सन् 1946 ई॰ तक
भारत में जाति
विषयक पुस्तकों की
संख्या 5000 तक थी
। अब यानि
आज 2017 ई॰ या
विक्रमी सम्वत् 2074 में इन
पुस्तकों की संख्या
एक लाख के
आसपास है ।
आज भी यह
लेखन जारी है
। लेकिन विचित्र
एवं सावधानी रखने
की बात यह
है कि इनमें
से अधिकांश पुस्तकें
विदेशी उन लेखकों
द्वारा लिखी जा
रही हैं जिनका
एकमात्र उद्देश्य भारत में
जातीय, पंथिक एवं ऊँच-नीच की
भावना को विस्तार
देना है ।
यह कार्य पहले
मुखर होकर किया
जाता था लेकिन
अब यह कार्य
प्रत्यक्ष रूप से
न करके अप्रत्यक्ष
रूप से या
कानून का सहारा
लेकर किया जा
रहा है। अधिकांश
अध्ययन व शोध
भारत को कमजोर
करने हेतु किये
जा रहे हैं
। वास्तव में
अध्ययन व शोध
का उद्देश्य यह
होना चाहिए कि
जातीय या पंथिक
आधार पर जिनके
साथ भेदभाव किया
जाता हो - उनके
साथ यह सब
बंद हो तथा
वे भी विकास
का स्वाद चख
सकें । लेकिन
हो रहा है
कतई इसके विपरीत
। समता, समानता
व जातीय सम्मान
को दूर फेंककर
इन अध्ययनों का
अधिकांशतः उद्देश्य यह हो
गया है कि
भारत को खंडित
करके अपना हित
साधा जाए ।
यह तो है
जातीय अध्ययन की
वास्तविकता। अब यदि
हम पंथिक क्षेत्र
की बात करें
तो आज भारत
व भारत के
अधिकतर संगठन तथा विदेश
के तो सभी
संगठन भारत को
कमजोर, निम्न, हीन एवं
पिछड़ा हुआ सिद्ध
करने में लगे
हैं । आप
कहीं भी किसी
भी क्षेत्र पर
नजर दौडाइए, आपको
सर्वत्र यह दिखलाई
पड़ेगा कि गलती
या कमी किसी
भी संप्रदाय या
पंथ की हो,
उसका ठीकरा हिंदू
जीवनशैली पर ही
फूटने वाला है
। हां, जरूरी
यह है कि
आपका देखना कुछ
आशा में तो
निष्पक्ष होना ही
चाहिए । इस
तरह के सारे
विदेशी व स्वदेशी
तत्त्व जाति व
पंथ के नाम
पर हमारे भारत
के तथाकथित दलित
लोगों का खूब
शोषण कर रहे
हैं । अजीब
बात देखिए कि
हमारे दलित भाईयों
(अधिकांश शिक्षित) का माईंड
इन्होंने वाश करके
रखा हुआ है
। ये देश
तोड़ने वाली बातों
को भी अपने
हित की बातें
मान रहे हैं
। इन्हें यह
नहीं पता कि
ये विदेशी सिर्फ
व सिर्फ अपने
हित की सोचते
हैं । अब
जो प्रलोभन जाति,
पंथ, शोषण या
भेदभाव के नाम
पर दलितों को
दिए जा रहे
हैं ये सारे
के सारे न
तो दलित भाईयों
के हित में
हैं तथा न
ही भारत के
हित में ।
‘फूट डालो व
राज करो’ की
अंग्रेज नीति का
यह एक अन्य
पहलू है ।
किसी भारतवासी पर
अत्याचार होते हैं
तो भारत में
ही उसका समाधान
होना चाहिए तथा
भारतीय सोच के
अनुसार ही होना
चाहिए । भारत
की एकता व
अखंडता को नुकसान
पहुंचाकर यदि कोई
अपना हित देखता
हो तो यह
उसकी मूर्खता है
। इस मूर्खता
को चाहे कोई
ब्राह्मण कहा जाने
वाला करे या
शूद्र कहा जाने
वाला करे - यह
मूर्खता केवल मूर्खता
है । आज
भी जातिवादी दलित
लेखन में तीन
चैथाई भागीदारी विदेशियों
की है खासकर
अमेरीकी व युरोपीय
लेखकों व संस्थाओं
की । अब
जाति संबंधी लेखन
और वाचन बौद्धिक,
अकादमिक कार्य के साथ-साथ सक्रिय
एक्टिविज्म और कूटनीति
से भी जुड़
गया है ।
दलित एडवोकेसी और
दलित मानवाधिकार आज
एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय
कारोबार के रूप
में स्थापित हो
चुका है ।
लेकिन इसमें भारतीय
लेखकों की भागीदारी
न के बराबर
है । (एस॰
शंकर का आलेख,
जागरण दैनिक, अप्रैल
14, 2014)
वैंडी डोनीनगर जैसे
लेखक अपनी मनमानी
व मनघड़ंत कल्पनाओं,
बेवकूफियों व मूढ़ताओं
को अन्य धर्मों
पर, विशेषकर हिन्दू
धर्म पर लादने
को अपना मूलभूत
अधिकार मानते हैं ।
अन्य लोग तो
उन हेतु हरकारे
भरा जानकारी प्रदान
करने वाले ही
हो सकते हैं
। अंतिम परिणाम
पर पहुंचने या
निष्कर्ष निकालने का काम
सिर्फ अंग्रेजी लेखकों
का है ।
अधिकांश देश इंग्लैण्ड
या अमरीका की
गिरफ्त से आजाद
हो चुके हैं
लेकिन अब पिछले
कई दशक से
किसी अन्य प्रकार
से उनको गुलाम
बनाए रखने का
षड्यंत्र चलाया जा रहा
है । और
सच यही है
कि अपने भेदभावी
पूर्वाग्रहपूर्ण लेखनीय निष्कर्षों, बहुराष्ट्रीय
कंपनियों, हथियार बेचने के
एक मात्र बाजार
के मालिकाना हक
के स्वामी होने
के नाते अपनी
शिक्षा के बेसूरे
सिद्धांतों तथा अवैज्ञानिक
पंाथिक पूर्वाग्रहों के कारणों
को ध्यान में
रखते हुए यह
कहा जा सकता
है कि ये
विदेशी आज भी
स्वामी होने की
मानसिकता को छोड़
नहीं पाए हैं
। ये आज
भी स्वयं को
सर्वश्रेष्ठ तथा अन्यों
को गुलाम मानते
हैं । भारतीय
दलित लेखकों को
विदेश में प्रलोभन
देकर बुलाया जाता
है - व्याख्यान, सेमिनार
या मीटिंग के
बहाने । होता
वही है जो
वे चाहते हैं
। इस हेतु
विदेशी संस्थाएं खूब रूपया
खर्च करती हैं
। इसके अनेक
प्रमाण मौजूद हैं ।
लेकिन न तो
हमारे दलित भाई
इन षड्यंत्रों को
समझ पाए हैं
तथा न ही
हमारी सरकारों ही
। प्राचीन भारतीय
परंपराओं, शास्त्रों व जीवनमूल्यों
को गाली देने
वाले हमारे दलित
भाई संत रविदास
की इन पंक्तियों
को पढ़ें -
वेद धर्म
है पून धर्मा
। वेद अतिरिक्त
और है भरमा
।।
वेदवाक्य उत्तम धर्म,
निर्मल वाका ज्ञान
।
यह सच्चा
मत छोड़कर, मैं
क्यों पढू़ं कुंरान
।।
श्रुति, शास्त्र, स्मृति
गाई । प्राण
जाए पर धरम
न जाई ।।
कुरान बहिश्त न
चाहिए, मुझको हूर हजार
।
वेद धर्म
त्यागूं नहीं, जो गल
चले कटार ।।
सत्य सनातन
वेद है, ज्ञान
धर्म मर्याद ।
जो ना
जाने वेद को,
वृथा करे बकवाद
।।
मैं नहीं
कोई बाल गंवारा
। गंग त्याग
गहं ताल किनारा
।।
चोरी शिक्षा
कबहूं नहिं त्यागूं
। वस्त्र समेत
देह मल त्यागूं
।।
कंठ कृपाण
का करो प्रहारा
। चाहे डुबाओ
सिंधू मंझारा ।।
मुस्लिम बादशाह सिकंदर
लोदी द्वारा गुरु
रविदास पर इस्लाम
ग्रहण करने हेतु
अनेक प्रकार के
दबाव व प्रलोभन
डाले गए लेकिन
गुरु रविदास ने
बड़ी दृढ़ता, देशभक्ति
एवं स्वदेशी भावना
का परिचय देते
हुए क्रूर उस
इस्लामी बादशाह को यह
उपर्युक्त जवाब दिया
था । एक
ओर तो गुरु
रविदास जी हैं
तो दूसरी और
आज के हमारे
कुछ भाई है
जो जातिवाद का
सहारा लेकर भारत
व भारतीयता के
विरुद्ध विषवमन करते रहते
हैं । सीखो
कुछ गुरु रविदास
जी से ।
अपने हर
उत्सव, अपनी हर
खुशी, अपने हर
आन्दोलन या अपनी
हरेक गतिविधि में
हमारे दलित चिंतक
पाश्चात्य सोच या
साम्यवादी सोच को
महत्त्व देते हैं
जबकि भारतीय सोच
का तिरस्कार करते
हैं । एक
दलित पत्रिका के
कैलेण्डर में रामनवमी,
कृष्ण अष्टमी, दुर्गा
पूजा तथा गणतंत्र
दिवस तक को
भी स्थान न
देकर ईसाई विभूतियों,
त्यौहारों तथा मिशनरियों
को स्थान दिया
गया है ।
अंबेडकर जितने ही दलितोंद्धारक
स्थामी श्रद्धानंद की भी
उपेक्षा की गई
है । विलियम
कैरी जैसे उग्र
ईसाई मिशनरी को
इस कैलेंडर में
जगह दी गई
है । (एस
शंकर का आलेख,
जागरण दैनिक, अप्रैल
14, 2014) भारत विरोध व हिंदू
विरोध का यह
षड्यंत्र सरेआम चल रहा
है । हमारा
संविधान भी इन
षड्यंत्रों के प्रति
कोई कारर्वाइ नहीं
कर रहा है
। सेक्युलरवाद के
नाम पर ईसाई
मिशनरियों व इस्लामी
जेहादियों को खुली
छूट मिली हुई
है । भारतीय
संविधान को कहते
तो हैं सेक्युलर
लेकिन ईसाई व
मुसलमानों को विशेषाधिकार
दिए गए हैं
। ये अपनी
शिक्षा संस्थाओं में अपने
धार्मिक ग्रंथों को पढ़ा
सकते हैं लेकिन
हिंदू ऐसा नहीं
कर सकते ।
समान आचार संहिता
न होकर अल्पसंख्यककों
को विशेषाधिकार दिए
गए हैं। पंथ
के नाम पर
आरक्षण दिया जा
रहा है ।
मुसलमान पांच विवाह
कर सकते हैं
लेकिन हिन्दू नहीं
। भारत में
ही कश्मीर, मिजोरम
व नागालैंड आदि
राज्यों में हिंदू
अल्पसंख्यक हैं लेकिन
सरकार उन्हें अल्पसंख्यक मानकर उनको
अल्पसंख्यककों के अधिकार
प्रदान नहीं कर
रही है ।
देश का बंटवारा
धर्म के आधार
पर किया गया
। मुसलमान व
ईसाईयों की देशद्रोही
कारगुजारियों पर भी
हमारे नेता व
लेखक मौन धारण
कर लेते हैं
जबकि हिन्दुओं की
राष्ट्रवादी गतिविधियों में भी
सांप्रदायिकता के तत्त्व
खोज लिए जाते
हैं । हमारे
देश ने एक
खतरनाक दिशा को
पकड़ा हुआ है
जहां पर विनाश
के सिवाय कुछ
भी नहीं है
। यहां तो
सभी उल्टा हो
रहा है ।
दलित लेखकों को
विभिन्न विदेशी अकादमियों या
विदेशी सहायता से संचालित
भारतीय दलित अकादमियों
से जोड़ा जा
रहा है ताकि
उन्हें भारत विरोध
हेतु प्रेरित व
संचालित किया जा
सके । अंबेडकर
भी इसके प्रति
सचेत थे कि
कोई बाहरी शक्ति
हमारा दुरूपयोग या
शोषण न कर
पाए । लेकिन
आज उन्हीं के
नाम का सहारा
लेने वाले विदेशियों
के हाथों में
खेल रहे हैं
। अबंेडकर ने
प्रलोभन देने पर
भी इस्लाम या
ईसाईयत को ग्रहण
न करके बौद्ध
संप्रदाय को ग्रहण
किया था ।
बौद्ध संप्रदाय को
ग्रहण करने में
भी अंबेडकर ने
दूरदर्शिता एवं स्वदेशभावना
का संदेश दिया
था । ईसाई
मिशनरियों व इस्लामी
जेहादियों ने प्रसिद्धि
व पदों का
प्रलोभन देकर अनेक
दलित लेखकों को
खरीद रखा है
जिनको भारत विरोध
हेतु इस्तेमाल किया
जा सके ।
पक्षपात या सेक्युलरवाद
या पंथनिरपेक्षता की
वास्तविकता देखिए। जबकि अहमदाबाद
में 1985 ई॰ में
2500 हिंदू, अहमदाबाद में 1969 ई॰
में 80 हिंदू, 1964 ई॰ में
राउरकेला में 2000 हिंदू, 1947 ई॰
में बंगाल में
5000 हिंदू, असम में
1983 ई॰ में 2000 हिंदू, 1967 ई॰
में राची में
200 हिंदू, भिवंडी में 1970 ई॰
में 800 हिंदू, जमशेदपूर मैं
1979 ई॰ में 210 हिंदू, मुरादाबाद
में 1980 ई॰ में
2000 हिंदू, भिवंडी में 1980 ई॰
में 2000 हिंदू, दिल्ली में
1984 ई॰ में 3000 हिंदू तथा
कश्मीर में अनगिनत
हिंदू मारे जा
चुके हैं तथा
अब भी मारे
जा रहे हैं
लेकिन हमारे सेक्युलरवादी,
कांग्रेसी, दलित आदि
तथा सारा मीडिया
सिर्फ 2002 ई॰ के
गुजरात के दंगों
का हौवा खड़ा
करता रहता है
। लाखों हिंदुओं
की हत्याओं का
कोई जिक्र नहीं
करता, लाखों हिन्दुओं
के शरणार्थी होने
का कोई भी
रोना नहीं रोता
लेकिन एक भी
ईसाई या एक
भी मुसलमान यदि
दंगे में मारा
जाता है तो
सारा मीडिया, ये
सारे सेक्युलरवादी तथा
दलित व कांग्रेसी
चिल्ला-चिल्लाकर आकाश-पाताल
एक कर देते
हैं । यह
है हमारे सेक्युलरवाद
की सच्चाई ।
इस सेक्युलरवाद की
महामारी ने हमारे
भारत को इतना
कमजोर, असहाय, मुकदर्शी एवं
अलग-थलग कर
दिया है कि
जिसका कोई हिसाब
नहीं है ।
अब भी जबकि
राष्ट्रवादी कहे जाने
वाले लोगों की
सरकार है लेकिन
मूढ़ताएं सारी की
सारी पहले वाली
ही चल रही
हैं । भारततोड़को
को पूरी छूट
है कुछ भी
करने की, लेकिन
राष्ट्रवादियों को हर
कदम पर प्रताड़ित
किया जा रहा
है । अब
तो राष्ट्रवादियों के
बोल भी बदल
गए हैं ।
सावरकर की जगह
गांधी के नाम
की पूजा राष्ट्रवादियों
ने भी शुरू
कर दी है
। लगता है
कि इन पर
भी सेक्युलर महामारी
का असर हो
गया है ।
सरकार बनने से
पूर्व जो मोदी
सावरकर, सुभाष, भगतसिंह, बिस्मिल
आदि का नाम
ले रहे थे,
वे सत्ता प्राप्त
होते ही गांधी
के मुरीद हो
गए । अब
भाड़ में जाएं
सावरकर आदि ।
अब क्या करना
है शिवाजी का?
अब सुभाष का?
अब सुभाष की
कोई जरूरत नहीं
है । कहां
मोदी में हिन्दुओं
ने चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त,
शिवाजी आदि को
देख रहे थे
और कहां मोदी
ने गांधी का
नाम ले-लेकर
हिन्दुओं को निराश
कर दिया ।
जो लोग
देश को तोड़ने
तक की शक्ति
रखते हों वे
अल्पसंख्यक कैसे हो
सकते हैं? जिन
लोगों ने पाकिस्तान
निर्माण को वोट
दिया लेकिन अब
भी वे भारत
में ही रहते
हों, वे अल्पसंख्यक
कैसे हो सकते
हैं? जो लोग
आजादी से पहले
व आजादी के
सात दशक के
पश्चात् भी अपने
मनचाने निर्णयों को मनवाने
की शक्ति रखते
हों, वे अल्पसंख्यक
कैसे हो सकते
हैं? भारत में
अब भी अनेक
ऐसी मुस्लिम बस्तियां
हैं जहां पुलिस
जाने से डरती
है लेकिन ऐसी
कोई हिंदू बस्ती
नहीं है जहां
की ऐसा कुछ
होता हो ।
इसके बावजूद भी
हिंदू सांप्रदायिक है
लेकिन मुसलमान सेक्युलर
व शांतिप्रिय है
। भारत में
हर बार सांप्रदायिक
हिंसा का खामियाजा
बहुसंख्यक हिंदुओं को ही
भुगतना पड़ा है
। इसके बावजूद
भी ऐसे-ऐसे
कानून लाने की
तैयारी चल रही
है कि सांप्रदायिक
हिंसा होने पर
दोषी सिर्फ व
सिर्फ हिंदू ही
होंगे । एक
राष्ट्र को कमजोर
करने का इससे
शर्मनाक व घटिया
षड्यंत्र अन्य क्या
हो सकता है?
मुसलमान जहां भी
अल्पसंख्यक होते हैं
वे लोकतंत्र, संविधान
व सेक्युलरवाद की
दुहाई देंगे लेकिन
जैसे ही वे
बहुसंख्यक होते हैं
वे तुरंत शरीआ
की वकालत करने
लगते हैं ।
इस कट्टर सोच
के कारण स्वयं
मुसलमान भी जेहाद
का दंश झले
रहे हैं ।
(बलबीर पुंज, दैनिक पंजाब
केसरी, जनवरी 16, 2015) कट्टरपंथी, जेहादी, नरसंहारी,
बलात्कारी, क्रूर एवं हिंसा
के अवतार अपने
सिरफिरे मुसलमान आतंकियों के
विरुद्ध मुस्लिम समुदाय एक
शब्द भी नहीं
बोलता है ।
यह क्या है?
यह कट्टरपंथ, जेहाद,
नरसंहार, हिंसा एवं बलात्कारों
का समर्थन नहीं
तो और क्या
है? आज भी
हर दिन होने
वाले नरसंहारों-जिनको
मुसलमान आतंकी करते हैं,
मुसलमानी समाज द्वारा
कोई भी विरोध
नहीं किया जाता
है । इन
सबका अपने लोगों
या अपने संप्रदाय
से जुड़े लोगों
द्वारा अनेक कुकृत्यों
या कुकर्मों के
किए जाने के
बावजूद भी मुस्लिम
पंथ उनके विरुद्ध
एक शब्द भी
नहीं बोलता ।
और अनेक अवसरों
पर तो ऐसे
कुकृत्यों व कुकर्मों
के समर्थन में
खड़ा भी दिखलाई
देता है ।
हमारे भारत की
हालत तो और
भी अधिक दयनीय
व सोचनीय है
। यहां तो
वोट बैंक की
राजनीति के चक्कर
में हमारे नेता
तथा पद, दौलत
व प्रसिद्धि पाने
के चक्कर में
शिक्षक, साहित्यकार व सुधारक
मुसलमानों के सारे
कुकृत्यों व कुकर्मों
को सही ठहराते
रहते हैं ।
भारत जाए भाड़
में। अभी-अभी
किसी कांग्रेसी का
बयान आया है
कि केवल गीता
ही नहीं अपितु
शिक्षा-संस्थाओं में बाईबिल
व कुरान को
भी पढ़ाया जाना
चाहिए । इन
मूढ़ों को यह
कौन समझाए कि
यदि ऐसा किया
गया तो हिन्दु
आतंकवाद या भगवा
आतंक का हौवा
बनाए जाने की
मूढ़ता भी कांग्रेसी,
साम्यवादी सेक्युलरवादियों द्वारा बंद कर
देनी चाहिए ।
क्योंकि यदि बाईबिल
व कुरान को
भी पढ़ाया जाने
लगा तो हमें
आतंक, भय, उपद्रव,
नरसंहार व बलात्कारों
हेतु भी तैयारी
कर लेनी चाहिए
। कहां अफीम
खाकर सो रहे
हैं हमारे नेता?
वास्तव में इस्लाम
एक मजहब के
साथ-साथ एक
राजनीतिक व्यवस्था भी है,
यह ध्यान में
रखा जाना चाहिए
। मुसलमान हर
जगह व देश
की स्थानीय जरूरतों
व उपयोगिताओं को
नजरअंदाज करके अपने
कुरान के कानून
को लागू करना
चाहता है ।
इस चक्कर में
ये उस देश
के साथ संघर्ष
भी शुरू कर
देते हैं ।
भारत में कोई
कुछ भी कहता
रहे तथा कोई
बहुसंस्कृति की बात
करता रहे लेकिन
सच्चाई यही है
कि इस्लाम व
ईसाईयत ने कभी
बहुसंस्कृति की अवधारणा
को न तो
माना तथा न
ही अपनाया ।
सदैव इन्होंने अपनी
मान्यताएं श्रेष्ठ बतलाकर अन्य
पंथों व देशों
पर थोपने की
कोशिशे की हैं
। भारत में
ये कभी भी
घुल-मिलकर नहीं
रह पाए ।
भारत में आठवीं
सदी से ही
हिंदू व मुसलमानों
के मध्य झगड़े,
दंगे व नरसंहार
होते ही रहे
हैं । मंगोल,
हूण, कुषाण आदि
हमलावर भारत में
आकर भारतीय ही
बन गए लेकिन
मुसलमान व ईसाई
ऐसा कभी भी
न कर पाए
। इस संबंध
में मैंने आज
तक किसी ईसाई,
मुसलमान, साम्यवादी आदि का
कोई लेख या
पुस्तक या शोध
नहीं देखा है
। ये अन्यों
को मिटाकर अपना
अस्तित्व स्थापित करने में
विश्वास रखते है।
। आज पूरी
दुनिया में 160 करोड़ मुसलमान
हैं लेकिन पेरिस
में मारे गए
दस पत्रकारों की
हत्या पर इनका
सामुहिक विरोध स्वर कतई
प्रकट नहीं हुआ
। इस्लाम के
नाम पर निर्दोष
लोगों का रक्त
बहाना बंद करो,
यह आवाज इस्लाम
के भीतर से
एक स्वर बनकर
आज तक नहीं
उभर पाई है
। (डाॅ॰ मुनीष
कुमार, पांचजन्य, जनवरी 25, 2015 अंक)
मुसलमान सिर्फ कुरान को
जलाए जाने या
मोहम्मद के चित्र
छापने पर विरोध
या नरसंहारों को
अंजाम दे सकता
है लेकिन अपने
ही लोगों द्वारा
इस्लाम के नाम
पर बड़े-बड़े
नरसंहारों के विरोध
में एक शब्द
भी नहीं बोलेगा
। यहां तक
कि बोको हराम
संगठन द्वारा हजारों
लोगों की हत्याओं
व लड़कियों के
साथ बलात्कारों तथा
सीरिया व ईराक
में आई॰ एस॰
आई॰ एस॰ संगठन
द्वारा हजारों यजीदी लोगों
के कत्लेआम व
हजारों लड़कियों के साथ
बलात्कार करके उन्हें
बाजारों में वस्तुओं
की तरह बेचने
पर यह संप्रदाय
मौन धारण किए
रहेगा । विकसित
व आधुनिक कही
जाने वाली इस
दुनिया में यह
सब अनाचरण हो
रहा है और
हम अपने आपको
विकसित भी कहते
हैं । मुझे
तो लगता है
कि यह भी
एक प्रचार ही
है । ईसाई
विकसित कहे जाने
वाले सारे देश
इन कठमूल्ले देशों
को इनकी घृणित
व मानवताविरोधी कारगुजारियों
के बावजूद भी
खूब आर्थिक मदद
दे रहे हैं
। सभी एक
ही थैली के
चट्टे-बट्टे हैं।
आज वास्तव में
ही हम इस्लामी
आतंकवाद के युग
में जी रहे
हैं ।
वैसे जिस
संप्रदाय में मस्तिष्क
का प्रयोग करने
की मनाही, जिस
संप्रदाय में तर्क
को धर्म विरोधी
माना जाता हो,
जिस संप्रदाय में
स्वतंत्र चिंतन को पाप
माना जाता हो,
जिस संप्रदाय में
आलोचना व समीक्षा
को शैतान का
कार्य माना जाता
हो; वहीं पर
ऐसे-ऐसे कुकर्म
शैतानी कार्य, नरसंहार, बलात्कार
एवं मैं सही
व बाकी गलत
की धारणा को
तो बल मिलेगा
ही । मुसलमान
ऐसा मानते हैं,
इसे कुछ देर
के लिए छोड़
भी दें लेकिन
इनके कुकृत्यों व
मानवता विरोधी कुकर्मों का
समर्थन अन्य विचार,
नेता व साहित्यकार
भी जब करते
है तो चहुंदिशि
अंधकार व्याप्त होता लग
रहा है ।
हमारे भारत में
ऐसा ही हो
रहा है ।
अनेक कमियों के
बावजूद भी मुसलमान
निर्दोष हैं लेकिन
अनेक गुणों के
बावजूद भी हिंदू
साम्प्रदायिक व बुरा
है । अफ्रीका
से सन् 1915 ई॰
में गांधी के
भारत में आकर
कांग्रेस की बागडौर
संभालने से लेकर
अब तक यानि
पिछले सौ साल
से यह मूढ़ता
भारत को बर्बाद
किए जा रही
है । जो
कोई भी विरोध
करता है तो
तुरंत उसका मुंह
बंद कर दिया
जाता है ।
संविधान को ढाल
बनाकर भारत को
बर्बाद करने व
हिंदुत्व को नष्ट
करने की साजिशें
सतत् चल रही
हैं । नरम
दल के रूप
में भारतविरोध को
आज तक समर्थन
मिलता रहा है
तथा गरम दल
के रूप में
स्वदेशी, राष्ट्रवाद, व स्व-संस्कृति को पग-पग पर
अपमानित किया जाता
रहा है ।
हमारा भारत एक
राष्ट्र ही नहीं
रह गया है
वास्तव में ।
अंग्रेजों ने इसे
एक राज्य कहा
है तथा राज्य
के रूप में
ही इसको सदैव
स्वीकार किया है
। यह स्थापना
आज भी लागू
है तथा हम
सब भी इसे
इसी रूप में
स्वीकार करके अपने
राष्ट्र के स्वयं
ही विरोधी बने
हुए हैं ।
अंग्रेज सरकार की प्रतिनिधि
के रूप में
दिल्ली में केन्द्र
सरकार बैठती है,
न कि भारत
सरकार । होनी
चाहिए दिल्ली में
भारत की सरकार
या संघ की
सरकार लेकिन वहां
बैठती है केन्द्र
सरकार । हरेक
तरह से दलितवाद,
जेहादवाद, मिशनरीवाद, सेक्युलरवाद आदि
का सहारा लेकर
इस राष्ट्र को
कमजोर बनाया जा
रहा है ।
भारतीयों को परस्पर
लड़ाने का जो
घृणित खेल अंग्रेजों
ने अपने स्वार्थ
साधनों से शुरू
किया था वह
आज भी चल
रहा है ।
भारतीय प्रत्येक परंपरा की
खिल्ली उड़ाई जा
रही है ।
जहां भी अपनेपन,
राष्ट्रवाद, स्वदेशी, स्व-संस्कृति
व सभ्यता, स्व-धर्म व
स्व-दर्शनशास्त्र की
बात होती है
ये दलित, मिशनरी,
जेहादी व सेक्युलर
तुरंत बीच में
कूद पड़ते हैं।
अरे मूर्खों ।
अपने अधिकारों की
लड़ाई तो अवश्य
लड़ो लेकिन इस
राष्ट्र को कमजोर
करने के किसी
कुकृत्य में तो
सम्मिलित मत होओ।
यहां तो हालात
ऐसे हो गए
हैं कि ऐसी
बातें करना व
लिखना भी आफत
मोल लेना है
। अस्तित्त्व में
कैसे रक्षा होगी
इस भारत राष्ट्र
की? शायद इस
महाभारत के श्लोक
को पूर्ण रूप
से लागू करना
होगा जिसमें धर्म
को सही अर्थ
में समझने व
लागू करने की
सीख दी गई
है - ‘अहिंसा परमो
धर्मः, धर्म हिंसा
तदैव चः’ अर्थात्
अहिंसा परम धर्म
है लेकिन धर्म
की रक्षा हेतु
हिंसा करने से
भी पीछे मत
हटो । इस
श्लोक के तीन
शब्दों को ही
प्रचारित-प्रसारित करके हिंदुत्व
व भारत की
गलत व्याख्या गांधीवाद
के नाम पर
पिछले 100 वर्षों से फैलायी
जा रही है
। शायद अब
इस श्लोक की
पूरी शिक्षा को
भारत के जीवन
में उतारने का
समय आ गया
है । अपनी
रक्षा हेतु हमें
किसी भी सीमा
तक जाने की
हिम्मत करनी ही
चाहिए । कुछ
कठोर व अरूचिकर
निर्णय हमें लेने
ही होंगे ।
केवल व केवल
तभी ही भारत
सुरक्षित रह पाऐगा
।
और भी
कुछ मूढ़ताएं या
षड्यंत्र सुनों जिनकी तरफ
कतई ध्यान नहीं
दिया जा रहा
है । गांधी
ने खिलाफत आन्दोलन
का समर्थन क्यों
किया जबकि देश
की आजादी के
आंदोलन से इसका
कोई संबंध नहीं
था? सिर्फ मुसलमानों
को खुश करने
हेतु ही गांधी
ने यह कुकर्म
किया था। इसके
पश्चात् हजारों हिंदुओं का
नरसंहार हुआ ।
गांधी चुप रहे
। अहिंसा के
मसीहा चुप रहे
। यहां भी
गलती हिंदुओं की
ही तो है
। जनवरी 1947 ई॰
में दिल्ली में
एक मस्जिद का
जीर्णोद्धार गांधी ने पटेल
व नेहरू से
करने का जोर
दिया था और
वह भी सरकारी
खर्च पर ।
लेकिन सोमनाथ मंदिर
के पुनः निर्माण
का इन महोदय
ने विरोध किया
था । क्या
है यह? क्या
भारत में हिंदुओं
को उन राज्यों
में अल्पसंख्यकों के
अधिकार प्राप्त हैं जहां
कि वे अल्पसंख्यक
हैं? इसका उत्तर
नहीं में है,
लेकिन क्यों? गोधरा
में हुए दंगों
का शोर खूब
मचाया जाता रहा
है लेकिन कश्मीर
में हजारों हिंदुओं
के कत्ले आम
व लाखों हिंदुओं
के शरणार्थी बनने
पर कोई कुछ
नहीं बोलता है।
क्या हिन्दू इन्सान
नहीं है? क्या
हिन्दू अत्याचार, अनाचार, बलात्कार
व नरसंहार हेतु
ही पैदा हुए
हैं? 1947 ई॰ में
पाकिस्तान में 24 प्रतिशत हिंदू
थे लेकिन आज
वे 01 प्रतिशत रह
गए हैं ।
बंगाल में हिंदू
पहले 30 प्रतिशत थे जो
अब 7 प्रतिशत ही
बचे हैं। पाकिस्तान
व बांग्लादेश के
बाकी हिंदू मार
दिए गए या
मतांतरित कर दिए,
यह किसी को
पता है? क्या
हिंदुओं के कोई
मानवाधिकार नहीं होते
हैं? भारत में
हीं 1947 ई॰ में
हिंदू 87 प्रतिशत थे लेकिन
आज वे 82 प्रतिशत
हैं जबकि इसी
समय सीमा में
मुसलमान 10 प्रतिशत से 14 प्रतिशत
हो गए हैं
। सोचो, सोचो
और सोचो ।
मंदिर में जाना
साम्प्रदायिकता लेकिन मस्जिद में
जाना सेक्युलरवाद, टीका
लगाना साम्प्रदायिकता लेकिन
टोपी पहनना सेक्युलरवाद
। साधू होना
साम्प्रदायिकता लेकिन इमाम होना
सेक्युलरवाद । प्रवीण
तोगड़िया साम्प्रदायिक लेकिन ओवैसी सेक्युलर
। भागवत साम्प्रदायिक
लेकिन बुखारी सेक्युलर
। बंदे मातरम्
साम्प्रदायिक लेकिन अल्लाह हो
अकबर सेक्युलर ।
राम, कृष्ण व
शिवजी साम्प्रदायिक लेकिन
अल्लाह व रहीम
सेक्युलर । हिंदू
साम्प्रदायिक लेकिन इस्लाम व
ईसाईयत सेक्युलर । अपने
को हिंदू कहना
साम्प्रदायिक लेकिन मुसलमान कहना
समरसता । रामनाम
की धुन बजाना,
आरति करना या
ध्यान करना साम्प्रदायिक
लेकिन अजान देना,
नमाज पढ़ना और
वह भी सड़कों
के बीज में
सेक्युलर है ।
यह है आज
के भारत की
सच्चाई । ऐसे
में कैसे यह
हमारा प्यारा भारत
बचेगा? चहुंदिशि विनाश ही
विनाश प्रस्तुत है
। इन सबके
विरुद्ध आवाज उठाना
भी यहां घोर
कानून विरोध एवं
साम्प्रदायिकता है ।
डूब मरो कहीं
। ईसाईयों द्वारा
बाईबिल तथा मुसलमानों
द्वारा कुरान का पढ़ाना
यदि साम्प्रदायिक नहीं
है तो रामायण
व गीता पढ़ाना
कैसे साम्प्रदायिक हो
गया? बुद्धिमान कहे
जाने वाले बुद्धिहीनों
से पूछो ये
अनेक प्रश्न ।
बर्बाद हो रहा
है भारत ।
भारत को बचाना
जरूरी है ।
भारत बचेगा तो
ही दुनिया बचेगी
। क्या सत्ता
प्राप्ति के साधन
वोट प्राप्त करने
के लिए पाकिस्तानी
एजेंटों, बंग्लादेशी घुसपैठियों, अपराधियों
को संरक्षण देने
वाले सेक्युलर राजनीतिक
दलों की इस
राष्ट्रघाती नीति की
बखिया उधेड़ने के
लिए बुद्धिजीवी वर्ग
कभी आगे आऐगा?
(शिव कुमार गोयल,
कंाग्रेस की छदम्-धर्मनिरपेक्षता के घातक
परिणाम, पृ॰ 118) राष्ट्र से
प्रेम करने वालों
जागो । ऐसे
चुप बैठने से
काम नहीं चलता
है । किसी
को चोट न
पहुंचाने का यह
अर्थ तो नहीं
है कि स्वयं
चोट खाते रहो
। किसी देश
या सभ्यता पर
पहले हमला न
करने का यह
अर्थ तो नहीं
हो सकता कि
हम उनके हमलों
का विरोध ही
न करें या
अपनी सुरक्षा हेतु
कुछ भी न
करें । अपनी
खोई हुई धर्मनिष्ठा
व राष्ट्रनिष्ठा को
दोबारा प्राप्त करो भारतीयों
। आज के
हमलावर व उन्मादी
मुगल व अंग्रेजों
से कम घातक
नहीं है ।
आक्रमण करना, लूटखसोट करना,
आगजनी, रक्तपात, अत्याचार करना
उनका राष्ट्रधर्म है
। उनके सम्मुख
हम पंचशील, सत्य,
विश्वशान्ति आदिश्रेष्ठ धर्मतत्त्वों की
रट लगा रहे
हैं । आज
के अपने नेताओं
को यह बात
मान्य नहीं है
कि आक्रामक राष्ट्रधर्म
के साथ उतने
ही कट्टर जाज्वल्य
एवं तीव्र राष्ट्रधर्म
के सहारे निपटना
पड़ता है ।
हमारा राज्य निधर्मी
है, हम मानवता
के पूजारी हैं-
इन बातों से
ही हम संतुष्ट
हैं और अपने
आपको धन्य समझते
हैं । इस
कारण भारत पर
आज भी उस
काल जैसे ही
आक्रमण प्रारम्भ हो गए
हैं । (डाॅ॰
पु॰ ग॰ सहस्त्र
बुद्धे, स्वदेश चिन्तन, पृ॰
91-92)
मानसिक रूप से
हमें जिस गुलामी
ने सैकड़ों वर्षों
से जकड़ रखा
है उससे निकलने
की जरूरत है
। इस गुलामी
की जकड़न से
निकलने हेतु हमें
एकपक्षीय अहिंसक जीवन को
छोड़कर इतना हमलावर
व उग्र तो
होना ही पड़ेगा
कि हम अपनी
सुरक्षा व अपना
विकास कर सकें
। समकालीन एक
दर्शनशास्त्री की पीड़ा
इन शब्दों में
अभिव्यक्त हुई है
- ”भारत की राजकीय
स्वतंत्रता के लगभग
सातवें दशक में
भी आज हम
इसकी मानसिक परतंत्रता
को लेकर चिंतित
हैं । - निश्चय
ही युरोप भी
आज मानसिक रूप
से विघटन की
ओर अग्रसर है,
किन्तु हमारे विचारकों के
लिए उसका वह
रूप भी अनुकरणीय
है । जैसे
किसी समय अंग्रेजी
कवि बायरन की
एक टांग में
कुछ दोष होने
से लंगड़ाकर चलना
वहां के युविकों
के लिए अनुकरणीय
था ।“ (यशदेव
शल्य, उन्मीलन दार्शनिक
षाण्मासिक का संपादकीय,
पृ॰ 5)
भारत के
राष्ट्रधर्म को पहचानने
की जरूरत है
। भारत तभी
भारत बन सकेगा
जब इसके राष्ट्रधर्म
की सही पहचान
हम कर लेंगे
। श्रीराम, कृष्ण,
जनक, भीष्म, व्यास,
शंकराचार्य, अर्जुन, चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त,
शिवाजी, रणजीत सिंह, नाहर
सिंह, सावरकर, सुभाष
एवं स्वामी दयानंद
की जगाई राष्ट्रधर्म
चेतना प्रक्षीतारत कि
कब यह राष्ट्रधर्म
की सोई हुई
चेतना भारतीयों के
जागृत होगी ।
एकपक्षीय जीवन जिसे
हम गांधीवाद भी
कह सकते हैं,
ने भारत को
बर्बाद करके रखा
हुआ है ।
यह बर्बादी आबादी
में कब बदल
पाऐगी - हमारे लिए सबसे
बड़ी चिंता का
विषय इस समय
यही होना चाहिए
। धर्म की
पूरी मर्यादा का
निर्वहन करो भारतीयों
। कहां गांधीवाद
की दलदल में
उलझकर सनातन भारत
को बर्बाद करने
पर तूले हो?
बहुत बर्बादी देख
ली, अब तो
जाग जाओ ।
केवल जागना ही
भारत की रक्षा
है । केवल
जागना ही भारत
है ।