकराचार्य के शिष्यों ने उपनिषदों,ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता को प्रस्थानत्रयी घोषित करके शुरुआत की। उन्होंने यह सिद्ध करने के लिये कि केवल अद्वैतवाद सही है और बाकी सब कुछ गलत है, हजारों ग्रंथों की रचना कर डाली। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप विचारकों ने विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद,द्वैताद्वैत वाद, अचि़त्ंयभेदाभेदवाद, शक्त्याद्वैतवाद, ध्वन्याद्वैतवाद आदि मत खडे हो गये तथा हरेक ने उपरोक्त तीन ग्रंथों उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता से अपने अपने मतों को सही तथा बाकी को गलत सिद्ध करना शुरू कर दिया। इनकी इस वैचारिक कबड्डी में सनातन धर्म, दर्शनशास्त्र और संस्कृति के मूल स्रोत ग्रंथों वेदादि को बिल्कुल भूला दिया गया।हरेक संप्रदाय खुद को सही और बाकी को गलत कहकर परस्पर सभी को गलत ही सिद्ध करने का प्रयास कर रहा था।इस दुषित परंपरा ने आर्य या वैदिक या सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र और संस्कृति को भारतीयों के जीवन से ओझल कर दिया है। भारत में सभी स्थानों पर पाखंडी,शोषक और पद- प्रतिष्ठा के लोभी बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। नेता और अमीर घराने अपने लाभ के लिये इन बाबाओं का खूब दुरुपयोग कर रहे हैं। भारत के अधिकांश बाबा अपने आपको परमात्मा मानकर पूजा करवा रहे हैं। व्यक्तिवादी अनेक परमात्मा उत्पन्न हो गये हैं।ये पहले तो अब्राहमिक मजहबों की तरह मजहबी बने तथा बाद में अपने आपको ही परमात्मा मानने लगे हैं।ये सारे मिलकर सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र,संस्कृति से ही उपदेश चुराते हैं और फिर इसी में कमियां निकालकर गालियां देने लगते हैं। पारसी, यहुदी, ईसाई और इस्लाम पहले ही सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र के साथ अतीत में ऐसा कर चुके हैं लेकिन अब तो खुद हिंदू भी ऐसा ही करने पर उतारू हैं।इस समय के ही नहीं अपितु पिछले 150 वर्षों के दौरान पैदा हुये अधिकांश धर्मगुरु अब्राहमिक मजहबों की तरह सनातन धर्म,संस्कृति,दर्शनशास्त्र के साथ दुश्मनी निभा रहे हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने कुमारिल , मंडन मिश्र,शंकराचार्य के पश्चात् सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र के लिये सर्वाधिक प्रामाणिक, प्रशंसनीय और वास्तविक प्रयास किया था लेकिन उनकी असमय हत्या कर दी गई।हत्या करने वाले कोई और नहीं अपितु अब्राहमिक मजहबों के विचारक और शंकराचार्य के शिष्यों द्वारा गलत परंपरा को शुरू करने के फलस्वरूप पैदा हुये विभिन्न सांप्रदायिक विचारक ही थे।इस समय राजीव भाई दीक्षित भी इन्हीं के षड्यंत्र का शिकार हुये हैं।यह सबको पता है।

 संप्रदाय,मत या वाद वहीं तक सही होते हैं ,जहां तक वे सनातन धर्म,संस्कृति और दर्शनशास्त्र का समर्थन करता हों।जब भी वो इस सीमा का उल्लंघन करने लगें तो उन पर लगाम कसना आवश्यक होता है। शंकराचार्य के बाद वह लगाम बिल्कुल ढीली छोड़ दी गई है। शंकराचार्य के शिष्यों ने अतीत में एकतरफा अद्वैतवाद के रूप में खूब धींगामुश्ती की है। बाकी विचारक भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर वैचारिक कबड्डी खेलने का काम करते रहे हैं। सभी को यह आश्चर्यजनक लगेगा कि समय और परिस्थिति अनुसार खुद चार्वाक,आजीवक,महावीर, सिद्धार्थ गौतम आदि ने अपने अपने समय पर आई विकृतियों को दूर करके सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र के प्रचार-प्रसार के लिये प्रयास किये लेकिन शिष्यों - प्रशिष्यों को यह सब अपनी आजीविका और अहंकार के अनुकूल नहीं लगा। और परिणामस्वरूप अनेक मजहब उत्पन्न ही नहीं हुये अपितु खूनी संघर्ष भी खूब हुये हैं। बौद्ध राजाओं और भिक्षुओं द्वारा सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र को नष्ट करने करने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी।इसीलिये आज भी नवयानी बौद्ध अपने आपको सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र के समीप न कहकर ईसाईयत और इस्लाम के समीपस्थ महसूस करते हैं। राधास्वामी,रामकृष्ण मिशन, ब्रह्माकुमारीज, इस्कान,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,पतंजलि योगपीठ,सच्चा सौदा,धन धन सतगुरु,योग वेदांत समीति ,ईशा फाउंडेशन, ओशो धाम आदि सैकड़ों धार्मिक कहे जाने वाले संगठन सर्वमतसमभाव की आड़ में खुद तो अरबपति खरबपति बन बैठे हैं लेकिन ये सारे मिलकर सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र की बेतुकी और अमर्यादित आलोचना करते रहते हैं। और तो और हमें जो संवैधानिक व्यवस्था सन् 1947 ईस्वी के बाद मिली है,वह भी सनातन के विरोध और सर्वमतसमभाव के नकली सिद्धांत पर खडी हुई है।इस नकली सिद्धांत पर चलने के लिये सिर्फ हिन्दू को ही विवश किया जाता है। हिंदू को छोड़कर सभी मजहबों को उच्छृंखल आजादी प्रदान की गई है। इसलिये रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों ने तो अपने आपको सनातन धर्म से अलग करने के लिये न्यायालय तक की शरण ली थी। कितना विचित्र और हृदयविदारक है यह सब कि जिन मतों, संप्रदायों और वाद आदि का कर्तव्य सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र, नैतिकता, आचरण आदि को सुरक्षा कवच प्रदान करना था, पिछली कयी सदियों से वो सारे मिलकर इसी सनातन के विभिन्न घटकों पर प्रहार करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते हैं।

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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र- विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119

भागों नहीं अपितु सामना करो

सत्यनिष्ठा,कर्त्तव्यपरायणता, विश्वसनीयता आदि नैतिक जीवन मूल्यों के साथ साथ अपनी संतान को इतनी तिकड़मबाजी, चापलूसी और झूठ बोलना अवश्य सिखला देना कि वो भ्रष्टाचार,कपट,छल और रिश्वतखोरी के परिवेश में सफलता की सीढ़ियां चढ सकें। जिनके हाथों में सिस्टम की बागडोर है,सच जानिये कि वो सभी के सभी परले दर्जे के भ्रष्टाचारी, झूठे, कपटी, चापलूस और गिरगिटिया चरित्र के स्वामी हैं। ऐसे दुषित सिस्टम और गले सड़े परिवेश में नैतिक जीवन-मूल्यों को पूछने वाला कोई भी नहीं है। जिनके हाथों में सिस्टम है वो सभी अपनी संतानों को बढ़िया शिक्षा के लिये विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिये भेज देते हैं और बाकी बचे भारतीयों को नैतिकता, राष्ट्रवाद, राष्ट्रप्रेम और स्वदेशी पर चलकर तथा भारत के ही सडे गले विश्वविद्यालयों में शिक्षा लेने को विवश करते हैं।कुछ धूर्तों ने कपटाचरण करके आरक्षण के द्वारा अपने निशुल्क भोजन, पानी, औषधि और शिक्षा की व्यवस्था कर ली है तो नेता,धर्मगुरु, प्रशासनिक अधिकारी और अमीर घरानों के हाथों में राजसत्ता, धर्मसत्ता और धनसत्ता की बागडोर है। इन्होंने अपने जीवन में हर प्रकार की खुशहाली की भरपूर व्यवस्था कर ली है। बाकी बचे हुये भारतीयों के पल्ले में गरीबी,कुशिक्षा, बदहाली,शोषण, प्रताड़ना , ज़ुल्म के सिवाय कुछ नहीं है।अब भी संभल जाओ। यहां पर तो राष्ट्रवाद के सपने दिखलाने वाले नेता ही सबसे बडे देशविरोधी हैं। स्वदेशी के नारे लगाने वाले नेता और धर्मगुरु विदेशी सामान का उपभोग करके अय्याशी कर रहे हैं। धर्म और नैतिकता की दुहाई देने वाले धर्मगुरु,संत,संन्यासी,स्वामी और गुरु लोग सबसे बड़े अधार्मिक और अनैतिक हैं।सच तो यह है कि हमारे भारत के अधिकांश नेता, धर्मगुरु, योगाचार्य,संत, स्वामी, संन्यासी,सद्गुरु और सुधारक आदि सबसे अधिक भ्रष्ट,कामुक, झूठे, कपटी,छली, धूर्त, विदेशी सामान के उपभोक्ता और अनैतिक हैं।

 विश्वविद्यालयीन अध्ययन अध्यापन के दौरान पिछले डेढ दशक के दौरान हमने भी बेतहाशा ज़ुल्म, प्रताड़ना, अपमान, भेदभाव, जातिवाद और आर्थिक अभाव को झेला है। लेकिन हमने तो आत्महत्या नहीं की।हम तो डटे भी रहे हैं तथा जीवित भी रहे हैं।एक आईपीएस अधिकारी,उसकी आईएएस पत्नी, विदेश में बच्चे भी पढ़ रहे हैं,महंगे मकानों में रह रहे हैं तथा सरकार में पहुंच भी बहुत अधिक है - फिर भी प्रैसर को नहीं झेल पाये। काहे के आईपीएस और आईएएस अधिकारी हैं? इनकी यही ट्रैनिंग होती है कि प्रैसर आये तो आत्महत्या कर लेना? यहां विश्वविद्यालय में देखो - पीएचडी किये हुये हैं,कयी कयी विषयों में स्नातकोत्तर हैं। सैकड़ों रिसर्च पेपर प्रकाशित हो चुके हैं, पचासों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं,साथ में आयु और अनुभव के साथ एक चौथाई तनख्वाह भी नहीं मिल रही तथा सेवानिवृत्त होने पर भिखारी हो जाना पड़ेगा।इतने प्रैसर, अपमान, प्रताड़ना, भेदभाव और जातिवाद के बावजूद अपने शैक्षणिक कर्तव्य का नियमित निर्वहन कर रहे हैं।हम तो जीवित हैं,हम तो नहीं मरे, हमने तो आत्महत्या नहीं की।

 सरकार और सिस्टम द्वारा प्रचारित कर्त्तव्यपरायणता और सत्यनिष्ठा का हमारे लिये कोई पारिश्रमिक नहीं है।इस तरह की बातें सिर्फ कागजों तक सीमित हैं।जिसको भी मौका मिलता है,वह सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर जमकर धन दौलत को एकत्र कर रहा है।इसीलिये तो मैं बार बार कह रहा हूं कि थोडा बहुत आचार्य कौटिल्य को भी पढ लिया करो। अपनी संतान को आचार्य कौटिल्य से अवश्य अवगत करवाना तथा उनसे कहना कि भ्रष्ट राजनीतिक सिस्टम में कर्त्तव्यपरायणता, सत्यनिष्ठा, स्पष्टता, मेहनत और उचित पारिश्रमिक के लिये कोई स्थान नहीं है।आप,आपकी संतान और आपके निकट संबंधी तक भूखों मर जायेंगे। कोई भी पूछनेवाला नहीं होगा।यह दुनिया ऐसी ही है। यहां सभी उगते सूरज को सलाम करते हैं। मुसीबत पड़ने पर सबसे पहले वहीं मित्र साथ छोड़कर भागेंगे जिन्होंने हर हाल में साथ निभाने की कसमें खाईं थीं। यदि सिस्टम ठीक है तो आप भी ठीक रहना लेकिन यदि सिस्टम भ्रष्ट है तो फिर सिस्टम के साथ ही चलना बेहतर है।
यदि देह में कोई कमी आ जाये तो शुद्धि आदि करके उसको निरोग करना होता है,उस देह से अलग होकर उसको गालियां देना कोई समाधान नहीं है। और फिर यह ध्यान रहे कि महावीर, बौद्ध, चार्वाक आदि सभी सनातनी ही थे, उन्होंने किसी मजहब की स्थापना नहीं की थी। उनके देहावसान के पश्चात् यह दुकानदारी शुरू हुई थी।कुछ लोग अलग अलग नामों से यह दुकानदारी आज भी कर रहे हैं।एक ही पहलू से मत सोचो अपितु अन्य पहलुओं से भी सोचने का प्रयास करो। बाकी कुछ लोगों को गाली गलौज करने, कमियां निकालने और अपमान करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है।इस भेदभाव पर उनकी जबान पर ताले लग जाते हैं।आज जो लोग जातिवाद, सांप्रदायिकता, ऊंच-नीच और छुआछूत के नारे लगा रहे हैं,वो ही सबसे बडे जातिवादी, सांप्रदायिक, भेदभाव को प्रश्रय देने वाले और छुआछूत को बढ़ावा देने वाले हैं।

 कम या अधिक संख्या में स्वार्थी, निठल्ले और धूर्त लोग सदैव रहे हैं।आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।एक बहुत बड़ा सवाल यह भी है कि जिनका अतीत में शोषण हुआ था,वो शोषण के विरोध में खड़े क्यों नहीं हुये? क्या इतने कमजोर थे कि आवाज भी न उठा पाये? ज्ञात इतिहास में विरोध का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं है। कहीं यह तो नहीं है कि कुछ लोगों को मुफ्त का खाने, पीने,रहने आदि की पहले से ही लत पडी हुई है। अपनी इस लत को स्वीकार न करके औरों पर दोषारोपण करके खुद को बचाकर निकल जाने का जुगाड करने के नये नये तरीके तलाश किये जा रहे हैं!
आज राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, हरियाणा के मुख्यमंत्री आदि सभी दबे कुचले वर्ग हैं लेकिन फिर भी गाली गलौज किया जा रहा है।अरे भाई और क्या चाहिए?अब तो शासन प्रशासन सब तुम्हारा है।अब भी भेदभाव, ऊंच-नीच और प्रताड़ना क्यों हैं?कभी अपने वर्ग के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के विरोध में धरना प्रदर्शन करो कि हमारे ऊपर अत्याचार क्यों हो रहे हैं? लेकिन नहीं करेंगे और अब भी गालियां देंगे ब्राह्मण, बनिया,जाट, राजपूत आदि को।

कमी कहीं और नहीं अपितु कमी खुद में है।वह तो स्वीकार हो नहीं रहा,बस दोषारोपण शुरू। और इसके लिये वर्ग विशेष को संवैधानिक अधिकार मिले हुये हैं।जो सनातन से बाहर गये थे, क्या उनमें कमी नहीं थी?उनको दूध के धूले क्यों मान रहे हो?सारे प्रश्न सनातनियों से ही क्यों?जो स्वार्थ में भागकर गये थे, उनसे भी तो पूछो।

 कमियां निकालकर गालियां देने का धंधा बन गया है।हर व्यवस्था में समय के साथ विकृतियां आना स्वाभाविक है लेकिन उनके सुधार और परिष्कार की जिम्मेदारी न उठाकर पूरी व्यवस्था को ही गालियां देना या गलत कहना ठीक नहीं है।और नयी व्यवस्थाएं जो बनी हैं, क्या उनमें कमियां नहीं हैं? फिर उनको भी छोड दो।

दलितों और पिछड़ों के साथ अन्याय की बातों को बढ़ा चढ़ाकर बताने के प्रयास अंग्रेजी काल की शुरुआत में हुये थे।दलित ही दलितों के विरोधी अधिक है।इस समय देख लो- राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश दलित और पिछड़े वर्गों से हैं,इस समय पर दलित और पिछड़ों पर ज़ुल्म होने का कारण क्या दलित और पिछड़ों द्वारा शासित व्यवस्था नहीं है?लेकिन अब भी गालियां मनुस्मृति और ब्राह्मणों को दी जा रही हैं।मैं खुद पिछडे वर्ग से हूं। मुझे मेरे पिछड़े वर्ग वालों ने सदैव दबाकर रखने की कोशिश की है लेकिन मेरे ब्राह्मण,जाट आदि भाईयों ने मेरी सदैव मदद की है।हरियाणा में दलितों में भी दलित जातियों के दो दलित वर्ग बना दिए हैं। इसका विरोध सवर्ण नहीं अपितु खुद दलित ही कर रहे हैं तथा अपने ही अति दलित भाइयों को अधिकार नहीं देना चाहते।

जब खुद में कमी होती है तो दूसरे उसका फायदा उठाते हैं। दलितों में अपने खुद में भी कमियां रही हैं जिससे उन पर अत्याचार हुये तथा अब भी हो रहे हैं।पिछले 2500 वर्षों के कालखंड में अनेक दलित वर्ग के राजाओं ने राज किया है। दलित राजाओं के शासन में यदि दलितों पर अत्याचार होते रहे थे तो इसके लिए दलित ही जिम्मेदार अधिक हैं,सर्वण इतने जिम्मेदार नहीं थे। पिछले वर्षों के दौरान तथाकथित दलित वर्ग के लोग आये दिन सनातनी देवी देवताओं, मूल्यों, ग्रंथों, महापुरुषों को गालियां देकर अपमानित करते रहते हैं लेकिन इसके जुर्म के फलस्वरूप किसी पर भी प्राथमिकी दर्ज नहीं होती है। यदि कोई सवर्ण जातियों से संबंधित व्यक्ति दलितों के महापुरुषों, ग्रंथों या उनकी मान्यताओं पर जायज टिप्पणी भी कर देता है तो उस पर तुरंत एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज हो जाती है।यह भेदभाव क्या है? क्या समानता को मानने वाला संविधान इसकी इजाजत देता है? राजनीतिक दलों के नेता और दलित वर्गों के नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिये भारत को जातीय संघर्ष की तरफ धकेल रहे हैं।यह किसी भी तरह से राष्ट्रहित में नहीं है। इससे न तो दलितों का हित हो रहा है तथा न ही सवर्ण कहे जाने वालों का।इस भेदभाव, ज़ुल्म और नये प्रकार के जातिवाद पर रोक कौन लगायेगा? मुद्दा तो अधिकांश में भ्रष्टाचार, बलात्कार, स्वार्थ और कुछ अन्य ही होता है लेकिन उसे तुरंत जातीय रुप देकर जनमानस को एक दूसरे के विरोध में खड़ा करके सामाजिक ढांचे को कमजोर किया जा रहा है। अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त जातीय महामारी को आजादी के पश्चात् किसी भी राजनीतिक दल से समाप्त करने का प्रयास नहीं किया है। इस मामले जितनी दोषी भाजपा है उतनी ही दोषी कांग्रेस भी है। अपने राजनीतिक फायदे के लिये जहां भाजपा मनु और मनुस्मृति की आड़ लेकर सनातन धर्म और संस्कृति को कमजोर कर रही है वहीं पर कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की आड़ लेकर सनातन धर्म और संस्कृति को गालियां दे रहे हैं। बाकी दल और नेता तो अपने फायदे के लिये पलटी मारकर कभी कांग्रेस में और कभी भाजपा के पाले में जाकर बैठ जाते हैं।इस राष्ट्रविरोधी घटिया खेल में ये और इनके साथी अमीर घराने तथा धर्माचार्य और सुधारक तो भरपूर अय्याशी कर रहे हैं लेकिन भारत, भारतीय और भारतीयता कमजोर होते जा रहे हैं।

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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र- विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119

Friday, October 31, 2025

भारतीय ज्ञान परंपरा के परिप्रेक्ष्य म्हं 'दर्शनशास्त्र' की कहाणी


इस दुनिया म्हं पहला 'दर्शनशास्त्र' भारत नैं दिया था।जै किसै कै कोये शक संदेह हो तै ऋग्वेद का नासदीय सूक्त और  पुरुष सूक्त पढकै देख ल्यो।ज्यब या सृष्टि पैदा हुई, परमात्मा हैं हर तरहां का ज्ञान चार वेदां म्हं छंद रश्मियां के रूप म्हं दे दिया था।ब्यना ज्ञान के सृष्टि पैदा करण का कोये मतलब कोन्यां होत्ता।बस,इस्सै नैं ध्यान म्हं रखकै परमात्मा नैं सब तरहां का ज्ञान माणस सृष्टि बणाण के बख्त दे दिया था।वेद आज के कोन्यां।आज तैं एक अरब छाणवैं करोड़ आठ लाख तरेपन हजार एक सौ पच्चीस साल पहल्यां वेद दिये गये थे।सोच्चण,समझण अर किस्सै निर्णय पै पहोंचण खात्यर दर्शनशास्त्र का ज्ञान सबतैं जरूरी सै। परमपिता नैं जो वेद दिये थे,वै सबतैं पहल्यां चार ऋषि अग्नि, वायु,आदित्य अर अंगिका नैं साक्षात् करकै कट्ठे करकै एक जगहां पै बांधण का काम करया था।वै चारुं ऋषि दुनिया के सबतै पहले दार्शनिक थे।उन ऋषियां नैं अर उनके पाच्छै आज ताईं ब्रह्मा आदि हजारां ऋषियां नैं वेदां का प्रचार -प्रसार करकै सारी सृष्टि म्हं ज्ञान देवण का काम करया सै। तर्क करण, विचार करण, प्रमाण गैल्यां बात कहण, प्रश्न ठावण, बुद्धि तैं सोचकै निर्णय लेवण, समस्या की तह म्हं जाकै कारण नै टोहवण की परंपरा सारी दुनिया म्हं भारत के ऋषियां नैं फैलाई सै।आज अंग्रेजी शिक्षा कै प्रभाव म्हं कोये कुछ बी कहता रहवै,पर साच्ची बात याहे सै जो मनैं ऊप्पर बताई सै।
युनानी,रोमन,मिश्री,अरबी,चीनी, जापानी,अफ्रीकन जिसे सारे दर्शनां के मां,बाब्बू अर गुरु सब कुछ भारतीय दर्शनशास्त्र सै। युनानी थैलीज तैं लेकै सोफिस्ट,सुकरात, प्लेटो,अरस्तू ताईं, युनानी विचारकां के नक्शे-कदम पै चाल्लण आले अरबी विचारक, इस्लामी विचारक, यहुदी विचारक, ईरानी विचारक, ईसाई विचारक अंसेलम, बुद्धिवादी और अनुभववादी विचारक, युरोपीयन विचारक,अमेरिकी विचारक, आलोचनात्मक विचारक, अस्तित्ववादी विचारक, नारीवादी विचारक, समकालीन उच्छृंखल विचारक आदि सारे के सारे भारतीय दर्शनशास्त्र के ऋणी सैं। भारतीय दर्शनशास्त्र की किस्सै एक बात नैं पकडकै हनुमान की पूंछ की तरियां बढाकै दुनिया कै आग्गै धर देसैं।धन, दौलत अर प्रचार का जुगाड इन धोरै सैए। इसके हांगे तैं ये कुछ बी मनमाना करते आरे सैं अर इब बी करण लागरे सैं। 
 आज तैं 5000-6000 साल पहल्यां सृष्टि के मूल म्हं काम करण आले वेद सिद्धांत बतावण खात्यर छह दर्शनां का निर्माण करया गया था। मीमांसा दर्शनशास्त्र जैमिनी नैं,वैशेषिक दर्शनशास्त्र कणाद नैं, न्याय दर्शनशास्त्र गौतम नैं, सांख्य दर्शनशास्त्र कपिल नैं,योग दर्शनशास्त्र पतंजलि नैं अर वेदांत दर्शनशास्त्र बादरायण व्यास नैं ल्यक्खे थे।ये छहों दर्शनशास्त्र सूत्ररुप म्हं सैं।पाच्छै इनपै हजारां की संख्या म्हं भाष्य,टीका, व्याख्या आदि करे गये। भारतीय दर्शनशास्त्र के ये सारे ग्रंथ दुनिया के दर्शनशास्त्र के प्रेरणास्रोत रहे सैं।बस जरूरत सै इननैं पड्ढण,ल्यक्खण अर हर रोज के चालचलण म्हं उतारण की।ऊप्पर जिन छह दर्शनां का ज्यक्रा करया गया सै,उनम्हं कर्म कारण, उपादान कारण,प्रमाण कारण, सृष्टि बणावण की विधि अर प्रकृति पुरुष विवेक, योग-साधना कारण अर मूलनिमित्त कारण का भेद खोल्या गया सै। दुनिया के सारे दर्शनशास्त्र पाछले हजारां सालां तैं योए काम करण लागरे सैं।
अब्राहमिक संस्कृति क्योंके एकतरफा भोगवादी भौतिकवादी सै, इसलिये इसके दर्शनशास्त्र नैं फिलासफी कहवैं सैं।इस म्हं कोरे विचारां की कबड्डी घणी हो सै अर जीवन म्हं उतारकै उसै अनुसार जीवन जीण की कोये बी जरूरत ना समझी जाती।इसनैं इस्सै खात्यर भौतिकवादी फिलासफी बी कहवैं सैं।इननैं बाहरी संसार की सुख सुविधा तैं वास्ता खणा हो सै अर चेतना आदि लेणा देणा बहोत कम हो सै।अपणे स्वार्थ नैं पूरा करण खात्यर ये लोग किस्सै गैल्यां कुछ बी धोखाधड़ी अर विश्वासघात कर सकैं सैं।इस्सै उपयोगितावादी अर धोखाधड़ी की फिलासफी तैं प्रभावित होकै यवनां,अंग्रेजां,पुर्तगालियां,डच्चां,
डैनिसां,मंगोलां,मुगलां,अरबियां नैं दूसरे देशां म्हं जाकै खूब हमले करकै उन पै कब्जा करकै तानाशाही तैं हजारां सालां तै राज करया सै। दुनिया के इतिहास नैं पढकै कोये बी इस सच्चाई नैं जाण सकै सै। भारतीय दर्शनशास्त्र नैं कदे बी इसी घटिया, मारकाट मचाववण की, नरसंहार करण की ,बहन बेटियां की इज्जत आबरो नैं लूट्टण की,पूजा स्थलां नैं बर्बाद करण की अर ज्ञान के केंद्रा नैं जलावण की सीख कोन्यां दी सै। भारतीय दर्शनशास्त्र अर युनानी फिलासफी का यो भेद बहोत बड्डा सै।यो आज बी चालरया सै।
सही बात तैं या सै अक भारतीय दर्शनशास्त्र सदा तैं जीवण दर्शनशास्त्र रहया सै अर युनानी फिलासफी सदा तैं कोरे विचारां की कबड्डी रही सै। भारत म्हं दर्शनशास्त्र की जितणी बी शाखा प्रशाखा सैं,सारियां के मान्नण आले अनुयायियां की करोडां म्हं संख्या रही सै। युनानी अर युनानी फिलासफी तैं जन्मी पाश्चात्य फिलासफी म्हं या बात देक्खण नैं कोन्यां म्यलती। इस्सै खात्यर हजारां लाक्खां साल पुराणा भारतीय दर्शनशास्त्र आज बी दुनिया का सबतैं बढ़िया, सृजनात्मक, रचनात्मक,कृण्वंतो विश्वमार्यम् ,वसुधैव कुटुंबकम् नैं मान्नण जाणन आला दर्शनशास्त्र सै। दुनिया म्हं शांति,सद्भाव,भाईचारे, समन्वय,प्रेम, करुणा नैं फलावण खात्यर केवलमात्र भारतीय दर्शनशास्त्र तैं आशा बचरी सै।यो काम जितणे तकाजे तैं होज्या उतणाए बढ़िया सै।
युनानी,मिश्री, रोमन,अरबी,चीनी फिलासफी का प्रेरणास्रोत तै भारतीय दर्शनशास्त्र रहा ए सै, इसके साथ म्हं खुद भारत म्हं बी भारतीय दर्शनशास्त्र तैं प्रेरणा लेकै घणेए दर्शनशास्त्र पैदा होये। उनम्हं बृहस्पति,चार्वाक,मक्खली गौशाला,संजय वेलट्टिपुत्त,प्रकुध कात्यायन,निर्ग्रंथ नाथपुत्त,सिद्धार्थ बुद्ध,गौतम बुद्ध,तंत्र की विभिन्न शाखाएं,भागवत्,त्रैतवाद,द्वैतवाद, अद्वैतवाद,विशिष्टाद्वैतवाद,
शुद्धाद्वैतवाद,द्वैताद्वैतवाद,
शब्दाद्वैतवाद,शक्त्याद्वैतवाद,अचि़त्यभेदाभेदवाद आदि दर्शनशास्त्र दुनिया म्हं प्रसिद्ध सैं। वर्तमान काल म्हं बी भारतीय दर्शनशास्त्र म्हं महर्षि दयानंद , विवेकानंद,अरविन्द,रमण महर्षि, रविन्द्र नाथ , गांधी, जिद्दू कृष्णमूर्ति, ओशो रजनीश,श्रीराम शर्मा आचार्य, राजीव भाई दीक्षित,आचार्य बैद्यनाथ शास्त्री, राधाकृष्णन, कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ,सावरकर, अंबेडकर,आचार्य अग्निव्रत आदि सैकड़ों विचारकां अर दार्शनिकां नैं महत्वपूर्ण योगदान दिया सै।
 पहल्यां के समय पै सरकारी व्यवस्था धर्म, संस्कृति,योग, अध्यात्म, दर्शनशास्त्र,नैतिकता, तर्कशास्त्र,आयुर्वेद नैं घणाए महत्व दिया करती।पर इस समय भारत म्हं इनकी हालत बहोत खराब होरी सै।
महाभारत तैं पहल्यां के दार्शनिकां नैन जै छोड बी द्यां तै अर पाछले पांच छह हजार साल की बात करां तै भारतभूमि नैं हजारां प्रामाणिक दार्शनिक दिये सैं।उन म्हं जैमिनी, कणाद,गौतम,कपिल पतंजलि ,बादरायण व्यास, महर्षि वेदव्यास, गौड़पाद, गोविंदपाद,कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, गौड़पादाचार्य, शंकराचार्य, प्रभाकर,नागार्जुन,धर्मकीर्ति, अश्वघोष,चंद्र कीर्ति,असंग,वसुबंधु, शान्तरक्षित, आर्यदेव, दिग्नाग,कुंदकुंदाचार्य, उमास्वाति, अकलंक,सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र ,ईश्वर कृष्ण, विज्ञानभिक्षु, वाचस्पति मिश्र, वात्स्यायन,उद्योतकर,उदयन, जयंत भट्ट,गंगेश उपाध्याय,श्रीधर,,श्री हर्ष,प्रकाशानंद, रामानुजाचार्य,वेंकटनाथ, माध्वाचार्य, जयतीर्थ,व्यास देव, निंबार्क आचार्य, वल्लभाचार्य, वसुगुप्त, अभिनव गुप्त, भास्कराचार्य जिसे हजारां दार्शनिक होये सैं।इननैं संसार अर संसार तैं पार के विषयां पै उट्ठण आली सारी समस्यां पै गंभीरता तैं मात्थापच्ची करकै नये नये विचार ,सिद्धांत अर निष्कर्ष दुनिया के आग्गै रक्खे सैं।
भारतीय दर्शनशास्त्र म्हं एक दौर वो बी आया ज्यब चार्वाक अर तंत्र की आड़ लेकै घणेए इसे दर्शनशास्त्री पैदा होगे,जिननैं सनातन धर्म,संस्कृति अर दर्शनशास्त्र पै ए हमले शुरू कर दिये थे।इन सबनैं शास्त्रार्थ म्हं पराजित करकै दोबारा तैं सनातन धर्म,संस्कृति अर दर्शनशास्त्र नैं स्थापित करण का काम कुमारिल, मंडन मिश्र अर शंकराचार्य नै करया था।
भारतीय दर्शनशास्त्र दुनिया का एकमात्र इसा दर्शनशास्त्र सै,जिसम्हं वैचारिक आजादी मौजूद सै। बाकी के किसै बी दर्शनशास्त्र म्हं थोड़ी बहोत आजादी तै म्यलज्यागी,पर भारतीय दर्शनशास्त्र जितणी आजादी कितै बी कोन्यां म्यलती। युनानी फिलासफी म्हं बी आजादी कोन्यां दिखती।जै उडै वैचारिक आजादी होती तै सुकरात जहर देकै ना मारा जाता। भारत म्हं तै वैचारिक आजादी इतणी सै अक परमात्मा नैं नकारण आले बृहस्पति को गुरुआं का गुरु अर महर्षि कहया गया सै।खुद शंकराचार्य नैं साठ से अधिक संप्रदायां गैल्यां शास्त्रार्थ करया था। सिद्धार्थ बुद्ध के समय पै बी सैकडां मत अर संप्रदाय मौजूद थे।इस तरहां का यो विचारां,मतां अर संप्रदायां की स्थापना करकै फलण फूलण की आजादी भारत में पहल्यां बी थी,आज भी सै अर आग्गे बी रहण की आशा सै।पर वैचारिक आजादी का ज्यब ज्यब भारत की एकता अर अखंडता खात्यर दुरुपयोग होया तै उननैं उस समय के दार्शनिकां अर शासकां नैं दंड भी दिया था। अब्राहमिक मजहबां म्हं या आजादी आज बी कोन्यां म्यलरी सै।इस वैचारिक आजादी नैं कायम राखण खात्यर अधिकार अर कर्त्तव्यां म्हं संतुलन बहोत जरुरी सै।
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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र- विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119
मोबाइल -9813013065

Tuesday, October 21, 2025

दिवाली के शुभ अवसर पर तृतीय दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन (Third race competition organized on the auspicious occasion of Diwali)

 

धर्म, दर्शन, साहित्य, राष्ट्रवाद, हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को समर्पित, शोध के क्षेत्र में कार्य करने वाली तथा आचार्य शीलक राम जी द्वारा संचालित आचार्य अकादमी चुलियाणा (पंजी.) द्वारा होली के शुभ अवसर पर तृतीय दौड़ प्रतियोगिता का सफल आयोजन रवि भारद्वाज द्वारा संचालित मास्टर धर्मपाल क्रिकेट अकादमी दिमाना में किया गया। इस प्रतियोगिता में चुलियाणा व दिमाना  के गावों के 150 से ज्यादा लडके व लडकियों ने पांच अलग-अलग आयु वर्ग में भाग लिया। सभी प्रतिभागियों को आचार्य अकादमी की तरफ से रिफरैसमेंट व सभी विजेताओं को स्मृति चिन्ह तथा नकद ईनाम राशि भी प्रदान की गई। इस अवसर पर मुख्य अतिथि डॉ देवेंद्र हुड्डा जी पूर्व प्राचार्य राजकीय महाविद्यालय सांपला रहे। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि ग्रामीण क्षेत्र में आचार्य शीलक राम व आचार्य आकादमी चुलियाणा द्वारा इस प्रकार के आयोजन करना बहुत ही गर्व की बात है। आज जबकि नवयुवक नशे जैसी बुराईयों की ओर जा रहे हैं तो उनका मुकाबला करने के लिए इस प्रकार के आयोजन होते रहने चाहिए। प्रोफेसर रोशन लाल रोहिल्ला ने अपने संबोधन में कहा कि आचार्य शीलक राम व आचार्य अकादमी चुलियाणा द्वारा यह एक बहुत ही अच्छी पहल है तथा आगे भी इस प्रकार के सफल आयोजन करने के लिए बधाई दी। प्रोफेसर पवन कुमार व सुश्री श्रुति डबास ने भी सभी प्रतिभागियों को आशीर्वाद दिया। डॉ. सुरेश जांगडा ने बताया कि आचार्य अकादमी द्वारा यह तृतीय दौड़ प्रतियोगिता है तथा भविष्य में भी प्रतिवर्ष होली व दिवाली के अवसर पर इस प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता रहेगा। इसके अलावा आचार्य अकादमी चुलियाणा कई बार क्रिकेट प्रतियोगिता का भी सफल आयोजन करवा चुकी है। उन्होंने यह भी बताया कि उपरोक्त प्रतियोगिता बिल्कुल निशूल्क करवाई गई है तथा आचार्य अकादमी चुलियाणा अपने चौदह साल के दौरान दो हजार से ज्यादा देश विदेश के कवियों, लेखकों, साहित्याकारों को सम्मानित भी कर चुकी है। उन्होंने यह भी बताया कि आचार्य अकादमी हर साल श्रीमती हेमलता हिन्दी साहित्य (गद्य, पद्यादि) पुरस्कार, राजीव भाई दीक्षित भारतीय इतिहास, आयुर्वेद, स्वदेशी व राष्ट्रभक्ति पुरस्कार, स्वामी दयानन्द सरस्वती दर्शनशास्त्र पुरस्कार, स्वदेशी, राष्ट्रवाद, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति पुरस्कार, चौधरी छोटूराम किसान, मजदूरी और शिक्षा पुरस्कार व बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर समानता व समता पुरस्कार हर साल प्रदान करती है। आचार्य अकादमी लगातार ग्यारह शोध अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं  का प्रकाशन भी कर रही है। जिनमे प्रमाण अंतरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका  (आईएसएसएन : 2249-2976), चिन्तन अंतरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन :2229-7227), हिन्दू अंतरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन:2348-0114), आर्य अंतरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2348876X) व द्रष्टा अंतरराष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2277-2480) प्रमुख है।

Thursday, September 4, 2025

वैज्ञानिक के साथ धार्मिक और नैतिक होना भी आवश्यक है (Apart from being scientific, it is also necessary to be religious and moral.)


इस सच्चाई पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो गया है कि जीवन और जगत् में हरेक समस्या, परिस्थिति और विषय को विज्ञान की कसौटी पर ही क्यों कसा जाये?यह दृष्टिकोण ही स्वयं में अवैज्ञानिक है। सर्वप्रथम विज्ञान को ही क्यों न विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये? विज्ञान, विज्ञान में शोध, विज्ञान में प्रयुक्त शोध विधियों,विज्ञान में प्रयोग, विज्ञान की प्रयोगशालाओं,प्रयोग के उपरांत प्राप्त निष्कर्षों,इन निष्कर्षों से विभिन्न प्रकार की तकनीक निर्माण, इन तकनीक के सहारे जमीन से खनिजों की खुदाई, वृहद स्तर पर उपभोक्ता सामान का निर्माण, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खेती-बाड़ी में प्रयोग खतरनाक दवाईयों का निर्माण, चिकित्सा के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों का औषधीय बाजार, बड़े बड़े बांधों का निर्माण, विध्वंशक हथियारों का निर्माण, परिवहन के साधनों की व्यवस्था, धरती के पर्यावरण को नष्ट करने वाले वातानुकूलित यंत्रों का निर्माण, आलीशान कंक्रीट के भवनों का निर्माण आदि आदि सभी कुछ हमें विज्ञान ने ही तो प्रदान किया है। पिछले 300 वर्षों के दौरान विज्ञान की चमत्कारी खोजों का इस धरती को कितना फायदा और कितना नुक़सान हुआ है - इस पर वैज्ञानिक ढंग से सोचने की कभी कोशिशें हुई हैं? क्या तीन सदियों के दौरान हुये विज्ञान के बल पर विकास को विज्ञान की कसौटी पर कसने के कोई प्रयास हुये हैं? नहीं,नहीं और नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। वैज्ञानिक, खोजी,दार्शनिक, विचारक, तार्किक,शिक्षक, नेता, धर्मगुरु आदि सभी इस पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। इनकी चुप्पी को कभी किसी ने विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखा है? विज्ञान की आड़ लेकर पिछली तीन सदियों से संसार का सबसे अधिक शोषण किया जा रहा है। यदि कोई इस पर कुछ विरोध करे तो उसे अवैज्ञानिक, परंपरावादी, पिछड़ा,रुढ़िवादी और गंवार कहकर चुप करवाने की कोशिशें की जाती हैं। दिक्कत यह है कि पूरा सिस्टम भी इन तथाकथित वैज्ञानिक सोच के लोगों के साथ खड़ा मिलता है।इनके लिये न तो मानवीय मूल्यों की कीमत है,न पाशविक जगत् के प्राणियों के प्रति कोई हमदर्दी है,न पेड़ -पौधों -जंगलों- जल -वायु आदि को शुद्ध रखने की जिम्मेदारी का कर्तव्य है।हर तरफ से यह धरती विज्ञान के दुरुपयोग के सहारे विनाश, विध्वंस, युद्धों से ग्रस्त है।

सिस्टम से हार -थककर कोई समझदार व्यक्ति दो दिशाओं में अपने जीवन को ढालता है।एक नास्तिकता की तरफ तथा दूसरा आस्तिकता की तरफ। जनसाधारण को सिस्टम से कोई अधिक दिक्कत न पहले रही है तथा न अब कोई दिक्कत है। जनसाधारण को किसी भी दिशा में मोड़कर उसका शोषण किया जा सकता है।उसे नास्तिक भी बनाया जा सकता है तथा आस्तिक भी बनाया जा सकता है। जनसाधारण को आस्तिक या नास्तिक होने में कोई रुचि नहीं होती है।उसको तो कुछ शोषक नास्तिक या आस्तिक विचारकों द्वारा अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित करने का साधन मात्र बनाया जाता है। हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है। जनसाधारण केवल पेट में जीता है,सिर में जीने की उसे फुर्सत ही नहीं है।भ्रष्ट और शोषक सिस्टम में पिसते पिसते वह नमक तेल आटा कपड़े का जुगाड करते करते अपने कंधों और घुटनों को तुड़वा बैठता है।बस ऐसे ही एड़ियों को घिसते घिसते तथा तथाकथित नास्तिक या आस्तिक किसी शोषक धर्मगुरु या नेता या सुधारक की गुलामी करते करते वह इस संसार से चला जाता है। पीछे छोड़ जाता है वही पुराना शोषण, गुलामी, दासता, गरीबी और बदहाली।इस जनसाधारण वर्ग से कभी कोई कबीर या रविदास या नानक आस्तिक होकर आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो तो तुरंत नकली आस्तिकों के झुंड उनके चारों तरफ दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं तथा उनके नाम पर भी मजहब बनाकर फिर से जनसाधारण का शोषण शुरू कर दिया जाता है। जहां तक कमाकर खाने और जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की बात है,न तो आस्तिकों के तथाकथित महापुरुष लोग स्वयं की मेहनत का खाते पीते हैं तथा न ही नास्तिकों के। दोनों ही जमकर जनसाधारण का शोषण करते हैं। युनानी विचारक प्लेटो ने तो घोषणा ही कर रखी थी कि दुनिया पर शासन करने का अधिकार सिर्फ धनी मानी,अमीर ,फिलासफर लोगों को है। जनसाधारण सिर्फ शासित हो सकता है,शासक नहीं। पहले मनमाने और मनघड़ंत नियमों, कानूनों का संविधान बना दो और फिर इन्हीं को आधार बनाकर जनसाधारण पर दमनपूर्वक शासन करो! और आश्चर्यजनक तो यह है कि इसी लोकतंत्र और जनतंत्र कहकर सबसे विकसित और मानवीय राजनीतिक व्यवस्था प्रचारित किया जाता रहा है।जिसकी लाठी उसी की भैंस।

जो काम सौंदर्य के आकर्षण के बल पर शीघ्रता से किये और करवाये जा सकते हैं,वो कठोर मेहनत और प्रतिभा के बल पर नहीं करवाये जा सकते। संसार में जो सफलता सुंदरता,नयन -नक्श, आकर्षक अदाओं, मनमोहक वाक् शैली और  कामुक चाल-ढाल के माध्यम से दिनों में मिल सकती है वो सफलता हाड़तोड़ मेहनत, योग्यता और प्रतिभा के माध्यम से आजीवन भी उपलब्ध होना असम्भव है।इस संसार को बना ही कुछ ऐसा दिया गया है कि यहां पर शबाब, शराब और कबाब के जरिये किसी बड़े पद पर बैठे हुये व्यक्ति से या नेता से या धर्मगुरु से या अमीर व्यक्ति से कुछ भी करवाया जा सकता है। उसकी हिम्मत नहीं कि वह मना कर दे। सफलता के इस रहस्य को जानते सभी हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से कहने की हिम्मत किसी की भी नहीं है। कहने वाले को या किसी नकली मुकदमे में फंसा दिया जायेगा या हत्या करवा दी जायेगी। प्रचार कुछ और हकीकत कुछ अन्य ही।माल कुछ दिखाते हैं और सप्लाई कुछ अन्य ही करते हैं। कामुकता हरेक व्यक्ति ही नहीं अपितु हरेक प्राणी की कमजोरी है।बस मनुष्य सदैव कामुक रहता है जबकि अन्य प्राणी संतानोत्पत्ति के लिये ही कामुक होते हैं। जनसाधारण क्या और विशिष्ट क्या - सभी के लिये कामुकता और सौंदर्य विशेष महत्व रखते आये हैं।बस,पशु और पक्षी अपनी कामुकता, अपने सौंदर्य और अपनी मनमोहक अदाओं का अधिक दुरुपयोग नहीं कर पाते हैं जबकि मनुष्य प्राणी ने तो इस क्षेत्र में सारे रिकॉर्ड तोड़ रखे हैं।इस क्षेत्र में मादा मनुष्य बहुत आगे है।हर कोई तो ऐसा नहीं करता है लेकिन अधिकांश के संबंध में यह सच है। भौतिक विज्ञान ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो लेकिन बड़े बड़े वैज्ञानिक, विज्ञान के शिक्षक, विज्ञान के शोधार्थी आदि भी कामुकता,सौंदर्य और काम बाणों से नहीं बच पाते हैं।उनकी सारी प्रतिभा, उनके विचार,चिंतन,तर्क,अनुसंधान आदि धरे के धरे रह जाते हैं। दुनिया का इतिहास उठाकर पढ़कर देख लो, बड़े -बड़े धुरंधर वैज्ञानिक, दार्शनिक,विचारक, नेता,राजा,सम्राट,किंग,प्रशासक आदि ने सौंदर्य और कामुकता के सामने सहज ही समर्पण कर दिया था।आज भी ऐसा ही हो रहा है।हरेक देश में बड़े- बड़े नेताओं, मंत्रियों, राजदूतों,उद्योगपतियों, शिक्षकों, धर्माचार्यों, अधिकारियों,न्यायविदों, अपराधियों के पास अपनी वैवाहिक जिन्दगी के अतिरिक्त अवैध नारी मित्र या पुरुष मित्र मिलते हैं।जो अमीर और बड़े लोग हैं, उनका दुराचरण भी सदाचरण की श्रेणी में गिना जाता है। लेकिन जनसाधारण किसी की तरफ कामुक नज़रों से देख भर ले तो पता नहीं कितने एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज हो जायेंगे। यही आधुनिक विकास की परिभाषा और शैली है। भारतीय नेताओं और नीति निर्माताओं ने तो अपनी सुविधा और उच्छृंखल भोग -विलास के लिये 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे कानून बना रखे हैं। क्या गजब के राष्ट्रवादी और धर्मप्रेमी प्रकृति के सांस्कृतिक लोग हैं।

संसार में ऐसा कौनसा दर्शनशास्त्र, ऐसी कौनसी फिलासफी,ऐसी कौनसी विचारधारा, ऐसा कौनसा सिद्धांत, ऐसा कौनसा संप्रदाय, ऐसा कौनसा मजहब, ऐसा कौनसा महापुरुष हैं जिसकी आड़ लेकर इन्हीं के अनुयायियों ने उपरोक्त को जनमानस की लूट और अपने स्वयं को मालामाल करने के लिये दुरुपयोग नहीं किया गया हो। किसी का कम तो किसी का अधिक सभी का दुरुपयोग हुआ है। दुरुपयोग करने वाले कोई अन्य ग्रहों से आये व्यक्ति नहीं अपितु इनके स्वयं के नजदीकी भक्त लोग ही रहे हैं।हर सही को ग़लत,हर नैतिक को अनैतिक तथा हर मानवीय को अमानवीय बना देने का हूनर अनुयायियों, भक्तों और नकल करने वालों में मौजूद होता है।इसका पता अनुयायियों के आराध्य महापुरुषों को होता भी है। लेकिन कुछ तो इसलिये चुप रह जाते हैं कि उनकी सोच ही लूटेरी,शोषक और भेदभाव की होती है और कुछ इसलिये चुप रह जाते हैं कि क्योंकि उनको मालूम होता है कि अनुयायी, भक्त, नकलची लोग ऐसे ही होते हैं। उपरोक्त दोनों हालात में जनमानस ठगा जाता है। उपरोक्त दोनों से उत्पन्न ऊहापोह के कारण सत्य के खोजियों को ही दिक्कत होती है। सत्य के खोजियों के लिये कंकड़-पत्थर से हीरे निकालने के समान मेहनत करनी पड़ती है।
भारत में पिछले 100-150 वर्षों के दौरान पैदा हुये धार्मिक,आध्यात्मिक, सुधारात्मक संगठनों ने राष्ट्रवासियों के चरित्र-निर्माण,सेवा, साधना आदि  की अपेक्षा स्वयं की प्रसिद्धि,अनुयायियों की भीड़ बढ़ाने,भव्य आश्रम निर्माण करने, राजनीति में दखलंदाजी तथा स्वयं के लिये भोग विलास की सुविधाएं एकत्रित करने पर अधिक ध्यान दिया है। आर्यसमाज ने भारत को सर्वाधिक राष्ट्रभक्त और विचारक प्रदान किये हैं। लेकिन अपने शुरुआती वर्षों में पंडित गुरुदत्त,स्वामी श्रद्धानंद,लाजपत राय, जगदेव सिद्धांती,पंडित भगवद्दत्त, आर्यमुनि,आचार्य उदयवीर, युधिष्ठिर मीमांसक,रामचंद्र देहलवी, स्वामी स्वतंत्रानंद,स्वामी ओमानंद आदि सैकड़ों महापुरुषों को उत्पन्न करने के पश्चात् जैसे सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र, वैदिक जीवन -मूल्यों और संस्कृति के अध्ययन,अध्यापन,शोध,लेखन, शास्त्रार्थ,त्याग, सेवा, तपस्या, गुरुकुल शिक्षा से जैसे किनारा ही कर लिया है। आजकल के अधिकांश धर्माचार्यों, शंकराचार्यों,महामंडलेश्वरों, संतों, साधुओं ,स्वामियों, संन्यासियों, योगियों, कथाकारों और सुधारकों ने नेताओं,प्रैस और उद्योगपतियों से सांठगांठ करके अपने साम्राज्य खड़े करने शुरू कर रखे हैं।


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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र-विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र- 136119

मोरल,फिलासफिकल और साइकोलॉजिकल काउंसलिंग : सत्य,तथ्य या भ्रम? (Moral, philosophical and psychological counselling: Truth, fact or myth?)


 कोई व्यक्ति धूर्त होकर अपने आपको सज्जन दिखलाने का ढोंग कब तक करने में सफल हो सकता है? कोई व्यक्ति परले दर्जे का अय्याश और ढोंगी होते हुये भी अपने आपको कब तक संयमी दिखलाने में सफल हो सकता है? एक व्यक्ति झूठा, धोखेबाज और स्वार्थी होकर भी अपने आपको कब तक सत्यवादी, निष्कपट और निस्वार्थी दिखलाने में सफल हो सकता है? ध्यान रहे कि हमारे तथाकथित उच्च -शिक्षित और उच्च -कोटि के महापुरुष कहलवाने वाले सुधारक, नेता, धर्माचार्य, पूंजीपति, कथाकार, प्रोफेसर, प्रशासनिक अधिकारी, स्वामी, संन्यासी, फकीर,फादर, मौलवी,योगाचार्य, सद्गुरु आदि इस कला में पारंगत होते हैं। छोटे स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड जल्दी हो जाता है लेकिन बड़े स्तर के महापुरुषों का भांडाफोड आजीवन नहीं होता है।हां, कोई आशाराम या गुरमीत राम या रामपाल आदि का जल्दी भांडाफोड हो जाता है और वो जेल पहुंच जाते हैं। लेकिन वो फिर भी मूढों और बेवकूफों के आदरणीय भगवान् बने रहते हैं। जनसाधारण की तो बात ही क्या करें,वह  सुबह कुछ है, दोपहर को कुछ और है तथा शाम को कुछ अन्य ही हो जाता है।वह अपने कपट,छल, ईर्ष्या,द्वेष, कामुकता, धूर्तता को अधिक समय तक छिपाने में सफल नहीं हो पता। इसीलिये जन-सामान्य की नजरों में वह महान या बड़ा नही है। अपने नित्यप्रति के आचरण के इस दोगलेपन की चिकित्सा या काउंसलिंग किसी भी काउंसलर या काउंसलिंग के पास उपलब्ध है?साईकोलाजिकल या फिलासाफिकल काउंसलिंग के माध्यम से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौजूद नैतिक या वैचारिक या भावनात्मक या मानसिक या सैद्धांतिक अस्थिरता, द्वंद्व,असामान्यता आदि को ठीक करने पर व्याख्यान,लैक्चर, गोष्ठियां आदि तो खूब होते हैं लेकिन परिणाम बिल्कुल शून्य है। जनसाधारण हो या विशिष्ट हो, नेता हो या उच्च -अधिकारी हो, प्रोफेसर हो या मनोचिकित्सक हो, कथाकार हो या योगाचार्य हो, काउंसलर हो या चिकित्सक हो- सभी के सभी पहले की अपेक्षा और भी अधिक धूर्त, ईर्ष्यालु,कामुक, स्वार्थी, झूठे, लालची ,हताश, अकेले और आचरण के दोगलेपन से ग्रस्त होते जा रहे हैं। किसी असामान्य व्यक्ति की साईकोलाजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग करने की चिकनी चुपड़ी- बातें सुनने में बड़ी मजेदार लगती हैं लेकिन जब परिणाम दिखलाने की बात आती है तो स्वयं काउंसलर भी लड़ाई -झगडे पर उतर आते हैं।उस समय तो लगता है कि जनसाधारण की अपेक्षा इन तथाकथित काउंसलिंग करने वाले काउंसलर को ही काउंसलिंग की सर्वाधिक आवश्यकता है, यदि कोई काउंसलिंग हो सकती हो तो! आप काउंसलिंग से संबंधित किसी भी व्याख्यान, लैक्चर,गोष्ठी, सैमिनार में जाईये, आपको वही रटी रटाई तथा घिसी पिटी सुकरात,देकार्त,फ्रायड,एडलर,जुंग,  मैचिन, रोजर्स,पार्संस, मैस्लो की उबाऊ बातें सुनने को मिलेंगी। हां, अपने आपको कुछ अलग दिखलाने के लिये भारत में आजकल कुछ काउंसलर ने अष्टांगयोग, विपश्यना, प्राणापान,प्रेक्षा ,साक्षी और कृष्णमूर्ति के अवलोकन को भी अपने काउंसलिंग से संबंधित व्याख्यानों, आलेखों और पुस्तकों में सम्मिलित कर दिया है। लेकिन ऐसे काउंसलर के चरित्र और आचरण में सनातन भारतीय योगविद्या, योगाभ्यास और अध्यात्म का अ ,आ, इ ,ई भी अभ्यास और अनुशासन में नहीं है।बस ,अपने अपने व्याख्यानों, लैक्चर और पुस्तकों को आकर्षक बनाने के लिये ये ऐसा कर रहे हैं। प्रायोगिक सृजनात्मक परिणाम की जहां तक बात है,न तो पश्चिम में तथा न ही भारत में किसी काउंसलर ने आज तक कुछ भी करके दिखलाया है। सभी के सभी काउंसलर बस विचारों, सिद्धांतों और विधियों की जुगाली करते जा रहे हैं। द्वितीय महायुद्ध से लेकर अब इजरायल-अरब  युद्ध,रुस- युक्रेन युद्ध,भारत- पाकिस्तान युद्ध सहित अन्य किसी भी क्षेत्र में व्याप्त नैतिक, वैचारिक, भावनात्मक, दार्शनिक, चारित्रिक, सैद्धांतिक आदि मुद्दों की विषमता पर कुछ भी सृजनात्मक और रचनात्मक करके दिखलाया हो तो बतलाओ।बस, सभी के सभी टाईमपास कर रहे हैं या काउंसलिंग की आड़ में दुकानदारी कर रहे हैं या प्रसिद्ध होने की सनक का शिकार हैं।
पश्चिम वाले तो अपनी उपयोगितावादी फिलासफी को जैसे तैसे बचा लेंगे लेकिन आप लोग अपने दर्शनशास्त्र को कैसे बचाओगे? इस फिलासफिकल काउंसलिंग के माध्यम से आपने तो दर्शनशास्त्र विषय को ही समाप्त करने का जुगाड कर लिया है। भारत में पहले ही दर्शनशास्त्र-विभाग बंद हो रहे हैं।क्योंकि हमारे दर्शनशास्त्रियों, नेताओं, नीति-निर्माताओं की मूर्ख सोच के कारण विद्यार्थियों की इस विषय में कोई रुचि नहीं रह गई है। इनकी बेवकूफी और उपेक्षा के कारण यह विषय न तो रोजगार दे पा रहा है,न चरित्र दे पा रहा है,न नैतिक मूल्य दे पा रहा है,न तर्क दे पा रहा है तथा न ही प्रामाणिक विचारक दे पा रहा है। होना तो यह चाहिये था कि आप भारतीय बच्चों को भारतीय दर्शनशास्त्र के अंतर्गत न्यायशास्त्र,ज्ञानशास्त्र,तर्कशास्त्र,नीतिशास्त्र, योगशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन,अध्यापन और शोध आदि करने करवाने पर जोर देते। लेकिन आपने ऐसा नहीं करके दर्शनशास्त्र विषय की बजाय स्वयं के प्रसिद्ध हो जाने पर अधिक जोर -आजमाइश की है।पश्चिम वाले तो अपनी फिलासफी के अनुसार उपयोगितावादी, स्वार्थी, उन्मुक्त भोगी और यूज एंड थ्रो के अनुसार जीवन यापन कर रहे हैं लेकिन भारतीय न तो पाश्चात्य हो पा रहे हैं तथा न ही भारतीय हो पा रहे हैं। अपने दर्शनशास्त्र की उपेक्षा और पाश्चात्य की अंधी नकल ने भारतीयों को कहीं का भी नहीं छोड़ा है। इनकी हालत न यहां के रहे, न वहां के रहे वाली हो चुकी है।
यह भी बड़ा दिलचस्प है कि तांत्रिक टोने- टोटके और झाड़-फूंक से नित्यप्रति के जीवन की समस्याओं के समाधान की बात जितनी लोकप्रिय भारत में है ,उतना ही लोकप्रिय युरोप और अमरीका आदि में भी है।बस, फर्क यह है कि भारत के संबंध में मीडिया द्वारा दुष्प्रचार अधिक कर दिया जाता है जबकि युरोप और अमरीका के संबंध में इसे छिपा लिया जाता है।जिसकी लाठी,उसी भैंस वाली कहावत यहां भी लागू हो रही है। पश्चिम और भारत में आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व वो लोग करते हैं जो कभी न कभी अपने जीवन की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, वैचारिक आदि समस्याओं के समाधान के लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास अवश्य गये होंगे तथा अब भी जाते हैं। समस्याग्रस्त या असामान्य व्यक्ति का लिये तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास जाकर अपनी समस्याओं का समाधान करवाना क्या सही है या गलत - इस संबंध में भी अंधेरगर्दी मिलती है। यदि बहुत से व्यक्तियों को अपनी समस्याओं का समाधान इन बाबाओं, तांत्रिकों और ज्योतिषियों के पास मिल जाता है तो इन्हें काउंसलर कहा जायेगा या नहीं कहा जायेगा - इस संबंध में साईकोलाजिकल और फिलासफिकल काउंसलर का नकारात्मक दृष्टिकोण उनके खुद को बिमार होने की ओर संकेत करता है।यह नहीं होना चाहिये।
 एक व्यक्ति का होना बहुत से सिस्टम और तंत्रों का सम्मिलित रुप से मौजूद होना है।एक व्यक्ति में अनेक सिस्टम या तंत्र काम कर रहे हैं,इन सबके सम्मिलित ढांचे को व्यक्ति कहते हैं। यदि व्यक्ति के आत्मिक स्वरूप को कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाये तो एक व्यक्ति में लसिका तंत्र,हड्डी तंत्र,धातु तंत्र,नलिकाविहीन ग्रंथि तंत्र,पाचन तंत्र, मूत्र विसर्जन तंत्र, श्वास तंत्र,चक्र तंत्र,त्रिदोष तंत्र, त्रिगुण तंत्र,पंचकोश तंत्र,सप्त शरीर तंत्र आदि होते हैं। कोई व्यक्ति जब असामान्य या असहज होता है तो उसे कौनसी काउंसलिंग देना चाहिये ताकि वह व्यावहारिक, तार्किक, मानसिक, वैचारिक रुप से ठीक हो जाये? कोई व्यक्ति जब असहज या असामान्य होता है तो उस व्यक्ति के कौनसे हिस्से में विकार आता है कि काउंसलिंग द्वारा जिसके ठीक किये जाने से वह व्यक्ति ठीक हो जायेगा? सामाजिक परिवेश, व्यक्तिगत परिवेश,उस व्यक्ति का स्थूल शरीर, प्राण शरीर,मनस शरीर आदि में से किसकी चिकित्सा या काउंसलिंग द्वारा वह व्यक्ति ठीक हो सकेगा - इसका निर्धारण कैसे होगा? एक व्यक्ति के कौनसे सिस्टम या तंत्र की चिकित्सा या काउंसलिंग करने से वह व्यक्ति खुद ठीक ठीक महसूस करेगा - काउंसलिंग इस संबंध में हवा में लाठियां चलाते हुये नजर आते हैं। पाश्चात्य और उसकी नकल करके बनाई गई भारतीय काउंसलिंग में हरेक काउंसलर मोरल या साइकोलॉजिकल या फिलासफिकल काउंसलिंग पर टिककर नहीं रहता है।एक प्रकार की काउंसलिंग को शुरू करके वह अन्य प्रकार की काउंसलिंग को भी जबरदस्ती करके प्रवेश करवाकर एक बेमेल ऐसा दलिया तैयार कर देता है जो न तो कोई पोषण देता है,न खाने में स्वादिष्ट है तथा न ही  अधिक दिन तक टिक सकता है।मोरल वाले मोरल तक, साइकोलॉजिकल वाले साइकोलॉजिकल तक तथा फिलासफिकल वाले फिलासफिकल काउंसलिंग तक सीमित क्यों नहीं रहते हैं?ये अपनी सीमाओं का उल्लंघन क्यों करते हैं?इनका इस प्रकार का व्यवहार क्या इन्हें स्वयं ही बिमार, असामान्य और असहज नहीं बतलाता है? और यदि एक दूसरे में घालमेल किये बगैर काम नहीं चल रहा है तो इन कयी प्रकार की काउंसलिंग को मिलकर एक ही कर दो।अलग अलग दुकान खोलना क्यों आवश्यक है? इनके इस सनकी व्यवहार से लग रहा है कि काउंसलिंग के नाम पर जो कुछ चल रहा है,उसमें किसी व्यक्ति की काउंसलिंग कम और  अपनी प्रसिद्धि, अहंकार की तुष्टि और  दुकानदारी अधिक है।कोरे शाब्दिक प्रवचन, संवाद, डायलाग,उपदेश, शिक्षाएं, सत्संग, गोष्ठियां, सैमिनार किसी किसी व्यक्ति को कहां तक और कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाते हैं - इस संबंध में अधिकांश परिणाम और निष्कर्ष नकारात्मक ही हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान भी अपनी 100-150 वर्षों की यात्रा में आत्मा और चेतना के अध्ययन से होते हुये आज व्यवहारिक मनोविज्ञान पर आ चुके हैं। और ये यहां पर भी टिक पायेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं है। यदि हम आत्मा, चेतना आदि को नहीं देख सकते तो व्यवहार भी कहां दिखाई पड़ता है? सिर्फ व्यवहार के प्रभाव ही हमें दिखाई पडते हैं।तो समस्या वहीं की वहीं हैं। आखिर किसी व्यक्ति को हम वह कैसे बना सकते हैं, जिसके बनने की संभावनाएं और योग्यताएं उसके चित्त में मौजूद करोड़ों करोड़ों संस्कारों के समूह में मौजूद ही नहीं हैं। उदाहरणार्थ सुकरात ने हैमलेट विष को पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। जिद्दू कृष्णमूर्ति के सिर में आजीवन भयंकर पीड़ा होती रही थी।यह सब क्या है?एक बात और है - सुकरात को सुकरात बनने में और जिद्दू कृष्णमूर्ति को जिद्दू कृष्णमूर्ति बनने में उनके गुरुओं की दशकों की मेहनत का परिणाम था।आज हम उपरोक्त महापुरुषों की विधियों के सहयोग से बिना किसी साधना, तपस्या, संयम, अनुशासन, योगाभ्यास के कैसे किसी व्यक्ति की काउंसलिंग करके उसे नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक रूप से सहज, संतुष्ट, संतुलित और तृप्त बना सकते हैं?
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आचार्य शीलक राम 
दर्शनशास्त्र -विभाग 
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय 
कुरुक्षेत्र -136119

दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान

 

*दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम को मिला प्रथम स्थान*

हरियाणा की प्रसिद्ध दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रवाद, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित तथा लेखक, कवि, आलोचक तथा 50 से ज्यादा क्रांतिकारी पुस्तकों के लेखक आचार्य शीलक राम द्वारा संचालित व चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2229-7227) प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2249-2976), हिन्दू अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348-0114), आर्य अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन : 2348 – 876X) व द्रष्टा अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक रिसर्च जर्नल्स (आईएसएसएन :  2277-2480) प्रकाशित करने वाली संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) द्वारा आयोजित 48वीं राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता प्रदत विषय *रक्षाबंधन (श्रावणी पर्व)* के परिणामों की घोषणा कर दी गई है। विजेताओं के नाम निम्न प्रकार से हैं-

पहला स्थान* - दुष्यन्त कुमार व्यास, रतलाम

दूसरा स्थान* - डॉ. फूल कुमार राठी रोहतक, हरियाणा

तीसरा स्थान* - डॉ ओमप्रकाश द्विवेदी ओम, पडरौना कुशीनगर

चौथा स्थान*  - डॉ. अम्बे कुमारी, गया, बिहार

पाचवां स्थान* - बी के शर्मा,  इन्दौर, मध्य प्रदेश

छठा स्थान* - डॉ. भेरूसिंह चौहान "तरंग", झाबुआ, मध्य प्रदेश

सातवां स्थान* - अनिल ओझा,  इंदौर

आठवां स्थान* - राम कुमार प्रजापति, अलवर, राजस्थान

नौवां स्थान* - गौतम इलाहाबादी, रेवाड़ी, हरियाणा

दसवां स्थान* - बलबीर सिंह ढाका रोहतक, हरियाणा

इसके अलावा प्रतियोगिता के विशिष्ट पुरस्कृत कवि निम्न प्रकार से हैं-

             सुमन लता "सुमन", फतेहाबाद, हरियाणा

             नरेन्द्र कुमार वैष्णव "सक्ती", छत्तीसगढ़

             डॉ अनुपम भारद्वाज मिश्रा

 

सभी विजेताओं को आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक के अध्यक्ष *आचार्य शीलक राम* व पूरी टीम की ओर से बहुत-बहुत बधाई।