सनातन धर्म, संस्कृति और दर्शनशास्त्र को सबसे बड़ा खतरा
सनातन धर्म और संस्कृति को फिलहाल सबसे बड़ा खतरा हिंदुओं से ही है। जरथुष्ट्र से लेकर मूसा,ईसा, मुहम्मद, सिद्धार्थ गौतम आदि के अनुयायियों और अब हिंदू हितकारी कहे जाने इन ढोंगियों तथा साम्यवादियों और नवयानियों से खतरा बना रहता आया है।साईरस, सिकंदर,कासिम,गौरी, गजनी, अब्दाली, चंगेज, नादिर,बाबर, हुमायूं, शाहजहां, औरंगजेब, अकबर, कार्नवालिस, मैकाले आदि अब्राहमिक हमले पिछले 3000 वर्षों से होते आ रहे हैं। उपरोक्त सभी अब्राहमिक मजहबी थे तथा अब्राहमिक मजहबों के प्रचार-प्रसार के लिये तथा आर्थिक लूट के लिये हमले किये गये थे। फिलहाल भारत पर और सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहे हमले करने वाले कोई बाहरी हमलावर ने होकर हिंदू हितकारी कहे जाने वाले अंधानुयायी हैं। इन्होंने अपनी पहचान को छिपा दिया है।भारत, सनातन धर्म और सनातन संस्कृति को अब्राहमिक कहे जाने बाहरी हमलावर तो पूरी तरह से बर्बाद नहीं कर पाये थे। लेकिन फिलहाल जो खतरा सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहा है,वह पहले वाले हमलों से भी घातक है। इस समय अपने आपको सनातनी कहकर ही सनातन को बर्बाद करने मे लगे हुये हैं। सनातन धर्म और संस्कृति पर हो रहे इस हमले को सनातनी जनमानस भी समझ नहीं पा रहा है। आर्यसमाज से थोडी आशा थी कि वह ढाल बनकर खड़ा होगा लेकिन महर्षि दयानंद सरस्वती के कुछ समर्पित शिष्यों को छोड़कर यह संगठन भी इन नकली हिंदू हितकारियों के झांसे में फंसकर रह गया है।इन नकली हिंदू हितकारियों का साथ एक तरफ तो अब्राहमिक मजहब दे रहे हैं, दूसरी तरफ भारत के कुछ अमीर घराने सहयोग कर रहे हैं तथा तीसरी तरफ अनेक नकली शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, स्वामी, संन्यासी, सद्गुरु आदि सहयोग कर रहे हैं। सामुहिक रूप से कोई भी संगठन सनातन धर्म और संस्कृति के रक्षार्थ फिलहाल प्रस्तुत नहीं है। हां, व्यक्तिगत रूप से अनेक विचारक, सुधारक, विद्वान, दार्शनिक तथा कुछ छोटे स्तर के संगठन अवश्य प्रयासरत हैं।वो सभी अपनी जान पर खेलकर प्रयासरत हैं।इसी क्रम में महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, सुभाष चन्द्र बोस, बिस्मिल, भगतसिंह, अशफाक,राजीव भाई दीक्षित जैसे कयी महापुरुष अपना बलिदान दे चुके हैं। वांगचुक जैसे राष्ट्रवादी लोग भी राष्ट्रभक्त होने की सजा भुगत रहे हैं।
अब्राहमिक सोच का अंधानुकरण करने वाले नकली हिंदू हितकारियों ने पिछले दशक में पता नहीं कितने समकालीन वैदिक स्वामी दयानंद सरस्वती, राष्ट्रवादी इतिहासकार धर्मपाल, स्वदेशी राजीव भाई दीक्षित को छीन लिया है। वैसे तो आजादी के पश्चात् ही यह दुष्ट परंपरा साम्यवाद और नवयान की आड़ में शुरू हो गई थी लेकिन पिछले एक दशक के दौरान सनातन धर्म और संस्कृति पर जो हमले हुये हैं, उन्होंने अब्राहमिक,नवयानी और साम्यवादियों के सम्मिलित रुप को भी पीछे छोड़ दिया है।बचे खुचे सनातन धर्म और संस्कृति को बर्बाद करके अपनी सत्ता कायम करने के लिये इन्होंने नकली शंकराचार्य,ढोगी संत,शोषक स्वामी, कपटी संन्यासी और व्यापारी योगाचार्य पैदा कर दिये पैदा हैं। विश्वविद्यालयों के शीर्ष पर अनपढ़ और पाखंडी लोगों को बैठा दिया है। सरकार सहायता प्राप्त अकादमियों और पीठों द्वारा जी- हुजूरी और चापलूसी करने वाले सम्मानित हो रहे हैं और मौलिक प्रतिभाशाली विचारक उपेक्षित किये जा रहे हैं।मुगल दरबारी चारण और भाटों के समकक्ष चापलूसों की पुस्तकें पुरस्कृत हो रही हैं जबकि जमीनी वास्तविकता को अभिव्यक्ति देने वाली राष्ट्रवादी पुस्तकों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जा रहा है। ऐसे सनातन धर्म और संस्कृति विरोधी कुकृत्य करके भारत को विश्वगुरु बनाने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। यदि कोई इन कुकृत्यों का विरोध करे तो उसे देशद्रोही और सनातनद्रोही कहकर गालियां दी जा रही हैं। जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम से भारत को बांटने के जितने घृणित प्रयास इस समय चल रहे हैं,इतने घृणित प्रयास शायद सभी अब्राहमिक संगठनों ने मिलकर पिछले 3000 वर्षों के दौरान किये होंगे।
सर्वधर्मसमभाव क्या है? सर्वमतसमभाव क्या है?'धर्म' के साथ सर्व लगाना अपने आपमें महामूर्खता है।धर्म अनेक थोडे ही होते हैं। धर्म तो एक ही होता है। यदि सर्वमतसमभाव सही है तो यह सबके लिये यानी पारसी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम, जैन,बौद्ध के लिये भी है या केवल हिन्दू मतानुयायियों के लिये ही है?सच तो यह है कि इस अवधारणा का सबसे अधिक नुकसान हिंदू को ही हुआ है। पारसी, यहुदी, ईसाई, इस्लाम, जैन,बौद्ध आदि को इसका अधिक नुकसान नहीं हुआ है। हिंदू को छोड़कर सभी मत हमलावर मन :स्थिति के रहे हैं।पूरी दुनिया को फतेह करके अपने अपने मत में दीक्षित करके अपना सांप्रदायिक,मजहबी और राजनीतिक साम्राज्य स्थापित करना इनका एकमात्र लक्ष्य रहा है। पिछले 3000 वर्षों से आर्यधर्मी रक्षात्मक होकर जीवन जी रहे हैं।आज भी स्थिति में कोई अधिक बदलाव नहीं हुआ है।इसीलिये आज भी आर्यधर्मी या सनातनधर्मी या वैदिकधर्मी सर्वाधिक असुरक्षित है।जब से इन्होंने हमलावर और रक्षात्मक शक्तियों में संतुलन बनाना बंद करके एकतरफा सर्वमतसमभाव का जीवन जीना शुरू किया है तभी से ये रक्षात्मक होकर रह गये हैं।ऐसी विषम स्थिति में सनातन या आर्य या वैदिक धर्म तो बचेगा लेकिन इसको आचरण में उतारने वाला इस धरती पर कोई नहीं बचेगा। सीधा सा तर्क है कि यदि यदि सभी मत समान हैं तो फिर आपको पारस, यहुदी, ईसाई, इस्लामी, जैन, बौद्ध आदि अपने अपने मतानुसार आज तक दूसरे देशों पर जो भी आक्रमण,हिंसा,मारकाट, नरसंहार , मतांतरण, युद्ध, बलात्कार, लूटपाट आदि करते आये हैं,उस सबको आपको जायज मानना होगा। क्यों? क्योंकि यह सब करने उनके मतानुसार सही है।उन द्वारा किये गये हरेक अमानवीय कृत्य को आपको मानना ही होगा, क्योंकि आप सर्वमतसमभाव को मानते हो।हां, यदि आप भीतर से कुछ और बाहर से कुछ अन्य हो,तो फिर आप कुछ भी कर सकते हो। लेकिन यह तो धर्मानुसार नहीं है।यह दुर्व्यवहार संप्रदाय अनुसार या मजहब अनुसार या मत अनुसार ठीक हो सकता है लेकिन धर्मानुसार नहीं। धर्म तो भीतर और बाहर से एक समान व्यवहार की सीख देता है।इसीलिये सर्वमतसमभाव की अवधारणा में फंसकर हिंदू ने अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी से वार करके अपने ही पैरों को काट डाला है। भारत में विवेकानंद, प्रभुपाद, गांधी, परमहंस योगानंद, हेडगेवार आदि लोग तथा आजकल के अधिकांश शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, स्वामी, संन्यासी, मुनि, योगाचार्य, सुधारक , राजनीतिक दल और नेता लोग आदि सभी इस सर्वमतसमभाव के भंवरजाल में फंसकर सनातन धर्म, दर्शनशास्त्र और संस्कृति को लुप्तप्राय: करने में सहयोगी बन रहे हैं।
भारत में सनातन से ही 'मत' या 'संप्रदाय' बनाने की परंपरा धर्मानुसार रही है। लेकिन इस परंपरा को खंडित करने का कार्य सर्वप्रथम शंकराचार्य के शिष्यों ने उपनिषदों,ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता को प्रस्थानत्रयी घोषित करके शुरुआत की। उन्होंने यह सिद्ध करने के लिये कि केवल अद्वैतवाद सही है और बाकी सब कुछ गलत है, हजारों ग्रंथों की रचना कर डाली। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप विचारकों ने विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद,द्वैताद्वैत वाद, अचि़त्ंयभेदाभेदवाद, शक्त्याद्वैतवाद, ध्वन्याद्वैतवाद आदि मत खडे हो गये तथा हरेक ने उपरोक्त तीन ग्रंथों उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता से अपने अपने मतों को सही तथा बाकी को गलत सिद्ध करना शुरू कर दिया। इनकी इस वैचारिक कबड्डी में सनातन धर्म, दर्शनशास्त्र और संस्कृति के मूल स्रोत ग्रंथों वेदादि को बिल्कुल भूला दिया गया।हरेक संप्रदाय खुद को सही और बाकी को गलत कहकर परस्पर सभी को गलत ही सिद्ध करने का प्रयास कर रहा था।इस दुषित परंपरा ने आर्य या वैदिक या सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र और संस्कृति को भारतीयों के जीवन से ओझल कर दिया है। भारत में सभी स्थानों पर पाखंडी,शोषक और पद- प्रतिष्ठा के लोभी बाबाओं की बाढ़ आई हुई है। नेता और अमीर घराने अपने लाभ के लिये इन बाबाओं का खूब दुरुपयोग कर रहे हैं। भारत के अधिकांश बाबा अपने आपको परमात्मा मानकर पूजा करवा रहे हैं। व्यक्तिवादी अनेक परमात्मा उत्पन्न हो गये हैं।ये पहले तो अब्राहमिक मजहबों की तरह मजहबी बने तथा बाद में अपने आपको ही परमात्मा मानने लगे हैं।ये सारे मिलकर सनातन धर्म,दर्शनशास्त्र,संस्कृति से ही उपदेश चुराते हैं और फिर इसी में कमियां निकालकर गालियां देने लगते हैं। पारसी, यहुदी, ईसाई और इस्लाम पहले ही सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र के साथ अतीत में ऐसा कर चुके हैं लेकिन अब तो खुद हिंदू भी ऐसा ही करने पर उतारू हैं।इस समय के ही नहीं अपितु पिछले 150 वर्षों के दौरान पैदा हुये अधिकांश धर्मगुरु अब्राहमिक मजहबों की तरह सनातन धर्म,संस्कृति,दर्शनशास्त्र के साथ दुश्मनी निभा रहे हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने कुमारिल , मंडन मिश्र,शंकराचार्य के पश्चात् सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र के लिये सर्वाधिक प्रामाणिक, प्रशंसनीय और वास्तविक प्रयास किया था लेकिन उनकी असमय हत्या कर दी गई।हत्या करने वाले कोई और नहीं अपितु अब्राहमिक मजहबों के विचारक और शंकराचार्य के शिष्यों द्वारा गलत परंपरा को शुरू करने के फलस्वरूप पैदा हुये विभिन्न सांप्रदायिक विचारक ही थे।इस समय राजीव भाई दीक्षित भी इन्हीं के षड्यंत्र का शिकार हुये हैं।यह सबको पता है।
संप्रदाय,मत या वाद वहीं तक सही होते हैं ,जहां तक वे सनातन धर्म,संस्कृति और दर्शनशास्त्र का समर्थन करता हों।जब भी वो इस सीमा का उल्लंघन करने लगें तो उन पर लगाम कसना आवश्यक होता है। शंकराचार्य के बाद वह लगाम बिल्कुल ढीली छोड़ दी गई है। शंकराचार्य के शिष्यों ने अतीत में एकतरफा अद्वैतवाद के रूप में खूब धींगामुश्ती की है। बाकी विचारक भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर वैचारिक कबड्डी खेलने का काम करते रहे हैं। सभी को यह आश्चर्यजनक लगेगा कि समय और परिस्थिति अनुसार खुद चार्वाक,आजीवक,महावीर, सिद्धार्थ गौतम आदि ने अपने अपने समय पर आई विकृतियों को दूर करके सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र के प्रचार-प्रसार के लिये प्रयास किये लेकिन शिष्यों - प्रशिष्यों को यह सब अपनी आजीविका और अहंकार के अनुकूल नहीं लगा। और परिणामस्वरूप अनेक मजहब उत्पन्न ही नहीं हुये अपितु खूनी संघर्ष भी खूब हुये हैं। बौद्ध राजाओं और भिक्षुओं द्वारा सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र को नष्ट करने करने के लिये अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी।इसीलिये आज भी नवयानी बौद्ध अपने आपको सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र के समीप न कहकर ईसाईयत और इस्लाम के समीपस्थ महसूस करते हैं। राधास्वामी,रामकृष्ण मिशन, ब्रह्माकुमारीज, इस्कान,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,पतंजलि योगपीठ,सच्चा सौदा,धन धन सतगुरु,योग वेदांत समीति ,ईशा फाउंडेशन, ओशो धाम आदि सैकड़ों धार्मिक कहे जाने वाले संगठन सर्वमतसमभाव की आड़ में खुद तो अरबपति खरबपति बन बैठे हैं लेकिन ये सारे मिलकर सनातन धर्म, संस्कृति, दर्शनशास्त्र की बेतुकी और अमर्यादित आलोचना करते रहते हैं। और तो और हमें जो संवैधानिक व्यवस्था सन् 1947 ईस्वी के बाद मिली है,वह भी सनातन के विरोध और सर्वमतसमभाव के नकली सिद्धांत पर खडी हुई है।इस नकली सिद्धांत पर चलने के लिये सिर्फ हिन्दू को ही विवश किया जाता है। हिंदू को छोड़कर सभी मजहबों को उच्छृंखल आजादी प्रदान की गई है। इसलिये रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों ने तो अपने आपको सनातन धर्म से अलग करने के लिये न्यायालय तक की शरण ली थी। कितना विचित्र और हृदयविदारक है यह सब कि जिन मतों, संप्रदायों और वाद आदि का कर्तव्य सनातन धर्म,संस्कृति, दर्शनशास्त्र, नैतिकता, आचरण आदि को सुरक्षा कवच प्रदान करना था, पिछली कयी सदियों से वो सारे मिलकर इसी सनातन के विभिन्न घटकों पर प्रहार करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते हैं।
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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र- विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119
