Friday, April 11, 2025

सैलीब्रिटीज का अंधानुकरण सनातनधर्मियों के लिये खतरे की घंटी (Blind imitation of celebrities is a warning bell for Sanatan Dharmis)


सनातनियों का सैलीब्रिटी के पीछे भागकर उनका अंधानुकरण करना एक पागलपन का रुप ले चुका है। जिसको देखो वही अहंकारी गुरुओं, वाचाल कथाकारों, चमत्कारी बाबाओं, गृहस्थबिगाड़ू नामदानियों, अधकचरे योगियों, हू- हा तांत्रिकों,  चिकित्सा विज्ञान को धता बताने वाले झाडफूंकियों, मायिक  पर्चानिकालुओं,लाईलाज बिमारियों को ठीक करने वाले इलू गिलुओं, गंदगी का पर्याय फकीरों और ईमानधारी बेईमानों के पीछे पागल होकर दौड़ रहा है। अपने सारे विवेक और तर्कशक्ति को बिना सोच -विचार किये किसी ऐरे- गेरे सैलीब्रिटी के चरणों में रखकर उनकी गुलामी करना पतन और विनाश की पराकाष्ठा है।
 सनातनी वास्तव में ऐसा क्यों कर रहे हैं?यह जानना भी दिलचस्प है।आप सोच रहे होंगे कि इसका कारण सनातनियों का धार्मिक प्रवृत्ति का होना है। नहीं, ऐसा नहीं है। सनातनी यदि अपने सनातन धर्म को अपने आचरण में उतारने की हिम्मत करता तो वह ऐसा कभी नहीं करता। किन्हीं सैलीब्रिटी का अंधानुकरण करने वाला व्यक्ति सनातनी नहीं कहा जा सकता। सनातनी जिसके पास अपनी धार्मिक जिज्ञासा को शांत करने या योग साधना का अभ्यास करने जायेगा ,इन कार्यों को वह सोच विचारकर ही करेगा। तर्क के तराजू पर तोलकर ही वह ऐसा करेगा। लेकिन ऐसा कहीं कुछ देखने में नहीं आ रहा है। अधिकांश सनातनी अंधों की भीड़ द्वारा की जाने वाली जय जयकार को सुनकर, टीवी चैनल पर मौजूदगी को देखकर, धुआंधार प्रचार को देखकर,भव्य आश्रमों और गाड़ियों को देखकर, नेताओं की हाजिरी देखकर और पूंजीपतियों की जी हुजूरी देखकर यह अंदाजा लगाता है कि फलां फलां प्रसिद्ध व्यक्ति हमारा गुरु बनने योग्य है। आजकल का सनातनी अपने गुरु में अध्यात्म, योग- साधना, शास्त्रीय ज्ञान, चरित्र बल, वीतरागता,त्याग, तपस्या आदि को न देखकर सिर्फ बाहरी प्रसिद्धि और हंसो हल्ले को देखता है।
सनातनी भाई अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये सोर्ट कट चाहते हैं। दुनिया भर के कुकर्म करो और किसी गुरु की शरण में जाकर कोई पाप माफी की टैक्नीक पा लो। कुछ चढ़ावा आदि चढावो और पापमुक्ति हो गई। इन सार्ट कट की तकनीक देने वाले बाबाओं, तांत्रिकों, संतों, कथाकारों और महामंडलेश्वरों की वजह से पापों से मुक्ति पाना इतना आसान हो गया है कि जनसाधारण भारतीय पाप करने से तनिक भी नहीं डरता है।इन पाखंडियों ने सभी का डर निकाल दिया है। कोई यज्ञ हवन करवाओ, किसी धाम की सात मंगलवार परिक्रमा करो,चढावा चढाओ,भंडारा करो, कोई तांत्रिक क्रिया करो, किसी तीर्थ स्थल पर स्नान करो और सारे घृणित से घृणित पाप छू मंतर।गजब टैक्नीक है पाप माफी की।अन्य मजहबों में इसी तरह की टैक्नीक हैं लेकिन भारतीयों में आजकल पाप करके पाप माफी का धंधा जोरों पर है। अभी एक हिंदू से मतांतरित किसी बाजिंदर नाम के ईसाई पादरी को बलात्कार के अपराध में उम्रकैद की सजा हुई है। सत्ताधारी दल के अनेक बलात्कार में लिप्त बाजिंदर ऊपर तक पहुंच के कारण खुले घूम रहे हैं। बलात्कारियों के जेल से छूटते ही बलिदानियों की तरह उनका स्वागत सत्ताधारी दल के लोगों द्वारा किया जाना पागलपन की पराकाष्ठा है। सनातन धर्म का चोला ओढ़ हुये सत्ताधारी दल द्वारा लिव इन रिलेशनशिप आदि अमानवीय कुकर्मों को कानूनी वैधता दिलवाना इनके आसुरी अब्राहमिक चरित्र को उजागर करता है।

सनातनी धर्माचार्य अपने अनुयायियों को यह क्यों नहीं समझाते किये हुये कर्म का फल अवश्यंभावी है।इसकी कोई माफी नहीं होती है। इसलिये सर्वप्रथम अपने नित्यप्रति के आचरण, चाल-चलन, चरित्र आदि में सुधार करो। मोटे चढावे तथा चेलों की संख्या बढ़ाने के नशे में अपराधियों, बलात्कारियों, डकैतों, भ्रष्टाचारियों, चोरों आदि सभी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिये जा रहे हैं। यदि वास्तव में इनमें संतत्व होता तो ऐसे धूर्त और पापी लोगों को धक्के मारकर अपने आश्रमों से भगा दिया जाता। लेकिन इन धर्माचार्यों द्वारा तो ऐसे पापियों को पहली पंक्ति में सम्मान के साथ बिठाया जाता है तथा फूलमालाओं से जोरदार स्वागत किया जाता है। वैसे तो ये तथाकथित धर्माचार्य जनसाधारण को माया मोह से दूर रहने के उपदेश देते हैं लेकिन स्वयं धन दौलत और माया मोह को पाने के लोभ-लालच में भ्रष्टाचारियों, पापियों, डकैतों, अपराधियों और बलात्कारियों को पाप माफी का आशीर्वाद देते हैं। और फिर यही धर्माचार्य कहते हैं कि सनातन धर्म और संस्कृति मुसलमानों या ईसाईयों के कारण खतरे में है। वास्तव में सनातन धर्म और संस्कृति के लिये सबसे बड़ा खतरा ये धर्माचार्य स्वयं ही हैं।अपनी गलतियों, पापों, अपराधों और कुकर्मों को छिपाने के लिये ये क्या क्या नहीं करते हैं?

पूजा-स्थलों में जाना अतीत में किये गये पापों की माफी के लिये होता है या फिर वर्तमान में अनैतिक कर्म नहीं करने का संकल्प लेने के लिये होता है या परमात्मा ने आज तक जो भी दिया है, उसके लिये धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये होता है? सनातनियों ने अपनी सनातनी मर्यादा को भूलाकर अतीत में किये पाप कर्मों की माफी मांगने या फिर भविष्य में सफलता प्रदान करने के लिये पूजा-स्थलों पर जाना शुरू किया हुआ है। परमात्मा को भी प्रलोभन देते हैं कि यदि मेरी इच्छा पूर्ण हुई तो आपको ये चढ़ाया चढ़ा दूंगा/दूंगी। परमात्मा तुम्हारे चढावे का भूखा बैठा या तुम्हारी भक्ति का भूखा है या फिर वह तुमसे कुछ अन्य ही चाहता है? अपने अंधे अनुयायियों की वासना, कामना और प्रलोभन का फायदा उठाने के लिये बाबा, धर्माचार्य, सद्गुरु, साईं, कथाकार, तांत्रिक, ज्योतिषी, पर्चा निकालने वाले, मौलवी, फकीर, पादरी खूब नौटंकी खेलते हैं। खुद बिमार होने पर हस्पताल में चिकित्सा करवाते हैं लेकिन भक्तों के कैंसर, टीबी, अस्थमा,शूगर, गठिया,कोरोना तक की घातक बिमारियों को गदा , चालीसा,मोरपंख , ताबीज ,चद्दर , यंत्र,मंत्र, तंत्र,शक्तिपात, भभूत चटाकर, चिमटा मारकर,मुंह में  थूककर ,गोद में बिठाकर, आलिंगन में लेकर आदि के चमत्कार से तुरंत ठीक कर देते हैं।जो जितना बड़ा पाखंडी और झूठा होता है उसके पास उतनी ही अधिक भीड़ होती है। किसी ने प्रश्न उठाया तो धार्मिक भावनाएं आहत हो जाती हैं।बस, चुपचाप इस मूढ़ता को देखते रहो। ज़बान हिलाना भी मना है।

 सनातन धर्म और संस्कृति के इन तथाकथित ठेकेदारों ने मज़ाक का विषय बनाकर रख छोड़ा है। इन्होंने कर्म और कर्मफल व्यवस्था को बिल्कुल तहश नहश कर दिया है। परमात्मा और मनुष्य के बीच में अनगिनत मध्यस्थ और दलाल पैदा हो गये हैं। भक्तों को जो कुछ भी कामना पूरी करवानी है या फिर पाप माफी करवानी है तो आप सीधे परमात्मा से नहीं मिल सकते हैं। सब्जी मंडी और अनाजमंडी की तरह से मध्यस्थ और दलालों का आपको सहारा लेना ही पडेगा।
 सनातन धर्म और संस्कृति में पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व है। हमारे तथाकथित राजनीतिक बाबाओं ने पुरुषार्थ को उपेक्षित करके सनातन धर्म को एक कट्टर मजहब या संप्रदाय या कल्ट में परिवर्तित कर दिया है।आप सीधे परमात्मा से नहीं मिल सकते हैं। आपको परमात्मा की अनुभूति के लिये दलालों का या अवतारों का या पैगंबरों का या मसीहाओं या तारणहारों की शरण में जाना ही होगा। वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों, स्मृतियों आदि ग्रंथों को परे फेंककर बाबाओं ने सनातन धर्म को एक दुकानदारी बना दिया है।इन बाबाओं से आप मनचाही कामनाओं को पूरा कर सकते हैं।ये बाबा लोग सनातन धर्म और संस्कृति पर कुंडली मारकर बैठ गये हैं। सनातन धर्माचार्यों की जगह पर राजनीतिक बाबा लोगों को स्थापित करके पुरातन परंपरा को नष्ट किया जा है। अभी संघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत का बयान आया है कि सनातन शास्त्रों को दोबारा से लिखा जाना चाहिये। यानी ये अपनी सुविधानुसार और राजनीतिक लाभ अनुसार सनातन धर्म और संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा हैं। सनातन शास्त्रों को बदलने का इनको किसने दिया है? वक्फ बोर्ड को कानूनी रूप देकर इन्होंने सनातनियों की बहुत सी जमीन जायदाद पर मुसलमानों का एकाधिकार स्वीकार कर लिया है।इनके शासन के दौरान वक्फ बोर्ड की जायदाद दोगुना हो चुकी है। भारत के बहुसंख्यक सनातनियों को कमजोर करने पर वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि सभी पूरी ताकत से लगे हुये हैं। लगता है कि सनातन विरोधी पाप कर्मों लिव-इन रिलेशनशिप, समलैंगिकता, गौहत्या, गौमांस भक्षण, शास्त्रों में फेरबदल, गुरु परंपरा की समाप्ति, पूजा-स्थलों के विध्वंस, वैदिक आचार विचार को उपयोगितावादी बनाने को जायज और संवैधानिक बनाकर वेदों -उपनिषदों- दर्शनशास्त्रों -स्मृतियों- महाकाव्यों-चिकित्सा ग्रंथों आदि को म्लेच्छ रुप देना इनकी मानसिकता प्रकट हो रही है। पता नहीं ये किन गुप्त भारत -भारतीय -भारतीयता विरोधी शक्तियों के दबाव में काम कर रहे हैं? अधिकांश पौराणिक संगठन, आश्रम,मठ, कथावाचक, सुधारक, शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, आचार्य , योगाचार्य आदि तो चुप हैं ही,सबसे अधिक आश्चर्यजनक आर्यसमाज संगठन की चुप्पी है। लगता है कि अधिकांश सनातनी कहलवाने वाले बाबा लोग सरकारी बाबा बनकर काम कर रहे हैं।इनको सनातन धर्म और संस्कृति की कोई चिंता नहीं है।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र 136119

चार्वाक जिंदाबाद (Long live Charvak)



महर्षि बृहस्पति ने कहा है कि जब तक जीओ,सुख से जीओ और कर्ज करवाकर घी पीओ। मरने के बाद दाह-संस्कार कर देंगे।कर्ज चुकाने के लिये कोई पुनर्जन्म तो होना नहीं है।तो फिर कर्ज क्या श्मशान की राख वापस करेगी? हमारे अधिकांश धर्मगुरु, कथाकार, योगाचार्य,अभिनेता, खिलाड़ी,नेता, पूंजीपति ,अधिकारी, व्यापारी,न्यायाधीश, प्रोफेसर , चिकित्सक आदि बृहस्पति के दर्शनशास्त्र को अपने आचरण में उतार रहे हैं।समकालीन संदर्भ में इसी बृहस्पति के दर्शनशास्त्र पर थोड़ा विचार कर लेते हैं।
एक या एक से अधिक व्यक्तियों का एक साथ मित्र या प्रेमी या प्रेमिका या पति या पत्नी या भाई या बहन या माता या पिता के रूप में रहने का कारण प्रेम या प्यार या स्नेह या ममता आदि कभी भी नहीं होते हैं। विषमता ,असुरक्षा, भेदभाव, प्रताड़ना,अंध-प्रतियोगिता ,अन्यान्य, ज़ुल्म,अव्यवस्था और अपराध से लबालब भरे संसार में प्रेम, प्यार, दोस्ती आदि का कोई स्थान नहीं है। परस्पर प्रेम,प्यार, स्नेह, ममता,मैत्री आदि सिर्फ एक ऐसा आदर्श हैं जिसको कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। सुधारक, कथाकार,संत, योगी, धर्माचार्य,शिक्षक, नेता आदि विविध मंचों से झूठ पर झूठ बोलते रहते हैं।ये सब जनसाधारण को इस संबंध में वास्तविकता से अवगत नहीं होने देते हैं। संसार के सबसे बड़े झूठ को सत्य कहकर प्रचारित करना बडे और आदरणीय लोगों का धंधा बन चुका है। भुक्तभोगी लोग विरोधाभास से भरे हुये संसार में प्रेम, प्यार ,स्नेह, ममता ,मित्रता आदि की असलियत बता सकते हैं।हवा हवाई वक्तव्य देने से कुछ भी हासिल नहीं होता है। ऐसे वक्तव्यों से किसी का न तो पेट भरता है,न किसी को शिक्षा मिलती है,न आवास मिलता है तथा न ही बिमार होने पर दवाई मिलती है।

किन्हीं भी व्यक्तियों का परस्पर एक दूसरे के समीप आना प्रेम या प्यार या मैत्री आधारित न होकर कुछ अन्य कारणों पर आधारित होता है।उन कारणों में मुख्यतः किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ की पूर्ति की कामना, किसी जरूरत को पूरा करने का लक्ष्य,कामुक संबंध बनाने की चाह,अकेलेपन से परेशान होना आदि की गिनती की जा सकती है। उपरोक्त स्वार्थ, जरूरत, कामुकता और अकेलेपन की समस्याओं का संबंध वर्तमान से भी हो सकता है और भविष्य से भी हो सकता है। अतीत को तो लोग लगभग भूल ही जाते हैं। लोग अतीत की सिर्फ दुश्मनी को ही याद रखते हैं, सहयोग आदि को तो लोग लगभग भूला ही देते हैं।बस एक बार स्वार्थ, जरूरत, कामवासना और अकेलेपन की समस्याओं का समाधान हुआ और तुरंत अपने मित्रों, दोस्तों, प्रेमियों, प्रेमिकाओं, माता, पिता,भाई, बहन, गुरु आदि को भूल जाना एक सामान्य सी आदत सभी में देखी जा सकती है। सांसारिक व्यक्ति तो ऐसे ही होते हैं। संसार में सफलता ऐसे लोगों को ही मिलती है। संसार में उन लोगों की कोई हैसियत, इज्जत, सम्मान, प्रतिष्ठा और गिनती नहीं होती है, जिनके पास प्रेम, प्यार, मैत्री,वायदा निभाने की दौलत होती है। ऐसे लोगों को हर किसी से,हर कदम पर तथा हर समय पर सिर्फ विश्वासघात ही मिलता है।

 बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करना सांसारिक व्यक्ति के लिये तो असंभव है। संसार में यह किसी से छिपी बात नहीं है कि काम निकलने पर पुराने से पुराने मित्रों को धोखा दे दिया जाता है। बिना जरूरत के कोई किसी से दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाता है। रुपये की जरूरत है, सुरक्षा की जरूरत है,कामुक संबंध बनाने हैं या अकेलापन दुखी कर रहा है तो आपको किसी भी लडके या लड़की की तरफ दोस्ती या प्रेम का हाथ बढ़ाना चाहिये। और जब आपकी जरूरत, सुरक्षा, अकेलेपन की समस्या और कामवासना की पूर्ति कहीं और से पूरी होने लगे तो तुरंत दोस्ती तोड़ दो। यहां स्थाई दोस्ती और दुश्मनी जैसा कुछ भी अस्तित्व में मौजूद नहीं होता है। हां, अपने दोस्तों को ठगने या मूर्ख बनाने या उनसे काम निकालने के लिये इस प्रकार की शिक्षाओं को हथियार की तरह प्रयोग किया जा सकता है।आचार्य चाणक्य ने आज से 3800 वर्षों पूर्व अपने ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में कहा था 'अर्थ एवं प्रधान इति कोटल्य:!!अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति!! अर्थात् संसार में धन ही मुख्य वस्तु है।धन के अधीन ही धर्म और काम हैं।

 इस उपदेश की सत्यता में कोई संदेह नहीं है कि भौतिक धन,दौलत, गाड़ी, बंगले, जमीन, जायदाद, कारखाने, बैंक बैलेंस मरते समय साथ में नहीं जायेंगे। यह भी ठीक है कि प्रेम, भाईचारा,आदर , सम्मान, संतुष्टि, तृप्ति तथा करुणामय व्यवहार ही मरते समय साथ जायेंगे। लेकिन समस्या यह है कि सांसारिक लोग प्रेम, भाईचारे आदि की भाषा को समझते ही नहीं है।इस तरह का बर्ताव करने वाले व्यक्ति को पागल, मूर्ख, भोला,अविकसित और पुरातनपंथी मानकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। ऐसे व्यक्ति को पुलिस, प्रशासन, नेता,शिक्षा, डाकखाना, सेना, चिकित्सा आदि सभी विभागों में कोई महत्व नहीं दिया जाता है। ऐसे व्यक्ति को सभी यह कहकर अपमानित करते हैं कि तुम कौनसे युग में जी रहे हो? ऐसे व्यक्ति को तो कहीं लाईन में लगकर सामान भी सरलता से नहीं लेने देते हैं। भौतिक संसार का नियम तो धोखाधड़ी,झूठ, कपट,छल, विश्वासघात, आपाधापी, हिंसा, प्रताड़ना, अपमान, पाखंड, ढोंग आदि के साथ जीना है। सीधे -साधे व्यक्ति को तो कोई बस या ट्रेन में बैठने की सीट तक भी नहीं देता है। ऐसा व्यक्ति छोटी या बड़ी किसी भी नौकरी के इंटरव्यू में कभी भी सफल नहीं हो सकता है। खेती-बाड़ी करते समय ऐसे व्यक्ति को जुताई,बुआई, सिंचाई,कटाई,फसल बेचने तक में परेशान होना पड़ता है। धक्के मारकर सभी उसे पीछे धकेल देते हैं। नेताओं, धर्मगुरुओं, सुधारकों, शिक्षकों आदि के लिये ऐसे भोले-भाले लोग झूठे भाषण और प्रवचन सुनाने के काम आते हैं।चालाक और धूर्त किस्म के लोग तो नेताओं आदि से अपने काम निकलवा लेते हैं, लेकिन भोले-भाले लोगों का शोषण जारी रहता है। नेताओं, धर्माचार्यों, सुधारकों और उच्च अधिकारियों की तरह भोले-भाले लोग भी यदि धोखेबाज,छली,कपटी, झूठे, मौकापरस्त और मतलबी हो जायेंगे तो फिर इन उपरोक्त धूर्तों की धर्म, राजनीति, सत्संग,योग शिविर ,समाज सुधार की दुकानदारी बंद हो जायेगी।

एक अन्य प्रसंग में आचार्य चाणक्य कहते हैं 'अमरवदर्थजातमाजयेत् ।।
अर्थवान सर्वलोकस्य बहुमत:।।
महेंद्रमप्यर्थहीनं न बहुमन्यते लोक:।।दारिद्र्य्ं खलु पुरुषस्य जीवितं मरणम्।।अकुलीनोपि कुलीनाद्विशिष्ट::!!
अर्थात् अपने आपको अमर समझकर धन का अर्जन करो।धनहीन इंद्र का भी कोई आदर नहीं करता है।धनहीन गरीब मनुष्य की जीते जी मौत हो जाती है। असभ्य होने पर भी  धनवानों को सर्वत्र सम्मान मिलता है। पहले का समय हो या आजकल का समय हो, सम्मान पाने के लिये केंद्र में धन - दौलत  मुख्य रहते आये हैं। इससे यह सिद्ध है कि भौतिक संसार में धन -दौलत ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिसके पास यह नहीं है,उसका जीवन अभी और केवल


अभी नर्क है। उसने मानवदेह में आकर सिर्फ अपने जीवन को व्यर्थ गंवा दिया है। भौतिक संसार में केवल धन- दौलत ही परमात्मा है। यदि किसी के पास धन दौलत है तो फिर उसको सर्वत्र सम्मान ही मिलेगा। लेकिन यदि किसी के पास धन दौलत नहीं है तो उसे सर्वत्र अपमान,प्रताड़ना, छुआछूत,गालियां, बदहाली आदि का सामना करना पड़ेगा। यदि आपके पास ऊंची ऊंची उपाधियां हैं, आपने सैकड़ों पुस्तकें लिख रखी हैं,आप प्रतिभाशाली हो, आप अखबारों में आर्टिकल लेखक हो,लेकिन आपके पास धनं- दौलत नहीं है,तो सच मानिये कि किसी गली का आवारा कुत्ता भी आपका सम्मान नहीं करेगा।वह भी आपको काटने दौड़ेगा। विद्या, बुद्धि, प्रतिभा, विद्वता आदि का कहीं कोई सम्मान नहीं है।इस तरह की बातें सिर्फ भोले-भाले और सीधे -साधे लोगों को एकतरफा ईमानदारी, निष्पक्षता, निष्ठा, मेहनत, पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाकर उन्हें हर तरफ से लूला,लंगडा,बहरा और बंद बुद्धि बनाये रखकर भौतिक संसार की दौड़ से बाहर करना है।

 ध्यान रहे कि सत्यवादिता, ईमानदारी, मेहनत, निष्पक्षता, करुणा, समर्पण, प्रेम, सम्मान, सौहार्द , भाईचारा, संतुष्टि , तृप्ति आदि आध्यात्मिक रूप से हर व्यक्ति के लिये लाभकारी हैं। ऐसा व्यक्ति अपने आपमें सदैव मस्त और आनंदमय रहता है। लेकिन ऐसा व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष,तप, स्वाध्याय के सहयोग से भौतिक संसार में खुद की भौतिक तरक्की कभी नहीं कर सकता है।वह सदैव गरीब, बदहाल, असहाय,पिछडा हुआ, अपमानित और उपेक्षित ही रहता है। भौतिक संसार में आगे बढ़ने के लिये जिन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जा है, वो अस्त्र-शस्त्र भोले-भाले व्यक्ति को नहीं मिलता है। इससे हताश करके अपने वर्तमान और भविष्य को कूड़ेदान में। डाल देंगे।

 धोखेबाज़,लूटेरे,शोषक, झूठे और कपटाचरण करने वाले नेता, धर्मगुरु, सुधारक, उच्च अधिकारी, न्यायाधीश, पूंजीपति , प्रोफेसर, इंजीनियर, चिकित्सक आदि विभिन्न मंचों से मेहनत, ईमानदारी, निष्पक्षता, संयम, नैतिकता आदि के उपदेश पिलाकर जनमानस को बेवकूफ बनाते रहते हैं। क्योंकि ये जो विभिन्न मंचों से मोटे -मोटे उपदेश करते हैं,उन पर स्वयं नहीं चलते हैं।
आजकल के लूटपाट, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी,झूठ, कपट और छल के संसार में नेता, धर्मगुरु, सुधारक, योगाचार्य,संत, कथाकार, पूंजीपति, न्यायाधीश, उच्च -अधिकारी, प्रोफेसर, चिकित्सक आदि सभी के पास करोड़ों अवैध रुपये मिल रहे हैं लेकिन राजनीति, पुलिस और न्याय व्यवस्था में पहुंच होने के कारण इनका कुछ नहीं बिगडता है। इनके पास सीबी,आई ईडी और न्यायालय कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करता है। यदि किसी किसान, मजदूर आदि के पास थोड़ा बहुत कैश भी मिल जाये तो उसे तुरंत जेल भेज दिया जाता है। पुलिस, कानून, न्यायालय, सीबीआई,ईडी आदि केवल उच्च पहुंच वाले धनी -मानी लोगों की सुरक्षा के लिये तैनात रहते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में ठीक ही कहा है कि 'दुनिया ठगिये मक्कर से, रोटी खाईये घी शक्कर से'।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र -विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र- 136119

दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी और जीवन -दर्शनशास्त्र (Philosophy, Philosophy and Life - Philosophy)

 दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी और जीवन -दर्शनशास्त्र

जब तक जीवन-दर्शन, जीवनचर्या, जीवनशैली नहीं बनते हैं तब तक यह सब वैचारिक कबड्डी से बढ़कर कुछ भी नहीं है। लेकिन जीवन के हरेक क्षेत्र में इसका विपरीत हो रहा है। जिसको देखो वही प्रवचन दे रहा है लेकिन प्रवचन में कही गई शिक्षाओं को स्वयं के आचरण में स्थान नहीं देता है। हमारे महापुरुषों की हर अच्छी बात,सीख और उपदेश ने व्यापार का रुप धारण कर लिया है। लगता है कि इन्होंने जनता जनार्दन को बेवकूफ समझ लिया है या फिर बेवकूफ बनाने के लिये ही प्रवचन आदि किये जा रहे हैं। आचरण, चरित्र, जीवनचर्या और जीवनशैली में सुधार से इन्हें कोई मतलब नहीं है।

और देखिये, हमारे वायदाखिलाफी करने वाले नेताओं पर कानूनी कार्रवाई होना चाहिये, लेकिन ऐसा कहीं नहीं होता है। लोकलुभावन घोषणाएं करके सत्ता में आ जाते हैं और बाद में उनको पूरा करने के लिये कुछ भी नहीं करते हैं। जनता यदि विरोध करे तो लाठी और गोलियों से उनका स्वागत किया जाता है। आखिर वायदाखिलाफी करने वाले नेताओं को जेल क्यों नहीं होना चाहिये?जब हरेक ज़ुल्म की सजा निर्धारित है तो नेताओं को खुली छूट किसलिये? यदि वायदाखिलाफी के विरुद्ध कानून बन जायेगा तो अधिकांशतः नेता जेलों में होंगे। आचरण में कथनी और करनी का भेद यहां भी मौजूद है। अधिकांश कानून प्रभावी लोगों के हितार्थ बनाये जाते हैं। जनमानस की कोई चिंता नहीं है।

और देखिये, जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिये पांच किलो अनाज फेंक दिया जाता है। और इसे रेवड़ी संस्कृति कहकर दुष्प्रचार भी किया जाता है। वास्तव में यह रेवड़ी संस्कृति नहीं, अपितु राष्ट्र की पूंजी पर सबका अधिकार का सवाल है। यदि व्यवस्था लोकतांत्रिक है तो सबको सुविधाओं को भोगने का अधिकार होना ही चाहिये।पूंजीपति यह न सोचें कि उनकी कमाई केवल उन्हीं की मेहनत का परिणाम है। पूंजीपतियों ने जो अरबों -खरबों कमाकर एकत्र कर लिये हैं, उसमें किसान, मजदूर आदि की भी मेहनत का योगदान है। यदि पूंजीपतियों का योगदान दस प्रतिशत है तो किसान और मजदूर का नब्बे प्रतिशत योगदान है। लेकिन व्यवस्था की तानाशाही बोलने तक नहीं देती है। भारतीय मेहनतकश वर्ग की उसकी कमाई का अधिकांश हिस्सा तो ये पूंजीपति, धर्मगुरु, उच्च- अधिकारी और नेता खा जाते हैं। सारे समानता के प्रवचन और व्याख्यान सिर्फ कागजों, योजनाओं और मंचों तक सिकुड़ कर रह जाते हैं। कोई आवाज  उठाये  तो  उसकी  खैर   नहीं है।

हरियाणा में सरकारी विद्यालयों में छात्रों की संख्या घटने से विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। पिछले एक दशक में हजार के आसपास विद्यालय बंद किये जा चुके हैं। इसके पीछे सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जोकि बिल्कुल गलत है। अधिकांश सरकारी विद्यालय स्टाफ,धन और व्यवस्था की कमी की वजह से बंद हुये हैं। निजी विद्यालयों की तरफ सत्ता का झुकाव सबको पता है। अधिकांश निजी विद्यालयों के मालिकों का नेताओं से अच्छा रसूख है। सरकार खुद ही सरकारी विद्यालयों को बंद करने की मानसिकता रखती है। शिक्षा को भी व्यापार बना दिया गया है। यहां भी करनी और कथनी में भेद का आचरण मौजूद है। लोग सस्ते में शिक्षित होंगे तो रोजगार मांगेंगे और निजी विद्यालयों के मालिकों की काली कमाई पर रोक लग जायेगी।

हमारे सनातन योगाभ्यास का भी यही हाल है।बस प्रचार,प्रचार और प्रचार। योगाभ्यास से किसी को कोई मतलब नहीं है। संपूर्ण योगाभ्यास का व्यापारी बाबाओं ने व्यापारीकरण कर दिया है। जहां भी रुपया बनता हो,बनाओ। अभी अमरीका के 1776 फीट ऊंचे वर्ल्ड ट्रेड सेंटर  पर आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा योगाभ्यास करवाया गया है।21 जनवरी के विश्व योगा डे (योग दिवस नहीं)की तैयारियां चल रही हैं। योगाभ्यास में इतना दिखावा और नाटकबाजी करने की क्या जरूरत है? योगाभ्यास से अहंकार,दिखावे, नाटकबाजी,पद, प्रतिष्ठा आदि विकारों को दूर करके चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना है। लेकिन योगा (योग नहीं)के अभ्यास द्वारा शैतानी दिमाग की भीड़ को तैयार किया जा रहा है। योगा सिखाने, सीखने और इसकी आड़ में राजनीति करने वाले लोगों के दुष्टाचरण से साफ दिखाई पड़ रहा है कि इनके पास नैतिकता,सात्विकता, सद्विचार, सद्भावना आदि का कोई चिह्न मौजूद नहीं है।
सरकार का मतलब जनमानस का हित सर्वोपरि होना चाहिये लेकिन हो विपरीत रहा है। हरेक राजनीतिक दल स्वयं की ही सेवा करने में व्यस्त है। राजनीति से सेवा करने की सीख तो कब की गायब हो गई है। अधिकांश लोग राजनीति में वही आते हैं जिनकी आपराधिक प्रवृत्ति होती है।आम जनसाधारण भारतीय चुनाव लड़कर ही दिखला दो।एक विधायक और सांसद अपने चुनावी खर्च पर 50-50,100-100 करोड़ रुपये खर्च कर देता है। फ्री में पांच किलो अनाज से पेट भरने वाला भारतीय चुनाव लड़ेगा?
संचार माध्यम जनता तक सत्य सुचनाएं पहुंचाने हेतु होते हैं लेकिन ये सभी सरकारों की गुलामी और सेवा करने में लगे हुये हैं। पूरा संचार का सिस्टम हैक किया जा चुका है। मीडिया सच्चाई नहीं दिखलाकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार का प्रशस्ति गान करने पर लगा हुआ है। टीवी चैनल की मालिक और करोड़ों अरबों में खेल रहे हैं और जनमानस दाल, रोटी,आटे, तेल, किराये, गैस और बच्चों की फीस के लिये पसीना पसीना हो रहा है। संवैधानिक आदर्श समता, समानता, भाईचारा, संसाधनों का समान बंटवारा गये तेल लेने।

बड़ी पीढ़ी और युवा पीढ़ी में परस्पर संवाद आवश्यक है। लेकिन इस संवाद को अब्राहमिक सोच ने भंग कर दिया है। भारतीय धर्म और संस्कृति में निहित जीवनमूल्यों की शिक्षा देने की कोई चिंता और व्याकुलता सिस्टम की ओर से नहीं है। दुनिया को नैतिकता और तर्क सिखाने वाले भारत में नैतिकता और तार्किकता गायब हो गये हैं।
महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की आयु कम है। इसकी तह में जाना आवश्यक है। इसके कारण की तलाश करने की अपेक्षा लीपापोती करने पर ध्यान अधिक है। पुरुषों की बैचेनी, व्याकुलता, बेबसी, अकेलेपन, तनाव और चिंता की किसी को कोई चिंता नहीं है। रिसर्च जर्नल्स में नारी गरिमा के आलेख प्रकाशित करने और करवाने वालों को शायद दिमागी लकवा लगा हुआ है।
धर्म की आड़ में चमत्कार अधिक और जीवनमूल्यों को धारण करने की बात कम है। विभिन्न मंचों से धर्मगुरु लोग जिन बातों का प्रचार-प्रसार करते हैं, यदि उनकी कही गई दस प्रतिशत बातों को भी वो निजी आचरण में उतार लें तो भारत विश्वगुरू बन जाये। लेकिन करे कौन? सारे आदर्श और उपदेश केवल मेहनतकश भारतीयों के लिये ही आरक्षित हैं। बड़े लोगों को हर क्षेत्र में धींगामुश्ती करने की खुली छूट मिली हुई है।

 भारत में खुदाईयों से मिले सबूत यह सिद्ध करते हैं कि कश्मीर, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा,आसाम, केरल, तमिलनाडु आदि सभी जगह पर 12000 वर्षों से नगरीय और ग्रामीण दोनों प्रकार की बस्तियां मौजूद थीं। लेकिन शिक्षा संस्थानों में वही मैकालयी पुस्तकें रटवाई जा रही हैं। भारत को राजनीतिक आजादी तो कहने को मिल गई है लेकिन मानसिक, शैक्षिक,शोधपरक,व्यापारिक, आर्थिक, सामाजिक और तार्किक आजादी अब भी नहीं मिली है। मंदबुद्धि,अल्पबुद्धि,,मूढबुद्धि  लोगों से भारत भरा हुआ है।जी हुजूरी और लंबलेट हो जाना ही सफलता और सम्मान का प्रतीक बन गया है।

भारत का रोल मॉडल कहे जाने वाले गुजरात में किसी हस्पताल का विडियोज़ से जुडा कारनामा उजागर हुआ है। हस्पताल के कर्मचारियों ने महिला रोगियों के एक्सरे,अल्ट्रासाउंड तथा अन्य चैक अप के हजारों अश्लील विडियोज़ टैलीग्राम पर रुपये लेकर अपलोड किये हैं।चैक अप के दौरान यह सब काम गुप्त विडियोज़ से किया गया होगा। रुपये कमाने के लिये लोग किसी भी सीमा तक जा रहे हैं। मूल्य, नैतिकता, सदाचरण आदि का कोई महत्व नहीं है।एक नये कहे जाने वाले लेकिन पुरातन विषय 'चिकित्सा नैतिकता' का बड़ा शोर मचा रखा है। लेकिन मूल्य , नैतिकता और सदाचार तो सब जगह लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। पाश्चात्य प्रभाव के कारण मैडिकल इथिक्स का बड़ा शोर मचा हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि किसी का कुछ नहीं बिगड़नेवाला।

 किसी ने कहा है कि कीचड़ और लीचड़ से बचकर रहो। लेकिन समस्या तो यह है कि बचकर कैसे रहा जाये तथा इस तरह से बचना क्या भगोड़ापन नहीं कहा जायेगा?जब मजहब, संप्रदाय, राजनीति, शिक्षा, व्यापार, प्रबंधन, खेती-बाड़ी आदि सब जगह लीचड भरे हुये हैं तथा गली,सड़क,गटर,नाले,पार्क आदि सब जगह पर कीचड़ ही कीचड़ भरा हुआ है,इन दोनों से बचकर रहने से सांसारिक जीवन एक कदम भी नहीं चल पायेगा।संसार को लीचड़ और कीचड़ मानकर तो सिद्धार्थ गौतम भी भागकर चले गये थे तथा संसार के प्रथम भगोडे कहलाये। लेकिन हुआ क्या? वापस इसी लीचड़ और कीचड़ वाले संसार में आये या नहीं?इस संसार से भागने के फलस्वरूप अधिकांश भारत को निठल्ले,कायर और भगोडे भिक्षुओं से भर दिया। सर्वप्रथम भारत को विदेशी आक्रांताओं हेतु सहज टारगेट भी भिक्षुओं ने ही बना दिया था।

' सेव अर्थ ' कहकर हजारों किलोमीटर की यात्रा करने का ढोंग करने वाले पाखंडी बाबा अब कहां छिप गये हैं? सत्ताधारी दल द्वारा अपने पूंजीपति साथियों को लाभ पहुंचाने के लिये तेलंगाना में जंगलों को उजाड़कर वहां पर कोई भव्य निर्माण करने की योजना पर काम हो रहा है। आगे आओ बाबा जी, रोको भारतीय भूमि को बर्बाद होने से। भारत को जंगल काटने वालों और जंगलराज से बचाओ। पाखंड करना छोड़कर आओ मैदान में तथा सरकार के विरोध में धरना प्रदर्शन आदि करो।वास्तविकता यह है कि कोई भी बाबा धरती और जंगल को बचाने नहीं आयेगा।इन बाबाओं , पूंजीपतियों और नेताओं की परस्पर दोस्ती है। ये तीनों मिलकर जनमानस का रक्तपान इसी तरह से करते रहेंगे। मंचों से जो जोशीले और सदाचार के प्रवचन दिये जाते हैं,उनको ये खुद ही नहीं मानते हैं।इनके कर्मों और आचरण में कोई भी तालमेल नहीं है! मांसाहारी अहिंसा और करुणा के प्रवचन दे रहे हैं।नकली डिग्रीधारी उच्च शिक्षा का महत्व बतला रहे हैं।भ्रष्टाचारी सदाचार का उपदेश दे रहे हैं। बलात्कारी महिला सम्मान की सीख दे रहे हैं। तामसिक लोग सात्विकता के महत्व को बतला रहे हैं। बलात्कारी बाबा बार-बार पैरोल पर बाहर आ रहे हैं। न्याय करने वाले न्यायाधीश स्वयं हजारों करोड़ रुपये के साथ पकडे जाकर भी न्याय और पद की शपथ ले लेते हैं। और तो और अब तो उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश ही लड़कियों के गुप्तांगों से छेड़छाड़ करने को सही ठहरा रहे हैं। वाह रे न्याय के रखवाले भारतीय महारथियों।

 अपने आराध्य महापुरुषों का अनुयायी लोग कितना अनुसरण करते हैं,इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये।आचार्य रजनीश  उर्फ ओशो ने फिरंगियों की सुविधा के लिये कई ध्यान विधियों का निर्माण किया तथा अपने आध्यात्मिक मिशन के प्रचार प्रसार और आश्रमों के संचालन का महत्वपूर्ण भार भी फिरंगियों पर ही डाला था।जो परिणाम आना था,वह आया भी। फिरंगियों ने ओशो की अधिकांश आध्यात्मिक संपदा पर जबरन अधिकार करके भारतीय संन्यासियों को आश्रमों से भगा दिया। यहां तक कि पूना के आश्रम में भी ओशो संन्यासियों को लाठियां मारकर पीटा तक गया है। पूना का आश्रम अपना आध्यात्मिक वैभव इतनी जल्दी खो देगा,इसका आशा ओशो को भी नहीं रही होगी। फिरंगियों ने जहां भी प्रवेश किया, वहीं पर विनाश, मतांतरण, शोषण, व्यापार, भेदभाव और छुआछूत को शुरू कर दिया। ओशो की ध्यान विधियों का फिरंगियों पर कोई प्रभाव नहीं पड सका।जो फिरंगी ओशो के सर्वाधिक समीप रहते थे,जब उनका यह बुरा हाल है तो बाकी का क्या हाल होगा, अंदाज लगाया जा सकता है। ओशो की आध्यात्मिक संपदा जितनी जल्दी गुरुडम और पाखंडी का शिकार हुई, उतनी जल्दी तो आर्यसमाज, रामकृष्ण मिशन आदि भी नहीं हुये हैं। आर्यसमाज जैसे क्रांतिकारी संगठन को पाखंडी बनने में कई दशक लग गये लेकिन ओशो रजनीश के देहावसान को प्राप्त होते ही फिरंगियों ने पूरी आध्यात्मिक साधना और पुस्तक परंपरा को अपने कब्जे में लेकर सबको गलत सिद्ध कर दिया है। ओशो के फिरंगी संन्यासियों ने ही ओशो को सबसे पहले गलत सिद्ध कर दिया है। भारतीय संन्यासियों का नंबर तो बाद में आता है।पढ़ें लिखे भारतीय अनपढ़ों को फिर भी अक्ल नहीं आ रही है। ओरेगॉन अमरीका में ओशो के साथ जो दुर्व्यवहार किया था,वह पूरे संसार के सामने है। परमहंस योगानंद, राधास्वामी, इस्कॉन, रामकृष्ण मिशन, महेश योगी, ब्रह्माकुमारीज,आर्ट ऑफ लिविंग,जग्गी वासुदेव आदि मिशनरी जबरन प्रचारकों, बाईबल,ईसा मसीह,सैंट पाल,सैंट थामस आदि का प्रशस्ति गान वैसे ही नहीं करते आये हैं। आखिर या तो ये उनसे मिले हुये हैं या फिर वहां पर इनको अपनी जड़ों को जमाना है। अपनी जड़ों को पश्चिम में रोपने के लिये भारतीय धर्माचार्य झूठ का सहारा लेते आये हैं।सच बोलते इनका वही बुरा हाल किया जायेगा,जो बुरा हाल ओशो का किया था। राजीव भाई दीक्षित ने सच बोलना जारी रखा,उनका क्या हुआ?वो तो अधिकांशतः भारत में ही काम करते आ रहे थे।फिरंगियों का आचरण उनकी कथनी से बिल्कुल विपरीत होता है।थियोसोफिकल सोसायटी के कर्नल अल्काट, ब्लावट्स्की,ऐनी बेसेंट आदि ने जिद्दू कृष्णमूर्ति का यूज करके उनको विश्वगुरु प्रचारित करके सनातन धर्म के विरोध में अपने ईसाईयत और नवबौद्ध के सम्मिलित एजेंडे को सफल बनाने का पुरजोर प्रयास किया था, लेकिन स्वयं जिद्दू कृष्णमूर्ति ने उनके षड्यंत्र पर पानी फेर दिया था।काश, ओशो के पास भी कोई ऐसी संन्यासियों की सजग और सचेत मंडली होती जो फिरंगियों के मनसूबे को सफल नहीं होने देती। पश्चिमी लोगों की करनी और कथनी का भेद हर अवसर, परिस्थिति और स्थान पर दिखाई पड़ता है।

एक तरफ तो आधुनिक युग ने भौतिक क्षेत्र में चमत्कारिक तरक्की कर ली है तो दूसरी तरफ आचरण और चरित्र से संबंधित नैतिक, मानसिक, मूल्यपरक, तार्किक, सदाचार, सद्भावना आदि सब कुछ लुप्त सा हो गया है।होश,जागरण, जागरुकता, विवेक,समझ,संवेदनशीलता आदि को कहीं कोई महत्व नहीं दिया जाता है। आदर्शवादी प्रवचन सभी देते हैं लेकिन आचरण में उतारने की न तो शिक्षा दी जाती है तथा न ही कोई ऐसा कर रहा है। दर्शन,दर्शनशास्त्र, फिलासफी आदि सिर्फ बातचीत तक सिमटकर रह गये हैं।

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आचार्य शीलक राम
दर्शनशास्त्र विभाग
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र -136119

 

*आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)*

राष्ट्रीय कविता प्रतियोगिता

आपको जानकर अतीव प्रसन्नता होगी कि भारत की प्रसिद्ध धर्म, दर्शन, योग व हिन्दी के प्रसार-प्रचार को समर्पित तथा अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका प्रमाण अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका  (आईएसएसएन:2249-2976),  चिन्तन अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन:2229-7227), हिन्दू अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन : 2348-0114), आर्य अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2348 – 876x) व द्रष्टा अन्तर्राष्ट्रीय मुल्यांकित त्रैमासिक शोध पत्रिका (आईएसएसएन: 2277-2480)  को प्रकाशित करने वाली संस्था *आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)* के तत्वावधान में निःशुल्क राष्ट्रीय 44वीं कविता प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है ।

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*विषय :  वैशाखी*

प्रतियोगिता की शर्तें:-

1. आपकी रचना देवनागरी लिपि में टंकित होनीं चाहिए।

2. दिए गए उपरोक्त विषय पर रचनाये स्वीकार की जाएंगी ।

3. रचना में किसी भी प्रकार के अश्लील, असामाजिक व राष्ट्र विरोधी शब्द नही होने चाहिए।

4. एक रचनाकार केवल एक ही रचना भेज सकता है।

5. रचना की उत्कृष्टता के आधार पर विजेताओं का चयन किया जाएगा।

6. चयन पैनल का निर्णय सर्वमान्य होगा।

7. रचना के नीचे रचनाकार की सामान्य जानकारियां जैसे- नाम, पता, सम्पर्क सूत्र, ई-मेल आदि अवश्य लिखी होनी चाहिए।

8. ग्रुप में किसी प्रकार का वाट्सएप व यूट्यूब लिंक ना पोस्ट करें l ऐसा करने पर उसे ग्रुप से बाहर कर दिया जाएगाl

9. रचना 18 अप्रैल 2025 तक ग्रुप में भेज सकते हैं, उसके बाद किसी भी रचनाकार की रचना स्वीकार नही की जाएगी।

10. विजेताओं की घोषणा  ग्रुप में ही की जाएगी।

11. दस सर्वश्रेष्ठ कवियों को आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) की ओर से प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे॥

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पंजीकरण शुल्क - *निःशुल्क*

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रचना भेजने के माध्यम:-

रचनाएं केवल हिन्दी कवि व कविताएं ग्रुप में ही स्वीकार की जाएंगी।

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निवेदक :

*आचार्य शीलक राम*

अध्यक्ष आचार्य अकादमी चुलियाणा

रोहतक (हरियाणा)

*वैदिक योग शाला*

कुरूक्षेत्र (हरियाणा)

 

 


Tuesday, April 1, 2025

Under the Guise of Religion

 

 

 


 Under the Guise of Religion

It has been the tendency of worldly people to prefer blind imitation over making efforts for their own progress. They feel more comfortable relying on some external support, anchor, or refuge rather than taking responsibility for their own upliftment. They lack the courage to work for their own welfare and do not have the mindset to liberate themselves through their own efforts. They always seek some form of support, under whose shelter they can rest easily. This tendency of slavery and dependence is prevalent to varying degrees in every part of the world. Surrendering oneself to someone else is a sign of mental weakness, and this mental weakness is found everywhere. It is common to see people making themselves slaves or dependents of religious gurus, storytellers, saints, monks, swamis, yogis, priests, pastors, mullahs, leaders, preachers, reformers, caste leaders, and others across the globe. These very people are responsible for inciting communal and sectarian conflicts. When someone blindly surrenders to another without thinking critically, they lose their ability to reason and make sound decisions. Such a person becomes a puppet in the hands of their guru, leader, or guide and is willing to commit even the most inhumane and immoral acts at their command.

                 Communal, sectarian, casteist, and regional leaders, along with religious preachers, frequently incite the masses against one another, leading to riots and violence. When someone's thinking is mortgaged to another, they can be easily manipulated to commit atrocities, murders, arson, violence, cow slaughter, communal riots, and massacres. Hence, it is said that being a blind devotee requires extreme foolishness. Those who have surrendered their intellect, reasoning, and decision-making abilities to others can be easily exploited to commit any immoral, irreligious, and inhumane acts. This tendency has been observed for centuries in Buddhist, Jewish, Christian, and Islamic sects, where millions of people have been killed due to communal violence and terrorism. Though blind devotees can kill anyone, the greatest victims have been followers of Sanatan Dharma. It is believed that over the past thirteen centuries, thirty-five crore Sanatanis have been massacred, apart from loot, rapes, destruction of temples, and forced conversions.

Sanatanis have not only suffered at the hands of the invaders—Yavanas, Mongols, Turks, Afghans, Mughals, and the British—but also during the three centuries of Buddhist rulers who inflicted numerous massacres, forced conversions, and plunder. It should be remembered that after the Mahabharata war, during the reign of the Gupta kings, India once again became the world’s guru, a global superpower, a golden bird, and a center of education. Following them, emperors like the Pals and Cholas further elevated India’s development and prosperity. However, the three hundred years of Buddhist rule were marked by bloodshed, forced conversions, and plunder. The Mughal era was an age of destruction, exploitation, conversions, and debauchery. Calling this period a golden age of art by communist writers reflects their ignorance, deceit, prejudice, fantasy, and anti-Sanatan bias.

Ashoka’s Religious Policy and Historical Misrepresentation

Emperor Ashoka and other rulers projected themselves more as Sanatanis than followers of Buddhism while spreading Dharma abroad. They succeeded because, before Ashoka, Sanatan sages, saints, and monks had been spreading the religion to foreign lands. Foreigners perceived Ashoka as a Sanatani preacher. However, Ashoka subtly transformed Sanatani temples and educational centers into Buddhist institutions. After Ashoka, the golden age of the Gupta dynasty continued for several centuries. Nalanda, Vikramshila, and several other world-renowned universities were established during the Gupta period, where various subjects such as Sanatan philosophy, Buddhism, Jainism, Charvaka, Shaivism, Tantra, Ayurveda, agriculture, astrology, grammar, and warfare were taught without any discrimination. Even at the time of Bakhtiyar Khilji’s invasion, these universities were not exclusively Buddhist, but this historical distortion was later propagated by Christian-influenced Buddhist writers, communists, Islamic scholars, and secular historians.

 

Decline of Buddhism and the Role of Communists

The decline of Buddhism began in the seventh and eighth centuries due to the influence of Vajrayana, which promoted indulgence in luxury and sensual pleasures. By the eleventh and twelfth centuries, after Bakhtiyar Khilji’s invasions, all Buddhist scholars fled with their texts to China, Burma, Mongolia, Thailand, Sri Lanka, Tibet, and other countries. Immersed in the indulgent practices of Vajrayana, they had no warriors left to defend their faith. Their monastic tendency had weakened India, and when danger struck, all the Buddhists fled. For the next thousand years, it was the Sanatanis who defended the land from foreign invaders and preserved Sanatan Dharma and culture. Ironically, the same Buddhists who abandoned India during the crisis have been accusing Sanatanis of destroying Buddhism for the past hundred years.

Even prominent gurus like Acharya Rajneesh have propagated such falsehoods, which is surprising. Where were these critics when China destroyed Buddhism in Tibet? It was the Sanatan Dharmis of India who extended support to the Dalai Lama. No communist, neo-Buddhist, indigenous thinker, Macaulayite, Sankrityayan, Romila Thapar, or Habib stood up against China. The communists have eradicated Buddhism from China and Tibet, but none of these individuals have written books on it, fought against China, or protested against Chinese oppression. Only Sanatan Dharmis have supported the Dalai Lama. The opponents of Sanatan Dharma have crossed all limits of hypocrisy, deceit, lies, and fraud.

The Hypocrisy of Modern Religious Leaders

Many of our contemporary religious leaders, politicians, storytellers, saints, authors, thinkers, and teachers today advocate for Buddhism while claiming to be Sanatanis. Though they call themselves Sanatanis, they still carry the Buddhist influence in their veins. They remember Buddha, Ashoka, and Gandhi more than Manu, Vashistha, Parashara, Shri Ram, Shri Krishna, Vidura, Bhishma, Yudhishthira, Ved Vyas, Chandragupta Maurya, Chanakya, Vikramaditya, Samudragupta, Shankaracharya, Kumarila, Mandan Mishra, Harsha Vardhana, Rana Pratap, Sangha, Shivaji, Govind Singh and Dayanand.

Do the so-called Sanatan leaders and religious gurus today teach their children Vedas, Upanishads, philosophy, grammar, or Nirukta? The harsh truth is that they do not. These self-proclaimed protectors of Sanatan Dharma send their children to Christian convent schools or foreign universities. It should be noted that Siddhartha Gautama never studied in a Gurukul. He was educated in seclusion at home. He did not gain the complete knowledge of scriptures that he should have. He preached based on his personal experiences and the knowledge he acquired from a few teachers, which mainly emphasized moral conduct, not philosophy.

Hijacking of Gautama Buddha’s Teachings

Today’s leaders, monks, and religious preachers have not embodied Gautama Buddha’s teachings but have hijacked them. Christians and neo-Buddhists have been at the forefront of this. The Theosophical Society and the Brahmo Samaj played significant roles in this hijacking. They even tried to trap Jiddu Krishnamurti but failed. As neo-Buddhists, they have succeeded to some extent in shaking India’s unity and integrity. Our constitutional system and some leaders have fallen prey to this strategy in their quest to secure the Dalit vote bank. India, Indians, and Indian culture continue to suffer due to this exploitation.

Over the past seven decades, our leaders, religious gurus, and reformers have caused immense harm to Sanatan Dharma, culture, philosophy, and history to fulfill their political ambitions, increase their followers, and satisfy their personal aspirations. Unfortunately, they are still engaged in this destructive pursuit.

Kapila’s Sankhya and Misunderstanding of Ancient Teachings

Siddhartha Gautama and Mahavira had studied Kapila’s Sankhya philosophy and learned yoga practices from Sankhya Acharyas. Sankhya is a doctrine derived from the Vedas. These great men opposed the frauds of their time—like today’s Rampal Das, Gurmeet Ram, Sai Baba, Brahma Kumaris—who were using religious rituals as a cover to fulfill their ambitions. However, they never opposed Sanatan Dharma itself. The same fraudulent elements that misuse religion today existed in their time as well, hiding behind the guise of Vedas, Upanishads, philosophy, and rituals to run their businesses.

Acharya Sheelak Ram

Department of Philosophy

Kurukshetra University

Kurukshetra - 136119