गीतोपदेश भी भय को केन्द्र में रखकर दिया गया उपदेश है। अर्जुन युद्ध के मैदान से भाग क्यांे जाना चाहता था? अर्जुन को ऐसा क्या हो गया था कि वह अपने बन्धु-बांधवों का युद्ध में सामना न करके संन्यासी हो जाने की जीवन-शैली को पंसद करने लगा? जिन बंधु-बांधवों को अर्जुन ने इससे पहले कई बार युद्धों में हराया था, आज महाभारत के युद्ध में अर्जुन उन्हीं बन्धु-बांधवों का सामना क्यों नहीं करना चाहता? पाण्डवों का सब कुछ छिन लिए जाने के बावजूद भी अर्जुन अपने सामने खड़े युद्ध-पिपासु धूर्त सगे-संबंधियों को क्षमा करके ज्ञानमार्ग, संन्यास, अहिंसा, करुणा, क्षमादि की बातें क्यों कर रहा है? अर्जुन जैसा विश्व-प्रसिद्ध महारथी स्वयं अपने, अपने भाईयों, अपने माता-पिता, अपने परिवार, अपने समाज, अपने राष्ट्र, अपने धर्म, अपनी सस्ंकृति के अपमान को होते हुए कैसे देख सकता है? अर्जुन के पैर कम्प रहे हैं- गला सुख गया - चक्कर आ रहे हैं - अंगों में पसीना आ रहा है- बुद्धि कार्य करना छोड़ चुकी है - वह खड़ा रहने में भी अशक्त है। इस सबका कारण भय ही तो है। निर्भयता को सिद्ध करने वाला अर्जुन आज युद्ध के मैदान पर भयभीत है। इससे अधिक अविश्वसनीय, अकल्पनीय, चिंतनीय अन्य क्या हो सकता है कि अर्जुन जैसे यद्धु-महारथी भी युद्ध के मैदान को छोड़ने के बहानों की तलाश करने लगे तथा इसी के चहुंदिशि एक पूरा दर्शनशास्त्र खड़ा करने की असफल कोशिश करे? अर्जुन की उस कोशिश को असफल इसलिए कहा गया है क्योंकि अर्जुन ने श्रीकृष्ण की मदद से उसको सफल नहीं होने दिया। जबकि गांधी-विनोबा जैसे लोग अपनी इस प्रकार की कोशिश में सफल नहीं हो पाए तथा भारत को एकतरफा अहिंसा, करुणा, सद्भाव, क्षमा, भाईचारे, दब्बूपन एवं भीरूता के गड्ढों में धकेल दिया। गांधी-विनोबा को योग्य गुरु नहीं मिले लेकिन अर्जुन सौभाग्यशाली था कि उन्हें गुरु या सखा के रूप में स्वयं श्री कृष्ण जैसी
विराट चेतना का साहचर्य उपलब्ध हुआ। वैसे कुछ भी हो लेकिन अपने लोगों से हिंसक लड़ाई सिर्फ राजा-महाराजा ही लड़ सकते हैं। किसान-मजदूर के लिए तो सबसे भला रास्ता गांधी-विनोबा का अहिंसक रास्ता ही है। पिछले दस महीने से किसान ऐसा ही कर रहे है हैं। पूरा का पूरा गीतोपदेश भय व अभय, भयभीत व निर्भयता, पलायन और डटकर मुकाबला करने, भीरूता व जुझारूपन, भाग जाने व दो-दो हाथ करने, कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने व आंखें खोलकर मौजुदा परिस्थितियों का मुकाबला करने पर केन्द्रित है। यदि अर्जुन भय, मोह, संदेह, संशेय व राग में पड़कर युद्ध से पलायन किए जाने की बातें न करता तो श्रीकृष्ण को अठारह अध्याययुक्त गीतोपदेश देने की जरूरत ही क्यों पड़ती? अर्जुन को यह भय हुआ और श्रीकृष्ण ने गीतोपदेश दिया जो कि आज समस्त विश्व के सामने है। लेकिन यदि वास्तव में ही अर्जुन श्रीकृष्ण के ‘निष्काम-कर्म’ के गीतोपदेश को न मानकर युद्ध के मैदान को छोड़कर चले जाते तो क्या फिर भी गीतोपदेश हमारे लिए व समस्त विश्व के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण होता, जितना कि आज है? शायद बिल्कुल भी नहीं। अर्जुन का भय, मोह, संदेह, रागादि अर्जनु के साथ ही मौजदु रहते तथा अर्जुन व उनके पारिवारिक जन को कहीं का भी नहीं छोड़ते। ‘अभय’ हो जाने को भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में (16/1) दैवी-सम्पदा का स्वामी होना माना है।
##आचार्य शीलक राम##
"क्रांतिकारी विचारक, लेखक, कवि, आलोचक, संपादक" हरियाणा की प्रसिद्ध दार्शनिक, साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रवादी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार को समर्पित संस्था आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा) का संचालन तथा साथ-साथ कई शोध पत्रिकाओं का प्रकाशन। मेरी अब तक धर्म, दर्शन, सनातन संस्कृति पर पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आचार्य शीलक राम पता: आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक हरियाणा वैदिक योगशाला कुरुक्षेत्र, हरियाणा ईमेल : shilakram9@gmail.com
Tuesday, July 26, 2022
गीतोपदेश
Saturday, July 16, 2022
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