Friday, June 24, 2016

भारतीय इतिहास का इतिहास दर्शनशास्त्र

श्रीमद्भगवद्गीता का संबंध महाभारत के युद्ध से है जबकि बाईबिल कुरान का संबंध दया, सेवा, प्रेम भाई-चारे से जोड़ा जाता है लेकिन हकीकत यह है कि युद्ध, नरसंहार, आतंक, उग्रवाद, तनाव, हिंसा, अशांति, तनाव, चिंताव कुंठ से ग्रस्त विश्व श्रीमद्भगवद्गीता में शांति, सौहार्द, भ्रातृत्वभाव, करुणा प्रेम, सहयोग, संतुष्टि तृप्ति खोजता है, जबकि बहिबल, कुरान को मानने वालों ने इस धरा को पिछली बीस सदियों से युद्धों, नरसंहारों, मारकार, मतांतरण, बलात्कारों, उग्रवाद, आतंक, हिंसा शोषण उपनिवेश स्थापित करके लूट मचाने के नरक में धकेले हुआ है है विचित्र तथ्य ऐसी ही अनेक विचित्रताओं से भरी है हमारी यह सनातन भारतभूमि
आप भारत के शिक्षा-संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास विषय की पुस्तकें पढ़िए आपको उनमें राष्ट्र हेतु अपना सब कुछ खपा देने वाले शिवाजी के बारे में एक पृष्ठ मुश्किल से मिलेगा जबकि विदेशी लूटेरे अकबर, शाहजहां, बाबर, हुमायूँ आदि के बारे में बीस-बीस पृष्ठ लिखे मिले जांएगे हालांकि शिवाजी की देशभक्ति, उनकी शासन-व्यवस्था न्याय-नीति किसी भी काल देश से कमतर नहीं थी लेकिन फिर भी उनकी उपेक्षा शिवाजी ने एक समय पर मुगल साम्राज्य को लगभग समाप्त करके अफगानिस्तान तक अपनी सत्ता कायम की थी लेकिन मुगल, मंगोल, अंग्रेज, पुर्तगाली आदि ही हमारी इतिहास दृष्टि हेतु प्रमुख हैं इन अंग्रेजी सोच से ग्रस्त कांग्रेसियों साम्यवादियों ने सब कुछ का कबाड़ा कर दिया है इस कबाड़े को ही हम अपने शिक्षा-संस्थानों में अपने विद्यार्थियों के चित्तों में भरकर उनको बौर कर रहे हैं ऐसे में कैसे विकसित होगी हमारे युवाओं में राष्ट्रभक्ति?
दक्षिण भारत दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थापित चोल साम्राज्य कुछ वर्षों तक नहीं अपितु कई शताब्दियों तक चले शासकों द्वारा स्थापित किया गया था यह साम्राज्य मुगल साम्राज्य से भी अधिक विशाल विस्तृत था लेकिन चोल राजाओं के संबंध में इतिहासकार इतना खुलकर निष्पक्ष नहीं बोलेंगे क्यों? क्योंकि वे सबके सब हिंदू थे इस देश के इतिहासकारों को भारत, भारतीयता, भारतवासियों, यहां के राजाओं, यहां के राजाओं की शासन-व्यवस्था, यहां के दार्शनिकों महापुरुषों, यहां हुई वैज्ञानिक खोजों, यहां की उन्नत आर्थिक व्यवस्था, यहां की शत-प्रतिशत साक्षरता, यहां के उच्च कोटि के साहित्य तथा यहां की चमत्कारिक सर्वाधिक प्राचीन चिकित्सा व्यवस्था से विरोध घृणा ही रहे हैं निकृष्ट विदेशी की प्रशंसा के गीता तथा श्रेष्ठ भारतीय की निंदा उपेक्षा यही नीति हैं हमारे इतिहासकारों की
भारतीय इतिहास को लिखने लिखवाने में जो भेदभाव, धांधली, नीचता, हीनता, निम्नता एवं मूढ़ता हुई है वह किसी भी तरह से वैज्ञानिक सही नहीं कही जा सकती लिखे गए इतिहास के हर वाक्य, अनुच्छेद पृष्ठ पर भेदभाव विदेशीपन की छाप देखे जा सकते हैं यहां के इतिहास लेखकों की इतिहास दृष्टि इतिहास कहलाने के योग्य भी नहीं है इतिहास को यदि पूर्व में घटी घटनाओं का निष्पक्ष भेदभाव रहित विवरण कहा जाए तो हमारा भारतीय शिक्षा-संस्थानों में छात्रों को परोसा जाने वाला इतिहास किसी भी तरह से इतिहास है ही नहीं इतिहास के नाम पर भारतीय समृद्ध वैभवशाली अतीत के संबंध में घटिया, हीनता की ग्रंथि से ग्रसित, पूर्वाग्रहपूर्ण झूठों, मनघंडत विवरणों, थोपी गई मान्यताओं, कुचक्रों, विदेशीपन, गुलाम मानसिकता एवं भारतीय सभ्यता संस्कृति को विकृत करके दिखाने वे पढ़ाने का षड्यंत्रमात्र है इसे ही यदि इतिहास कहा जाता हो तो किसी देश को लूटना, बर्बाद करना, उसके अस्तित्व को मना कर देना, उसकी पहचान को मिटा देना तथा उसके संबंध में घटिया टिप्पणियां करना क्या कहा जाऐगा।
ऐसी ही मूढ़ पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टि के कारण हिंदूत्व पर अनाप-शनाप अपनामपूर्ण टिप्पणियां की जाती हैं सनातन आर्य वैदिक हिंदू राष्ट्र में 1500 के लगभग मूल ग्रंथों की 10000 व्याख्यांए तथा 100000 उप-व्याख्याएं मौजुद हैं अनेक वादों, मतों, हिसद्धांतों विचारधाराओं को मानते हुए भी इन सबके विभिन्न धर्मग्रंथ धर्मस्थल होने पर भी तथा इन सबकी वेशभूषा धार्मिक प्रतीक भिन्न होते हुए भी सभी हिंदू आर्य एक परमात्मा को मानते हैं सभी वेदों को महत्त्व देते हैं सभी उपनिषदों को महत्त्व देते हैं सभी श्रीमद्भगवद्गीता को मानते हैं सभी विभिन्न आलोचनाओं के रामायण महाभारत को चाव से पढ़ते हैं। सभी परस्पर सबके धर्मस्थलों पर पूजापाठ हेतु जाते हैं सभी का लक्ष्य आर्य बनाना है सभी योग के माध्यम से छोटे सुख से परमांनद की अनुभूति तक की यात्रा करना अपना परम कत्र्तव्य समझते हैं दूसरी तरफ ईसाई इस्लाम मत के अनुयायी एक बाईबिल एक कुरान को मानते हुए भी अनेक संप्रदायों में बंटे हुए हैं ये परस्पर संबंध रखना भी पाप समझते है। ये एक-दूसरे के रक्त के प्यास हैं ये करोड़ों लोगों के हत्यारे बने हुए हैं तथा अब वर्तमान में भी कम रहे हैं हिदंू ने तो धर्म हेतु इस तरह के नरसंहार कभी नहीं किए जिस तरह पिछली बीस सदियों से ईसाई मुसलमान करते रहे हैं इतिहासकार इसका कोई जिक्र नहीं करते हैं वे ऐसा करेंगे भी क्यों? क्योंकि हमारे इतिहास लेखक उसी उपनिवेशी जेहादी विचारधारा से तो समर्थन, दौलत वैभव पा रहे हैं जिन्होंने भारत को पिछली तेरह सदियों से गुलाम बनाकर रखा, लूटा, शोषण किया लगाएगा 35 करोड़, हिंदुओं को अब तक जिन्होंने कत्ल किया हिंदू संसार सर्वाधिक प्रताड़ित लोग हैं। सर्वाधिक सताए गए लोग हैं हिंदू इतिहासकारों ने कहीं भी जिक्र नहीं किया है इस तथ्य का कब लिखा जाएगा सच्चा इतिहास? कब पढ़ाया जाएगा हमारे छात्रों को सच्चा इतिहास? हमारे देश के नेता कब इतनी हिम्मत कर पाएंगे?
हिंदुओं ने सदैव से ही शास्त्र शस्त्र को अपने साथ रखा है। लेकिन कुछ समय से हिंदुओं ने शस्त्र दोनों को ही छोड़ दिया है पूरी तरह शास्त्र को मानते वम ानते तथा ही शस्त्र धारण करते हैं अपनी रक्षा हेतु सिखों की उत्पत्ति हिंदुओं की रक्षा हेतु हुई थी लेकिन अब वही सिख अब यह कह रहे हैं कि हम हिंदू नहीं है तथा हमारा हिंदुओं से कोई लेना-देना नहीं है अब यह सच्चा इतिहास कौन लिखेगा पढ़ाऐगा कि सिख हिंदू, बौद्ध हिंदू या जैन या हिंदू भिन्न-भिन्न नहीं अपितु एक ही हैं? हम अपनी इतिहास दृष्टि को भारतीय बनाएं, हम अपनी इतिहास दृष्टि को निष्पक्ष बनाएं, हम अपनी इतिहास दृष्टि को राष्ट्र की भूमि से जोड़कर सोचें।
-आचार्य शीलक राम

Sunday, June 19, 2016

धर्म-अधर्म

          वेदोक्त ऋत, तैत्तिरीय आरण्यक में धर्म के बारह लक्षण, मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण, वैशेषिकशास्त्र में अभ्युदय एवं निःश्रेयस से धर्म की व्याख्या, महाभारत व रामायण महाकाव्यों में धर्म की बतलाई गई विशेषताओं पर यदि एक गहरी नजर डाली जाए तो मालूम होता है कि जिसे आज धर्म-अधर्म समझकर हमारे विश्वविद्यालयों में युवा पीढ़ी को छूटी की तरह पिलाया जा रहा है या जिसे गांव-गांव व शहर-शहर में बने डेरों व मठों में विराजमान शराबी व भंगेड़ी लोग धर्म कहकर प्रचारित कर रहे है। या जिसे जनसामान्य के अचेतन में धर्म कहकर घुसेड़ दिया गया है या कि जो चारों तरफ मंदिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों चर्र्चाें - जागरणों-सत्संगों में लूट व शोषण का कुकर्म चल रहा है - यह सब धर्म कतई नहीं है । यह सब धर्म के नाम पर पाखंड व ढोंग की लीला ही चल रही है । सत्य सनातन वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों या हमारे महाकाव्यों या फिर श्रीमद्भगवद्गीतक से इसका दूर-दूर तक भी सम्बन्ध नहीं है । कुछ पुराणों से, कुछ पश्चिमी से तथा कुछ यहां के नामदानियों या मन्त्रदानियों से ऊटपटांग सीखकर उसी को सत्य सनातन धर्म कहकर प्रचारित किया जा रहा है । वास्तव में यह धर्म न होकर अधर्म ही है । धर्म से अर्थ तो आत्मसाक्षात्कार करके सत्य, तप, दान, समर्पण, विवेक, श्रद्धा, भक्ति आदि का उदय होना है । या फिर अहिंसा, सहन शक्ति, स्वाध्याय, ब्रह्म चर्य एवं अन्याय का प्रतिकार है । या फिर अहिंसा, सहनशक्ति, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य एवं अन्याय का प्रतिकार है । या फिर इस स्थूल जगत् में समृद्धि व वैभव को प्राप्त करके आत्मसाक्षात्कार का साधना के बल पर जुगाड़ करना है । या फिर जो समस्त प्रजा को धारण किए हुए है वह धर्म है । धर्म पाखंड, ढोंग, तीर्थस्थान, मूर्तिपूजा, जागरण, सत्संग, नामदान आदि के नाम पर शोषण नहीं अपितु यह सत्य, ब्रह्मचर्य, संयम, साधना, विवेक, बाहरी-भीतरी समृद्धि एवं प्रजापालन आदि है । इससे उल्टा सब अधर्म है ।
        जब कोई व्यक्ति ‘धर्म’ को ही रिलीजन या मत या वाद या सिद्धांत या सम्प्रदाय मानने की जिद्द करता रहे तो वह धर्म को तो समझेगा ही नहीं, इसके साथ-साथ वह यह भी नहीं समझेगा कि ‘स्वधर्म’ क्या होता है । उसको यह भी समझ में कैसे आऐगा कि ‘स्वध में निधन श्रेयः परमर्धों भयावहः’ का वास्तविक अर्थ क्या होता है । स्वधर्म व परधर्म को समझने से पहले धर्म को समझना आवश्यक है । जिसको धम्र शब्द का सही अर्थ मालूम हो गया फिर वह स्वधर्म व परधर्म को भी सरलता से समझ पाऐगा । धर्म के सन्दर्भ में वर्णधम्र, आश्रमधम्र, व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्र धर्म, अन्तर्राष्ट्रीय धर्म आदि को समझकर ‘स्वधर्म’ एवं ‘परधर्म’ के सम्बन्ध में विचार करना है या फिर कोई ‘सव’ की खोज की कोई रहस्य साधना बतलाई जा रही है - यह भी जानना महत्त्वपूर्ण हो जाता है । यहां पर यदि एक व्यक्ति-विशेष के धर्म के सम्बन्ध में यदि विचार किया जाए तो उसे ‘स्वधर्म’ की संज्ञा दे सकते हैं । एक व्यक्ति के क्या कत्र्तव्य होते हैं - परिवार, समाज, समूह, संगठन, राष्ट्र या समस्त धरा के प्रति - इन्हें व्यक्ति धर्म या स्वधर्म’ कह सकते हैं । यदि इसका केवल यही अर्थ लेकर हम आगे बढ़े तो निःसंकोच कथन कर सकते हैं कि परिवार से लेकर समस्त धरा तक सम्पन्नता, खुशहाली, वैभव एवं सन्तुष्टि लानी है तो इनकी सबसे छोटी ईकाई ‘व्यक्ति’ पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा । व्यक्ति-व्यक्ति यदि अपने कत्र्तव्यों का पालन करे तो इसके पश्चात् अन्य नियमों, अनुशासनों या वर्जनाओं की जरूरत बहुत कम पड़ेगी । लेकिन वैदिक आर्य सनातन सीख को भूलकर भारत सहित इस धरा के समस्त देश व्यक्ति की उच्छृंखलता, नियम विहीनता एवं उन्मुक्त भोग को महत्त्व देने की हिमायत करते दिख रहे हैं । लेकिन इन बुद्धि के कोल्हूओं को यह भी पता होना चाहिए कि व्यक्ति-व्यक्ति मिलने से ही परिवार, समाज, संगठन, सया, समीति, समाज या राष्ट्र बनते हैं । यदि प्राथमिक ईकाई ही यदि अधार्मिकयों कत्र्तव्यहीन हुई तो जोड़ तो अधार्मिक होगा ही । इस तरह ‘स्वधर्म’ के पालन से भटके हुए व्यक्ति -कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ या ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ या ‘सुंगच्छध्वं’ वाले परिवार, समाज या राष्ट्र का निर्माण कैसे करेंगे?
-आचार्य शीलक राम (9813013065, 8901013065)

योग, योग व योग

           परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसे प्रार्थना करके या अजान देकर पुकारा जाए । परमात्मा एक ऊर्जा है जिसे हम महसूस कर सकते हैं । परमात्मा कोई कहीं पर विराजमान पैगम्बर या अवतार या गाॅड नहीं है कि जिसकी हम प्रार्थना करें । परमात्मा समस्त अस्तित्व है । परमात्मा सर्वस्व है । परमात्मा सब कुछ है । इस या उस ऊर्जा या शक्ति या सर्वस्व या सब कुछ की हम पूजा या प्रार्थना नहीं कर सकते । इसको हम पुकार नहीं सकते कोई अजान देकर । इसको हम महसूस कर सकते हैं । इसमें हम डूब सकते हैं । इसमें हम स्नान कर सकते है । इससे हम अद्वैत की अनुभूति कर सकते हैं । लेकिन सृष्टि के कण-कण में व्याप्त इस ऊर्जा में स्नान या इससे अद्वैतानुभूति या इससे एकत्व या इसको महसूस करने का कृत्य हम केवल व केवल योग के माध्यम से कर सकते हैं । योगाभ्यास ही इसका एकमात्र माध्यम है, प्रार्थना, पूजा, अजान, कनफैसन, जपादि से कुछ होने वाला नहीं है । योग की सनातन आर्य वैदिक भारतीय हिन्दू ऋषियों द्वारा खोजी गई संजीवनी विद्या योग ही इसमें हमारी सहायक हो सकती है । यहां पर यह बतलाना भी दिलचस्प है कि संसार के जितने भी सम्प्रदाय हैं उन सभी को प्रेरणा महर्षि पतंजलि द्वारा 5200 वर्ष पूर्व रचित योग के ग्रन्थ ‘योगसूत्र’ या इसकी टीका-टिप्पणियों से ही मिली हैं । हां, आलस्य या प्रमादवश इन सबमें योग के किसी एक अंश, पक्ष, अंग या हिस्से को पकड़ लिया तथा खड़े कर दिए उसी की नींव पर सम्प्रदायों के विराट भवना । संकीर्णता, पूर्वाग्रह व मैं ठीक बाकी गलत की मूढ़ धारणा भी इसी एकांगीपन से जन्मी है ।
    अभी-अभी जून के महीने में 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ पूरे विश्व में मनाया गया । 200 के लगभग देशो ंमें योगाभ्यास का प्रदर्शन विभिन्न शहरों में बड़ी भव्यता व तड़क-भड़क में किया गया । हमारे देश में मुसलमान, ईसाई व साम्यवादी योग का विरोध करके अपनी मूढ़ चित्तता का परिचय देते रहे तो मुस्लिम, ईसाई व साम्यवादी देशों (पूर्व के) के लोगों ने सड़कों, पार्कों, राजपथों, योग-केन्द्रों एवं अपने-अपने घरों में योगाभ्यास किया । इस तथ्य को तो सभी विचार करने वाले लोग मानेंगे कि पूरे झूठ से आधा झूठ अधिक खतरनाक होता है । सुना नहीं है आपने अश्वत्थामा हतोहतः नरो वा कुंजरो वाः । योग के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रमपूर्ण बातें धर्मगुरुओं, नेताओं एवं योग-शिक्षकों ने फैला रखी हैं । योग क्या है व योग क्या नहीं है - इसका कोई विचार नहीं किया जा रहा है । देखा जा रहा है सिर्फ आर्थिक या राजनीतिक लाभ । देखा जा रहा है सिर्फ तुष्टीकरण । देखा जा रहा है अपनी अज्ञानता की धारणाओं को योग पर थोपकर उन्हंे प्रचारित करना । किन्हीं बेवकूफ कट्टरवादियों को खुश करने हेतु योग में कांटछांट की जा रही है तथा अपने आपको इस समय का योग का सबसे बड़ा प्रचारक व स्वमी बताने वाले स्वामी रामदेव जी भी चुप्पी साधे बैठे हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा इसके अनुसंगी संगठनों को योग के सम्बन्ध में कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है, अतः इनसे तो कोई यह आशा करना व्यर्थ है कि इसके लोग योग के सम्बन्ध में कोई आधिकारिक बयान दे सकें । इस मामले में तो ये लोग स्वामी रामदेव जी से भी गए-गुजरे हैं । शारीरिक उठापटक को योगाभ्यास कहकर प्रचारित करने का दोष स्वामी रामदेव, श्री श्री रवि शंकर आदि सभी तथाकथित योगाचार्यों व इनके संगठनों पर ही है । इससे ये कितना ही मना करें, लेकिन सच तो यही है ।
    इस सब चर्चा व योगाभ्यास के मध्य में मुसलमान बुद्धू भी कूद पड़े हैं । ये कह रहे हैं कि पैगम्बर मोहम्मद भी येाग-साधना करते थे । वे एक आर्य वैदिक ऋषि थे । इस्लाम, योग, नमाज आदि में कोई भेद नहीं है । ओ3म् व अल्लाह एक ही हैं । मोहम्मद से पहले भी अनेक पैगम्बर आ चुके हैं । पैगम्बर मोहम्मद इन सबमें अन्तिम पैगम्बर हैं । अतः वेद, उपनिषद् व वैदिक हिन्दू दर्शनशास्त्र की आज कोई उपयोगिता नहीं है । उपयोगिता है सिर्फ पैगम्बर मोहम्मद, कुरान, नमाजादि की । पुराने को छोड़ो व नए को अपनाओ - यह परमेश्वर का उपदेश व आदेश है । जाकिर नाईक जैसे प्रसिद्धि के भूखे एवं संकीर्ण कट्टरवाद के साक्षात् राक्षस वेद, उपनिषद्, दर्शन ग्रन्थ व महाकाव्यों के मन्त्रों, श्लोकों व प्रसंगों की तोडमरोड़पूर्ण नासमझ व्याख्याएं कर रहे हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व अन्य सनातनी हिन्दू पहले की तरह चुप हैं । कारण दो ही हैं - प्रथम इनकी आर्य वैदिक हिन्दू सभ्यता व संस्कृति के प्रति अज्ञानता तथा दूसरा श्री मोदी जी का प्रधानमंत्री पद पर आसीन होना । समझ में नहीं आता कि कैसे हिन्दू हैं ये? अरे! योग से ओ3म् के उच्चारण को हटाकर अल्लाह का उच्चारण शुरू करने की वकालत की जा रही है - ये फिर भी चुप हैं । मुझे तो ऐसा लगता है कि योग को इस्लाम का रूप दे दिया जाए तो भी इन तथाकथित राष्ट्रवादियों को कोई आपत्ति नहीं होगी । कट्टर हिन्दुत्व यही होता है क्या? कहा तक झुकोगे तुम मुसलमान व ईसाईयों को खुश करने हेतु? योग जाए भाड़ में परन्तु इनकी राजनीति चलती रहनी चाहिए । सारी धरा को आतंक, उपद्रव, नरसंहार, मारामारी, कट्टरता व एकपक्षीय सोच के सड़े हुए दलदल में धकेलने वाले लोगों की सोच, उनकी पूजापाठ-विधि तथा उनके कर्मकांड किसी भी तरह से योगाभ्यास का हिस्सा नहीं हो सकते हैं । आर्य वैदिक हिन्दू संस्कृति के साथ यही षड्यन्त्र कई सदियों तक शान्ति, प्रेम व भाईचारे का प्रचारक कहे जाने वाले सभी सन्तों ने रचा था । इनके इन षड्यन्त्रों के कारण करोड़ों हिन्दुओं को या तो मार डाला गया या इनको धर्मान्तरित कर दिया गया । अरे मूर्खों सौहार्द व भाईचारा कायम रखना क्या केवल हिन्दुओं का ही कत्र्तव्य है, ईसाई व मुसलमानों का नहीं है? भाजपा भी तुष्टीकरण करने लगी है कांग्रेस की तरह ।
    योगाभ्यास में तो तुम नमाज व अल्लाह को घुसेड़ दो लेकिन नमाज व अल्लाह व कुरान व मस्जिद में योगाभ्यास व ओ3म् का उच्चारण करके दिखाओ तो तुम्हें मान जाएं । सही भाईचारे व सौहार्द की मिसाल तो तभी कायम होगी । करो यह सब करने की हिम्मत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, इसके संगठन, अन्य सुधारक, शिक्षा-विद्, प्रचारक, योगाचार्य व राजनेता । कोई यह सब करके तो दिखलाए? गांधी जी भी ऐसे बे-सिरपैर के एक तरफा प्रयोग करते रहते थे । मन्दिर में कुरान पढ़ने-पढ़ाने का उन्हें भी पागलपन सवार या लेकिन जब उनसे मस्जिद में गीतादि हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने-पढ़ाने की कही जाती तो उनके पास या तो कोई जवाब नहीं होता था या वे अनशन पर बैठ जाते थे । ऐसी ही महामारियों के शिकार आज के सभी राजनीतिक दलों के नेता हैं ।
मुसलमान यदि अल्लाह के सिवाय किसी भी इबादत नहीं कर सकते तथा ईसाई यदि जीसस क्राईस्ट के सिवाय किसी के सामने नहीं झूक सकते तो फिर केवल हिन्दुओं को ही कुरान व बाईबिल पढ़ने-पढ़ाने की सीख क्यों दी जाती है? जब दूसरा कोई सर्वमतसमभाव को नहीं मानता तो सिर्फ व सिर्फ हिन्दुओं को ही इस जीवनशैली की सीख क्यों दी जाती है? मुसलमान तो उन सबको काफिर मानकर दोजख में डाल देता है जो कुरान व मोहम्मद पर ईमान नहीं लाता तथा ईसाई उन सबको शैतानी कहता है जो जीसस क्राईस्ट पर विश्वास नहीं लाता । लेकिन जब हिन्दू ऐसी कोई बात कहता है तो इन मुसलमान व ईसाई भाईयों तथा मीडिया व सामाजिक कार्यकत्र्ताओं में हड़कम्प क्यों मच जाता है? सम्प्रदाय के आधार पर यह भेदभाव क्यों? इसका जवाब न तो कभी पहले के सत्तासीन दलों ने दिया तथा न ही समकालीन सत्तासीन दल इसका कोई जवाब दे रहा है ।
    योगाभ्यास करने व करवाने के सम्बन्ध में वास्तव में मुसलमानों व ईसाईयों तथा कांग्रेस की यह आपत्ति है ही नहीं कि इसमें ओ3म् क्यों है या हिन्दुत्व को थोपा जा रहा है । सही बात तो यह है कि इन लोगों को (योग का विरोध करने वालों को) तो सनातन आर्य वैदिक सभ्यता, संस्कृति व राष्ट्रवाद का विरोध करना है । राजनीतिक दलों पर ही नहीं अपितु धर्माचार्यों व समाज सुधारकों पर भी भेदभाव व तुष्टीकरण का जादू सिर पर चढ़कर बोल रहा है । यदि हिन्दू जीवनशैली जबरदस्ती थोपने की बात सच होती तो फिर 21 जून को होने वाले योगाभ्यास से ओ3म् व सूर्य नमस्कार को हटा लेने के बावजूद भी अनेक मुसलमान व ईसाई, कांग्रेसी व साम्यवादी संगठनों ने योगाभ्यास कार्यक्रम में भाग क्यों नहीं लिया? पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाकर योग का विरोध करना किस मानसिकता का परिचायक है? मोदी सरकार का यह निर्णय ही गलत था कि इसने योगाभ्यास से ओ3म् व सूर्य नमस्कार को हटा दिया तथा इसे वैकल्पिक घोषित कर दिया । तुष्टीकरण के सिवाय यह अन्य क्या हो सकता है? योगाभ्यास के मूल स्वरूप के साथ यह छेड़छाड़ किसी भी तरह से सही नहीं है । क्या इसी तरह की छेड़छाड़ इस्लाम व ईसाईयत की नमाज व बपतिस्मा आदि के साथ भी की जा सकती है?
    योग को सेक्युलर कहना परले दर्जे की मूढ़ता है । योग का आविष्कार हिन्दुओं ने किया है । हाँ, यह जरूर है कि हिन्दू किसी भी विश्वास, मत, सम्प्रदाय आस्था के साथ भेदभाव नहीं करता हैं, जैसा कि मुसलमान व ईसाई करते है । हिन्दू मनुष्य या आर्य बनने की सीख देता है लेकिन राक्षस या सैतान बनने की नहीं । हिन्दू अपने सिवाय अन्यों में भी सत्य के दर्शन करना चाहता है लेकिन वह मुसलमान व ईसाईयों की तरफ स्वयं पर विश्वास न लाने वालों मार देने की सीख नहीं देता । हिन्दू काफिरों का नरसंहार करने की आज्ञा नहीं देता । योग के हिन्दू आर्य वैदिक ग्रन्थों की शुरूआत ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान से होती है । हिंसा, मारामारी, चोरी, डकैती, बलात्कार, शोषण, जबरन धर्मान्तरण, तलवार के जोर पर जिहाद, भेदभाव, नर-नारी में भेदादि को योग मान्यता नहीं देता । सैक्युलर एक सड़ी हुई भौतिकतावादी एकांगी विचारधारा है जबकि योग सर्वस्वीकारभाव से पूर्ण जीवनशैली है जिसमें, किसी की कोई उपेक्षा नहीं है । ‘एकं सत विप्रा बहुदा वदन्ति’ का जीवनदर्शन-शास्त्र है योग । सबको अपने भीतर समा लेता है योग । योग जिहाद व आत्माओं के उद्धार के नाम पर नरसंहारों को प्रायोजित नहीं करता । ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ है योग , ‘योगश्चित वृत्तिप्रबोधः’ है योग । जागरण है योग । होश है योग । साक्षीभाव है योग । द्रष्टाभाव है योग । स्व का बोध है योग । आत्मा का साक्षात्कार है योग । स्वयं को जानना है योग । स्थितप्रज्ञ हो जाना है योग । कर्मों में कुशलता है योग । अपने वास्तविक घर को प्राप्त कर लेना है योग । चित्त के मलों की शुद्धि है योग । अस्तित्व से अद्वैत है योग । आत्मा का परमात्मा से मिलन है योग । अन्य सम्प्रदायों के नमाज़, कनफैशन आदि मात्र कर्मकाण्ड हैं जबकि योग कर्मकाण्डों से बहुत दूर स्वयं की शुद्धि है । कर्मकाण्ड में ‘मैं’ को खाद-पानी दिया जाता है जबकि योग में देहशुद्धि, श्वासशुद्धि, प्राणशुद्धि, भावशुद्धि करते हुए परमशुद्धि की अनुभूति है । ओशो के अनुसार ध्यान हमारी जिन्दगी में उस डायमैन्सन, उस आयाम की खोज है जहां हम बिना प्रयोजन के सिर्फ होने मात्र में, जस्ट टू बी, होने मात्र में आनन्दित होते हैं । चिन्ताओं से दूर अपने में होने का आनन्द है योग । परम शान्ति की अनुभूति का विज्ञान है योग । योग के सम्बन्ध में जो भ्रम व आपत्तियां दर्ज करवाई जा रही हैं वे सबकी सब नासमझी से उपजी हैं । योग का क, ख, ग भी नहीं जानते ये लोग । इसमें चाहे कोई दूसरे सम्प्रदाय का हो, हिन्दू योगाचार्य हो, समाज सुधारक हो, शिक्षाविद हो, आरक्षणवादी दलित हो या नारीवादी भोगवादी हो ।
       हिन्दुओं की सूर्यपूजा के कारण यदि मुसलमान योग में भाग नहीं ले रहे हैं तो फिर उन्हंे चन्द्रमा, धरती, जल, वायु आदि का भी त्याग कर देना चाहिए क्योंकि हिन्दू तो इनकी भी पूजा करता है । हिन्दुओं से प्रतियोगिता यदि तुम इस तरह करना चाहते हो तो छोड़ दो धरती पर निवास करना, छोड़ दो चन्द्रमा को देखकर रोजा आदि का निर्धारण, छोड़ दो श्वास लेना, छोड़ दो जलपान करना व छोड़ दो सूर्य की ऊर्जा से उत्पन्न हुए अन्न व सब्जियों का उत्पादन करना । हिन्दू तो गाय की भी पूजा करते हैं। तो फिर तुम क्यों गाय का वध करके उसका मांस खाते हो? छोड़ दो गाय का मांस खाना । कितना हास्यास्पद है मुसलमान भाईयों का यह आचरण? हिन्दू संस्कृति का विरोध करते हो और उनसे मेलजोल की आशा करते है - यह निरी बुद्धिहीनता है । तुम्हारी यह नमाज, दिन में पांच बार नमाज, तुम्हारा संगे अश्वद, तुम द्वारा संगे अश्वद की परिक्रमा, हज पर जाते समय वहां पर श्वेत वस्त्र धारण करना, तुम्हारा इस्लाम शब्द आदि कितनी ही बातें हिन्दुओं से ली गई हैं । त्याग कर सकोगे इन सबका? तुम्हारे नेता व तुम्हारे धर्माचार्य तुम्हें बरगला रहे हैं । समझो तुम उनकी कपट लीला । यदि तुम्हें योगाभ्यास पसन्द नहीं है तो तुम उसे मत करो लेकिन उसका विरोध न करो । तुम क्या ईशन, अफगानिस्तान, इराक, बांग्लादेश, अमीरात, कुवैत, सीरिया आदि देशों के मुसलमानों से भी अधिक मुसलमान हो? अरे ! वो सब तो योग कर रहे हैं । तुम्हारे औवेसी व आजम तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन है । कुछ भी राष्ट्रहित में करो इन मूढ़ों को उसके विरुद्ध झण्डा उठाना ही है । राष्ट्र की एकता व अखण्डता तथा राष्ट्र के भाई चारे से इनका कोई सरोकार नहीं है । यदि योगाभ्यास करो तो इस तरह की नकारात्मक सोच का रूपान्तरण अवश्य हो सकता है ।
       राष्ट्र पर छह दशक तक शासन करनेवाले दल कांग्रेस की सूझबूझ जैसे तुप्त ही हो गई है, कांग्रेसी कह रहे हैं कि भारत को रोजगार चाहिए लेकिन मोदी जी दे रहे हैं योग । कितनी मूढ़तापूर्ण है इनकी यह सोच । अरे अक्ल के दुश्मनों योग के न करने से क्या भारतवासियों की रोजगार की समस्या हल हो जाएगी? योग भी करो व रोजगार भी पाओ । यदि केवल देह के व्यायाम को व चित्त की शान्ति को योग कहते हो तो भी योग के करने व करवाने से अनेक लोगों को रोजगार मिल जाऐगा । अनेक योग केन्द्र खुलेंगे जितनमें देश-विदेश के लोग अपनी शारीरिक व मानसिक व्याधियों की चिकित्सा हेतु आपके योग-केन्द्रों पर आएंगे तथा तुम्हें डालर के रूप में अथाह धन प्रदान करेंगे । मूढ़ों । कुछ तो अक्ल से काम लिया करो । यदि थोड़ा वैज्ञानिक ढंग से भारत सरकार तथा यहाँ के धर्माचार्य ध्यान दें तो केवल योग से ही भारत के अनेक बेरोजगार युवा रोजगार पा सकते हैं । एक समय हमने भारत के प्रसिद्ध रहस्यदर्शी, योगाचार्य व दार्शनिक ओशो रजनीश पर भी यही प्रश्न उठाए थे । ओशो रजनीश के ध्यान प्रयोगों से प्रतिवर्ष लाखों लोग भारत में आते थे तथा करोड़ों डालर यहां देकर जाते थे । लेकिन फिर भी बेहूदा प्रश्न उन पर उठाए जाते थे । विरोध के लिए विरोध करना जैसे हमारा पेशा बन गया है । देशहित से हमें कोई मतलब नहीं है । मुसलमान व कांग्रेस का एक ही सुर में योग का विरोध करना सन्देह पैदा करता है ।
श्री श्री रविशंकर, स्वामी रामदेव, आयंगर आदि योगाचार्यों ने दुनिया में योग का उस तरह प्रचार करने में खूब सफलता पाई है जैसा योगभ्यासी चाहते हैं । थोड़ी सी दैहिक कसरत, थोड़ा सा श्वास की कसरत, थोड़ा सा हास्य, थोड़ा सा नृत्य, तोड़ी सी गम्भीरता तथा थोड़ा सा विश्राम । हो सकें तो साथ में आयुर्वेद, मालिश, दिनचर्या व राष्ट्रवाद को भी जोड़ दो । इन्होंने योगाभ्यास को उस तरह से नहीं समझाया व करवाया कि जैसा योग के सम्बन्ध में हमारे आदरणीय महर्षि पतंजलि, कृष्ण, सिद्धार्थ गौतम, शंकराचार्य गोरखनाथ आदि कहते हैं । वेद व उपनिषदों की चर्चा तो इन हेतु करना ही व्यर्थ है कि जहां से यह योगविद्या निकली है। ओशो रजनीश ने उपनिषदों की तो खूब चर्चा की लेकिन वेदों को इन महानुभाव ने भी उपेक्षित ही छोड़ दिया । योगविद्या को इन दिनों व्यवसाय का रूप देने की सनक लगभग सभी योगाचार्यों को स्वीकार है । क्योंकि भौतिकताप्रधान युग है यह अतः सब व्यवसाय की ही भाषा समझते हैं । इसीलिए योगाचार्य योगाभ्यासियों को समझाने के बजाय स्वयं भी भोग-विलास व व्यापार के पीछे दोड़ लगाने लगे हैं । चारों तरफ भव्य आयोजन हो रहे हैं योग के; बिना यह जाने कि इनसे कुछ वह हो रहा है या नहीं कि जिस होने हेतु योग की खोज की थी ऋषियों ने। राजा भोज ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्र की प्रशस्ति में कहा है -
पतंजलिमुनेसक्तिः काप्यपूर्वा जयत्यसौ ।
पुष्प्रकृत्योर्वियोगोऽपि योग इत्यदितो यया ।।
    अर्थात् मुनि पतंजलि के अपूर्व योगसूत्र की जय हो, जिसमें उन्होंने प्रकृति व पुरुष के वियोग को भी योग कहा है । ऐसा वियोग जहां पर घटित हो वही योगाभ्यास है । इसे अभ्यास करवाने वाले ही योगाचार्य हैं । इसे संपन्न करवाने वाला ही सच्चा योगी है । चित्त की वृत्तियों का निरोध होकर जहां पर द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाए, वही सत्य योग है । महर्षि पतंजलि उस स्थिति हेतु कथन कुछ यों करते हैं -
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।
    इसे आप कहीं भी कर सकते हैं लेकिन यदि पेड़-पौधों के मध्य, जंगल में, नदी तट पर, पहाड़ों पर या गुफाओं में इसका अभ्यास किया जाए तो फल शीघ्रता से मिलता है । निर्जनता इस हेतु आवश्य है - ऋग्वेद में कहा गया है -
उपह्नरे गिरीणां संगथे च नदी नाम् ।
धिया विप्रो अजायत ।। मण्डल 8, सूक्त 6, मंत्र 28

        धन्यवाद ।
21 जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस

Friday, June 3, 2016

सनातन भारतीय योग विद्या

          राष्ट्रवाद, स्वदेशी एवं मातृभूमि से जुड़ाव के प्रसंग में पांच पहलू अति-महत्त्वपूर्ण होते हैं । ये पांच पहलू हैं भाषा, भूषा, भैषज्य, भोजन एवं भजन । इनके बिना राष्ट्रभाषा, स्वदेशी, मातृभूमि से प्रेम एवं अपनी संस्कृति के अनुकूल जीना आदि की बातें कतई बेमानी एवं दोगलापन है । हम इन्हें अपने जीवन में अपनी संस्कृति व भूमि के अनुकूल स्थान न दें तथा विदेशी प्रतिकूल की भौंड़ी नकल करके अपने आपको मूढ़ सिद्ध करते रहें, तो यह हमारा आचरण किसी भी तरह से सभ्य नहीं कहा जाऐगा । लेकिन विडम्बना है कि इस असभ्याचरण यानि कि विदेशी की भौंड़ी एवं अन्धी नकल करके हम अपनी जड़ों से दूर हो रहे हैं और इसका दुष्परिणाम भारतीय सनातन जीवन मूल्यों के ह्रास के रूप में हम भारत में चहुंदिशि देख सकते हैं । अपनी निज भूमि से जिनकी जड़ें उखड़ गई हैं वे व्यक्ति, समाज, समूह या राष्ट्र कभी भी विकास के सही रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकते । विदेशों की अपेक्षा यह समस्या हमारे भारत में अधिक विकराल रूप धारण किए हुए है । वैसे तो भारतीयों को अपनी जड़ों से उखाड़ने, अपनी सभ्यता व संस्कृति से दूर करने या अपने जीवनमूल्यों का अपमान करके जीवनयापन करने का षड्यन्त्र भारत पर विदेशियों के आक्रमणों से ही शुरू हो गया था । लेकिन इसकी एक सुचारू शुरूआत इस्लामी बादशाहों ने की, जिसके अन्तर्गत उन्होंने हमारे प्राचीन स्मारकों को तोड़कर या उनमें आंशिक परिवर्तन करके उन्हें इस्लामिक रूप देकर शुरू कर दिया । विज्ञान, मनोविज्ञान व इतिहास का सहारा लेकिन इस षड्यन्त्र की सबसे विध्वंसकारी शुरूआत लाॅर्ड मैकाले व उनके साथियों ने की । इन्होंने सैकड़ों विभिन्न विषय के विशेषज्ञों को विश्व की देवभाषा संस्कृत सीखकर भारत की शिक्षा, समाज व्यवस्था, इसके धर्मग्रन्थ, इसके प्राचीन स्मारक, इसकी चिकित्सा, इसके सनातन प्रतीक, इसके भोजन, इसकी वेशभूषा, इसके आचरण, इसके नैतिक मूल्य, इसके चरित्र, इसके विज्ञान, इसके धर्म, इसके दर्शनशास्त्र आदि सबकी उल्टी-पूल्टी, पूर्वाग्रहग्रस्त, मूढ़तापूर्ण, भेदभावपूर्ण एवं विकृत व्याख्या करके भारतीयों को स्वयं की नजरों में नीचे गिरा दिया। उन सैकड़ों मानवता विरोधी षड्यन्त्री विचारकों ने चारों तरफ से भारत पर प्रहार शुरू कर दिए । उनका धन, सम्पत्ति, सुविधाओं, स्थान एवं कानून से भरपूर साथ दिया। उस समय की गौरी सरकार तथा ईसाईयत ने । यह सब कुकृत्य जीसस क्राईस्ट के प्रेम, सेवा व करुणा के उपदेशों को कूड़े के ढेर पर फेंककर हुआ । ‘पर्वत के उपदेश’ पड़े रह गए तथा कुचक्र रचे जाते रहे उस समय की अंग्रेजी सरकार द्वारा । इसके बाद 1947 ई॰ में भारत आशिंक रूप से आजाद हुआ तथा सत्ता आई उन हाथों में, जिन हाथों को प्रशिक्षित किया था भ्रष्ट एवं पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी सरकार ने । कांग्रेस ने भी लाॅर्ड मैकाले की कुनीतियों का अनुकरण किया तथा इन्हें भरपूर साथ मिला साम्यवादियों का । इन सबकी कुचेष्टाओं, सामन्तवादी सोच, स्वदेशी गलत-विदेशी सही की मूढ़ता, स्वदेशी व राष्ट्रवाद की उपेक्षा तथा अपनी जड़ों का अपमान करने की कु-प्रवति का दुष्परिणाम आज हमारे सामने है । हम लगभग अपनी जड़ों से कटकर जड़विहिन बन चुके हैं । हमारी अपनी जड़े हमारे पास हैं नहीं तथा विदेशी भूमि पर हम अपने आपको स्थापित नहीं कर पा रहे हैं । इसी से हमारी भाषा, भूषा, हमारा भोजन, भैषज्य व हमारा भजन-सबके सब विदेशी होकर रह गए है । हमारी दूषित शिक्षा, हमारी भ्रष्ट राजनीति, हमारे निठल्ले सुविधायोगी मठाधीश, हमारा प्रिन्ट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया तथा मोबाईल हमारे विनाश में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं । सकारात्मक की जगह सर्वत्र नकारात्मक बातें ही मिल रही हैं । सृजन की जगह सर्वत्र विध्वंश के अवसरों को महत्त्व दिया जा रहा है । योग की जगह सर्वत्र भोग को दिखाया जा रहा है । स्वास्थ्य को छोड़कर केवल निरोगता की बातें हो रही हैं । आन्तरिक शान्ति को छोड़कर सर्वत्र बाहरी कसरतों व नटबाजी को महत्त्वपूर्ण बताया जा रहा है ।
            वैसे ऊपर से हमें लग रहा है कि स्वामी रामदेव व श्री मोदी जी तो ठीक ही कर रहे है। । इन्होंने तो भारत की सनातन योग विद्या को समस्त धरा पर फैला दिया है । आगामी इक्कीस जून को ‘अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने की सहमति यू॰ एन॰ ओ॰ तक से मिल चुकी है । विश्व के 177 देश जिनमें 46 देश मुस्लिम हैं - सारे के सारे इस दिन योगाभ्यास करेंगे । भारतीय अधिसंख्य मुसलमान भाई इसका विरोध कर रहे हैं, यह एक अलग एवं दिलचस्प बात है । भारतीय हमारे ये भाई तो इस भारत धरती, इसके सनातन आर्य हिन्दू धर्म व इसके कर्मकाण्ड एवं इसके प्रतीकों का सदैव से विरोध करते आए ही हैं । यह कोई नई घटना नहीं है । हमारे ये भाई अपनी संकीर्ण साम्प्रदायिक एवं अवैज्ञानिक सोच हेतु शुरू से ही प्रसिद्ध जो रहे हैं । बड़ा हास्यास्पद है क्योंकि जो अपने आपको कट्टर मुसलमान मानते हैं। वे अरब देशों के मुसलमान योगाभ्यास करते भी आए हैं तथा अब भी करेंगे । लेकिन जो जबरदस्ती या प्रलोभन देकर हिन्दू से मुसलमान बने हैं - वे इस योगाभ्यास का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि यह इस्लाम विरोधी है ।
               बहुत शुभ है कि योग को वैश्विक मान्यता फिर से मिल रही है । पहले भी समस्त धरा के लोग योग करते थे लेकिन महाभारत युद्ध से आई विकृतियों तथा उसके बाद में भारत पर हुए विदेशी हमलों की वजह से भारत की यह विद्या कई क्षेत्रों से अपना प्रभाव खोने लगी थी। यहुदी, पारसी, ईसाई व मुसलमानों ने अपने-अपने सम्प्रदाय खड़े कर लिए तथा अपने मूल आर्य वैदिक हिन्दू धर्म के किसी एक पहलू या किसी एक सीख को अपनाकर इन्होंने अपने मूल का ही विरोध करना शुरू कर दिया । फिर यह विद्या-फिर यह अभ्युदय व निःश्रेयश से सम्पन्न विद्या भारत तक ही सिमट गई । आज एक बार फिर से इसका पुनरुद्धार हो रहा है । लेकिन दुःख व पीड़ा से कहना पड़ रहा है कि स्वामी रामदेव तथा माननीय प्रधानमंत्री श्री मोदी जी इस सनातन भारतीय योग विद्या को एक तो मुसलमानों व ईसाईयों का तुष्टीकरण करने हेतु इस विद्या के दुरुपयोग का काम कर रहे है। । ये व इनके नेता तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन भी यह घोषित कर रहे हैं कि योग विद्या का किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है । जबकि योग विद्या की खोज व इस पर कार्य वेदों से लेकर आज समकालीन युग में स्वामी दयानन्द, ओशो रजनीश, जिद्दू कृष्णमूर्ति तथा श्री राम शर्मा आचार्यों ने किया है। इसके बाद भी इस तरह की घोषणाएं क्यों? इस सम्बन्ध में झूठ को क्यों प्रचारित किया जा रहा है? प्रारम्भ में ही योग विद्या के प्रारम्भिक चरणों यम व नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं । 21 जून को मनाए जाने वाले ‘अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस’ पर योग के प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि नामक अंगों को बिल्कुल विस्मृत कर दिया गया है।
            दूसरा, योग के एक-दो अंगों को लेकर केवल इन्हीं को सम्पूर्ण योग कहकर प्रचारित करके इस योग विद्या से होने वाले बाहरी व भीतरी लाभों से मानवता को वंचित क्यों किया जा रहा है? इसके साथ-साथ इस विद्या को बदनाम करके भारतीय सनातन आर्य वैदिक हिन्दू संस्कृति को विकृत व्याख्या भी की जा रही है । योग को कलियुग के शुरू में व्यवस्थित रूप देकर 195 सूत्रों में निबद्ध करके ‘योगसूत्र’ जैसे ग्रन्थ को देने वाले महर्षि पतंजलि की अष्टांगयोग परम्परा को इस में कतई भूला दिया गया है । जो कुछ भी आजकल हो रहा है या आगामी इक्कीस जून को होगा, वह मात्र आसनयोग व प्राणायामयोग है, योग नहीं । इस सनातन योग विद्या, जिसके बारे में उपनिषद् ‘आत्मा वारे द्रष्टव्यः’ या ‘तस्मिन्द्दष्टे परावरे’ कहते हैं, जिसके बारे में महर्षि पतंजलि ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ कहते हैं, गीता ‘अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं तत्त्व ज्ञानार्थदर्शनम्’ कहती है तथा ओशो रजनीश एवं जिद्दू कृष्णमूर्ति जिसको बाहरी व भीतरी शुद्धि करते हुए होश व जागरण की क्रियारहित क्रिया कहते हैं - उसी सनातन भारतीय योग विद्या को मात्र देह के रोगों को दूर करने का साधन कहकर पूरी दुनिया में प्रचारित किया जा रहा है । मात्र कुछ आसनाभ्यास, कुछ प्राणायाम अभ्यास, कुछ मालिश, कुछ बाहरी कसरतों, व्यायामों तथा उछल-कूद को योग कहा जा रहा है । एक तरह से योग के सम्बन्ध में यह प्रचार मैकालेवादियों की तरह का स्वामी रामदेव व श्री मोदी जी का प्रचार है । भारतीय आर्य वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति का उन्होंने भी गलत, भ्रमित व पूर्वाग्रहपूर्ण प्रचार किया था तथा आज यही सब योग विद्या को लेकर हो रहा है । ध्यान रहे अर्धज्ञान अज्ञान से भी अधिक खतरनाक होता है।
-आचार्य शीलक राम (9813013065, 8901013065, 9992885894)